एक प्राचीन शिवालय के शिवलिंग पर फूल, प्रसाद, निर्माल्य की सफाई करते हुए उसकी लगन और कड़ी मेहनत को देखकर भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हो गये। कहा जाता है कि उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ फेरकर उसे आशीर्वाद दिया। उनकी अंगुलियों के निशान गिलहरी की पीठ पर छप गये।
गिलहरी की पीठ पर पड़ी धारियां उसे भगवान शिव से मिला उपहार हैं।
जीवन का अभयदान इस सीधे और भोले जीव को लोग ‘ब्राह्मण वर्ण’ का जीव मानते हैं।
शास्त्रमत मान्यता के अनुसार इसकी पीठ पर पड़ी तीन धारियां ब्राह्मण के ‘यज्ञोपवीत’ का प्रतीक हैं।
केवल गिलहरी ही एक ऐसा प्राणी है, जो
भगवान शिव (हर) के ऊपर चढ़ाये भोग को यह खाकर जलहरी साफ कर देती है। इसलिए इसका नाम गिलहरी पड़ा। संस्कृत में ‘गिल’ धातु का अर्थ- खाना होता है।
गिलहरी के नाम के साथ ‘हरी’ जुड़ा है इसलिए यह भगवान विष्णु का प्रिय जीव है। ये किसी का अनिष्ट या हानि नहीं करती।
ऐसी मान्यताओं के कारण सभी लोग गिलहरी को प्यार की निगाह से देखते हैं।
घरों के अंदर यह बेखटके आती-जाती है।
महादेव के वरदान के कारण इसे कोई नहीं मारता मगर उड़ीसा के आदिवासी इसका गोश्त खाते हैं।
गिलहरी की पूंछ के बालों से बना ब्रश चित्रकार के ‘ब्रश’ के रूप में काम आता है।
नन्ही गिलहरी अपनी मनमोहक उछल-कूद से लोगों के ध्यान को अनायास आकर्षित करती है और प्रजनन संवेदनशील मादा गिलहरी सबसे शक्तिशाली नर को ‘मैथुन-ऋतु’ में चुनती कार्य को निभाती है। यह मादा भविष्य में उसी नर के संपर्क में दुबारा नहीं आती।
गिलहरी की आंखें ऊंचाई पर होती हैं, अतः उन्हें अपने आसपास के दोनों तरफ बिना सिर घुमाये सब कुछ दीखता है।
गिलहरी का मस्तिष्क अखरोट के बराबर होता है। प्रति सप्ताह इसके द्वारा खाये तक इनकी आंखें मुंदी होती हैं।
छोटी मादा गिलहरियां लगभग 33 दिन में और बड़ी मादा गिलहरियां 60 दिन में औसतन चार शिशु गिलहरियों को जन्म देती हैं। जन्म का समय वसंत ऋतु होता है। यदि खाने-पीने की हो तो गरमियों में भी प्रजनन का एक दौर चलता है। नवजात गिलहरी का वजन लगभग एक औंस के करीब होता है और लंबाई लगभग एक इंच। नवजात के तन में न तो बाल होते हैं न ही मुख के भीतर दांत।
स्तनपायी प्राणियों का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा गिलहरियों का होता है।
‘ऑर्डर-रोडेंसिया’ वर्ग के अंतर्गत गिलहरी की 1650 प्रजातियां पायी जाती
मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार की गिलहरियां पायी जाती हैं:
– पेड़ों पर पायी जानेवाली गिलहरियां
– धरती पर पायी जानेवाली गिलहरियां – उड़नेवाली गिलहरियां
मुख्य रूप से इनका रंग भूरा या मटमैला होता है।
सूर्योदय के बाद दो-तीन घंटे के लिए सक्रिय होने के बाद दोपहर को गिलहरियां विश्राम करती हैं।
सूर्यास्त के दो घंटे पूर्व गिलहरियां फिर सक्रिय हो जाती हैं। अंधेरा होने के बाद वे अपने नीड़ से नहीं निकलतीं। ठंड के दिनों में ये अपनी सक्रियता शीघ्र समाप्त कर देती हैं।
गिलहरी के पंजों में स्वेद ग्रंथियां होती हैं। ये जब उत्तेजित होती हैं तो पसीने से सूखी जमीन पर गीली रेखाएं छोड़ जाती हैं। इस गीलेपन में विशेष महक होती है। यही महक उन्हें अपने भूमि-अधिकार को पहचानने में सहायक होती है।
गिलहरियां अपने घौसलों में अक्सर एकांत ही पसंद करती हैं लेकिन ठंड में ये एक से अधिक पायी जाती हैं-शायद अत्यधिक ठंड से बचने के लिए।
यदि गिलहरी के घोंसले में किसी परजीवी पिस्सुओं या दीमक का अतिक्रमण हो जाता है तब ये नये घोंसले का निर्माण कर लेती हैं। अतः कहीं-कहीं पर गिलहरियों की संख्या की तुलना में कभी-कभी घोंसलों की संख्या अधिक होती है।
भोजन में विविधता…. गिलहरियां फल, सूखे मेवे, कोमल अंकुर, कलियां और छाल खाती हैं।
सैमल के फूलों से मकरंद पीती हैं और संभवतः ‘परागण’ में सहायक होती हैं। पत्ता थोहर के फलों को खाने में उनका विशेष रुझान होता है। ये छोटे-मोटे कीड़े भी खा लेती हैं।
अपने दांतों को तेज करने के लिए ये अक्सर पेड़ों की डालियों को चबाती रहती हैं।
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