शक्ति की उपासना को समर्पित सौंदर्य लहरी नामक ग्रंथ में धन वृद्धि, सुख समृद्धि, ऐश्वर्य कीर्ति पाने के लिए अनेक वैज्ञानिक एवं अध्यात्मिक यंत्रों का समावेश है।
इस किताब की रचना आदि शंकराचार्य ने अपने इष्ट भोलेनाथ के आदेश पर की थी। इसे पढ़कर भयंकर गरीबी से मुक्ति पा सकते हैं।
जगतगुरु आदि शङ्कराचार्यवर्य ने सौन्दर्यलहरी नामक गूढ़तम शास्त्र की रचना कर साधकों पर जो उपकार किया है उसके लिए उनका आभार सम्भव नहीं है। वह गुरुऋण स्वाध्याय, ध्यान तथा मां आदि शक्ति की साधना द्वारा चुकता किया जा सकता है।
साथ ही साधकों को शान्ति-दान्ति और सिद्धि देने वाले इस महान् स्तोत्र की व्याख्या करने वाले भी निश्चय ही महानतम व्यक्तित्व के संधारक रहे हैं।
अमृतम पत्रिका परिवार उन सभी व्याख्याकारों, चिन्तकों और लेखकों के आभारी हैं जिन्होंने सौन्दर्य-लहरी पर कुछ भी कार्य किया है।
इस व्याख्यान में मेरा कुछ ‘ भी नहीं है सब पूर्व-पूर्वकृत व्याख्याकारों तथा विद्वानों का है।”
श्री श्री १००८ बाबा मोतीलाल जी महाराज कृत ‘सार्थ सौन्दर्यलहरी’ से हमने अनेक स्थल यथावत् तथा अनेक स्थलों पर पूज्य बाबा की लेखनी के आलोक का साहाय्य लिया है, अत: पूज्य बाबा के प्रति आभार प्रकट करते हैं
पं० लक्ष्मीधर देशिक की टीका, जगविजयी श्रीराम कवि की स्वामी कैवल्याश्रम जी की टीका, स्वामी अच्युतानन्द जी की टीका, श्री १०८ स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज की टीका, रामकृष्ण मठ मद्रास द्वारा प्रकाशित स्वामी तपस्वानन्द जी की टीका, पं० गोपीनाथ कविराज जी की टीका, श्रीवत्स भचेच स्मारक प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित टीका आदि सौन्दर्य-लहरी की अनेक टीकाओं की सहायता से शक्ति का १० भागों में यह लेख गुगल पीआर सहज ही उपलब्ध है।
‘शक्ति’ शब्द शक् धातु से स्त्रीलिङ्ग क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है, जिसके अर्थ हैं – सामर्थ्य, अर्थबोधकता, देवी किंवा स्त्रीदेवता आदि।
संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध शब्दकोश ‘वाचस्पत्यम् ‘ में इस शब्द की व्याख्या कुल १४९ पंक्तियों में की गई है क्योंकि इसकी महत्ता प्राग्वैदिक काल से ही स्वत: प्रमाणित है।
ऋग्वेद काल में सूर्य के साथ उषस् ,वरुण के साथ वरुणानी, इन्द्र की इन्द्राणी व यम के साथ यमी आदि की उपासना शक्ति के महत्त्व के जाज्ज्वल्यमान प्रमाण हैं।
यथा –सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति पश्चात् …. इत्यादि।
कालान्तर में इसी परम्परा के अनुरूप शिव-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी, ब्रह्मा-सरस्वती, राधा-कृष्ण, प्रकृति पुरुष, माया-ब्रह्म तथा शची-पुरन्दर प्रभृति युग्मों की आराधनाएं भारतीय-चिन्तन-पद्धति में शक्ति की उपासनागत महत्ता को प्रतिपादित करती रही हैं।
तत्पश्चात् ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, भाष्य, सूत्र वार्तिक, पुराणोपपुराण, टीका, वृत्ति, प्रटीका एवं उपवृत्ति वाङ्मय की श्रृंखला में शक्ति के बिना कहीं कुछ भी वर्णित नहीं है।
