● कनागत या कड़वे दिन और श्राद्ध पक्ष का ज्योतिषीय एवं वैज्ञानिक महत्व
और जाने
● सृष्टि के प्रथम पितृगण भगवान महादेव के साढू हैं
● राजा कर्ण लोटे थे प्रथ्वी पर…
● ग्रह-नक्षत्र भी बीमार होते हैं..
● ईशानां सर्वविद्यानां-ईश्वरा सर्वभूतानां
● महादेव के वश में हैं पंचतत्व…
● श्राद्ध क्या है –
● अनंत चौदस का महत्व..
● पितृदोष कैसे पनपता है–
जाने बहुत सी दिलचस्प और दुर्लभ जानकारी शास्त्रों के मतानुसार…
अश्वनी मास यानि कुँवार कृष्ण पक्ष के 15 दिन श्राद्ध पखवाड़ा यानि पितृ पक्ष के नाम से शास्त्रों में वर्णित है। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों तक पितरों का समय, पितृपक्ष यानि कनागत कहलाता है।
कनागत की कहानी –
कन्यागत शब्द का अपभ्रंश होकर कनागत हो गया।अश्विन मास यानि कुँवार महीने के कृष्ण पक्ष के समय सूर्य कन्या राशि में अर्थात कन्यागत स्थित होते हैं। सूर्य के कन्यागत होने से ही इन 16 दिनों को कनागत या कड़वे दिन कहा जाता है।
राजा कर्ण लोटे थे प्रथ्वी पर…
एक मान्यता यह भी है कि राजा कर्ण ने सम्पूर्ण जीवन स्वर्णादि धातु आदि पदार्थो का खूब दान किया, लेकिन अन्न दान नहीं किया, तब कर्ण का पुनः धरती पर अपने पितृ देवताओं को अन्नदान के लिए कर्ण आगत यानि कर्ण का आगमन हुआ। इस हेतु 16 दिवस का समय दिया गया। इसलिए कर्ण+आगत=कनागत हो गया। पितृ पक्ष के समय अन्न आदि पुण्य करने की प्राचीन परम्परा है। अधिकांश यह समय हर साल सितम्बर माह में आता है।
ग्रह-नक्षत्र भी बीमार होते हैं…
ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार कन्या राशि में जब कोई भी ग्रह गोचर में संचरण करते हैं, तो उस ग्रह को संक्रमित यानि बीमार कर उसकी ऊर्जा क्षीण कर देते हैं। इसलिए बुध ग्रह के अलावा कोई भी ग्रह जब कन्या राशि में होते हैं, तब वह ग्रह संक्रमित होकर दुषित हो जाते हैं।
ज्योतिष के शास्त्रों का सत्य….
ज्योतिष रत्नाकर, नक्षत्र ज्योतिष ग्रंथो के अनुसार जिस जातक की कुंडली में यदि कन्या राशि में कोई ग्रह है, तो वह संक्रमित होकर कमजोर हो जाता है। व्यक्ति को उस ग्रह से सम्बंधित हर कार्य में हानि होती है। यह जानकारी संक्षिप्त में दी जा रही है। स्कन्द पुराण आदि शास्त्रों में इसके उपायों का उल्लेख है।
कन्या राशि के स्वामी बुध ग्रह है, जो इस राशि में उच्च के हो जाते हैं। सूर्य आत्मा के कारक ग्रह है। सूर्य देव को जगत की आत्मा कहा गया है। पितृपक्ष के समय सूर्य यानि आत्मा, बुध की राशि कन्या में संचरण करते हैं। बुध ग्रह व्यापार, वाणी, सुख, ज्ञान, तर्क, कला, ज्योतिष और आंतरिक ज्ञान का कारक है। मान्यता है कि पितृपक्ष में अपने पूर्वजों-पितरों, पितृ मातृकाओं, मातृ मातृकाओं की मुक्ति के लिए शिंवलिंग पर जल अर्पित करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और हमारा मन-मस्तिष्क विवेकवान होता है।
कहा गया है…
ईशानां सर्वविद्यानां-ईश्वरा सर्वभूतानां
अर्थात-ईशान कोण में सृष्टि की सभी गुप्त-लुप्त या प्रकट विद्या का वास हैं। नवग्रहों में बुध ईशानकोण में स्थित है।
रहस्योउपनिषद में एक रहस्यमय जानकारी यह भी दी गई है कि जब किसी प्रसन्न का उत्तर नहीं मिल रहा हो या भय-भ्रम उत्पन्न हो, तो ईशान की तरफ मुख कर, हाथ जोड़कर बुध ग्रह से समाधान की प्रार्थना करनी चाहिए।
महादेव के वश में हैं पंचतत्व….
