आयुर्वेद के करीब 22 से अधिक प्राचीन ग्रन्थों में शिलाजीत को संस्कृत में शिलाजतु कहा गया है।
आपका भ्रम मिटाने के लिए यह रिसर्च लेख बहुत मार्गदर्शन करेगा, ताकि आप ठगी के शिकार न हों।
शिलाजीत का वर्णन भैषज्य रत्नावली केगुणादिप्रकरणम् (३) से लिया है।
- चरक और आयुर्वेद सहिंता में प्रकारान्तर से सूर्यतापी एवं अग्नितापी शिलाजीत दो प्रकार के होते हैं। सूर्यतापी शिलाजीत बहुत कम तथा मुश्किल से मिलता है।
- सन 2008 में अमृतम मासिक पत्रिका में यह लेख प्रकाशित किया था।
- शिलाजीत की सच्चाई जानना हो, तो 10 हजार शब्दों का यह लेख पढ़ें। इसे चरक सहिंता आदि 25 पुरानी किताबों से खोजा है। इसे समझकर शिलाजीत कब भूत उतर जायेगा।
- वर्तमान में शिलाजीत की मांग सेक्स पॉवर बढाने के कारण बढ़ी है और इसकी मार्केटिंग करके नकली शिलाजीत बेचा जा रहा है, जिसमें कुछ हानिकारक द्रव्यों का भी समावेश है।
- इसके अलावा द्रव्यगुण विज्ञान, भावप्रकाश, आयुर्वेदिक निघण्टु, दुर्लभ ओषधियाँ आदि किताबों से मनीपुरित किया है।
- क्या है-शिलाजीत……, शिलाजतु (Black Bitumen) गिरिज, प्रमुख पर्याय–अतिथि, अद्रिजतु, अश्मसार, गिरिजतु, जतु, शिलाजतु, शिलाधातु, शैल, शैलेय तथा शैलोद्भव ये सब शिलाजीत के नाम हैं।
- परिचय-संहिताकाल से ही शिलाजतु का अत्यन्त उपयोग रोग-हरणार्थ होता आ रहा है।
चरकसंहिता में ४ प्रकार का शिलाजीत कहा गया है—१.स्वर्णगर्भ पर्वत के स्राव से उत्पत्र शिलाजीत,
२. रजतगर्भ पर्वत के स्राव से उत्पन्न शिलाजीत,
३. ताम्रगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत तथा
४. लोहगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत ।
किन्तु सुश्रुतसंहिताकार ने छ: प्रकार कहा है—
५. नागगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत,
६. वङ्गगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत ।
- इनमें लोह-पर्वतोत्पन्न शिलाजीत को दोनों ने श्रेष्ठ माना है।
शिलाजीत की उत्पत्ति…
हेमाद्याः सूर्यसन्तप्ताः स्रवन्ति गिरिधातवः!
जत्वाभं मृदु मृत्स्नाच्छं यन्मलं तच्छिलाजतु ॥५२॥
(चरक-चि. १६३)
- ग्रीष्म ऋतु में प्रचण्ड सूर्य-किरणों से प्रतप्त हेमाद्य धातुओं वाला पर्वत जतु (लाक्षा) की तरह एक प्रकार का स्राव त्यागता है जो स्वच्छ मिट्टी जैसा मल है, उसे ही शिलाजतु कहते हैं।
शिलाजीत के बारे में यह वीडियो लद्दाख के तुरतुक गाँव का है। यह भारत की अंतिम सीमा है। सूर्यतापी शिलाजीत यही सबसे अधिक मिलता है।
Amrutam बी फेराल गोल्ड कैप्सूल में तुरतुक से ही मंगाते हैं शुद्ध शिलाजीत पूरा वीडियो सुनकर शिलाजीत की असलियत मालूम होगी।
शिलाजतु की श्रेष्ठता….
गोमूत्रगन्धयः सर्वे सर्वकर्मसु यौगिकाः!