यहां तक कि समुद्रमन्थन के चतुर्दश (१४) रत्नों में भी रम्भा, लक्ष्मी व कामधेनु का स्थान सर्वोपरि स्वीकृत रहा है, क्योंकि शक्ति व शक्तिमान् का परस्पर न केवल समवाय सम्बन्ध है प्रत्युत् शक्ति शक्तिमानों की शारीरिक शक्ति के दुरुपयोग को बौद्धिक रूप धारणकर रोकती भी है।
यही कारण है कि अमृत के विभाजन में छिड़े देवासुर-संग्राम को जब रोकना हुआ, तो सारे त्रैलोक्य को अपने तीन डग से नापने में समर्थ व्यापक भगवान् विष्णु को भी शक्ति किंवा स्त्रीरूप ही धारण करना पड़ा।
शक्ति वह तत्त्व है, जिसकी आराधना में शिव व विरञ्चि को उसका अनुगामी और ब्रह्मा के मानस-पुत्र महर्षि नारद को विद्रूप तक हो जाना पड़ता है।
भगवान् के सभी रूप ईश्वर के अवतार हैं, किन्तु षोडश कलाधारी आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं भगवान् हैं – कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। किन्तु उन्हें भी पूर्णता के लिए राधारूप धारण करना पड़ता है।
तन्त्र राजतन्त्र में कहा गया है कि पराशक्ति ललितादेवी कभी पुरुष मूर्ति धारण करती हैं और कभी रमणीरूप। जब वे पुरुषरूप धारण करती हैं, तो निखिलरसामृतमूर्ति श्रीकृष्णस्वरूप में प्रकट होकर वंशीनाद से जगद् को विमोहित कर लेती हैं ; यथा
काचिदाद्या ललिता वै पुंरूपा कृष्णविग्रहा।वंशीनादसमारम्भादकरोत् विवशं जगत्।।
परम पावनी भगवती ललिताम्बा व भवभयहारी बनवारी की शक्ति के साथ पारस्परिक अभिन्नता विषयक कारण यह है कि प्राय: उपासना पद्धति में जप समर्पण के सामान्य नियम के अनुसार स्त्री देवता का जप समर्पण वामहस्त में और पुरुष देवता का दक्षिण हस्त में होता है, किन्तु ललिताम्बा का जप समर्पण दाहिने हाथ में ही होता है। इसके साथ-साथ ज्ञान व भक्ति के आपसी समन्वय को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में कहा गया है कि
अद्वैतज्ञानोत्पत्तेरनन्तरं या भक्तिरुदिता भवति सा निर्व्याजाऽ हैतुकी भक्तिरेवाऽद्वैतभक्तिरिति कथ्यते।
शाक्तदर्शन के अनुसार एतादृशी भक्ति को ही लक्ष्य में रखकर कहा गया है कि
आत्मारामाश्च मुनयो निम्रन्थाप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकी भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।। (श्रीमद्भागवत महापुराण १/७/१०)
बोधसार में विद्वद्धुरीण नरहरि जी ने भी कहा है कि
द्वैतं मोहाय बोधात् प्राक् प्राप्ते बोधे मनीषया।
भक्त्यर्थं कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्।
जाते समरसानन्दे द्वैतमप्यमृतोपमम्।
मित्रयोरिव दम्पत्योर्जीवात्मपरमात्मनोः।।
(३२/४२-४३)
त्रिपुरासिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना के समय प्राचीन विद्वानों ने शिवसूत्र, प्रत्यभिज्ञादर्शन, हृदयेश्वर प्रत्यभिज्ञानविमर्शिनी और तन्त्रालोक आदि ग्रन्थों को प्रमाणस्वरूप स्वीकार किया है तथा उत्पलदेव क्षेमराज, अभिनवगुप्त व महेश्वरानन्द आदि शैवाचार्यों ने प्रयोजनानुसार योगिनीहृदय, कामकलाविलास और त्रिपुरसुन्दरी मन्दिर प्रभृति ग्रन्थों से प्रमाण उद्धृत किया है ।