पंचमहाभूत में महादेव स्थित हैं। ईश्वर यानि भगवान शिव में जल, अग्नि, वायु, प्रथ्वी और आकाश इन पंचमहाभूतों का समावेश है या वास है। दक्षिण भारत में शिवजी को ही ईश्वर कहा जाता है। इन्हें जल सर्वाधिक प्रिय है।
श्रीमद्भागवत गीता और हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार इंसान की मृत्यु के बाद भी उसकी आत्मा कभी नहीं मरती। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-कि इंसान का शरीर भले ही मर जाए, लेकिन उसकी आत्मा अजर-अमर रहती है। वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न शरीरों का इस्तेमाल करती है तथा अनेकों बार जन्म लेती है।
इसी पौराणिक कथा के आधार पर आज भी हिन्दू अनुयायियों के बीच यह मान्यता है कि व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा अगले शरीर में प्रवेश करने से पहले भटकती रहती है। लेकिन यह विचरण वह समाप्त कर दे, उसे मोक्ष की प्राति हो इसके लिए हिन्दू धर्म में पितृ पूजा करने का विधान बना हुआ है।
श्राद्ध क्या है –
सम्पूर्ण श्रद्धा भाव से अपने पूर्वजों का स्मरण करना श्राद्ध कहा गया है।
पितरों के प्रति तर्पण अर्थात जलदान पिंडदान पिंड के रूप में पितरों को समर्पित किया गया भोजन व दान इत्यादि ही श्राद्ध कहा जाता है। देव, ऋषि और पितृ ऋण के निवारण के लिए श्राद्ध कर्म सबसे आसान उपाय है। अपने पूर्वजों का स्मरण करने और उनके मार्ग पर चलने और सुख-शांति की कामना करने को ही श्राद्ध कर्म कहते हैं।
अनंत चौदस का महत्व…
अनन्त चतुर्दशी को भगवान शिव के परम रक्षक श्री अनंत नाग का स्मरण पूजा कर दाएं हाथ की बाजू में 14 गांठो वाला रेशम या कच्चे सूत का धागा बांधने की सतयुगी परम्परा है।
ऐसी मान्यता है कि बाजू में अनन्त धागा बांधने से पूरे वर्ष रोगों से रक्षा होती है। पितृ प्रसन्न रहते है। ग्रामीणों की देशी कहावत है कि-
!अनन्त-वन्ध का डोरा,
रात बड़ी, दिन छोटा!!
अर्थात इस दिन से रात बड़ी और दिन छोटा होने लगता है।
व्रत का विधान-रोगों का निदान….
अनन्त चौदस को अरोना व्रत का विधान भी है, जिससे त्वचा रोग, थायराइड, रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकार नहीं होते। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह तिथि बहुत महत्वपूर्ण है। पूरे पितृपक्ष में बिना स्नान के कुछ भी अन्न ग्रहण न करें। व्रतराज नामक पुस्तक में इस व्रत के अनेक स्वास्थ्य वर्द्धक लाभ और विधान बताये हैं।
पितृदोष कैसे पनपता है–
पितृदोष से पीड़ित पुरुष जन्म से लेकर मृत्यु तक संघर्ष ही करता रहता है। घर-द्वार, परिवार, रिश्तेदार कभी उसकी इज्जत नहीं करते हैं। पितृदोष में जन्मे या पितृदोष लेकर दुनिया छोड़ जाने वाले को जन्म-जन्मांतर तक शांति नहीं मिलती। ऐसा जातक पूरा जीवन अशांति में गुजारता है। भविष्य में वंश वृद्धि रुक जाती है। सन्तति का संताप सदा सताता है। समृद्धि का सत्यानाश होकर व्यक्ति कंगाल हो जाता है।
पितृदोष शिखर से शून्य पर ला देता है.…
बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सम्राट तक पितृदोष से बच नहीं पाये। केतु के कारण बनने वाले इस कुयोग का इसी जीवन में उपाय जरूर कर लें अन्यथा अगली पीढ़ी को बहुत कंगाल बना देता है।
पितृदोष की परिभाषा, लक्षण और समाधान की विस्तार से जानकारी अमृतम कालसर्प विशेषांक में बताई गई है।
पितृपक्ष में दूर करें यह दोष
यह वही समय है जब शास्त्रों के अनुसार देवकार्यों से पूर्व पितृ कार्य करने का निर्देश दिया गया है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध से केवल पितृ ही तृप्त नहीं होते अपितु सम्पूर्ण जीव-जगत, दैत्य, किन्नर, भूत-प्रेत-पिशाच, चुड़ैल योनि में भटकती हमारे पूर्वजों की आत्माएं शान्त और मुक्त होती हैं। इस समय देवों से लेकर पंचमहाभूत तथा वनस्पतियां तक तृप्त होती हैं।
श्राद्ध पक्ष में पितृ अपने वंश का कल्याण करते हैं। श्राद्ध पक्ष के समय पितरों का स्मरण करने से घर में सुख-शांति-समृद्धि का आशीर्वाद प्रदान करेंगे। जिनकी कुंडली में पितृ दोष हो, उनको अवश्य अर्पण-तर्पण करना चाहिए। श्राद्ध करने से हमारे पितृ तृप्त होते हैं।
जीवन को सुखमय बनाये…
पितृपक्ष में श्राध्द करने वाले का
भौतिक जीवन सुखमय बनता है। लेकिन एक और सबसे विशेष बात यह है कि श्राद्ध न करने से पितृगण क्षुधा यानी भूख से त्रस्त होकर अपने सगे-संबंधियों को कष्ट और शाप देते हैं।
नटराज का नियम..
जगत को इस नाच-नचैया कराने वाले भोलेनाथ ने सबको उलझा रखा है। जीव-जगत के प्रत्येक प्राणी पर इनकी पूर्ण दृष्टि है।
अपने कर्मों के अनुसार जीव अलग-अलग योनियों को भोगते हैं। हर किसी व्यक्ति पर 5 ऋणों का भार सदैव बना रहता है। पितरों के लिए कोई भी दान-पुण्य, हवन आदि जहां मंत्रों द्वारा संकल्पित हव्य-कव्य को पितृ प्राप्त कर लेते हैं। यह सब शिवजी की वैज्ञानिक व्यवस्था है।
किसका कब करें श्राद्ध?
हिन्दू मान्यताओं के आधार पर एक आम बात सभी में प्रचलित है कि जिस भारतीय मास की तिथि को किसी स्त्री या पुरुष की मृत्यु हो, उसी तिथि को श्राद्ध करने की परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है।
मृत्यु की तिथि मालूम न होने पर….
गरुण पुराण के मुताबिक
यह कुछ ऐसी तिथियां हैं जब आप श्राद्ध करवा सकते हैं।
कई बार ऐसा होता है कि हमें अपने किसी पूर्वज का श्राद्ध तो करना है लेकिन हम उनकी मृत्यु तिथि नहीं जानते। ऐसे में यदि हमें अपने किसी पूर्वज के निधन की तिथि नहीं मालूम हो तो उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। इसीलिए इसे सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है।
यदि परिवार में कोई साधु या सन्यासी होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ हो, तो ऐसी पुण्यात्मा का श्राद्ध द्वादशी के दिन किया जाता है।
सौभाग्यवती स्त्री का श्राद्ध नवमी के दिन किया जाता है।
शस्त्राघात, हत्या, एक्सीडेंट या किसी अन्य दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति का श्राद्ध चतुर्दशी यानी चौदस के दिन किया जाता है।
दादी-नानी का श्राध्द पड़वा के दिन करें
कड़वे दिन के पहले दिन यानि आश्विन शुक्ल की प्रतिपदा को भी श्राद्ध करने का विधान है। इस दिन दादी और नानी का श्राद्ध किया जाता है।
कर्मों का फल….
