सुखी जीवन का मंत्र क्या है। कैसे मन प्रसन्न रहे। अमृतम पत्रिका, ग्वालियर

  • जीवन बहुत चिंतन-मंथन का विषय है। 50 मुख, 60 बातें और अंत फिर भी नहीं। जिंदगी को गन्दगी रहित कैसे जियें इस पर सदियों आज तक तर्क-कुतर्क जारी हैं।
  • सबकी मति अलग है और श्रीमती भी अलग। रति करने का तरीका भी भिन्न है। उन्नति, अवनति, जीवन की गति, पति को यति बनाना, सती की तरह जीवन यापन सब सोच पर निर्भर है। संस्कृत का एक नीति श्लोकनुसार…

मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पय:,

जातौ जातौ नवाचारा: नवा वाणी मुखे मुखे।

  • अर्थात- सन्सार में जितने मनुष्य हैं, उतने संवाद एवं विचार हैं, एक ही स्थान के अलग अलग कुंओं के पानी का स्वाद अलग अलग होता है।
    1. एक ही संस्कार के लिए अलग अलग जातियों में अलग अलग रिवाज होता है तथा एक ही घटना का वर्णन हर व्यक्ति अपने ढंग से अलग अलग करता है।
    2. सभी के मन में यह प्रसन्न है कि जिन का सही तरीका क्या है?..कैसे जिया जाए, कैसे रहा जाए….!
    3. सवाल बहुत बड़ा है। प्रश्न इसलिए उभरा कि हर समय हम ‘पहचान’ की तलाश में लगे रहते
    4. पहचान की तलाश इसलिए, क्योंकि हम उस तरह जीना नहीं जानते। जीना चाहिए हमें जैसे हम जीना चाहते हैं।
    5. हमारे जीने के भाग्य निर्माता और कोई अवयव नहीं हैं। सभी इंसानों के संग कठिनाई यह है कि हम ‘कलैंडर’ को हर क्षण, हर पल देखते हैं और ‘कलैंडर’ के सहारे जीते हैं।
    6. मत कलैंडर देखकर जियो, जियो तो अपनी मरजी से, अपने मन से, अपनी भरपूर ऊर्जा से बिना किसी दबाव के, बिना किसी भ्रम के।
    7. आंख बंद कर लेने के कई फायदे हैं ! ….-आंखों की रोशनी बढ़ती है। एक लय में बीन बजाते स्वर ‘हैया हो हैया’ बहुत मीठे लगते हैं!
    8. करेले में चासनी मिला दें तो भी वह मिठास नसीब नहीं होगी। अपना ही पसीना पीते हुए वे नीबू और नमक मुफ़्त में चाटते हैं; जिनकी देनी पड़ती है, हमें कीमत !
    9. दुनिया भाग रही हैं बेतहाशा…, वे सब तेज अंधड़ में तिनके की तरह; उनके पैर तब भी जमीन पर हैं!
    10. मजबूती से एकरस धड़कता है उनका हृदय और हर पल, पल-पल एक-एक बूंद खून बढ़ता जा रहा है उनके शरीर में।
    11. मजबूरी मौत की सास है…प्राचीन नियम है सास के सामने बहू स्वच्छंद नहीं रह सकती ! इसलिए कि सास धार-धार बहती हुई पहाड़ी नदी है और बहू को उसे झेलने के लिए महासागर बनना ही होगा!
    12. सास स्वयं स्त्री है और वह जानती है कि- महिलाओं की मांग भरी कि वह अधिकारों का मांग करने लगती हैं!
    13. – नियति का यह चक्र! ओफ!… अपराजेय समय ने भी यहां पर घुटने टेक दिये हैं।
    14. किससे शिकायत करें हम?
    15. दमघोंटू तथा प्रदूषण धुएं से भरे कमरे और अनंत विस्तारमयी इस धरती में कोई अंतर नहीं है।
    16. तो थोड़ा ठहर जाइए… दम ले लीजिए… ऊपर की सांस को नीचे आ जाने दीजिए !
    17. सड़कों से जुलूस गुजर रहा है, किसी लक्ष्मीपति की अंतिम शवयात्रा की तरह।
    18. अधिकारों की मांग की जाती है, अपनी मांग भरकर। हम सीधे तने महाबोधिवृक्ष उभरी हुई कुबड़े की मजबूरी में धरती की धूप चाटते हैं। सुनने दो मुझे इन नारों को ! अबलाओं के बोल हैं ये ! संरक्षण देने की जिम्मेदारी हमारी है।
    19. इसी जिम्मेदारी के माया-महल में बड़े-बड़े कारखाने खुलते हैं।
    20. फैशन की बिंदियां कब्रगाहों-जैसी मशीनों पर उभरती हैं। यहीं फटे हुए दूध से मलाई बनायी जाती है। इसी मलाई को फिर हम अपने ओठों से चाटते हैं !
    21. प्यार का समूचा इतिहास महिलाओं के कारण यहीं लिखा जाता है!
    22. यहीं वह पुस्तक छपती है और सोने की जिल्द में चढ़ायी जाती है। परीक्षा का समय है चित्रकार के लिए : हार और बालियां, बिंदियां और चूड़ियां, पायजेब और तराशे हुए पत्थरों की मीनाकारी ! कितने बना -सकता है वह, कितनी तरह के !
