मंडुकोपनिषद में कहा गया है कि स्वास्थ्य ही सुंदरता है।
हेल्थ इज ब्यूटी अमृतम का यही वाक्य सूत्र है। इस लेख में सभी जानकारी अनेक धर्मग्रंथों और अमृतम लाइफ स्टाइल बुक से ली गई हैं…
दौलत क्या है…
आयुर्वेद संहिता के एक श्लोकानुसारमन का भटकाव, चंचलता एवम चित्त की अशुद्धि ये दो-लत से दूर व्यक्ति हीअथाह दौलत का स्वामी है। लत कोई भीहो, वह पथभ्रष्ट कर देती हैं। दशरथ रूपी देह को रथ के घोड़ों की तरह लगाम आपको हो लगानी पड़ेगी। धन के बलबूते आप तन को स्वस्थ्य तथा मन को प्रसन्न नहीं बना सकते।
अतः शरीर को दौलत और तकदीर मानो।
जैसा सोचेंगे, वैसे हो जाओगे…
– स्वामी रामतीर्थ ने अपनी आत्मकथा में ठीक ही कहा है…आप जैसा सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं।यदि आप अपने को पापी कहेंगे, तो पापी हो जाएंगे। मूर्ख कहेंगे तो मूर्ख बन जाएंगे। निर्बल कहेंगे, तो निर्बल बन जाएंगे और यदि आप अपने को शक्तिमान कहेंगे, तो शक्तिमान बन जाएंगे। सोच को बदलते ही सितारे बदल जाते हैं।अनुभव कीजिए कि आप सब शक्तियों के भण्डार हैं, आप निर्बल, रोगी नहीं हो सकते। अपने मन में कहिए…मैं पूर्ण स्वस्थ हूं ! अष्टांग ह्रदय ग्रंथानुसार शरीर की चिन्ता छोड़ते ही आप स्वस्थ्य होते जायेंगे।अपने मन में बराबर यही दोहराइए कि में पूर्णता स्वास्थ्यरूप हूं। स्वास्थ्य पर मेरा अधिकार है।
बीमारी की वजह...
दूषित विचार ही विकार की जननी है विकार ही रक्त में अवरोध से बी.पी., तनाव, क्रोध, मानसिक असंतुलन की समस्या होने लगती है।
प्राकृतिक चिकित्सा में सहायक आत्मविश्वास…
जिस मनुष्य के मन में आत्मविश्वास की भावना नहीं, वही दुर्बल, बीमार है। आत्मविश्वास का अर्थ है— अपने स्वामी आप बनना। बात देखने में साधारण लगती है; परन्तु इतनी साधारण है नहीं। लोभ सामने आने पर अपनी इन्द्रियों को वश में करना कठिन हो जाता है।ऐसे समय मन को जो व्यक्ति वश में रख सकता है, वह कभी बीमार नहीं हो सकता।
यदि आप किसी अस्पताल, नर्सिंग होम या किसी प्रसिद्ध डॉक्टर के यहां जाएं तो आप वहां रोगियों की लंबी कतारें लगी हुई देखेंगे।
इन्हे देखकर ही तंदरुस्त आदमी भी आधाबीमार हो जाता है।आत्मविश्वास का अभाव के कारण अस्पतालों में रोगियों की भीड़ भी बढ़ती जा रही है।
संसार में पर्वतों को भी हिलाने वाली शक्ति है- आत्मविश्वास। यदि नहीं है, तो हमें अपने आपको मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं है। बीमारियों को अपने से दूर रख यदि स्वस्थ रहने की कामना है, तो अपने अन्दर अपनी स्वास्थ्य के प्रति अटूट विश्वास पैदा कीजिए।स्वयं पर भरोसे से आपका जीवन नीरोग हो जाएगा।
यह एक रहस्य की बात है। अभ्यास, प्रयत्न करने के उपरान्त आप स्वयं देख सकते हैं।
किसी मनुष्य को इस शरीर की अधिक चिन्ता नहीं करनी चाहिए। ईश्वर से यह मत मांगिए- ‘हे ईश्वर ! मुझे स्वस्थ कर दे।’
बल्कि आप कहिए– ‘मैं पूर्ण तंदरुस्त हूं।’