जीवन में अच्छे कर्म किए तो उसे स्वर्ग मिलेगा, लेकिन बुरे कर्म करने वाली आत्मा को नर्क का रास्ता दिखाया जाता है। परन्तु इस फैसले तक पहुंचने से पहले ही आत्मा कई जगहों पर भटकती रहती है।
लेकिन इन दोनों योनि के बीच में है प्रेत या पिशाच योनि, जिससे बाहर आने में ही आत्मा को काफी समय लग जाता है। यह वह समय होता है जब आत्मा वायु रूप में पृथ्वी पर ही भटकती रहती है।
क्यों करना जरूरी है पितरों की पूजा…
जिन रूहों का एहसास मनुष्य को अपने आसपास होता है, वह वही हैं जो प्रेत योनि में विचरण कर रही होती हैं। इस आत्मा को इसी प्रेत योनि से बाहर निकाल आगे के चरण यानि के पितृ चरण तक पहुंचाने के लिए ही पितृ पूजा की जाती है।
कुलदेवी-कुलदेवता की पूजा क्यों जरूरी है…
प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज हैं। हरेक व्यक्ति के गोत्र से पता चलता है कि हम किस ऋषि की संतान हैं। ऋषि हमारे पूर्वज हैं। हम जिस ऋषि की संतान हैं वही हमारा गोत्र होता है। कुल के देवी-देवता हमारे ऋषियों के पूजक हैं, उनमेंं ऋषियो की आत्मा का वास होता है।
कुल के रक्षक होते हैं कुल देवता…
हिन्दू पारिवारिक आराध्य व्यवस्था में कुल देवता/कुलदेवी का स्थान सदैव से रहा है।
कर्म के अनुसार हम सबका विभाजन वर्णों में हो गया विभिन्न कर्म करने के कारण जो बाद में उनकी पहचान बन गई, तो वही उसकी जाति कहलाई।
पूर्व के हमारे कुलों अर्थात बुजुर्ग पूर्वजों के खानदान ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था, ताकि वे हमारी रक्षा करते रहें। आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति वंशजो यानि कुल की रक्षा करती रहें।
परोक्ष और अदृश्य रूप से सहायता करते हैं कुल के देवी-देवता…
【】कुल देवता नकारात्मक शक्तियों/उर्जाओं, बाहरी तकलीफों और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती है।
【】कुल देवी-देवता अपने वंशजों को निर्विघ्न कर्म पथ पर चलने और उन्नति के लिए प्रेरित करते हैं।
【】वे हमें सदमार्ग पर चलाये रखते हैं।
कैसे और क्यों भूल गए हम….