    23. सौंदर्यबोध हमारे लिए आवश्यक है। श्रृंगार हमारी आंखों के भीतर की काली गोल दृष्टि है; कौन चाहेगा कि उसमें मोतियाबिंद हो जाए।
    24. मारे गये न हम अपने ही हाथों। प्यार के इतिहास में सुनहरी जिल्द चढ़ाते हुए भी किसी ने हमें न महाकवि समझा और न ईमानदार लेखक माना ! – लापरवाह हो सकना भी कितनी खुशनसीबी है !
    25. अधिकारों का बोझ ढोना एक कछुए का अपनी पीठ पर समूची धरती को सम्हालना है।
    26. जीवन की हर हलकी-सी सिहरन भूकंप बन सकती है, टूट सकते हैं दरवाजे और खिड़कियों के कांच, अन्यत्र ढह सकती है पूरी इमारत या अतल गहराई में समा सकता है पूरा शहर।
    27. मजा आता है अपना बोझ कुली के कंधों पर लादकर ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ना।
    28. हिसाब-किताब रखना ततैया को छेड़ना है। बहुत कुछ करना पड़ता है तब काले और सफेद जिल्दों पर चढ़े हुए लाल कपड़े, सफेद धागे से सिये हुए, ऑपरेशन के बाद किसी मरीज की याद दिलाते हैं।
    29. बेसहारा जिंदगी मौत है, ऐसी जो डॉक्टरों के हवाले हो; और डॉक्टर भी वह, जो खून को सफेद धागों से सी रहा हो !
    30.  रात हराम हो जाती है और हर दस्तक एक मजबूर सिपाही का सपना बन जाती है।
    31. सूरज की रोशनी में भी ताला लगाना पड़ता है और छटपटाते हैं हम, दमे के मरीज की तरह!
    32. हमेशा होते रहेंगे हम इसे अपने कांपते होंठों के साथ । तब भी नाटक करेंगे मजबूती का और एहसास भी नहीं होने देंगे कि हमारी शेरवानी भीतर पसीने से तरबतर है।
    33. प्रोटोकॉल के नाम पर मई की गरमी में गरम सूट पहनकर आलीशान दावतों में जाना अजगर की केंचुली है।
    34. अजगर अपनी केंचुली छोड़ सकता है, हमें सूट और शेरवानी पहनने होंगे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए, अपने दम और अहं में अपने आप पिसने के लिए और इसलिए भी कि दूसरे की नाखुश आहट कहीं हमें पके हुए पीले पत्ते की तरह हिला न आइए, हम अपनी कुछ आदतों को भी देख लें !
    35. स्वच्छ सपाट दीवारों पर हमने अपने कमरे में क्या लटका रखा है भिखमंगे, अधनंगे बच्चों की तसवीरें; अपने ब्लाउज की सीवन को सीती हुई भूखी और गरीब औरत; भीड़ भरे बाजार में तानाशाह-सी घूमती हुई गायें।
    36. खोखले और भयानक मुखौटे, बड़-खाबड़ रेखाओं से पुती हुई बेमतलब पेंटिंग (जिसे कल मेरे नौकर ने उल्टी लगा दी थी, अब भी लगी है), पुराने टूटे हुए बरतन, लोहे की कड़ाहियां और हाथ की हथकड़ियां।
    37. आधुनिक सभ्यता के साथ जीना है, तो इनकी परख को समझिए । फटेहाल रहकर भी ऐसे सुरक्षित ड्राइंग रूम में अपने को कला-पारखी और संपत्तिशाली बनाये रखा जा सकता है ।
    38.  जी हां, ऐसे ही छोटे-छोटे समझौतों से महाप्रतापी शासकों का पतन हुआ है।
    39. बात पहचान से उठी थी, पहचानने की प्रक्रिया में ही वह खोती जा रही है।
    40. यूं ही खोती गयी, तो क्या फिर पैदा होंगे -कबीर, सूर, तुलसी; ईसा और बुद्धः नानक और नामदेव, जरतुस्त और कार्ल मार्क्स ।
    41. संतवाणी है : सारा संसार हमारा है ! इस वाणी को हम बार-बार दोहराते हैं, तब भी दोहरे संसार में दोहरे चेहरों के साथ क्यों जीते हैं हम?
    42. अपने ही छोटे संसार को सारा संसार मानकर कितने मजे नहीं लेते। गलियों और सड़कों पर शोर है : हम कमजोर नहीं है ।’ वे नहीं हैं, तो क्या हम हैं ?
    43. हमारे बिना वे क्या हैं ? उनके बिना हम क्या हैं? यह परिभाषा एक सत्य की है। दूसरा सत्य यह है कि शल्य-चिकित्सक बनने के बावजूद वे हमारी बांहों को ढूंढ़ती रहेंगी ! और हम… यदि हमें वे बांहें नहीं मिलेंगी, तो हम अपने पुरुषत्व के साथ सौदा करेंगे और बागी बन जाएंगे। लेकिन तब भी बात पहचान की है न !
    44. एक ने लिखने की इस प्रक्रिया में आदिकवि वाल्मीकि और आदिमानव मन हमेशा तड़पते रहेंगे और अपनी पहचान ढूंढते रहेंगे। नहीं, नहीं होगा, वे कलैंडर देखकर नहीं जीते रहे।

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