वह जीवित नहीं है, मृतवत है…
आत्मविश्वास खोने, न होने से हम बीमार होते हैं। जब तक हम प्रबल रहते हैं, जब तक हम अपने स्वामी बने रहते हैं, तब तक हमसे रोग और कष्ट दूर रहते हैं। जो मनुष्य दिव्य भावना में निवास पर पूर्ण विश्वास नहीं करता, वह चाहे जहां रहे, कितनी शान से रहे, धन-समृद्धि ये भरपूर रहे किन्तु वह स्वस्थ नहीं रह सकता।
समृद्धि और स्वास्थ्य.…
अधिकांश धनशाली लोग अपना आधा जीवनचिकित्सक एवं हॉस्पिटल के चक्करों में बर्बाद कर देते हैं।
संयुक्त राज्य अमरीका के लोग विश्व में सबसे धनाढ्य हैं, विज्ञान में सबसे आगे बढ़े हुए हैं, चन्द्रलोक तक हो आए हैं परन्तु वहां गंभीर रोगों से पीड़ित लोगों की संख्या सबसे अधिक है। कितनी मजेदार बात है— वैज्ञानिक उपकरण, सर्वाधिक दवाइयां बनाने वाले कारखाने, आधुनिक अस्पताल, डॉक्टर, योग्य नर्स दुनिया में सबसे अधिक और — और मरीज़ भी बेशुमार। फिर भी वहां का प्रायः प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को किसी न-किसी रोग से पीड़ित मानता है।सबका कारण है- आत्मविश्वास का अभाव, अपनी स्वस्थता के बारे में शंका, सन्देह और फिर चिन्ता, तनाव, भय, भ्रम।
आत्मविश्वास का एक उदाहरण लीजिए—हाथी तथा सिंह के शरीर में कितना अन्तर होता है ! परन्तु सिंह आत्मविश्वास से भराहोता है।
हाथी को अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं होता, इसीलिए वह झुण्ड बनाकर रहता है। सिंह का शरीर छोटा है, परन्तु साहसी है।
जैसा विचार, वैसा मनुष्य का आकार...
अच्छे विचारों वाले अच्छे बनेंगे, बुरे मनोरथों वाले बुरे बनेंगे। जैसा विचार करोगे, वैसा बन जाओगे।
यदि आपके मन में पुष्प का विचार होगा, तो आप पुष्प के समान रूप वाले बन जायेंगे।अगर संकल्प हीन हैं, तो बुलबुल की तरह व्याकुल बन जाएंगे। ईश्वरोपनिषद सूत्र के मुताबिकदुःखों का विचार करने वाला दुःखों को और सुखों का विचार करने वाला सुखों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
जैसा आपका संकल्प होगा, उसे आपके अन्तःकरण की शक्ति अवश्य पूर्ण कर देगी। आपमें ऐसी शक्तियां मौजूद हैं, जिनसे आप देवताओं की समता कर सकते हैं।
देवताओं का अर्थ है- प्रकृति की शक्तियां!स्वामी रामतीर्थ ने कहा है, “यदि आप वेदों के अनुकूल आचरण करें, तो देवों तक पहुंच सकते हैं। अपने आत्मविश्वास तथा निश्चय की शक्ति से आप प्राकृतिक शक्तियों को आकर्षित करके अपने वश में कर इस प्रकार आप देवताओं के बराबर बन सकते हैं। बुरे विचारों ने आपके हृदय में स्थान बना लिया, तब से आपकी दशा बदल गई ।”
विश्व गुरु भारत जैसे देश में आज अधिकांश लोग दवाइयों और डॉक्टरों के गुलाम हो गये हैं और सवेरा होते ही कहने लगते हैं –
क्या एलोपैथिक आवश्यक है?…
क्या डॉक्टरी चिकित्सा (ऐलोपैथिक पद्धति) का विकास व्यर्थ है ? क्या अंग्रेजी दवा विज्ञानका विकास किसी काम का नहीं ?