रसायनप्रयोगेषु पश्चिमस्तु विशिष्यते ॥५३॥ (चरक)
- इन सभी ४ प्रकार के शिलाजतुओं में अन्तिम लोह पर्वतजन्य स्राव वाला शिलाजतु श्रेष्ठ है और सभी कर्मों (रोगनाशनार्थ एवं रसायनार्थ) में उपयोगी है, रसायनकोपयोगी है। यह गोमूत्रगन्धि है।
- किन्तु रसशास्त्र के काल में शिलाजतु का मात्र दो ही भेद रह गया था। वह था- १. गोमूत्रगन्धि : सत्त्वयुक्त तथा २. कर्पूरगन्धि : सत्त्वरहित। यथा-रसरत्न समुच्चयशास्त्र)
‘शिलाजतु द्विधा प्रोक्तो गोमूत्राद्यो रसायन:! कर्पूरपूर्वकश्चान्यस्तत्राद्यो द्विविध: पुनः।।
ससत्त्वश्चैव निःसत्त्वस्तयोः पूर्वो गुणाधिकः’।
कर्पूरशब्दोऽत्र मनोहरवाचकः इति श्रीहजारीलालः।
यहाँ कर्पूर शब्द मनोहरवाचक है।
१. गोमूत्रगन्धि = Black bitumen तथा
२. कर्पूरगन्धि = Potassium nitrate!
शुद्ध शिलाजतु परीक्षा या पहचान….
वह्नौ क्षिप्तं भवेद्यत्तल्लिङ्गाकारमधूमकम् । सलिलेऽप्यविलीनं च तच्छुद्धं हि शिलाजतु (र.र.स.५५)
अपि चतृणानेणाम्भसि क्षिप्तमधो गलति तन्तुवत् । गोमूत्रगन्धि मलिनं शुद्धं ज्ञेयं शिलाजतु (र.रत्नमाला ५५)
- शिलाजीत या शिलाजतु की चने बराबर गोली बना कर निर्धूम आग पर रखने से वह गोली फूल कर लिङ्गाकार एक इञ्च की हो जायेगी,
- शुद्ध शिलाजीत आग पर निर्धूम रहेगा, पानी में अविलीन रहेगा। यह तीन परीक्षा शुद्ध शिलाजतु की है।
- अन्य आयुर्वेदाचार्यों ने भी कहा है कि-दियासलाई की तिल्ली पर चने बराबर शिलाजतु चिपका कर पानी से भरे शीशे के गिलास में डालें, तिल्ली पानी पर तैरती रहेगी और उसमें चिपका शिलाजतु केशाकृति या तन्तुवत् पानी में घुल कर गिलास की तली में बैठ जायेगा!
- गोमूत्रगन्धी होगी और काली होगी, यह शुद्ध शिलाजतु की पहचान है।
शिलाजतु का शोधन शुद्ध करने की विधि…॥५६॥
शिलाधातुं च दुग्धेन त्रिफलामार्कवद्रवैः!
लोहपात्रे विनिक्षिप्य शोधयेदतियत्नतः!! (र.र.स.)