■ भौतिक युग केइस क्रम में परिवारों के एक दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने से।
■ धर्म परिवर्तन करने से।
■ आक्रान्ताओं के भय से।
■ किसी अन्य स्थान पर विस्थापित होने से।
■ जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने से।
■ संस्कारों के क्षय होने से।
■ विजातीयता पनपने से।
■ इनके पीछे के कारण को न समझ पाने आदि की वजह से बहुत से परिवार अपने कुल देवता तथा कुलदेवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा कि उनके कुल देवता या कुलदेवी कौन हैं, कहाँ हैं या किस प्रकार से उनकी पूजा-अर्चना की जाती है।
इनमे पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं ,कुछ स्वयंभू आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी
वर्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इनपर ध्यान नहीं दिया।
भविष्य में क्या नुकसान हो सकता है…
कुल देवता-कुलदेवी की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई ख़ास अंतर नहीं समझ में आता, किन्तु उसके बाद जब सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में दुर्घटनाओं, नकारात्मक ऊर्जा, बाहरी आक्रमण, वायव्य बाधाओं का बेरोक-टोक प्रवेश शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है ,पीढ़िया अपेक्षित उन्नति नहीं कर पाती, संस्कारों का क्षय, नैतिक पतन, कलह, उपद्रव, भय-भ्रम, शंका, रोगादि, अशांति शुरू हो जाती हैं।
परेशानियों का पहाड़ टूटने पर व्यक्ति कारण खोजने का प्रयास करता है। कारण जल्दी नहीं पता चलता।
ज्योतिष में इसका इलाज…
यदि कोई सही जानकर ज्योतिषी है, तो व्यक्ति के पंचम भाव से उनके कुल के देवी-देवताओं और स्थान देवता, ग्राम देवता का पता लगा सकता है।
जब तक कुल के देवी-देवताओं का पता नहीं चलता, तब तक भाग्य कुछ कहता है और व्यक्ति के साथ कुछ और घटता है।
कुल के देवी-देवता के रूष्ट या दुखी होने पर हमारी पूजा-पाठ, प्रार्थना व्यर्थ हो जाती है.…
कुल देवता या देवी हमारे वह सुरक्षा आवरण हैं जो किसी भी बाहरी बाधा, परेशानी, नकारात्मक ऊर्जा के परिवार में अथवा व्यक्ति पर प्रवेश से पहले सर्वप्रथम उससे संघर्ष करते हैं और उसे रोकते हैं।
यह पारिवारिक संस्कारों और नैतिक आचरण के प्रति भी कुलदेवता समय समय पर हमें सचेत करते रहते हैं।
यही किसी भी ईष्ट को दी जाने वाली पूजा को महादेव तक पहुचाते हैं। यदि इन्हें पूजा नहीं मिल रही होती है तो यह नाराज भी होकर निर्लिप्त भी हो सकते हैं। ऐसे में आप किसी भी देवता की आराधना करे, उनसे प्रार्थना करें वह उस इष्ट तक नहीं पहुँच पाती। क्योकि हमारे अदृश्य रक्षक कुलदेवता यानि सेतु कार्य करना बंद कर देता है।
बाहरी बाधाये ,अभिचार आदि, निगेटिव विचारन बिना बाधा पीड़ित व्यक्ति तक पहुचने लगती है।
कभी कभी व्यक्ति या परिवारों द्वारा दी जा रही ईश्वर की पूजा कोई अन्य बाहरी प्रेत-पिशाच वायव्य शक्ति लेने लगती है। अर्थात पूजा न ईष्ट तक जाती है न उसका लाभ मिलता है।
ऐसा कुलदेवता की निर्लिप्तता अथवा उनके कम शशक्त होने से होता है।
कुलदेवता या देवी सम्बंधित व्यक्ति के पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं और पूजा पद्धति ,उलटफेर ,विधर्मीय क्रियाओं अथवा पूजाओं से रुष्ट हो सकते हैं। सामान्यतया इनकी पूजा वर्ष में एक बार अथवा दो बार निश्चित समय पर होती है, यह परिवार के अनुसार भिन्न समय होता है और भिन्न विशिष्ट पद्धति होती है।