इस प्रश्न का उत्तर रामतीर्थ ने बहुत सुन्दर रूप में दिया है—“तनिक आप होश में आ जाइए। जरा गम्भीरता से विचार तो कीजिए, तब आपको विदित होगा कि ये सब रेलें, तार, तोपें, बन्दूकें, वाष्प-इंजन, कारखाने आदि जिनकी तारीफ से फूले नहीं समाते हो, एक इंच बराबर भी प्राचीन ऋषियों की खोज के मुकाबले आनन्द नहीं प्रदान कर रहे।
तीर्थ का मतलब इतना ही है कि इन नये शोध तथा अतिथियों का उचित मूल्यांकन कर उन्हें उचित सम्मान दीजिए, किन्तु ऐसा न करें कि घोड़ा खरीदा था सवारी करने को, उल्टे वह सवार को ही कुचल कर भाग गया।
केसे होते गए गुलाम...
ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति का अनुसरण करके हम अपने शरीर के स्वामी नहीं रहे, बल्कि प्रकृति की छोटी से छोटी चीज व सूक्ष्म रोगाणुओं के दास हो गए हैं।अपने को उनके सामने दुर्बल मानने लगे हैं।
प्राकृतिक चिकित्सक डॉ० हेरी बेंजामिन लिखते हैं-
“Disease, in short, in the result of man’s own follies and mistakes which Nature is doing her best to rectify.
संक्षेप में, रोग, मनुष्य की अपनी मूर्खताओं तथा भूलों का ही परिणाम हैं जिन्हें दूर करने के लिए प्रकृति अधिक से अधिक प्रयत्न करती है ।
मनुष्य के आत्मविश्वास भंग होने का ही यह परिणाम है कि आज नये से नये रोग पैदा हो रहे हैं – न्यूरस्थीनिया, अनीमिया, कैंसर, गठिया, डायबिटीज, गुर्दे के रोग, ब्रांकाइटिस, हृदय रोग, फ्लू, डेंगू, बीपी, मधुमेह, बांझपन, वातरोग, इत्यादि इत्यादि। ज्योंज्यों इन रोगों को दूर करने के उपाय किए जा रहे हैं, त्यों-त्यों रोगों की संख्या और भयंकरता भी बढ़ती जा रही है।
कारण क्या है?
कारण यह कि इलाज के नाम पर ऐसी-ऐसी विषैली रसायनिक दवाइयां शरीर में पहुंचाई जाती कि एक रोग दबता है, तो दूसरा रोग भयंकर रूप धारण करके उठ खड़ा होता है।
इस संसार में ऐसे असंख्य व्यक्ति हैं, जो समझते हैं कि औरों के पास जो स्वास्थ्य है, वह हमारे लिए अलभ्य है। वे अच्छे स्वास्थ्य की आशा कभी नहीं कर सकते। वे समझते हैं – आरोग्य उन्हीं के लिए है जो सौभाग्य के चहेते हैं।
इस प्रकार के व्यक्ति नहीं जानते कि अपनी इस मानसिक वृत्ति के कारण अपनी कितनी हानि करते हैं। इस मनोवृत्ति का नाम है – अपना अवमूल्यन, अपनी शक्तियों को कम समझना, अपने शरीर की सामर्थ्य को घटिया मानना। ऐसे विचारों से ग्रस्त लोग अपने लिए सुन्दर स्वास्थ्य की मांग या आशा नहीं करते।
याद रखिए…जैसा नक्शा होगा, वैसा ही भवन बनेगा। आपके अन्तःकरण केसामने जैसी आपकी मूर्ति होंगी, वैसी ही आपकी मूर्ति तैयार होगी।
मनुष्य जब अपने दूषित वातावरण एवम मोहमाया के घेरे से बाहर निकलकर एक तटस्थ के रूप में आत्म-निरीक्षण करता है, तभी वह अपने को पहचान पाता है। तब उसके देवत्व दिव्य गुण जागृत होकर उसमें दैवीय शक्ति का संचार होता है।
परमहंस अखंडानंद जी कहते थे –
“प्रत्येक मनुष्य में एक अद्भुत शक्ति है, जिसकी न तो वह स्वयं और न कोई अन्य व्यक्ति कल्पना कर सकता है। यदि किसी ऐसे एक्स-रे का आविष्कार कर लिया जाए, जो हृदय -आत्मा की शक्तियों को दिखला सके, तो मानुष अपनी आन्तरिक शक्तियों को देखकर चकित हो जायेगा।
बरगद से भी विशाल है -मानव मन…
मन की मजबूती, इच्छाशक्ति और संकल्प से मनुष्य आकाश, पाताल की थाह पा सकता है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक नन्हे-से वट-बीज से बरगद का विशाल पेड़ बना है? यदि इस तुच्छ वट-बीज में यह शक्ति है कि इतने ऊंचे, लम्बे-चौड़े वृक्ष को जन्म दे सके, तो मनुष्य के विचारों में ऐसी शक्ति क्यों नहीं हो सकती? आत्मविश्वास, ऊंची इच्छा, स्वास्थ्य की उद्दाम आकांक्षा, अपने आपकी पहचान, प्रबल कार्य शक्ति, तन्मयता- यह है विकास का- क्रम।
बहुत से लोग आत्मविश्वास की शक्ति पर शंका प्रकट करते हुए कहा करते हैं –”विचारों से क्या होता है? भोजन का विचार करने से पेट तो नहीं भर सकता।”इस प्रश्न का उत्तर उपनिषदों में बहुत सुन्दरता से दिया गया है…
यन्मनसा ध्यायति, तद् वाचा वदति।
यद् वाचा वदति, तत् कर्मणा करोति।
कर्मणा करोति, तत् अभिसम्पद्यते।
अर्थात -मनुष्य जो कुछ मन से सोचता है, उसे वाणी से कहता है। जैसा वाणीं से कहता है, उसे ही कर्म से करता है। जैसा कर्म करता है, वैसा ही परिणाम तैयार हो जाता है ।सत्य यही है कि रोग का विचार पहले मन में आता है। मनुष्य भयग्रस्त या त्रस्त हो जाता है। उल्टे-सीधे काम करता है और रोग भयंकर रूपधारण करके सामने आ खड़ा होता है।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टेनीसन ने कहा है
स्वामी विवेकानंद ने कहा था…
My strength is as the strength of ten, Because my heart is pure.
– (मेरी शक्ति दस मनुष्यों की शक्ति के बराबर है, क्योंकि मेरा हृदय स्वच्छ है)
काशी के प्रसिद्ध शिव संत श्री श्री विश्वनाथ यति जी महाराज कहते थे -हमारी विचार-चेतना का स्वरूप अनुभूतियों से निर्मित होता है, और प्रज्ञा केवल उसका ह्य रूप है। मन की चर्चा करते हुए जिस भाग की सामान्यतः हम उपेक्षा कर देते हैं, वह उसका आवश्यक भाग है; अर्थात् अनुभूतियां ही शासन करती हैं, बुद्धि,तो उनकी दासी है। ” नौकर ( मस्तिष्क ) में सुधार करने से अधिक लाभ नहीं, जब तक कि हम मालिक (मन) में सुधार न करे।
तैलंग स्वामी जी अनुसार महादेव से कुछ भी मांगो और वह तुम्हें मिलेगा, खटखटाओ और द्वार तुम्हारे लिए खुल जाएगा।
चित्रकूट के शिवानंद जी कहा करते थे कि प्रत्येक कामना तथा प्रत्येक दृढ़ निश्चय किसी समय पूरा होने का वचन देता है। बाग में दिखाई देने वाली हर एक कली अपनी उम्मीद पूरी हुई देखती है। कभी न कभी वह फूलती है, खिलती और फलती है। इस विश्व में कोई भी कोशिश, कोई भी शक्ति तथा कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती।
अपने मन में अपने स्वास्थ्य की भावना को अपने आत्म विश्वास को दृढ़ कीजिए –शक्ति का दृढ़ आग्रह कीजिए, उद्यम से स्वास्थ्य का संरक्षण कीजिए। मन से सब प्रकार के भय, शंका आदि भावों को दूर भगाइए । अपने शरीर को स्वयं संभालिए। रसायनिक अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के दास न बनिए।
मन की मर्जी ही मरीज बनाती है...