जहाँ तक भगवती त्रिपुरसुन्दरी और ललितादेवी के स्वरूप वर्णन का प्रश्न है, उस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि शैवागम में तत्त्वातीत परमसत्ता ही शिव नाम से कही गयी है और त्रिपुरसुन्दरी मत में भगवती ललिताम्बा।
जिस प्रकार प्रत्यभिज्ञानदर्शन में शिवतत्त्व व शक्तितत्त्व स्वीकृत हैं, उसी प्रकार त्रिपुरा मत में कामेश्वर और कामेश्वरी तथा गौड़ीय वैष्णवमत में श्रीकृष्ण राधा मान्य है।
दर्शनशास्त्र में कामेश्वर और कामेश्वरी की साम्यावस्था किंवा सामरस्य त्रिपुरसुन्दरी के नामसे विख्यात है। भगवती त्रिपुरा सर्वाधिष्ठानरूपा, सत्यस्वरूपा, समरसा, सच्चिदानन्दमयी तथा समानाधिकवर्जिता हैं।
ये सर्ववेदान्तभूमि, निरतिशय सौन्दर्यमूर्ति एवं निखिल सौन्दर्याधार हैं। इसीलिए इनके बारे में श्रीमदाद्यशङ्कराचार्य जी महाराज ने सौन्दर्यलहरी में कहा है
कित्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं,
कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि विरञ्चिप्रभृतयः।
यदालोक्यौत्सुक्यादमरललना यान्तिमनसा, तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिशसायुज्यपदवीम्।।
अर्थात् हे नगराज हिमालय की कन्या ! तुम्हारे सौन्दर्यवर्णन में ब्रह्मादि मनीषी असमर्थ हैं। समुत्सुकचित्त देवकन्याएं आपके अलोकसामान्य सौन्दर्य को देखकर कष्टसाध्य व दुष्प्राप्य शिव सायुज्यमुक्ति को प्राप्त करती हैं।
भगवान् शङ्कराचार्य जी ने लिखा है कि भगवान् विष्णु ने भगवती ललिताम्बा के स्वल्प सौन्दर्य को ही ग्रहणकर अपना मोहिनीरूप बनाया था, जिसपर भगवान् शंकर भी मुग्ध हो गये थे। इनके कृपा कटाक्ष से मदन जितेन्द्रियों का चित्त भी हर लेता है, यथा
हरिस्तामाराध्य प्रणतजनसौभाग्य जननीं,
पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत्।
स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयन लेह्येन वपुषा, मुनीनामप्यन्तःप्रभवति हि मोहाय महताम्।
जगज्जननी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की उपासना षोडशकलान्वित भगवान् कलाधर के रूप में की जाती है; क्योंकि उनकी षोडश कलाएं नित्य हैं।
इसलिए भगवती को नित्याषोडशिका भी कहा गया है।
चन्द्रमा की प्रथम पञ्चदश कलाओं में ह्रास-वृद्धि की स्थितियाँ होती रहती हैं किन्तु षोडशी में उदय-ह्रास प्रभृति की स्थितियाँ नहीं होतीं। यही कारण है कि उसे अमृत-कला कहते हैं।
कहना न होगा कि इन्हें वैयाकरणों की पश्यन्ती, दार्शनिकों की आत्मा व मंत्रशास्त्र का मन्त्रस्वरूप देवता कहा जाता है।
भगवती ललिताम्बारूपिणी षोडशीकला नित्योदिता, अमृतरूपा, अखण्डा, ललिता, सौन्दर्यधाम, महात्रिपुरसुन्दरी, परकला, चिदेकरसा व श्रीविद्या के नाम से जानी जाती हैं।
ये नित्यज्योतिर्मय सहस्रदलकमलकर्णिकास्थनित्यकलायुक्त श्रीचक्रात्मक चन्द्रबिम्बरूपा हैं। इनके विषय में ‘सुभगोदय’ ग्रंथ में कहा गया है
षोडशी तु कला ज्ञेया सच्चिदानन्दरूपिणी।
यह वह भगवती हैं, जिनकी अहैतुकी भक्ति आत्माराम अविद्याग्रन्थिशून्य ऋषिगण भी करते हैं।
