- स्वाति नक्षत्र की बूंद जब कदली यानि केले के पत्ते पर पड़ती है, तो वह कपूर बन जाती है।
- सीप में पड़ती है, तो वह मोती बन जाती है, और नाग के मुंह में पड़ती है, तो वह विष बन जाती है, जैसी संगत होती है वैसी रंगत चढ़ जाती है।
मूर्ख संग ना कीजिए, लोहा जलि ना तिराई।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तिहं पाई।।
- अर्थात मूर्ख की संगत नहीं करनी चाहिए, मूर्खों की संगत से केवल दुख, समस्या और अशांति ही मिलती है, जैसे लोहा जल पर नहीं तैर सकता है वैसे ही मूर्ख की संगत से कोई लाभ नहीं मिल सकता है।
- तंत्र, मंत्र, यंत्र, धर्म, पूजा, अनुष्ठान के मामले में लगभग सभी जगह यही बात सिद्ध हो रही है।
- बिना अध्ययन के धर्म के धंधेबाजों ने अध्यात्म की गहराई को जाने बिना अर्थ का अनर्थ कर दिया।
- जीवन को सार्थक बनाने और सब कुछ पाने के लिए खुद को जूझना पड़ेगा। बिना मेहनत के मिलने वाली कोई भी वस्तु ज्यादा समय तक लाभकारी सिद्ध नहीं होती। आधार को मजबूत बिना मनोबल मजबूत नहीं होगा। न फायदा
जाने अक्षर की आराधना के चमत्कारी लाभ
- शब्द ही इस सृष्टि की शक्ति है। अक्षर को वेदों में ब्रह्म बताया है- जो क्रिया मनुष्य की सामान्य शक्ति को उद्दीप्त कर उसमें गुरुतर शक्ति का संचार करती है, उसके गूढ़ रहस्य को ‘मन्त्र’ नाम से अभिहित किया गया है।
- कुलार्णव तन्त्र, अमृतेशतन्त्र या नेत्रतन्त्र, नेत्रज्ञानार्णव तन्त्र, निःश्वासतत्त्वसंहिता, मंत्र संहिता, मंत्र महोदधी, तंत्र काली साधना, भेरों तंत्र, कालोत्तर तन्त्र, सर्वज्ञानोत्तर, शैवागम, रौद्रागम और अगस्त्य संहिता आदि तंत्र मंत्र के अदभुत ग्रंथ बुद्धि की शुद्धि करने में लाजवाब हैं। बस आपको पढ़ने की आदत बनाना है।
शब्दों की सिद्धि और शक्ति के रहस्य
- शब्दों के उच्चारण से वायु में कम्पन तथा स्पन्दन होता है, जिसका प्रभाव सुनने वाले पर पड़ता है।
- शब्द की शक्ति उच्चारण करने वाले की शक्ति पर निर्भर करती है।
- एक राजा के शब्द में अपने आदेश को मनवा लेने की शक्ति होती है। एक श्रेष्ठ वक्ता अपनी शब्द-शक्ति से करोड़ों मनुष्यों की भावनाओं को उभार कर क्रान्ति अथवा दंगा, झगड़ा या विप्लव तक करा सकता है।
- शब्दों की शक्ति द्वारा एक ओजस्वी कवि अपनी शब्द-शक्ति से लाखों सैनिकों को युद्धोन्मुख कर, उनके मन से मृत्यु का भय निकाल देता है।
- वाणी के प्रभाव से इसी प्रकार एक महात्मा शब्द-शक्ति के बल पर लाखों लोगों को अपना अनुयायी बना लेता है।
- मन्त्रों के विषय में भी यही बात है। यदि उच्चारण करने वाले को समुचित शक्ति प्राप्त हो जाय, तो उसके लिए मन्त्र-शक्ति द्वारा प्रत्येक कार्य को कर पाना संभव हो जाता है।
- यदि मन्त्रों में शक्ति न होती तो जन-जीवन में उनका इतना गहरा प्रवेश संभव नहीं होता।
- मन्त्र जप मनुष्य की मानसिक शक्तियों को बढ़ाने का एक श्रेष्ठ साधन है।