- बाजार में शिलाजतु पत्थर एवं शिलाजतु शुद्ध दोनों मिलता है। शिलाजतु पत्थर से शिलाजतु निकालने की विधि तथा शुद्ध करने की विधि एक साथ ही हो जाती है।
- शास्त्रोक्त विधि-१ लोहे की कड़ाही में १ किलो त्रिफला चूर्ण को दरदरा यानि यवकुट रखकर उसमें २० लीटर जल देकर रात्रि पर्यन्त भिगावें। दूसरे दिन क्वाथ कर, अर्धावशेष क्वाथ को छानकर कड़ाही साफ करें।
- तदनन्तर १० ली. त्रिफला क्वाथ और १ किलो शिलाजतु पत्थर का यवकुट चूर्ण कर उसी कड़ाही में रखकर कलछी से खूब मिला लें। मिलाते समय गरम त्रिफला क्वाथ का उपयोग करें।
- काढ़े की इस कड़ाही को चूल्हे पर चढ़ाकर २ दिनों तक यों ही छोड़ दें जब क्वाथ बिलकुल निथर जाय तब एक साफ बाल्टी में पतला कपड़ा बाँधकर पानी ढाल दें और अवशिष्ट शिलाजतु पत्थर का अवशिष्ट पदार्थ में १० लीटर और पानी देकर १ घण्टा तक उबाल लें।
- पुन: पूर्ववत् पानी को निथारने के लिए छोड़ दें। २ दिन बाद पूर्ववत् छान लें। इन दोनों जलों को एक साथ मिलाकर आग पर सुखा लें । मधु जैसा होने पर लोहे की कड़ाही उतार कर द्रव पदार्थ को ट्रे में रख कर धूप में सुखा लें।
- यह शुद्ध शिलाजीत या शिलाजतु कहा जाता है। इसमें गोमूत्र की गन्ध होती है तथा उपर्युक्त शिलाजतु की सारी परीक्षाएँ देखी जाती हैं। इस शिलाजतु को अग्नितापी शिलाजीत कहते हैं।
-
- आयुर्वेदिक शास्त्रों के अनुसार प्रकारांतर से सूर्यतापी एवं अग्नितापी शिलाजीत दो प्रकार के होते हैं।
- सूर्यतापी शिलाजीत की पहचान…..-त्रिफला क्वाथ में घुला हुआ शिलाजीत का अंश रहता है। बड़े-बड़े परात में त्रिफला क्वाथ एवं शिलाजतु-घोल को भरकर प्रचण्ड गर्मी की धूप में आठ दिनों तक रखें।
- शिलाजतु के घोल पर मल,’ जैसी या दूध की साठी जैसी एक परत जमती है जिसे लोह-शलाका से उठाकर पृथक् करते रहें। यही सूख कर सूर्यतापी शिलाजतु कहलाती है। यही शिलाजतु सर्वोत्तम होता है, जो अब उपलब्ध न के बराबर है।
शुद्ध शिलाजतु की विश्लेषण-तालिका…
न सोऽस्ति रोगो भुवि साध्यरूपः
शिलाह्वयं यन्न जयेत् प्रसह्य।
तत्कालयोगैर्विधिभिः प्रयुक्तं
स्वस्थस्य चोर्जा विपुलां ददाति ॥५७॥ (चरक)
न सोऽस्ति रोगो यं चापि निहन्यान्न शिलाजतु ।(सु.चि.१३)
जराव्याधिप्रशमनं देहदाढयकरं परम्।
मेधास्मृतिकरं बल्यं क्षीराशी तत्प्रयोजयेत् ॥५८॥
रसोपरससूतेन्द्ररत्नलोहेषु ये गुणाः।
वसन्ति ते शिलाधातौ जरामृत्युजिगीषया ॥५९॥
नूनं सज्वरपाण्डुशोफशमनं मेहाग्निमान्द्यापह मेदश्छेदकरं च यक्ष्मशमनं मूलामयोन्मूलनम् ।
गुल्मप्लीहविनाशनं जठरहृच्छूलघ्नमामापहं सर्वत्वग्गदनाशनं किमपरं देहे च लोहे हितम् ॥६०॥(र.र.स.)
- अर्थात-महान आयुर्वेदाचार्य महर्षि अग्निवेश का कथन है कि पृथ्वी पर कोई ऐसा साध्य रोग नहीं हैं, जिसे विधिवत् प्रयोग, अनुपान, मात्रा, पथ्य आदि के द्वारा शुद्ध शिलाजतु नष्ट न कर दे।
- साथ ही यदि स्वस्थ व्यक्ति शुद्ध शिलाजतु का प्रयोग करे तो अत्यन्त ओजस्वी और शक्तिशाली बना देता है । महर्षि सुश्रुत का भी यही मत है।
- महर्षि चरक के अनुसार शिलाजतु जरा-व्याधि को नाश करता है, शरीर को दृढ़ करता है, मेध्य है।
- शिलाजीत को यदि इसे गुनगुने दूध के साथ सुबह खाली पेट 5 महीने तक लगातार प्रयोग किया जाय, तो स्मृति-शक्तिवर्धक होता है एवं बल्य-वीर्य की वृद्धि कर नवीन शुक्राणुओं का निर्माण कर वीर्य को गाढ़ा करता है।
- शिलाजीत के इन्हीं लाभकारी गुणों की वजह से इसे बी फेराल गोल्ड कैप्सूल में मिलाया है। चूंकि शुद्ध शिलाजीत बहुत महंगा होने के कारण यह आयुर्वेदिक कैप्सूल भी कुछ कीमती है।
- इसे सुबह खाली पेट गर्म दूध से रात को भोजन से एक घण्टे पहले दूध से ही 3 महीने तक लेने से शीघ्रपतन, ठंडापन, शिथिलता कादि पौरुष विकार जड़ से मिट जाते हैं।
- आचार्य वाग्भट ने कहा है कि रस, उपरस, साधारण रस, पारा, सभी रत्नवर्ग एवं धातुवर्ग में जो गुण हैं, वे सब जरा-मृत्युरोगनाशक गुण शुद्ध शिलाजतु में हैं।
- पुन:-शुद्ध शिलाजतु निश्चित रूप से ज्वर, पाण्डु, शोथ, प्रमेह, अग्निमांद्य, मेदोरोग यक्ष्म, अर्श, गुल्म, प्लीह, उदररोग, हृच्छूल, आमदोष और सभी प्रकार के चर्मरोगों को नाश करता है। इसके अतिरिक्त देह और लोहवाद के लिए भी हितकर है
- नकली या अशुद्ध शिलाजतु के दोष
- अशुद्धदाहमूर्छाय भ्रमपित्तास्रशोषकृत्।
- शिलाजतु विधत्ते हि मान्द्यमग्नेश्च विग्रहम् (आ.प्र.६१)
- अशुद्ध शिलाजतु का सेवन करने से दाह, मूर्छा, भ्रम, रक्तपित्त, क्षय, अग्निमान्द्य और विबन्ध आदि रोगों को उत्पन्न करता है। शोधनोपरान्त ही इसका प्रयोग करना चाहिए। विमर्श-शिलाजतु का मारण नहीं करना चाहिए।
- अन्य आयुर्वेदिक शास्त्रों में शिलाजीत की जानकारी…
- शिलाजीत सेवन करने वाले पुरुष काम-वासना या कामेच्छा के अन्य पहलू को भी जाने…
- इस शब्द का प्रयोग प्राचीन पुस्तक में अनेक चार हुआ है। कामेच्छा तथा यौन समागम की इच्छा में अन्तर है ।
- कामेच्छा से अभिप्राय उस तरह ची इच्छा से नहीं है जो अन्य भौतिक पदार्थों के प्रति आपके मन में जागृत होती है।
- सांसारिक इच्छाओं से यह बिलकुल अलग है । सांसारिक संदर्भ में गिनी जाने वाली तो ‘यौन-समागम की इच्छा ही है।
- एक व्यक्ति अपनी कामेच्छा के बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ कर सकता है,
- जैसे जिसके साथ वह अपनी कामेच्छा पूरी करे वह साथी कैसा हो, अपने साथी के साथ विशेष प्रकार के यौन-संबंध रखने तथा विशिष्ट परिस्थितियों में मिलने की इच्छा।
- इसी तरह की अन्य अनेक कल्पनाएँ जिनका अन्त नहीं है । परन्तु कामेच्छा इन सबसे अलग हम सवको महसूस होने वाली एक अत्यन्त जटिल मानसिक व दैहिक संवेदनशीलता है।
- जिसका संबंध हमारे अस्तित्व से है तथा जो हमारे अन्दर एक विवश कर देने वाली शक्ति उत्पन्न करती है ।
- यह शक्ति इस दृश्य-जगत की विद्यमानता के मूल में भी स्थित है ।