श्रीहरि का भी ऐसा ही सर्वाकर्षी स्वभाव है। बोधसारकार के अनुसार तो ज्ञानोदय के पूर्व द्वैतभाव मोह के लिए होता है, किन्तु ज्ञानोदय के बाद भक्ति के लिए जिस द्वैतभाव का उदय होता है, वह अद्वैतापेक्षा भी सुन्दर है।
इसी प्रकार जीव व ब्रह्म के एकरसाविर्भाव की स्थिति में भक्ति के उद्देश्य से जीव व परमात्मा के मध्य जिस पार्थक्य की कल्पना होती है, वह मुक्तिसुख की भाँति सुख की अनुभूति कराती है । ठीक वैसे ही जैसे परस्पर प्रेमाकृष्ट दम्पत्ति का पार्थक्य परस्पर सुख का कारण बनता है।
श्रीविद्या १० महाविद्याओं में प्रमुख है। इसकी साधना से ऐहिक किंवा आमुष्मिक मंगल फल की प्राप्ति होती है ।
इनके जिन प्रमुख द्वादश उपासकों की चर्चा शास्त्र में है,उनके नाम हैं –
मनुश्चन्द्रः कुबेरश्च लोपामुद्रा च मन्मथः।
अगस्तिरग्निः सूर्यश्च इन्द्रः स्कन्दःशिवस्तथा।। क्रोधभट्टारको देव्या द्वादशामी उपासकाः।।
इनकी उपासना के प्रमुख ग्रन्थों की शृङ्खला में परशुराम कल्पसूत्र, बिन्दुसूत्र, तन्त्रराज त्रिपुरा रहस्य, नित्यहृदय, वामकेश्वर तन्त्र व सौभाग्य रत्नाकर आदि के नाम हैं।
इसके अतिरिक्त कामकलाविलास, कामराजविद्या, लोपामुद्राविद्या, अगस्त्यप्रणीतशिवसूत्र, दुर्वासा प्रणीत त्रिपुरामहिम्नस्तोत्र, ललितास्तवरत्न तथा दत्तात्रेयकृतदत्तसंहिता आदि भी इसी परम्परा के प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं।
भारतीय संस्कृति की परम्परा में श्रीविद्या उपासकों की जो नामावली स्वीकृत है, उनमें सुभगोदय एवं श्रीविद्यारत्नसूत्र के प्रणेता श्री आदि शंकराचार्य के गुरु श्री गोविंदा गौड़पादाचार्य का नाम सर्वोपरि है।
तत्पश्चात् भगवानाद्यशङ्कराचार्य का नाम है जिन्होंने सौन्दर्यलहरी और आनन्दलहरी की रचना की जिस पर आज ललितात्रिशतीभाष्य भी उपलब्ध है।
चारों पीठों पार अपार धन होने की वजह भी श्री विद्या ही है ….
शङ्कराचार्य ने जिन चार पीठों की स्थापना की, उन सबमें श्रीविद्या की उपासना अविच्छिन्नत: चल रही है। कहते है कि श्री विद्या यन्त्र की स्थापना स्वयं शंकराचार्य ने ही की थी। इसलिए यहां धन दौलत की कभी कमी नहीं आती।
इसके बाद इस उपासना शृङ्खला में पुण्यानन्दनाथ, अमृतानन्दनाथ व उन भास्करराय का नाम रेखांकित किये जाने के योग्य है जिनकी कृतियों के नाम हैं-वरिवस्या रहस्यम् , सौभाग्यभास्कर:, ललितासहस्रनामभाष्यम् , सेतुबन्धः, गुप्तवती (श्रीचण्डी टीका) और कौलत्रिपुरा (कौलभाव की टीका) प्रभृति ।
आगे चलकर भास्करराय के शिष्य उमानन्दनाथ ने नित्योत्सवपद्धति और प्रशिष्य रामेश्वर सूरि ने परशुकल्पसूत्र की सौभाग्यसुधोदय नाम्नी टीका की।
इस प्रकार त्रिपुरोपनिषद् और त्रिपुरातापनीयोपनिषद् आदि ग्रन्थों के विपुल वाङ्मय व समाज पर उनके प्रभाव तथा उनकी उपलब्धियों को देखते हुए तदाभ्यन्तरीय गूढरहस्य और तद्विस्तार का अनुभव सहज ही किया जा सकता है।
आज देश के चारों पीठों की सार्द्धद्वयसहस्रवर्षीय शाङ्करपरम्परा में भगवती की अक्षुण्ण उपासना देवी की लोकप्रियसाधना का देदीप्यमान प्रमाण है; क्योंकि-
अस्माकं क्षेमलाभाय जागर्ति जगदम्बिका।