- मातृका तन्त्रों के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में पहले ‘नाद’ उत्पन्न हुआ। ‘नाद’ ही ‘शब्द’ है। फिर शब्द से ही चराचर सृष्टि की उत्पत्ति हुई।
- प्रत्येक शब्द में एक विशिष्ट शक्ति अन्तनिहित रहती है, जो उसके उच्चारण से प्रकट होती है। इसी कारण वाणी को ‘अमरवाक्’ तथा ‘वग् वज्र’ भी कहा गया है।
- मन्त्र – विद्या एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है। इसमें कुछ ऐसे शब्द तथा शब्द समूहों का आविष्कार किया गया है, जिन्हें (१) बीज मन्त्र, (२) हृदय मन्त्र तथा (३) माला मन्त्र कहा जाता है।
- प्रत्येक क्रिया भावना के लिए प्रथक्-प्रथक् मन्त्रों का निर्माण किया गया है तथा उनके निर्माताओं ने स्वानुभव के आधार पर यह भी निश्चित कर दिया है कि कौन सा मन्त्र कितनी संख्या में जपने से शक्ति उत्पन्न होती है।
- मन्त्रों के विषय में मान्यता है कि पहले बड़े-बड़े सूत्रों का भाव थोड़े में समेट कर रख देने की आकांक्षा से दो-दो, तीन-तीन पंक्तियों की धारणियाँ बनाई गईं, फिर उन्हें और भी अधिक संक्षिप्त करके मन्त्रों की सृष्टि हुई।
- अतः मन्त्र का उच्चारण करते समय यदि उसके सम्पूर्ण भाव के साथ मन की एकाग्रता एवं तल्लीनता न हो तो मन्त्र फलदायी नहीं होता।
- मन्त्र सिद्धि के लिए दिव्य-भाव तथा मन की एकाग्रता अत्यन्त आवश्यक है। यदि साधक का मन इधर-उधर पशुभाव में भटकता रहे, तो मन्त्र जप निष्फल हो जाता है।
- मन्त्र – विज्ञानियों ने शब्द-शक्ति की गहरी तह में उतर कर बीजाक्षरों का आविष्कार किया है।
- यथा – भगवान शिव के लिए ‘क्लीं’ तथा ब्रह्म यानि ॐ की सिद्धि के लिए ‘ह्रीं’ आदि। उन्होंने सम्पूर्ण वर्णमाला के स्वर तथा व्यंजनों की शक्ति को निश्चित कर दिया।
- इसी आधार पर उन्होंने कुछ ऐसे शब्द भी निश्चित किये हैं, जिनका उच्चारण अन्त में करने से मन्त्र की शक्ति दृढ़ होती है-
- यथा- नमः, स्वाहा, वषद्, वौषट्, हुम्, फट् आदि । उदाहरण के लिए – नम: शब्द विनय पूर्वक नमस्कार का सूचक है, जो विजय दिलाता है।
- स्वाहा शब्द आत्म-बलिदान, त्याग तथा परोपकार का सूचक है, जो विरोधी भावना पर विजय प्राप्त करता है।
- वषद् शब्द अनिष्ट-कारक है, जो शत्रु के प्राण-हनन की चेष्टा करता है।
- वोषट् शब्द भी अनिष्ट-कारक है, यह शत्रुओं के हृदय में एक दूसरे के प्रति क्षोभ उत्पन्न करता है।
- हुम् शब्द शक्ति का प्रकाशक है, यह अपनी गुप्त, को प्रकट कर शत्रु को स्थान च्युत कर देता है तथा
- फट् शब्द घातक होने के कारण शत्रु के प्रति शस्त्र प्रयोग में उच्चारित किया जाता है।
- तन्त्र की ६ शक्तियाँ मानी गई हैं — (१) ज्ञान शक्ति, (२) इच्छा शक्ति, (३) क्रिया शक्ति, (४) कुण्डलिनी शक्ति, (५) मातृका शक्ति, तथा (६) अपरा शक्ति।
- मन्त्र शक्ति इन सब शक्तियों की मूल है, जो सिद्ध हो जाने पर साधक का माता की भाँति उपकार करती है, इसी कारण मंत्र ‘मातृका शक्ति’ कहा जाता है। (पराशक्ति को सभी शक्तियों का केन्द्र स्थल माना गया है।