प्राकृतिक या आयुर्वेदिक चिकित्सा में परहेजव्रत, लंघन आदि बहुत कठिन है। यह न खाबो, वह न खाओ, उपवास करो। लेकिन तंदुरुस्ती के लिए यह बहुत जरूरी है।प्राकृतिक चिकित्सक तो कहेगा – सबसे पहले लंघन करो, अर्थात् एक वक्त का खाना छोड़ो- कुछ मत खाओ। यह सत्य है कि यदि आप मन की, इन्द्रियों की गुलामी नहीं छोड़ सकते, तो रोग आपका पिड़ क्यों छोड़ेगा? भारत के ऋषि-मुनि कोई मूर्ख नहीं थे। रोग का कारण बताते ही उन्होंने पहली बात यह कही है
मिथ्याहारविहाराभ्याम्
अर्थात ग़लत भोजन और विहार से रोग होते हैं।
आयुर्वेद अध्यात्म से जोड़ता है...
अन्य चिकित्सा पद्धतियां रोग का इलाज करती जबकि आयुर्वेदिक एवम प्राकृतिक चिकित्सा रोगी का इलाज करती है।
देशी दवा खाने से मन शांत होता है। क्योंकि इसका असर आत्मा की शुद्धि पर होता है।ऐलोपैथी में खून, टट्टी, पेशाब, थूक आदि की परख की जाती है, एक्स-रे तथा विभिन्न उपायों से रोग का निदान किया जाता है और कई बार तो निदान करते-करते रोगी के प्राण-पखेरू कूच कर जाते हैं, और उसके बाद डॉक्टर कहते हैं—”इस रोगी का निदान बहुत वैज्ञानिक विधि से तथा बिल्कुल ठीक हुआ है। एलोपैथिक डॉक्टर्स को रोगी से कोई लगाव नहीं होता। वे केवल पैसा ऐंठना चाहते हैं।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत…
।।मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।। –
(श्रीमद भागवत गीता)
अर्थात मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है। तूफान हो या भूकम्प, बाढ़ हो या अकाल, रोग फैला हो या युद्ध शुरू हो गया हो, तो मन की निर्भयता को कभी न छोड़ो।
हम जिये भी तो इस तरह जिये,
जैसे तूफ़ान में जल रहे हों दिये।
आत्मविश्वास ही जीवन के प्रति निष्ठा का नाम है, जो अपने ऊपर शासन नहीं करेगा, वह हमेशा डॉक्टरों और दवाइयों का गुलाम बना रहेगा।
ठीक ढंग से रहन-सहन, खान-पान तथा जीवन-यापन न होने के कारण मनुष्य की शक्ति क्षीण हो जाती है। इस प्रकार वह अपने पांव पर आप ही कुल्हाड़ी मारता है।
यदि आप किसी व्यक्ति को दीर्घ आयु वाला तथा स्वस्थ (नीरोग) पाएं, तो समझ लीजिए कि वह व्यक्ति अपने जीवन को बहुत ही संयम से व्यतीत किया होगा।
माधव निदान पुस्तक के हिसाब से जब तक मन में अस्वस्थता, रोग और बुढ़ापे के विचार नहीं आते, तब तक मनुष्य अस्वस्थ, रोगी तथा बूढ़ा भी नहीं हो सकता।
देवरहा बाबा की उम्र अज्ञात रही।उनका कथन है कि आप १०० वर्ष तक आराम से जी सकते हैं। मन में उत्साह है, यौवन की आकांक्षा है, जब तक आप मिथ्या आहार-विहार के दास नहीं होते।
उतावला सो बावला.….
