पित्तपापड़ा ओषधि किस काम आती है

  • पित्तपापड़ा – संग्राही, शीतवीर्य, तिक्तरसयुक्त, दाह को दूर करने वाला, वातकारक और लघु होता है एवं यह पित्त, रक्तदोष, भ्रमरोग, तृषा, कफ और ज्वर इन सभी रोगों को नष्ट करता है।
  • विशेष – पित्तपापड़ा के नाम से विभिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न वर्गों की वनस्पतियों का एवं उनके उपभेदों का उपयोग किया जाता है इस कारण इसके लेटिन नामों में पर्याप्त विभिन्नता पाई जाती है। जिन द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है उनमें उपर्युक्त शास्त्रीय गुणों में से कुछ न कुछ पाये जाते हैं।

देह की दाह, गर्मी, खून की गंदगी, भ्रम विकार दूर करता है पित्तपापड़ा।

अथ पर्पट: (पित्तपापडा)।तस्य नामानि गुणोँश्चाह

पर्पटो वरतिक्तश्च स्मृतः पर्पटकश्च सः।

कथितः पांशुपर्यायस्तथा कवचनामकः॥

पर्पटो हन्ति पित्तास्त्रभ्रमतृष्णाकफज्वरान्

संग्राही शीतलस्तिक्तो दाहनुद्वातलो लघुः॥

(शास्त्राणीअथश्रीभावप्रकाशनिघण्टुः)