- यौन-समागम की इच्छा तथा कामेच्छा के बीच अन्तर का विश्लेषण करना इस दृष्टि से भी आवश्यक है कि बहुत से लोग अपनी काम-ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग यौन समागम की इच्छा तथा उससे संबंधित कल्पनाओं तथा गतिविधियों में नष्ट कर देते हैं । वे अपने काम जीवन के बारे में तरह-तरह से सोचते-विचारते रहते हैं, परन्तु जब काम-वासना की तुष्टि के लिए वास्तविक समागम का अवसर सामने आता है, जो पूरी तरह प्राकृलिक क्रिया है, तो वे अन्दर से एक प्रकार की रुकावट का अनुभव करते हैं, अपने-आपको मानसिक व शारीरिक रूप से व्यक्त नहीं कर पाते।
- अत: काम-ऊर्जा में वृद्धि करने के लिए यह आवश्यक है कि काम-संबंधी इच्छाओं पर नियंत्रण रखा जाए।
- संसार तरह-तरह के आकर्षणों से भरा पड़ा है।
- परन्तु हमें व्यवहार में ही नहीं, कल्पना क्षेत्र के में भी अपनी सीमा पहचान लेनी चाहिए ।
- संसार में एक-से-एक सुन्दर और सुगठित शरीर वाली स्त्रियों और पुरुष है जो आपके साथी से कहीं अधिक सुन्दर और आकर्षक हैं।
- कामातुरता को अभिव्यक्त करने के अनेक अप्राकृतिक ढंग भी हैं ।
- हमें अपने पर इस प्रकार नियंत्रण करना सीखना चाहिए कि वह काम-ऊर्जा को नष्ट करने वाली गतिविधियों में न पड़े। इससे काम संबंधी अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन हो जाती है जैसे रति-स्रावों में कमी आ जाना, स्तम्भन शक्ति का क्षीण हो जाना, काम-शक्ति का घट जाना तथा संतान उत्पन करने की शक्ति न रहना आदि।
- शरीर, मन और काम-वासना :—आयुर्वेदिक ऋषि इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे कि काम-वासना और काम-ऊर्जा का निवास मन और शरीर दोनों में होता है।
- “कभी-कभी एक हृष्ट-पुष्ट पुरुष भी यौन-समागम नहीं कर पाता। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे भय, आत्मविश्वास की कमी, दुख, स्त्रियों के दोष देख लेना, स्त्रियों के साथ रमण करने का ज्ञान न होना,
- दृढ़ता अथवा रुचि की कमी काम-क्षमता काम-वासना पर निर्भर करती है और काम-वासना शरीर व मन के आत्मविश्वास की शक्ति पर निर्भर करती है ।
- इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण काम-वासना, कामावेग तथा काम-अभिव्यक्ति के लिए शरीर और मन का शक्तिशाली होना आवश्यक है ।
- मानसिक शक्ति बढ़ाने का आरम्भ शरीर से ही करना पड़ता है।
- अपनी गतिविधियों पर नियंत्रण रखने का अभ्यास करना तथा समय, मौसम, सामाजिक परिवर्तनों का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है,
- इसे समझना अर्थात् अपनी प्रकृति को जानना । दूसरा कदम है प्राणायाम अथवा श्वसन संबंधी योग-क्रियाओं के माध्यम से ब्रह्मांडीय गति से तादात्म्य स्थापित करना सीखना ।
- तीसरा कदम है ध्यान एकाग्र करने का अभ्यास करना (जिसे आजकल के लोग अंग्रेजी में ‘Meditation’ कहते हैं)
- इन अभ्यासों के अलावा मन की शक्ति मानवीय गुणों जैसे दया, विनम्रता, धैर्य, संतोष, अनासक्ति, लालच व क्रोध की कमी आदि पर निर्भर करती है।
- ये गुण हमें मानसिक व चारित्रिक शक्ति देते हैं तथा चेहरे एक विशिष्ट आकर्षण तथा दिव्य आभा प्रदान करते हैं ।
- चाहत तथा काम-आकर्षण के लिए भी ये गुण आवश्यक तथा वांछित हैं।
- वैदिक साहित्य में यह बताया गया है कि योगी के चेहरे पर दिव्य आभा, और काम-आकर्षण की शक्ति आ जाती है
- जब वह मित्रता, अहिंसा आदि गुणों से युक्त होता है। यद्यपि संसारी मनुष्यों की तुलना योगियों व साधुओं से नहीं की जा सकती ।