- ‘तन्त्र’ का शाब्दिक अर्थ है- तन्तु अथवा सूत्र ऐसा सूत्र, जिसमें सभी भाव मोतियों की भाँति पिरोये रहते हैं। इसी कारण तन्त्र-शास्त्र को सम्पूर्ण साधनाओं की कुंजी कहा जाता है तथा इसमें सभी धर्मं तथा साधनाओं के गूढ़ रहस्य छिपे माने जाते हैं।
- तन्त्र शास्त्र का मूल उद्देश्य मनुष्य को पशु भाव से उठाकर दिव्य-भाव में लाना है।
- मनुष्य का पिण्ड शरीर विश्व ब्रह्माण्ड का लघु-संस्करण है। मानसिक शक्ति का विकास होने पर पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड का अन्तर कम हो जाता है और अन्त में व्यष्टि का समष्टि में लय हो जाता है।
- बौद्ध तन्त्रों में इस परा शक्ति को ही ‘शून्यता’ का नाम दिया गया है। यह शून्यता ही महासुख का विज्ञान है।
- कुछ विद्वानों के मतानुसार तन्त्र विद्या एक समन्वयात्मक पद्धति है।
- तांत्रिक विद्वान् अपने विचारों एवं सिद्धान्तों को दृष्टि-पथ पर स्थिर करते हुए, सभी सिद्धान्तों को यथास्थान स्थापित कर शक्ति की उपासना करते हैं।
- हिन्दू तान्त्रिकों के अनुसार जब तक शक्ति का ज्ञान न हो, तब तक मुक्ति की आशा नहीं की जा सकती।
- शक्ति ही सृष्टि के कण-कण तथा अणु-अणु में व्याप्त है । भौतिक साधनों द्वारा जो कुछ संभव हो सकता है, उस सब को एक तान्त्रिक योगी अपनी मानसिक उन्नति के विकास द्वारा कर सकता है।
- एक वाक्य में कहा जाय तो सिद्ध तान्त्रिक सम्पूर्ण प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है। सामान्य मनुष्य प्रकृति के जिन थपेड़ों को खाकर दीपक की लौ की भाँति हिलता और बुझ जाता है।
- तान्त्रिक उन्हें वश में कर लेता है। इतना ही नहीं, वह इच्छानुसार कायाकल्प करके अपनी आयु को भी बढ़ा सकता है।
- मन्त्र – विद्या का प्रारम्भ कब हुआ, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
- वेदों का अपौरुषेय एवं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के मुख से निःसृत माना जाता है। उन्हें संसार की समस्त विद्याओं का मुलस्रोत भी कहा गया है।
- मन्त्र-शास्त्र को वेदों का प्राण कहा गया है तथा उसमें वेदों का सार तत्व निहित माना जाता है।
- वेद की सभी ऋचाऐं ‘मन्त्र’ के रूप में स्वीकृत की जाती हैं, तथापि मन्त्र अथवा तन्त्र-शास्त्र के नाम से जो विद्या प्रसिद्ध है, उसमें बहुत कुछ वेद-मन्त्रों से इतर भी उपलब्ध होता है।
- काल क्रमानुसार इस शास्त्र की निरन्तर अभिवृद्धि होती चली गई है। मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र – इन तीनों का वर्णन जिसमें हो, उसे ‘तन्त्र शास्त्र’ कहते हैं।
- तात्त्विक रूप से मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र – ये तीनों एक ही सत्य के तीन प्रकार हैं। मन्त्र का चित्रात्मक रूप ‘यन्त्र’ तथा क्रियात्मक रूप ‘तन्त्र है। म इन विविध रूपों के क्रियात्मक विज्ञान को ‘मन्त्र-साधन’ की संज्ञा दी गई है।
