शिलाजीत परिचय आयुर्वेद शास्त्रमत के हिसाब से-संहिताकाल से ही शिलाजीत या शिलाजतु का अत्यन्त उपयोग रोगहरणार्थ होता आ रहा है।
बी फेराल गोल्ड केप्सूल शुद्ध शिलाजीत खरल कर निर्मित किया जाता है।
- शिलाजीत 4 व 6 तरह का होता है….चरकसंहिता में ४ प्रकार का शिलाजीत कहा गया है—
- १.स्वर्णगर्भ पर्वत के स्राव से उत्पन्न शिलाजीत,
- २. रजतगर्भ पर्वत के स्राव से उत्पन्न शिलाजीत,
- ३. ताम्रगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत तथा ४. लोहगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत। (Black Bitumen) शिलाजतु
- किन्तु सुश्रुतसंहिताकार ने छ: प्रकार कहा है-५. नागगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत, ६. वङ्गगर्भ पर्वत के स्रावजन्य शिलाजीत ।
- इनमें लोहपर्वतोत्पन्न शिलाजीत को दोनों ने श्रेष्ठ माना है। शिलाजीत की उत्पत्ति
हेमाद्याः सूर्यसन्तप्ताः स्रवन्ति गिरिधातवः।
जत्वाभं मृदु मृत्स्नाच्छं यन्मलं तच्छिलाजतु!!
॥५२॥(चरक-चि. १३)
- अर्थात- ग्रीष्म ऋतु में प्रचण्ड सूर्य-किरणों से प्रतप्त हेमाद्य धातुओं वाला पर्वत जतु (लाक्षा) की तरह एक प्रकार का स्राव त्यागता है जो स्वच्छ मिट्टी जैसा मल है, उसे ही शिलाजतु कहते हैं।
- शिलाजतु की श्रेष्ठता
गोमूत्रगन्धयः सर्वे सर्वकर्मसु यौगिकाः!
रसायनप्रयोगेषु पश्चिमस्तु विशिष्यते॥५३(चरक)
- इन सभी ४ प्रकार के शिलाजतुओं में अन्तिम लोह पर्वतजन्य स्राव वाला शिलाजतु श्रेष्ठ है और सभी कर्मों (रोगनाशनार्थ एवं रसायनार्थ) में उपयोगी है, रसायनकर्मोपयोगी है। यह गोमूत्रगन्धि है।
- किन्तु रसशास्त्र के काल में शिलाजतु का मात्र दो ही भेद रह गया था। वह था—१. गोमूत्रगन्धि : सत्त्वयुक्त तथा २. कर्पूरगन्धि : सत्त्वरहित यथा
‘शिलाजतु द्विधा प्रोक्तो गोमूत्राद्यो रसायनः!
कर्पूरपूर्वकश्चान्यस्तत्राद्यो द्विविधः पुनः!!
ससत्त्वश्चैव नि:सत्त्वस्तयोः पूर्वो गुणाधिकः’ ।
कर्पूरशब्दोऽत्र मनोहरवाचकः इति श्रीहजारीलालः. (र.र.स
- प्रमुख पर्याय-अतिथि, अद्रिजतु, अश्मसार, गिरिज, गिरिजतु, जतु, शिलाजतु, शिलाधातु, शैल, शैलेय तथा शैलोद्भव।
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