बद्रीनाथ पार्ट-2
एक बार उत्तरांचल अवश्य जाएं
बद्रीनाथ के शिखर पर शिव और साधु, पर्वतों पर परमात्मा बसते हैं, जो आशीर्वाद देकर दुःख-दुर्भाग्य का नाश कर डालते हैं।
क्या है उत्तराखंड का टिहरी गढ़वाल
आप हैरान हो जाएंगे यह जानकर की टिहरी गढ़वाल को सतयुग के शास्त्रों में त्रि-हरी क्षेत्र बताया है। टिहरी को त्रिहरी यानी ब्रह्मा- विष्णु- महेश ने बसाया था। कभी इन तीनों देवों का तीर्थ स्थान था टिहरी गढ़वाल। पूरी कहानी नीचे पढ़े-
क्यों लिखना है पड़ा यह- ब्लॉग–
पिछले 35 वर्षों में उत्तराखंड की अनेकों बार यात्रा करके यहां के चप्पे-चप्पे, गाँव, पहाड़, पर्वत और मंदिरों के दर्शन किये।
इस लेख में जो भी जानकारी प्रस्तुत है,
वह सब शास्त्रों, प्राचीन धर्म-ग्रंथों से
एवं साधु-संतों के बताये मुताबिक
संकलित की गई है। धर्म को लेकर भयभीत तथा भ्रमित करने वाली विषय-वस्तु को इस लेख में नहीं लिया गया है।
इंटरनेट पर बद्रीनाथ के बारे में बहुत से ब्लॉग पड़े हैं, किन्तु कहीं-कहीं बहुत भ्रमित कर दिया गया है। बद्रीनाथ का यह लेख 200 ग्रंथों के अध्ययन, अनुसंधान और अनेकों सिद्ध साधकों से इस तीर्थ की सच्चाई जानकर, तथा स्वयं के द्वारा 15 से 20 बार कई दिन की यात्रा करने के पश्चात बद्रीनाथ की यह सत्यकथा प्रस्तुत की जा रही है।
यात्रियों को क्या होगा फायदा
अमृतमपत्रिका द्वारा लिखा यह ब्लॉग तीर्थयात्रियों, श्रद्धालुओं तथा आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन का काम करेगा।
उत्तरांचल के इन सभी स्वयम्भू, स्वयं प्रकट स्थानों पर श्रद्धालुओं के वहां जाने से,उन पुराने मंदिरों का भी उद्धार होने लगेगा। उत्तरांचल के सीधे-सच्चे, ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों को रोजगार मिलेगा।
सत्य की खोज करने वाले दर्शनार्थी भटकाव औऱ भटकने से बचेंगे। बस एक बात का विशेष ध्यान रखें कि पर्वतों या एकांत की यात्रा के लिए किसी साधु-संत अथवा गाइड का साथ जरूर लेलें।
असली चार धाम तीर्थ जानिए। श्रद्धालु इन स्थानों की यात्रा क्यों करते हैं-
वर्तमान में चार धाम यात्रा के बारे में जिस भी श्रद्धालु पूछिए, वे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री बता देते हैं. जबकि इन्हें स्कन्द पुराण के केदारखण्ड में वास्तविक चार धाम न होकर छोटे यानि लघु चार धाम मानते हैं।
सनातन धर्म भारतीय धर्मग्रंथ तीर्थो का इतिहास में बद्रीनाथ (उत्तराखंड), द्वारकापूरी (गुजरात), जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) और रामेश्वरम ( तमिलनाडु) की चर्चा चार धाम के रूप में की गई है। चार पावन क्षेत्रों के अलावा आदि शंकराचार्य द्वारा बसाए गए चार मठ भी हैं।
यह जानकारी पिछले ब्लॉग में बता दी है।
यहां पहाड़ों में ही परमात्मा बसते हैं। ● शिखरों पर शिव या सिद्ध साधु सहज मिल जाते है, जो आपके संकट दूर करते हैं।
● नदी किनारे बैठ जाएं, तो विचारों में नवीनता आती है।
● जल की कल-कल बहती धारा, जीवन का सहारा बन जाती है।
उत्तराखंड की रहस्यमय और दुर्लभ जानकारियों के लिए इस लेख को पूरा पढ़कर अचम्भित हो जाएंगे। बद्रीनाथ के विषय में एक लेख पार्ट-1 पूर्व में वेबसाइट पर दिया जा चुका है।
पहला भ्रम दूर करें
ज्यादातर लोग उत्तराखंड के छोटे चारों धाम की यात्रा एक साथ करते हैं, जबकि अकेले बद्रीनाथ की यात्रा पूरी तसल्ली से की जाए, तो कम से कम 15 दिन का समय लग जाता है। बद्रीनारायण के आसपास बहुत से ऐसे रहस्य एवं धाम भरे क्षेत्र हैं, जिनकी जानकारी वेबसाइट पर डाली जा चुकी है। बद्रीनाथ के आसपास इन तीर्थों का दर्शन करके आप धन्य हो सकते हैं।
किस दिन से यात्रा शुरू करें उत्तराखंड के चारो धाम की-
गुरुवार से शुरू करे यात्रा-
ज्योतिष ग्रन्थ “महुर्त चिंतामणि” के अनुसार
उत्तरांचल की यात्रा के लिए गुरुवार के दिन से आरम्भ करना सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। गुरुवार से इस दिशा में शुरू की गई यात्रा से सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त होती है। सभी मनोरथ, मनोकामना पूर्ण होती है। इसके आलावा शुक्रवार, रविवार का दिन भी शुभकारी कहा गया है, लेकिन मंगलवार को भूलकर भी उत्तराखंड की यात्रा शुरू नहीं करना चाहिए, अन्यथा बहुत अनिष्ट होने की संभावना रहती है।
यात्रा का क्रम इस प्रकार है
सबसे पहले गंगोत्री के दर्शन करने जाएं, यहाँ अपने जाने-अनजाने, भूले-भटके पितृ-पूर्वजों के निमित्त जलदान करना चाहिए, जिसे पितरों को पानी देना कहा जाता है। यहाँ आसपास बहुत से शिवमंदिरों में से किसी भी एक शिवालय में पितृदोष की शांति के लिए अमृतम द्वारा निर्मित राहुकी तेल के 5 दीपक जलाकर रुद्राभिषेक या गंगाजल अर्पण करवाना चाहिए। लघु चार धामोों में पहला है। गरुड़ पुराण के अनुसार जब तक पितृदेवों की कृपा नहीं होती, तब तक गरीबी मिटती नहीं है।
अतः पितृदोष की शान्ति हेतु पुराणों के बताए मुताबिक निम्न क्रम से यात्रा करनी चाहिए।
गंगोत्री के आसपास के तीर्थ
केदार गंगा, भोजवासा, चीड़वसा गौमुख, तपोवन, आकाशगंगा, सप्तऋषि कुंड आदि अनेक तीर्थ है जिसकी जानकारी प्रथक से अगले नये ब्लॉग गंगोत्री की यात्रा नामक में दी जावेगी।
【2】दूसरा धाम
यमुनोत्री धाम की यात्रा
दूसरे नम्बर पर करें। यह तीर्थ सूर्यपुत्री यमुना को समर्पित है। यमुनोत्री से लगभग 2 km ऊपर पहाड़ पर वही स्थान है, जहां शनिदेव ने अपनी सौतेली बहन यमुना को नदी होने का शाप दिया था। इसके आसपास जानकी चट्टी, हनुमान चट्टी, महर्षि चट्टी आदि के नजदीक बहुत ही ऊर्जावान प्राचीनकालीन स्थान है। यहां अक्सर कुछ सिद्ध साधुओं के दर्शन हो जाते हैं।
कालसर्प दोष की शान्ति का उपाय–
यमुनोत्री ने स्थित गर्म जल के कुंड में स्नान करके सूर्य भगवान को जल में हल्दी, केशर मिलाकर अर्ध्य देना न भूलें। इस कुंड में घर से कुछ चावल, उड़द की खड़ी दाल कुंड में पकाकर घर पर लाकर, उसमें नमकीन मिलाकर कौओं-पक्षियों को खिलाना न भूले। यह प्रयोग कालसर्प की शांति में सहायक है।
यमुनोत्री के बारे में विस्तार से जानकारी एक नवीन अगले लेखों में दी जावेगी।
【3】तीसरा धाम
कष्ट काटें केदारनाथ
तीसरी यात्रा केदारनाथ की करनी चाहिए।
केदारनाथ शिंवलिंग में गणेश की उत्कीर्ण प्रतिमा के दर्शन जरूर करना चाहिए। केदारनाथ के पास ही उदक कुंड का जल घर पर लेकर जरूर रखें। यह जल वस्तु दोष, नजर इत्यादि का अद्भुत उपाय है। यहाँ भैरोंनाथ, रतिकुण्ड, ईशानेश्वर, ब्रह्मकमल, वासुकीताल के दर्शन कर सकें, तो भाग्योदय कारक होता है।
केदारनाथ के नीचे गौरीकुंड में पितृ-मातृ कुंड में स्नान जरूर करें। यहीं से पास में गुप्तकाशी, कालीमठ, पहाड़ी पर स्थित सिरकटे गणेश, त्रियुगीनारायण और बहुत से सिद्ध तीर्थो के दर्शन करना न भूले। इन सबकी पूरी जानकारी आगे नये लेख में दी जावेगी।
【4】चौथा धाम है-बद्रीनाथ
क्या है बद्रीनाथ का शास्त्रीय महत्व-
संस्कृत हिंदी कोष में बदरिका का अर्थ बताया है कि जहाँ बेर फलों का वन हो,
“अन्ये बदरिकाकारा वहिरेव मनोहरा”
गंगा की एक धारा, जो अलकनन्दा नदी के पास- नर और नारायण पर्वत के निकट स्थित है, इस मनोरम तीर्थ को ही बद्रीनारायण कहते हैं।