(त्रिपुरा रहस्य, ज्ञानखण्ड भगवती का स्वरूपाङ्कन करते हुए इसी ग्रन्थ के २/७०-७१ में बताया गया है कि आराधना करने पर महादेवी त्रिपुरा प्रसन्न होकर विचार रूप में परिणत हो सूर्य के समान हृदयाकाश में प्रकट हो जाती हैं।
भगवती की आराधना साधकजन कैसे करते हैं, इस पर सौन्दर्यलहरीकार कहते हैं कि
शिवः शक्तिः कामःक्षितिरथ रविःशीतकिरणः
स्मरो हंसः शक्रस्तदनु च परामारहरयः।
अमी हृल्लेखाभिस्तिसृभिरवसानेषु घटिता:
भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् ।।
(सौन्दर्यलहरी श्लोक -३२)
प्राय: ऐसा देखा जाता है कि जहाँ भोग है, वहाँ मोक्ष नहीं है और जहाँ मोक्ष है, वहाँ भोग नहीं है, किन्तु, पञ्चदशाक्षरी की आराधना से उपासक को भोग व मोक्ष दोनों मिलते हैं।
यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोक्षः,
यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोगः। श्रीसुन्दरीसाधनतत्पराणां,
भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।।
अर्थात श्रीविद्या की उपासना के लिए जिस महत्त्वपूर्ण मन्त्र का शास्त्रों में विधान है, उसे पञ्चदशाक्षरी कहते हैं।
स्पष्ट ही है कि इस मन्त्र में कुल १५ अक्षरों का समावेश होता है। इन १५ वर्गों में सभी के अलग-अलग अर्थ हैं और इनकी तन्त्रविद्या में व्यवस्थित व्याख्याएँ भी की गई हैं जिनके लोक व परलोक के साथ बहुविध सम्बन्ध हैं।
पञ्चदशाक्षरी के गुह्यातिगुह्य विषयों को अध्यात्मविद्या की पराकाष्ठा कहा जा सकता है –
सा काष्ठा सा परागतिः।
श्री विद्या/ श्री यंत्र सिद्धि के फायदे…
इस मन्त्र के आरम्भ में हकार है, एतावता इसे हादि विद्या कहते हैं, जिनकी उपासना से भक्त में शान्ति आती है, सौभाग्य का उदय होता है।
साधक ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होता है तथा अन्त में सायुज्य की प्राप्ति करता है। इससे कवित्व की सिद्धि, व्यक्ति में कलाओं का आगम, शारीरिक स्वास्थ्य की उपलब्धि, निर्भयता, सर्वसाध्यता एवं सात्त्विकवाक् की प्राप्ति होती है।
यह कामकला का बीज, शक्ति का केन्द्र, अर्धनारीश्वर का साक्षात् रूप, त्रैगुण्य का समन्वय, परमसत्ता का आधान, कोमलता का प्रतीक तथा करुणा का सागर है और साथ ही तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि भी है । इनके प्रभाव को मात्र निम्नांकित पंक्तियों से समझा जा सकता है।
अरालं ते पालीयुगलनगराजन्य तनये न
केषामाधत्ते कुसुमशरकोदण्डकुतुकम्।
तिरश्चीनो यत्र श्रवणपथमुल्लङ्घय विलसन्नपाङ्गव्यासङ्गो दिशति शरसन्धानधिषणाम्।।
सौन्दर्यलहरी में न केवल महाशक्ति का साङ्गोपाङ्ग वर्णन है प्रत्युत् उनके आशीर्वचन, पूजापद्धति, पूजा के महत्त्व, उनके शृङ्गार, समर्पण, अभ्यर्थना, प्रार्थना, महासतीत्व, पर्यङ्क, हृदयचक्र, विशुद्धिचक्र, सर्वव्यापकता, परमानन्द समता, श्रीचक्र, अन्वयभूमिका, मोहिनीरूपध्यान, सर्वसाध्यता, अनन्तता, मूलाधारचक्र, मणिपूरचक्र, आज्ञाचक्र, सर्वाधिष्ठानचक्र और .सहस्रार-कमल का भी सविस्तार वर्णन किया गया है।