शादी-विवाह-संतानोत्पत्ति आदि होने पर इन्हें विशिष्ट पूजाएँ भी दी जाती हैं।
यदि यह सब बंद हो जाए तो यह नाराज होते हैं या कोई मतलब न रख मूकदर्शक हो जाते हैं और परिवार बिना किसी सुरक्षा आवरण का दरवाजा पारलौकिक दूषित शक्तियों के लिए खुल जाता है।
परिवार में विभिन्न तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं।
अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए। जिससे परिवार की सुरक्षा उन्नति होती रहे।
सृष्टि के प्रथम पितृगण-
यह बहुत ही दिलचस्प जानकारी है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि सन्सार के सर्वप्रथम पितृ-पूर्वज भगवान शिव के खास साढू हैं। ये चार हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-
【1】अग्रस्वात्त
【2】वाहिर्षद
【3】सोमप
【4】आज्यप
इन चारों का विवाह राजा दक्ष की 60 पुत्रियों में से पन्द्रहवी पुत्री स्वधा के साथ हुआ था।
इन चारों पितरों की एक ही पत्नी थी। भगवान शिव को एक तथा चन्द्रमा को 27 पुत्रियाँ ब्याही थी। इन सभी प्रथम पितृगणों को महादेव के गणों में सम्मान प्राप्त है। इसीलिए गरुण पुराण आदि में पितरों की प्रसन्नता और शांति के लिए शिंवलिंग पर रुद्राभिषेक का विधान है।
शास्त्रमतानुसार पितृपक्ष के समय एवं कुँवार-कार्तिक इन दोनों मास में सभी के पितृगण प्रथ्वी पर वास करते हैं। इस समय इनकी सेवा, अन्नदान, शिवाराधना से इन्हें मुक्ति मिलती है और यह सूर्यलोक पहुंच जाते हैं।
“गणेश पुराण” – में बताया है कि जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या फिर बिना खर्च या परेशानी के कालसर्प-पितृदोष, दुर्भाग्य, दारिद्र-दुःख एवं भय-भ्रम, रोग, शोक से मुक्ति चाहते हैं, तो उन्हें पितृपक्ष के 16 दिनों में नित्य किसी जीर्ण-शीर्ण शिवमंदिर की साफ-सफाई, रंगाई-पुताई, शिंवलिंग का श्रृंगार आदि सेवा करके एक दीपक रोज राहुकी तेल का जलन चाहिए। सम्भव हो, तो पान या केले के पत्ते पर कुछ नैवेद्य अर्पित करना चाहिए।
पितरों की काली छाया
महाकाल के कोप और अकृपा के कारण काल के कपल में समाये हमारे परिवार माता-पिता, दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, भाई-भाभी, छोटे-बड़े भाई-बहिन और नाना-नानी, आदि रक्त सम्बन्धी के अलावा हमारे ऋषि-महर्षि, सदगुरू, कुलगुरु, प्राचीन न्यायप्रिय राजा-महाराजा, देश के रक्षक वीर सिपाही, पुलिस, सेना या अन्य बलिदानी ये सब हमारे पूर्वज-पितृगण हैं। इनमें से कुछ ऐसी पवित्र आत्माएं भी हैं जिनकी पुण्यतिथि मनाई जाती है।
क्या शिंवलिंग पितरों का प्रतीक है…
४ वेद, १८ पुराण, ६ ग्रन्थ और अनेक उपनिषद, भाष्य आदि में उल्लेख है कि सृष्टि का हरेक सूक्ष्म अंश या DNA तथा पितृगण शिंवलिंग में समाहित है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता और उनकी कृपा पाने के लिये शिंवलिंग पर जल, दूध, दही, घी, मधु पंचामृत एवं शक्कर का बूरा आदि से रुद्राभिषेक कराया जाता है। फूलों में सर्वाधिक प्रथ्वी तत्व होने के कारण शिंवलिंग का पुष्पों से श्रृंगार किया जाता है। शंख आकाश तत्व का प्रतीक है, इसलिए शंख बजाय जाता है। घंटा बजाने से तन में वायु तत्व की पूर्ति होती है।
दीपक जलाने से अग्नि यानी ऊर्जा, की वृद्धि होती है। कमजोर मनोबल वालों को रोज राहुकी तेल का दीपक जलाना अत्यंत लाभकारी रहता है। जीवन का अंधकार, अज्ञानता का नाश होता है।
पितृदोष के दुष्प्रभाव और हानि..