दो दिन उपवास, लंघन करने की बजाय दस दिन अस्पताल में बिस्तर पर पड़े रहने वाले अपने को बुद्धिमान, ज्ञानी, धनशली, युगानुरूप प्रगतिशील कहें, तो उनकी बुद्धि की बलिहारी है। बार बार बीमार होने वाले या हमेशा रोग राग से परेशान लोग अक्सर नई नई, उपाय, टोटका कोई आसान और छोटा रास्ता ढूंढते और आजमाते मिल जायेंगे, लेकिन विश्वास न होने से सदा भटकते रहते हैं।
आयुर्वेद मानता है कि प्रत्येक मनुष्य की शरीर स्थिति, बल, विकार आदि में अन्तर होता है। प्राकृतिक उपचार करने से पूर्व रोगी की वास्तविक दशा का अध्ययन करके, उसी के अनुरूप हमारे आयुर्वेदाचार्यों ने बताए हैं।
ऐलोपैथिक पद्धति की भयंकरता का चित्रण करते हुए प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक हेरी बेंजामिन अपनी पुस्तक, ‘एवरीबडी’ज गाइड टु नेचर क्योर‘ में लिखते हैं
“One would imagine, from the way the medical profession speak, that one tiny little germ or bacillus (countless pin) thousands of which could scarcely cover the head of a has to enter the body of a ‘healthy’ individual for that individual to be stricken with some fell disease or other. Perhaps typhoid! Perhaps cancer! And modern man goes around terrified out of his life because of the existence of these tiny creatures which he endows with such malevolent properties, and which he believes are always threatening him, and which only the most powerful microscope can reveal to his shuddering gaze.
– अर्थात् डॉक्टरी पेशे वाले जिस ढंग से बात
करते हैं, उससे यही कल्पना की जा सकती है कि एक नन्हा-सा सूक्ष्म रोगाणु या जीवाणु (जिनकी अगणित सहस्र संख्या एक पिन के सिरे को भी मुश्किल से ढक सकती है) एक ‘स्वस्थ’ आदमी के शरीर में घुसता है, ताकि वह व्यक्ति किसी एक या दूसरे बुरे रोग से ग्रस्त हो सके । शायद तपेदिक। शायद कैंसर और आधुनिक मनुष्य भयभीत होकर इधर-उधर भाग रहा है, मानो उसकी जान निकल रही हो—केवल इस कारण कि इन जीवाणुओं का अस्तित्व है जिन्हें मनुष्य ने उन विशेष (रोगजनक) तत्त्वों से मुक्त मान लिया है और जिनके बारे में मनुष्य का विश्वास है कि वे जीवाणु सदा उसे धमकी देते रहते हैं जिन्हें कि सर्वोच्च शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शक यन्त्र द्वारा भयकम्पित दृष्टि से देखा जा सकता है।
कितनी पराधीनता है।
मनुष्य जो कि स्थावर, जंगम, अंडज और उद्भिज – चारों प्रकार की सृष्टि में सर्वोत्तम सृष्टि है, जो अपने ज्ञान-विज्ञान में किसी को भी अपने समान नहीं मानता, उसी को ये नन्हें, सूक्ष्म, अदृश्य, केवल सूक्ष्मदर्शी यन्त्र द्वारा ही दृश्य जर्म्स तथा बैक्टीरिया भयवस्त कर रहे हैं ! कंपा रहे हैं !