सौन्दर्य लहरी के श्लोक ४२ से १०० तक देवी के मुकुट, अलक, सीमन्त, ललाट, भ्रू, नेत्र, कर्ण, मुख, नासिका, ग्रीवा चिबुक व चिकुर प्रभृति का व्यवस्थित चिन्तन किया गया है।
एतदतिरिक्त शक्ति की उपासना के अनेक प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित ग्रन्थों में भगवती के स्वरूप, कार्य, पराक्रम, आभूषण, व्याप्ति, अस्त्र-शस्त्र, मित्र-शत्रु, तथा उनके परिवेश आदि का सुन्दर चित्रण किया गया है, जैसे देवीभागवत एवं चिद्विलास इत्यादि।
ध्यातव्य है कि चिद्विलास श्रीविद्यारहस्य निरूपण का अप्रतिम ग्रन्थ है, जिसकी पश्चाद्भूमिका की निम्नांकित पंक्तियाँ प्रकृत प्रसंग में उद्धरणीय हैं। यथा
“सच्चिदानन्दस्वरूपिणी राजराजेश्वरी भगवती त्रिपुरसुन्दरी परमतत्व हैं। चिदसंविद परब्रह्म उन्हीं के पर्याय हैं।
तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि आदि महावाक्यों में इन्हीं पराशक्ति का निरूपण है । उपनिषदों की प्रतिपाद्य ब्रह्मविद्या तथा ब्रह्म पृथक्-पृथक् नहीं हैं।
समस्त आध्यात्मिक दर्शनों का पर्यवसान यहीं होता है। आगम शास्त्र में अनन्त तेजोराशिमयी अखिल ब्रह्माण्ड नायिका श्रीविद्या ही प्रभावरूप से विराजमान है। निगमागम का समस्त वाङ्मय इसी परब्रह्म की आराधना में संलग्न है”।
– इस ग्रन्थ के अनुसार संविद्रूपिणी पराशक्ति में अपना लय ही शक्ति की पूजा है तथा इस पराशक्ति से भिन्न समूचा मायामय संसार मिथ्या है।
सौंदर्य लहरी ग्रन्थ के कुल ३८ श्लोकों में मात्र चिच्छक्ति की ही सविस्तार चर्चा है। इसमें कहीं शक्तिरूपी तट को ही अद्वैतसागर की मर्यादा माना गया है, तो कहीं इस सागर में मनोमल का त्याग ही स्नान कहा गया है।
कहीं इसे विश्वमोहिनी माया रूपी रात्रि स्वीकारा गया है, तो कहीं शिव को प्रकाशरूपी दिवस। इसी ग्रन्थ के एक स्थल में इन दोनों के सामरस्य को श्रीविद्या भी कहा गया है ; यथा
सानिशा सकललोकमोहिनी वासरः खलु सर्वबोधकः। सामरस्यमिह सन्धिरेतयोः श्रीः परैव ननु सन्ध्यदेवता।। तीर्थमद्वय सुधारसोदधेारितं निविमर्शवेलया। आणवादिमलमोचनोचितं स्नानमत्रविधिना निमज्जनम् ।। (श्लोक ४-५)
अर्थात
परमार्थस्वरूप संवित् तत्त्व की महिमा से संसार के समस्त मायिक कार्यों से मुक्ति मिल जाती है और उसके पारमार्थिक रूप का बोध हो जाता है, जिससे इस दृश्यमान जगत् का मायामय चक्र उसी प्रकार विलुप्त हो जाता है जैसे प्रकाश द्वारा रज्जु का ज्ञान होने पर सर्पबुद्धि दूर हो जाती है।
शास्त्रों में श्रीविद्या और इसकी दीक्षा का बहुत महत्त्व बताया गया है। एतदनुसार गुरुगम्य यह गुह्य तत्त्व सुयोग्य को ही देय है।
इस सन्दर्भ में ये पंक्तियाँ निश्चप्रचरूपेण उद्धरणीय हैं – अतिप्रियतमं देयं सुतदाराधनादिकम्।
राज्यं देयं शिरो देयं न देया पञ्चदशाक्षरी।।
इसी प्रकार ब्रह्माण्डपुराण के अंशभूत ललितासहस्रनाम (ललितोपाख्यान) में भी श्रीविद्या और श्रीचक्र का महत्त्व प्रतिपादित है तथा त्रिशती, त्रिपुरारहस्य, ललितास्तवरत्न व त्रिपुरामहिम्नस्तोत्रम् प्रभृति भी इसी के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। इनके अनुसार श्रीचक्र का स्वरूप देखें – ,