- तन्त्र-शास्त्र के अविष्कारक महाकाल और महाकाली दोनों हैं। ब्राह्मण – धर्म ग्रंथ में मन्त्र – विद्या का आदि प्रवर्तक भगवान सदाशिव को माना गया है।
- शिव शब्द के कल्याण, मङ्गल तथा क्षेम आदि अनेक अर्थ हैं। आत्मा को भी शिव कहा जाता है।
- सांसारिक बन्धनों से युक्त को जीव तथा भव-बन्धनों से मुक्त को शिव कहते हैं।
- सदाशिव का अर्थ है–सदा काल से होते आये शिव योगी अथवा सर्वकाल में कल्याण स्वरूप महान योगियों की सर्वोच्च अवस्था का नाम ही ‘सदाशिव’ है। जिन्हे शिव के नाम से सब जानते हैं।
- बौद्ध धर्म में इसी सदाशिव अवस्था को ‘सम्यक बुद्धत्व’ अवस्था कहा गया है।
- जैन धर्म के ‘अर्हत’ तथा ‘तीर्थंकर’ रूपों की भी ‘शिव’ तथा ‘बुद्ध’ रूप से समानता है। इन सब की जो परिकल्पना की गई है, उनमें ये सभी गौरवर्ष, ध्यान मूर्ति, पद्मासन से विराजमान, अद्धं निमीलित नेत्र, त्यागी, तपोनिरत, महायोगी तथा सदैव ज्ञान रूप बताये गये हैं।
- वायु पुराण’ में सदाशिव के २८ अवतारों का वर्णन है, जो प्रत्येक कल्प में एक-एक करके हुए हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पूर्वकाल में २८ सदाशिव हुए हैं।
- बौद्ध धर्म में २८ बुद्धों तथा जैन धर्म में २४ तीर्थंकरों का वर्णन पाया जाता है। जैन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव दस हजार योगियों के साथ अन्त में कैलाश चले गये थे।
- तिब्बत का कैलाश अन्तिम सदाशिव योगीश्वर का सिद्ध पीठ था। हिन्दू जनता आज भी कैलाश को अपना परम तीर्थ मानती है।
- भगवान शिव को ‘भूतनाथ’ इसलिए कहा जाता है कि वे भोट देश (तिब्बत) में रहते हैं तथा ‘भोट’ (जिसका शुद्ध रूप संभवत: ‘भूत’ है) उनके भक्त हैं।
- कैलाश मानसरोवर हिमालय का ही एक भाग है। वहाँ शिव का निवास होने से ही उनके मस्तक पर गङ्गा की स्थिति की परिकल्पना की गई है।
- भगवान शिव दिगम्बर हैं। पूर्व दिशा के अन्त पर ‘नाग’ तथा पश्चिम के अन्त पर ‘सर्प’ रहते हैं। स्मरण रहे कि नाग और सर्प दोनों में बहुत फर्क होता है।
- अतः वे ही उनके भूषण हैं। हिमालय की तराई में वृषभ बहुत पाये जाते हैं। अतः वृषभ को शिवजी का वाहन बताया गया है।
- पर्वतों पर रहने वाला होने के कारण उन्हें ‘गिरीश’ कहा गया है। गिरी का अर्थ पर्वत होता है। पहाड़ों के ईश्वर को गिरीश कहते हैं।
- पर्वत की शोभा का पति होने के कारण ही उन्हें पार्वती पति भी कहा जाता है।
- वायु पुराण’ में ‘शिव योग’ नामक पाशुपत योग है। शिवयोग के वर्णन में लिखा है कि पद्मासन, तनी हुई छाती, सीधा मेरुदण्ड, सीधी ग्रोवा, उन्नत ललाट, अर्द्ध निमीलित नेत्र तथा नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखने वाला रूप ही शिव का स्वरूप है।
- उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक धर्म या हिन्दू मत के अनुसार भगवान् सदाशिव ही मन्त्र-शास्त्र के आदि अविष्कारक, प्रवर्तक हैं।
- बौद्ध मतानुसार भगवान बुद्ध इसके सूत्रधार हैं। बहरहाल, इसमें सन्देह नहीं कि मन्त्र-शास्त्र के आविष्कार तथा प्रचलन में हिन्दू तथा बौद्ध दोनों का ही प्रमुख ‘योगदान रहा है तथा इन दोनों ही धर्मों में मन्त्र विषयक ग्रंथ प्रचुर परिमाण में पाये जाते हैं।
- हिन्दू तथा बौद्ध मनीषियों के अतिरिक्त जैन तथा मुस्लिम मतावलम्बियों में भी इस विद्या का प्रभूत प्रचलन है।
- ऐतद् विषयक जैन ग्रंथ मुख्यतः प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में भी पाये जाते हैं।
- इस्लाम मजहब में तन्त्र-मन्त्र सम्बन्धी ग्रंथ अरबी, फारसी और वर्तमान उर्दू भाषा में भी उपलब्ध हैं।
- इनके अतिरिक्त लोकभाषाओं में भी ऐसे मन्त्र, जिन्हें ‘शावर मन्त्र’ कहा जाता है, बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं, और ये अपना चमत्कारी प्रभाव भी प्रदर्शित करते हैं।
- शावर मन्त्रों का प्रारम्भ नाथ सम्प्रदाय के योगियों, मुख्यतः गुरु गोरखनाथ के समय से माना जाता है।
- इस प्रकार सभी धर्म, मजहब तथा सम्प्रदायों से संबन्धित संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी तथा लोकभाषाओं के मन्त्रादि की संख्या लाखों में हैं। इनमें से कुछ के संकलन ग्रंथ प्रकाशित हैं तथा अधिकांश हस्तलिखित रूप में अप्रकाशित एवं यत्र तत्र बिखरे हुए पाये जाते हैं।
- तान्त्रिक साधना अत्यन्त जटिल विषय है। संयम, नियम, इन्द्रिय निग्रहादि के पालन अथवा साधन-विधि में तनिक सी भी त्रुटि अथवा प्रमाद साधक को लाभ पहुँचाने के स्थान पर भयंकर हानिप्रद भी सिद्ध हो सकता है।
- सम्यक् ज्ञान के अभाव में किये गये तान्त्रिक प्रयोग कभी-कभी प्रयोगकर्ता के लिए प्राणघातक तक बन जाते हैं। इसी कारण इस साधना के लिए सर्वत्र सुयोग्य गुरु के निर्देश की महती आवश्यकता प्रतिपादित की गई है।
- साधना-काल में आने वाली कठिनाइयों, बाधाओं तथा उपद्रवों का निराकरण गुरु के द्वारा ही संभव हो सकता है।
- ग्रंथ तो उपलक्षण मात्र होते हैं। उनके द्वारा सैद्धान्तिक जानकारी तो प्राप्त की जा सकती है, तथापि व्यावहारिक ज्ञान गुरु-निर्देश से ही मिल पाता है। गुरु से ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है |
- सच्ची लगन से खोज करने पर सब कुछ मिल जाता है। यदि कोई सच्चे मन से तन्त्र की साधना करने का इच्छुक हो तो उसे ढूंढते पर सद्गुरु का सामीप्य भी अवश्य प्राप्त हो जायेगा।
- आधुनिक भारत में भी तन्त्रवेत्ता सद्गुरुओं का कोई अभाव नहीं है। आवश्यकता है, गुरु ढूंढकर सच्चे मन से उनका शिष्यत्व ग्रहण करने वालों की।
- चमत्कार दिखाने वाले किसी पाखण्डी से पाला न पड़ जाय, इस सम्बन्ध में निरन्तर सचेष्ट बी रहना चाहिए।
- तन्त्र मन्त्र सम्बन्धी साहित्य का अधिकांश संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में है। केवल हिन्दी का ज्ञान रखने वालों को उसका अध्ययन दुरूह सिद्ध होता है इस कठिनाई के निवारण का उद्देश्य लेकर इस लेख को लिखने में लगभग 33 से अधिक किताबों का बारीकी से अध्ययन किया।
Leave a Reply