स्मरण रखें कि हमारे शरीर में तो जर्म्स और बैक्टीरिया हर समय विद्यमान रहते हैं। वे शरीर के कार्यकलाप में महत्त्वपूर्ण भाग लेते हैं, खास कर ध्वंस ( टूट-फूट ) की प्रक्रिया में हमारे शरीर में निर्माण तथा ध्वंस की प्रक्रियाएं हर समय चलती रहती हैं। हमारे शरीर के कुछ सेल्ज़ टूटकर गिरते रहते हैं और कुछ नये सेल्ज का निर्माण होता रहता है। यह कार्य दिन-रात होता रहता -निद्रा हो या जागरण — चाहे हम जाने या न जानें ध्वंस और निर्माण, निर्माण और ध्वंस की यह प्रक्रिया हमारे शरीर के भीतर हर समय जारी रहती है।
जब सजीव सेल्ज़ मर जाते हैं, तब वे तुरन्त ही उन सरल रासायनिक तत्त्वों में परिणत होने लगते हैं, जिनसे उनका निर्माण हुआ होता है।
इन मृत सेल्ज़ को तोड़फोड़कर पुनः मूल रासायनिक तत्त्वों का रूप देने में ,प्रकृति असंख्य जर्म्स तथा बैक्टीरिया को काम में लगाती है।
हम सब जानते हैं कि जब कोई जानवर मर जाता है, तब यदि उसे दफ़नाया न जाए, तो वह शीघ्र ही सड़ने लगता है।
यह सड़ने की प्रक्रिया क्या है ? —यह है सजीव सेल्ज़ का टूट-फूटकर उन मूल रासायनिक तत्त्वों में परिणत होना, जिनसेउनका निर्माण हुआ था। इस परिवर्तन में जर्म्स तथा बैक्टीरिया ही सक्रिय होते हैं। इस क्रिया को करना उन्हीं का काम होता है । वह प्रकृति की क्रिया धारा का उसी प्रकार अंग है, जैसे कि अन्य प्राकृतिक क्रियाएं तथा घटनाएं।
आयुर्वेदिक चिकित्सा केसे करे…
वैसे तो घरेलू, देशी इलाज के बारे में हजारों किताबें भरी पड़ी हैं। गुगल आदि सोशल मीडिया पर भी जानकारियों का भंडार है। जिन्हें पढ़करलगता है कि इन्हें आयुर्वेद या घरेलू नुस्खों का कतई ज्ञान नहीं है। जैसे -हल्दी एक चम्मच हल्दी यानि 10 से 15 ग्राम एक जिनमें खाने की सलाह दी गई है, जबकि द्रव्यगुण विज्ञान के अनुसार केवल कफ प्रकृति वालों को ही एक दिन में हल्दी का सेवन 25 से 50 मिलीग्राम से अधिक नहीं करना चाहिए अन्यथा पित्त की समस्या पैदा होगी।नीम, करेला, लोकी, अदरक की भी मात्रा अत्यंत अल्प मात्रा में ही लेना हितकारी रहता है। कोई भी चूर्ण पचने में बहुत समय लेता है।अतः चूर्ण की मात्रा एक में 3 से4 ग्राम तक निर्धारित की गई है। पत्ते चाहें तुलसी के हों, नीम, बेलपत्र या अन्य कोई भी हों एक दिन में 3 पत्तों से ज्यादा नहीं खाना चाहिए।
अमृतम मार्गदर्शन...
अमृतम द्वारा 200 से अधिक आयुर्वेद की प्राचीन पांडुलिपियों, ग्रंथ का गहन अध्ययनकरके लगभग 125 तरह की सर्व रोग हर ओषधियां का निर्माण किया है, जो ओनलीऑनलाइन ही उपलब्ध हैं। एक बार
amrutam.co.in पर सर्च करशुद्ध देशी दवाओं के बारे में जाने और इन्हेएक बार अपनाकर देखें। अमृतम दवाएं आयुर्वेद की 5000 साल पुरानी पद्धति मुताबिक निर्मित होती हैं। यह एक महिला उद्योग है। इस कंपनी की फाउंडर श्री मति चंद्रकांता जी हैं, जो परम शिव भक्त एवम भावुक और न्यायप्रियमहिला हैं।
अमृतम ओषधियां रोगों मिटाने के साथ साथ भाग्योदय कर्क सिद्ध होंगी। ऐसा भोलेनाथपर भरोसा है और महादेव से प्रार्थना भी।
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Amrutam is an Ayurvedic Lifestyle Brand & Wellness Community that believes in and endorses the idea – Health is Beauty, which means if you are healthy, you are beautiful. Our recipes are inspired by the Vedic Principles and are made with a lot of love, care and prayers.
Country Of Origin : India
Shelf Life : 18 months
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