बिन्दुत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्म
मन्वश्र-नागदल संयुतषोडशारम्।
वृत्तत्रयञ्च धरणीसदनत्रयश्च
श्रीचक्रमेतदुदितं परदेवतायाः।।
अर्थात् श्रीचक्र ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। इसके आविर्भाव और लय दोनों बिन्दु में माने जाते हैं। चक्र की सृष्टि अथवा विश्व या ब्रह्म की सृष्टि भी बिन्दु से ही होती है । बिन्दु ही चक्र का मूल है और यह बिन्दु शिव व शक्ति का सामरस्य है।
शिव को संहारात्मक अग्नि तथा शक्ति को सर्गात्मक सोम कहा जाता है।
रवि दोनों शक्तियों का सामञ्जस्य किंवा सामरस्य है। यही बिन्दु चक्र के मध्य में है और उसके बाद त्रिकोण, अष्टकोण, अन्तर्दशार, बहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल, षोडशदल, तीनवृत्त व तीन भूपुर हैं।
इस यन्त्र में कुल ४३ त्रिकोण, २८ मर्मस्थल और २४ सन्धियाँ होती हैं।
ललितासहस्रनाम की भूमिका में ब्रह्माण्ड के समान ही मानव देह में भी श्रीचक्र की भावना की गयी है। शरीर को श्रीचक्र, ब्रह्मरन्ध्र को बिन्दु चक्र, मस्तक को त्रिकोण, ललाट को अष्टकोण, भ्रूमध्य को अन्तर्दशार, कण्ठ को बहिर्दशार हृदय को चतुर्दशार, कुक्षि को वृत्त, नाभि को अष्टदलकमल, कटि को अष्टदल के बाहर का वृत्त , स्वाधिष्ठान को षोडशदलकमल, मूलाधार को षोडशदल कमल का बाह्यवृत्तत्रय, जानु को भूपुर की प्रथम रेखा, जंघा को द्वितीय रेखा और करों को तीसरी रेखा मानते हैं। इसीलिए श्रीचक्र को चक्रराज स्वीकार किया गया है, क्योंकि योगिनीहृदय के अनुसार अपनी देह और ब्रह्माण्ड को श्रीचक्र समझने वाला व्यक्ति महान् तपस्वी होता है । यथा –
पिण्डब्रह्माण्डयोनिं श्रीचक्रस्य विशेषतः।
ज्ञात्वा शम्भु फलावाप्ति स्त्यस्य तपसः फलम्।।
दस महाविद्याओं में तृतीय स्थानीय श्रीविद्या शिवशक्त्यैकरूपिणी पराभट्टारिका मानी जाती हैं, जिनके पञ्चदशी, षोडशी दीपनी और कामराज आदि अनेक भेद हैं। ज्ञानार्णव तन्त्र के अनुसार यह सर्वसिद्धिदायिनी है । इसीलिए उसमें कहा गया है – कामराजाख्यमन्त्रोक्ते श्रीबीजेन समन्विता।
षोडशाक्षरविद्येयं श्रीविद्येति प्रकीर्तिता।।
वर्णितुं नैव शक्येयं श्रीविद्या षोडशाक्षरी।ब्रह्मविद्यास्वरूपा हि भुक्तिमुक्तिफलप्रदा।।
जगज्जननी, जगद्वन्द्या,त्रैलोक्यपूजिता भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी वर्णनातीत, अगम्य, अच्छेद्य एवं अभेद्य हैं।
शास्त्रकारों ने इन्हें नेति-नेति के विशेषण से विभूषित किया है । इसलिए संक्षिप्ततया मैं महर्षि दुर्वासा के शब्दों द्वारा उनके पादपद्मों में अपनी बात को पूर्णता देते हुए प्रणामाञ्जलि अर्पित करता हूँ, यथा –
स्वामी सदानन्द सरस्वती के अनुसार
वन्दे वाग्भवमैन्दवात्मसदृशं वेदादिविद्यागिरो
भाषादेश समुद्भवाः पशुगताश्छन्दांसि सप्तस्वरान्। तालान् पञ्चमहाध्वनीन् प्रकटयत्यात्मप्रसारेण यत् तद्वीजं पदवाक्यमानजनकं श्रीमातृके ते परम्।।
आगे अगले लेख में भी सौंदर्यवलहरी के धनदायक यंत्र के बारे में जाने
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