बादनारायन का अर्थ है, बेर वन में तपस्या करने वाला उद्ययान
. चार धाम यात्रा से लाभ
चार धाम यात्रा क्यों करते हैं, इसके बारे में अलग-अलग शास्त्रों में विभिन्न लाभ बताये हैं। तीर्थयात्रा से होने वाले फायदे हमने अमरनाथ लेख में दे दिए हैं।
हमारे सदगुरुओं ने जीवन के चार प्रमुख कारण बताये हैं। ही किसी को कभी न कभी इन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।
【१】घाटा– बिना घाटा उठाये या बिना किसी नुकसान के जीवन गुजार पाना बहुत मुश्किल कार्य है। घाटे या हानि को सबसे बड़ा गुरु बताया गया है। घाटा होने के बाद व्यक्ति अनुभवी हो जाता है, जो उसकी उन्नति का आधार बनता है।
【२】घाटी-यात्रा का आनंद घाटियों में है। घाटी की माटी तन-मन, आत्मा को पवन-पावन बना देती है। घाटी के घट-घट में ईश्वर का वास रहता है।
【३】बाधा-जीवन में बाधा या रुकावटें कभी पीछा नहीं छोड़ती। बाधा और राधा बिना जीवन अधूरा है। इस अधूरेपन को मिटाने के लिए हम सब राधा-राधा भजते हैं। राधा नाम की धारा मन-मस्तिष्क के विकार धो डालती है। राधा नाम से सारे अवरोध दूर होकर भाग्योदय होने लगता है।
【】व्याधि-व्याधि यानि विकार, रोग, बीमारी, शारीरिक तकलीफें। तन में रोगप्रतिरोधक क्षमता की कमी होना, आत्मविश्वास की कमी, मन की उलझने, परेशानियां आदि ये सब व्याधि कहे जाते हैं। आधि-व्याधि दोनों अलग होती हैं इनमें क्या अन्तर है यह जानने के लिए पुराने लेख हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।
अध्यत्मिक लाभ
कुछ आदिकालीन गुरु ग्रन्थ उल्लेखित करते हैं कि यह तीर्थयात्रा न सिर्फ दुःख-दुर्भाग्य, दोष, गरीबी तथा पापों से मुक्त करती है बल्कि जन्म और मृत्यु के चक्र से परे ले जाती है अर्थात मोक्ष या मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। उत्तराखंड के धामों के दर्शन से निश्चित ही दुर्भाग्य का नाश होता है।
क्या है टिहरी गढ़वाल – उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल मंडल का एक प्राचीन और प्रसिद्ध
लोकप्रिय जिला है, जिसे त्रिदेवों ने बसाया था। घाटी-पर्वतों के बीच स्थित यह जगह
प्राकृतिक सौन्दर्य से लबालब है। हर साल यहां बड़ी संख्या में विदेशी और भारतीय
श्रद्धालु, तीर्थ यात्री व पर्यटक प्रकृति का आनंद लेने के लिए आते हैं। टिहरी घूमने आप किसी भी मौसम में आ-जा सकते हैं।
तीन पवित्र नदियों का संगम है– त्रिहरी में
नदियों की बलखाती लहरों की सौन्दर्य युक्त खूबसूरती हजारों पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है।
यहां तीन नदियों का संगम है।
1- भागीरथी,
2- भिलंगना
3- घृत गंगा या तीन कोने नदी से घिरे होने के कारण इस जगह को त्रिहरी व फिर टीरी व टिहरी नाम से जानते हैं।
टिहरी गढ़वाल दो शब्दों से मिलकर बना है , जिसमे टिहरी शब्द “त्रिहरी” से बना है , इसका अर्थ है ऐसा स्थान जो तीन तरह के पाप मनसा, वाचा और कर्मणा यानि मन के द्वारा, कर्म तथा वाणी करने के कारण जो भी पाप भूलवश हो जाते हैं, उन पापों को
मिटाने का काम करता है।
वही “गढ़” का अर्थ है ‘किला’। इसके पीछे का एक लम्बा इतिहास है | सन 888 से पूर्व सारा गढ़वाल छोटे-छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था , जिसमे अलग अलग राज्य के राजा राज करते थे , जिन्हें ‘राणा’ , ‘राय’ या ‘ठाकुर’के नाम से जाना जाता था।
यह लेख अभी अपूर्ण है
अभी बहुत सी बातें बताना शेष है, जिसे पार्ट-3 में दिया जाएगा
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