जन्म पत्रिका में केतु के दुषित होने से पितृदोष लगता है। जातक को उनके पूर्वज परेशान करते हैं। पितरों द्वारा छोड़ी गई सम्पत्ति धीरे-धीरे नष्ट होने लगती है। मान-सम्मान क्षीण हो जाता है।
पितृदोष की वजह से भाग्योदय में रुकावट, विवाह में बिलंब, संतान न होना, शनै-शनै
सम्पत्ति का बर्बाद होना,
व्यापार न चलना, हानि-परेशानी, धन की कमी, गरीबी आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
पितृदोष के कारण ध्यान-साधना में मन नहीं लगता। कोई भी पूजा-यज्ञ-अनुष्ठान से लाभ नहीं होता। कोई न कोई शंका -आशंका बनी रहती है।
जीवन में प्रगति और प्रसन्नता, सुख-सम्पन्नता के लिए पितरों को पूजना परम आवश्यक होता है।
अघोरियों का कहना है कि प्रत्येक जीव के असंख्य-अनंत पूर्वज हैं, जो कि अज्ञात हैं। पता नहीं हमें कौन से पितृ-पूर्वज परेशान कर रहे हैं। इनकी जानकारी जुटा पाना आज के युग में असंभव है।
शिवरहस्य, गोभिल सहिंता, कुलमूलावतार तन्त्र, अघोरविज्ञान, महानिर्माण तन्त्र, मुण्डकोउपनिषद, मनीषी की लोकयात्रा, लोकविश्वास और संस्कृति, ब्रह्माण्ड पुराण और तंत्रालोक आदि ग्रंथों में संक्षिप्त या विस्तार से पितरों के बारे में लिखा है और उनके उपाय भी बताये हैं।
एक ग्रन्थ में लिखा है कि फाल्गुन मास की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि को तथा अश्वनी मास यानि कुँवार महीने की चतुर्दशी को पढ़ने वाली मास शिवरात्रि की रात में सभी पितृगण शिंवलिंग में आते हैं। इसलिए इस रात्रि में शिवपूजन का विशेष महत्व है।
शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक इन चार पहर में (तीन घण्टे का एक पहर होता है)
अलग-अलग वस्तु-पदार्थों से शिंवलिंग का रुद्राभिषेक करना बहुत ही ज्यादा लाभप्रद होता है।
इन 4 पहर में कैसे करें पूजा..…
【1】अतः पहले पहर यानि शाम 6 से रात्रि 9 बजे तक दूध से रुद्राभिषेक करने से पितृमातृकाएँ प्रसन्न होकर सम्पदा-सम्पन्नता में वृद्धि करती हैं।
【2】रात्रि 9 बजे से अर्धरात्रि 12 बजे तक दही द्वारा रुद्राभिषेक से पितरों को सूर्य की किरणें और कृपा प्राप्त होती है और करने वाले के असाध्य रोग, शारीरिक-मानसिक कष्ट मिटते हैं। आत्मविश्वास बढ़ता है। ख्याति-इज्जत बढ़ती है। राज्यपद-मंत्रिपद मिलता है।
【3】अर्धरात्रि 12 बजे से सुबह 3 बजे तक देशी घी द्वारा रुद्राभिषेक कराने से संतान सुखी रहती है
【4】रात्रि 3 बजे से सुबह 6 बजे तक मधु पंचामृत द्वारा अभिषेक करने से जीवन की अनेक रुकावट दूर होती है। घोर गरीबी से मुक्ति मिलती है।
कालसर्प दोष का कारक है राहु….
राहु के कारण कालसर्प दोष निर्मित होता है। जिससे व्यक्ति हर समय अशांति और आशंका में जीत है। रोगों से पीड़ित रहकर कोई काम नहीं कर पाता। प्रत्येक कार्य में रुकावट होती है। उलझने पीछा नहीं छोड़ती। राहु या कालसर्प से पीड़ित लोगों का खान-पान, रहन-सहन हमेशा अनियमित रहता है।
कभी-कभी राहु चरित्रहीन भी बना देता है।
कालसर्प के दुष्प्रभाव से दवा, दुआ और दौलत भी कम नहीं करती।
लेकिन कभी-कभी कालसर्प योग होने से व्यक्ति शून्य से शिखर पर पहुंच जाता है।
अभी अनेक जानकारी शेष है
पढ़ते रहें अमृतमपत्रिका
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