- यह उदाहरण यह बात समझाने के लिए दिया गया है कि मानसिक तथा चारित्रिक बल से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार और चेहरे पर आकर्षण आ जाते हैं।
- दो मनुष्यों में कभी भी पूरी तरह समानता नहीं होती । जुड़वाँ बच्चों को भी माँ अलग-अलग.पहचान लेती है ।
- जैसे मनुष्यों के बाह्य रूपों में अन्तर होता है, वैसे ही उनके व्यक्तित्वों तथा काम-वासना में भी अन्तर होता है।
- काम-ऊर्जा के अबाध प्रवाह के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने साथी में पूरी रुचि व आस्था रखता हो, उसे अच्छी तरह समझता हो, उसके प्रति सहनशील व निःस्वार्थ हो । अपने साथी के रुझान व रुचियों से पूरी तरह बेखबर होकर अपनी मर्दानगी झाड़ने (शक्ति प्रदर्शित करने) का विचार बिलकुल गैर-व्यावहारिक है ।
- आपकी क्रिया की साथी पर क्या प्रतिक्रिया हो रही है इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए।
- काम-शक्ति तथा काम-ऊर्जा बढ़ाने के लिए धैर्य एवं सहनशीलता का होना आवश्यक है।
- ये गुण अपने साथी के प्रति होने के साथ-साथ पूरे सामाजिक एवं व्यावहारिक सोच में होने चाहिए।
- प्राय: यह देखने में आता है कि अपनी वर्तमान कठिनाइयों के लिए कुछ लोग दूसरों को दोषी ठहराते हैं।
- वे अपनी पूरी शक्ति अपनी वर्तमान स्थिति को ठीक करने में लगाने के स्थान पर दूसरों को कोसने में खर्च करते हैं।
- जैसे अपनी काम संबंधी समस्याओं के लिए बचपन, माता-पिता अथवा जीवन की अन्य परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं
- जो हो चुका है उसके लिए दूसरों को दोष देना व्यर्थ है, क्योंकि जो घटनाएँ हो चुकी हैं, उन्हें फिर से उन्हीं परिस्थितियों में होने से रोकना असम्भव।
- दोष देने अथवा कोसने के स्थान पर सहन कर लेना चाहिए, और अपनी ऊर्जा की बिगड़ी हुई स्थिति को ठीक करने में लगाना चाहिए।
- इसलिए पुरानी बातें भूल जाओ, दूसरों को क्षमा करो और रचनात्मक कार्य में लग जाओ । अतीत से केवल शिक्षा ली जा सकती है, उसे फिर से जिया नहीं जा सकता।
- सदैव अपनी वर्तमान कठिनाइयों और समस्याओं को सुधारने की विधियों और साधनों के बारे में सोचिए ।
- अपनी आज की स्थिति में सुधार कीजिए । अतीत में जो हो चुका है उसे आप नष्ट नहीं कर सकते ।
- वर्तमान कार्य में सुधार करके अतीत की क्षति को पूरा कर सकते हैं, साथ ही बेहतर भविष्य के लिए तैयार कर सकते हैं।
- यदि आपको काम संबंधी कठिनाइयाँ महसूस होती हैं तो उस चुनौती को स्वीकार कीजिए तथा उन्हें दृढ़तापूर्वक दूर कर डालिए।
- अपनी इच्छाशक्ति और ऊर्जा को इस काम में लगाइए।
- आप अपनी समस्याओं के उद्गम बिन्दु का पता लगाएँ यह बात तो ठीक है, परन्तु दूसरों को दोष दें यह अनुचित है ।
- यदि आप यह जान जाते हैं कि आपकी अमुक कमी का कारण बचपन की कोई घटना है, तो अपने-आपसे कहिए- “ठीक, अब मुझे पता लग गया कि समस्या कहाँ से पैदा हुई है।
- अब मैं इससे मुक्ति पाने के लिए अपना ध्यान केन्द्रित करता हूँ।
- अतीत में घटी दुखद घटना का साया मेरा पीछा नहीं कर सकता।बमैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि मैं अतीत की परेशानी से मुक्ति पाऊँगा।
- मैं ऐसा करने के लिए अपनी समूची इच्छा- शक्ति तथा ताकत का प्रयोग करूंगा।
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