  • अर्थात पित्तपापड़ा के नाम तथा गुण – पर्पट, वरतिक्त, पर्पटक, पांशुपर्याय (‘पांशु’ वाचक सभी शब्द इसके पर्यायवाची हैं) एवं कवचनामक (‘कवच’ वाची सभी शब्द इसके पर्यायवाचक हैं) ये सब संस्कृत नाम ‘पित्तपापड़ा’ के हैं।
  1. अन्य निघण्टुओं में भी उपर्युक्त प्रकार के ही गुण लिखे हैं । चरक मे तृष्णानिग्रहण गण में इसका पाठ है एवं रक्तपित्त, ज्वर, कुष्ठ, संग्रहणी, पांडु एवं अतिसार आदि में इसका उपयोग किया गया है विभिन्न ग्रन्थों में निम्नलिखित विभिन्न वनस्पतियों का पर्पट नाम से उल्लेख है ।
  2. Oldenlandia corymbosa Linn.; Syn. Hedyotis corymbosa (Linn.) Lam. Fam.; Rubiaceae (ओल्डेन्लेण्डिआ कोरिम्बोसा; रुबिएसी), बं० – खेतपापड़ा ।
  3. पित्तपापड़ा का बंगाल में अधिक व्यवहार किया जाता है। श्रीयुत यादवजी ने अपनी पुस्तक में जो नव्य मत दिया है उसे श्री डॉ. देसाई ने इसी वर्ग के हेडिओटिस् बाइफ्लोरा (Hedyotis biflora) के अन्तर्गत किया है।
  4. लेकिन डॉ. देसाई ने इसका बंगाली नाम खेतपाप्रा ही लिखा है। श्री डॉ. चोप्रा ने खेतपाप्रा का नाम ओ. बाइफ्लोरा, लिन. (O. biflora Linn.; Syn. H. biflora) लिखा है। श्री बापालालजी की पुस्तक में हे० बर्मानिआना (H. burmanniana) का भी उल्लेख है। इन उपर्युक्त नामों से ऐसा मालूम होता है कि ये या तो एक दूसरे के पर्याय हों या एक ही वनस्पति के उपभेदों में से हों ।
  5. Fumaria indica Pugsley; Fam. Fumariaceae (फ्युमेरिया इण्डिका; फ्युमेरिएसी), हिं० – शाहतराभेद — यह शाहतरा, फ्यु. ऑफिसिनॅलिस् (Fumaria officinalis Linn.) का भेद है। इन दोनों का व्यवहार पंजाब, सिंध, राजपुताना, उत्तर प्रदेश और बिहार के वैद्य पर्पट नाम से करते हैं ऐसा श्री यादवजी ने लिखा है।
  6. Polycarpaea corymbosa Lam.; Fam. Caryophyllaceae (पॉलिकार्पीआ कोरिम्बोसा लॅम्, कॅरियोफाइलेसी) । श्री ठा. बलवन्तसिंहजी लिखते हैं कि उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों पर पर्पट के नाम से इसका व्यवहार किया जाता है।
  7. (क) Justicia procumbens Linn; Fam Acanthaceae (जस्टिसिआ प्रोकम्बेन्स लिन.; एकेन्थेसी)। बम्ब० – घांटी पित्तपापडा । इसे श्री डा. चोपरा ने नं. २ का प्रतिनिधिं लिखा है । कुछ लोगों ने ज. डिफ्यूजा विल्ड (J. diffusa Willd.) को घांटी पित्तपापड़ा माना है।
  8. (ख) Rungia repens Nees; Fam. Acanthaceae (रंजिआ रिपेन्स; एकन्थेसी) । श्री यादवजी ने लिखा है कि गुजरात के वैद्य ‘खडसलियो’ नाम से इसका व्यवहार करते हैं। श्री वापालालजी ने नं. ४ (क) को ‘खडसलीयो पीतपापडो’ लिखा है।
  9. (ग) Rungia parviflora Nees (रंजिआ पार्विफ्लोरा ) – इसका भी ‘खडसलीयो’ नाम से व्यवहार किया जाता है।
  10. (घ) Peristrophe bicalyculata Nees.; Fam. Acanthaceae (पेरिस्ट्रोफ बाइकॅलिकुलेटा; एकेन्थेसी)। श्री डॉ. सखाराम अर्जुन ने ‘बाम्बेड्रग्स’ पुस्तक में इसका ‘घाटीपित्तपापड़ा’ नाम से उल्लेख किया है। इसका विशेष वर्णन आगे काकजंघा के अन्तर्गत किया गया है ।
  11. Glossocardia linearifolia Cass.; Fam. Compositae; Syn. Arteraceae (ग्लॉसोकार्डिआ लिनिएरिफोलिआ कॅस; कॉम्पोझिटी) । श्री डॉ. देसाई ने इसका ‘पूना’ का नाम पित्तपापड़ा दिया है तथा अन्य प्रान्तों में भी कहीं-कहीं इसका पित्तपापड़ा के स्थान पर व्यवहार किया जाता है। (६) Mollugo stricta Linn; Fam. Ficoidaceae; Syn. Aizoaceae (मोल्युगो स्ट्रिक्टा; फिकोइडीसी)। श्री डॉ. देसाई ने इसका संस्कृत नाम ‘पर्पटका’ लिखा है। ३७. पर्पट ( १ )
  12. पर्पट:- पर्पति गच्छति शीतलत्वादिगुणान् ‘पर्प गतौ’ । (यह प्रसिद्ध शीतवीर्य है।)

पित्तपापड़ा के फायदे

  • इसके पंचांग के क्वाथ का उपयोग ज्वर, प्रतिश्याय, रक्तविकार, गंडमाला, राजयक्ष्मा दण्डाणुजन्य त्वचा के विकार, यकृतपीड़ा, कुष्ठ, उपदंश एवं अन्य त्वचा के विकारों में किया जाता है।
  • कफज्वर में गोल मिरिच के साथ इसका क्वाथ देते हैं। पित्तज्वर में इसका क्वाथ बहुत ही लाभदायक आदि में इसका बहुत व्यवहार करते हैं। इससे पसीना होता है, पेशाब अधिक होता है।
  • शरीरपीड़ा कम होती है एवं पाखाना साफ होता है। इसके लिये २५ ग्रा. शाहतरा, वनफशाह ५ ग्रा., मिरिच एवं सोंठ २.५ ग्रा., मुनक्का १० प्रा. एवं जल १ ली. इनका चतुर्थांश क्वाथ बनाकर ५० मि.ली. दिन में ३४ बार देते हैं। आंत्रशैथिल्य से उत्पन्न कुपचन में शाहतरा लाभदायक है।

आयुर्वेदिक विशेषज्ञ से बात करें!

अभी हमारे ऐप को डाउनलोड करें और परामर्श बुक करें!

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *