उत्तरांचल के गुमनाम सिद्ध स्थान। उत्तराखंड तीर्थ यात्रा पार्ट-6

 कालसर्प-पितृदोष दूर करने वाला शर्तिया तीर्थ स्थान, जो पिथौरागढ़ से करीब 90 किलोमीटर दूर है।
पिंगल नागदेव मंदिर के बारे में जाने-
उत्तरांचल की शिवभूमि में थलकेदार बेरीनाग, डीडीहाट और बागेश्वर जिले के कांडा-कमेड़ीदेवी क्षेत्र में कभी सिद्ध और मणिधारी नागों का आधिपत्य था। इस जगह अभी भी नाग के अवशेष देखने को मिल जाते हैं। थल केदार के नजदीक बरसायत गांव में पिंगल नागतीर्थ नामक एक सदाबहार नौला है।
बताते हैं कि इस प्राकृतिक नौले का  पानी कभी  कम नहीं होता और नाहीं कभी सूखता है।  चट्टानों, पर्वतों की तलहटी में बने इस नौले के पानी को छुआछूत से दूर रखकर
उपयोग में नहीं लाया जाता।
बहुत से सिद्ध साधुजन इस बावड़ी के जल में अपने पितरों का तर्पण करके ध्यानमग्न हो जाते हैं।
कालसर्प दोष से स्थाई मुक्ति एक बार अवश्य जाएं-
के लिए इस बावड़ी जल पिङ्गल नाग मन्दिर में चढ़ाते हैं। यह जानकारी वहाँ के तपस्वी साधुओं को ही मालूम है।
पिङ्गल नागदेव के समक्ष 5 दीपक राहुकी तेल के जलाकर -5 माला
!!ॐ पिंगलाय शम्भूतेजसे नमः शिवाय!!
 की जपने से जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन होने लगते हैं।
काल का भी काट है यहाँ
काल का भय तथा काल का कष्ट हमेशा के लिए मिट जाता है, इस तीर्थ की यह विशेषता है। यहाँ नागदेव आज भी जागृतावस्था में विराजमान हैं।
चमत्कारी आत्मानुभव
एक बात और जीवन में अनेकों बार अपनाई कि आप कहीं भी, किसी भी जगह जब बहुत ही ज्यादा कष्ट में हो, तो इनका स्मरण सच्चे मन से करके उपरोक्त मन्त्र का जाप करें।  बड़े से बड़ा दुःख तत्काल दूर होता है। आप चाहें, तो आजमा सकते हैं।
 इस पवित्र स्थान के आसपास, नजदीक में पुराणों में वर्णित स्वयम्भू नागों के 11 शक्ति स्वरूप नागालय यानि प्राचीन नाग मंदिर हैं।
  पिंगली नाग मंदिर उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले से लगभग 90 किलोमीटर तथा बैरी नाग तीर्थ से 30 किलोमीटर दूर पांखु गाँव में घने जंगल के शिखर में स्थित हैं।
इस क्षेत्र के रहवासी इन्हें अपना कुलदेवता, ग्राम देवता मानकर पूजते हैं। विश्वास इतना मजबूत है कि किसी भी कष्ट के आने पर पिंगल नाग देवता उन्हें शीघ्र संकट से उबारते है।
तेरा तुझको अर्पण-क्या लागे मेरा
गाय, भैस, बकरी का पहला दूध तथा प्रत्येक फसल का पहला अनाज, नाग देवता को चढ़ाने की पुरानी परम्परा है।
पिंगली नाग मंदिर की कहानी
 भगवान श्रीकृष्ण ने कालिय नाग को जब यमुना नदी में पराजित किया था, तब वह अपने भाइयों
@- बेरीनाग,
@- फेनीनाग
@- धौलीनाग,
@- वासुकिनाग,
@- मूलक नाग सहित अपने राजपुरोहित गुरु पिंगलाचार्य आदि के साथ दशोली, गंगावली के पर्वत शिखरों में जाकर बस गया। यही राजपुरोहित पिंगलाचार्य पर्वतीय रहवासियों द्वारा पिंगलनाग नाथ के रूप में पूज्यनीय हैं।
तब इस क्षेत्र में “‘घंगौल’” नामक ग्याराह पाली
ब्राह्मण रहते थे। श्री पिङ्गलनाग ने उन्हें स्वप्न देकर शिखर-पर्वत पर नवीन मन्दिर का आदेश दिया, तब पंडित ‘घंगौल’ लोगों ने सपरिवार पर्वत शिखर पर स्वयम्भू नाग मंदिर का निर्माण करवाकर विधिवत नाग पूजा अर्चना संपन्न करवाई।
 स्कंद पुराण के मानसखंड में नागों का विस्तार से वर्णन है। पिंगलनाग के करीब रहने वाले शिवसाधक और श्रद्धालु   बताते हैं कि बरसायत की चोटी में बनी पिंगलनाग की बावड़ी यानि नौला 900 साल से अधिक पुरानी तथा स्वयं प्रकट है।
 वह बताते हैं कि प्राचीन समय में हजारों वर्ष पूर्व इस स्थान पर पिंगलाचार्य नामक ऋषि, महादेव को प्रसन्न करने के लिए घनघोर तप कर रहे थे। ईश्वर ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर, उन्हें नाग रूप में परिवर्तित दिया था। तब से इस इलाके में नागों की पूजा की जाती है। पिंगलनाग बावड़ी का जल ग्रहण न करने के बारे में वह कहते हैं कि – नाग का नौला अर्थात इसका पानी जहरीला होने के कारण इस जल का प्रयोग वर्जित है।
अमृतम पत्रिका की लाइब्रेरी में 10000 (दस हजार) से भी अधिक अति प्राचीन पुस्तकों, धर्मग्रंथों का संग्रह है और महत्वपूर्ण बात यह है कि लगभग 30 हजार से ज्यादा हस्तलिखित यात्रा संस्मरण हैं।
पाठकों से करबद्ध निवेदन है कि बस, आप यात्रा आरम्भ करें। दुर्लभ एवं रहस्यमय तीर्थ स्थानों के बारे हम बताएंगे।
पिछले 42 वर्षों में पूरे भारत के करीब 30000 करीब शिवालय, देवालय, शक्तिपीठ, नागालय के दर्शन का सौभाग्य भोलेनाथ ने मुझे दिया, तो मेरे पाठकगण भी इनके दर्शनों से वंचित क्यों रहें।
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