- खेचरी मुद्रा आकाश गमन, जल में चलना आदि सिद्धियों की प्राप्ति के लिए की जाती है। ऐसा साधक साक्षात शिव की तरह स्वयं में निमग्न रहता है। देवरहा बाबा, स्वामी विशुद्ध आनंद, गुरु तोतापुरी खेचरी विद्या में निपुण थे।
- ख का अर्थ है= आकाश, चरी = चरना, ले जाना, विचरण करना। इस मुद्रा की साधना के लिए पद्मासन में बैठकर दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करके आती जाती स्वांस देखते हुए, फिर जिह्वा को उलटकर तालु से सटाते हुए पीछे रंध्र में डालने का प्रयास किया जाता है।
- मेरे द्वारा ये प्रयोग कुछ समय तक किया और उससे मेरे क्रोध पर अंकुश लगा। दिमाग शांत होने लगा। लेकिन नियम वध करने के खेचरी के चमत्कार अदभुत हो सकते हैं।
- आकाशगामिनी विद्या। यह अतिप्राचीन तंत्र विज्ञान के अंतर्गत आता है जिसे “योग तन्त्र की चौसठ विद्याओं में से एक है।
- अकाशगामिनी विद्या को जानने वाला व्यक्ति आकाश मार्ग से सर्वत्र विचरण कर सकी-सकता है।
- तंत्र ज्योतिष संहिता में 64 विद्याओं में अकाधगामिनी विद्या का प्रमुख स्थान है। खेचरी मुद्रा में जीभ को तालू में लगाने का अभ्यास करते हैं और धीरे धीरे जिव्हा, कंठ के ऊपर नाग फन के आकार की होने से खेचरी विद्या की सिद्धि हो जाती है।
अमृतम पत्रिका, ग्वालियर से साभार Amrutam | An Ayurvedic Lifestyle Brand and a wellness community
जाने क्या है आकाशगामिनी विद्या
- मथुरा में खेचरी विद्या के गुरु श्री शैलेन्द्र शर्मा को यह विद्या प्राप्त है। इस मुद्रा में चित्त एवं जिह्वा दोनों ही आकाश की ओर केंद्रित किए जाते हैं जिसके कारण इसका नाम ‘खेचरी’ पड़ा है।
- नदी, पहाड़, जगल, समुद्र कोई भी उसके मार्ग नष्ट में बाधक नहीं बन सकते है। इस रहस्यमयी विद्या के अनेक उदाहरण प्राचीन साहित्य में मिलते हैं।
- महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेव ने इसी विद्या की सिद्धि द्वारा सम्पूर्ण जम्बुद्वीप की निर्विघ्न यात्रा की थी।
- इसी विद्या का आश्रय लेकर महर्षि नारद भी तीनों लोकों में विचरण करते थे।
- हनुमानजी नल-नील को भी इस विद्या की सिद्धि थी। हनुमान ने समुद्र का उल्लंघन इसी विद्या के द्वारा किया था और आकाश-मार्ग से मृतसंजीवनी भी लाये थे।
- रावण को आकाशगामिणी विद्या का आचार्य ही कहना उपर्युक्त होगा। दशानन ने इसी विद्या की सहायता से विमान बनाया था जो उसके संकेत पर अत्यन्त तीव्रगति से आकाश में उड़ता था।
- स्वयं रावण भी इसी विद्या की सहायता से आकाश – मार्ग से यात्रा करता था।
- ‘हेमवती विद्या’ द्वारा उसने अथाह स्वर्ण का निर्माण कर सम्पूर्ण लंका को ही स्वर्णमय बना डाला था।
- वास्तव में जितनी भी तान्त्रिक विद्याएँ है- वे सब यक्षों और राक्षसों की ही देन है।
- आर्यों के आने के पहले हमारे देश में यक्ष और राक्षस – ये ही दो जाति के लोग थे। दोनों भगवान शिव और प्रकृति के भयानक रूप के उपासक थे। मगर दोनों की उपासना में थोड़ी भिन्नता थी।
- यक्ष जाति के लोग प्रकृति शक्ति को अपने अनुकूल बनाने के लिए बराबर प्रयत्नशील मैंने हुई काले की रहते थे। जब कि राक्षस जाति के लोग प्रकृति-शक्ति के विभिन्न रूपों पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए बराबर प्रयत्नशील रहा करते थे।
- कहने की आवश्यकता नहीं दोनों के इसी प्रयत्नशीलता के फलस्वरूप नाना प्रकार तन्त्र-विद्याओं ने जन्म लिया और उनके विज्ञानों का भी समय-समय पर आविर्भाव हुआ
- तान्त्रिक विद्याओं में एक ‘पारद-भी है। पारद को बांधना असम्भव है । बाँधने की क्रिया को ‘रसबन्ध – क्रिया’ कहते
- रावण रसबन्ध-क्रिया से भी भलीभाँति परिचित था । रसबन्ध – क्रिया के आधार पर उसने पारद की एक ऐसी ‘गुटिका’ तैयार का अपनी नाभि में रख ली थी।जिसके प्रभाव से वह जरा, मरण के भय से मुक्त हो गया था।
- ऐसे सिद्ध पारद को ‘अमृत कहा गया है। नाभि जीवनी शक्ति का एकमात्र केन्द्र है।
- दूसरी शताब्दी में भी ‘आकाशगामिनी’ विद्या के जीवित रहने का प्रमाण मिलता है। उत्तरी भारत के आर्यावर्त प्रान्त में नाग- वंश के अनेक प्रतापी राजा हुए।
- इस अवधि में जिन्होंने इस रहस्यमयी विद्या को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया-उनमें अहिछत्र
- (वर्तमान रुहेलखण्ड) के राजा वासुकि के असाधारण प्रतिभाशाली पुत्र नागार्जुन का नाम प्रसिद्ध है। नागार्जुन के गुरु थे पदलिप्त।
- पदलिप्त ने नागार्जुन को रसायन-शास्त्र में पारंगत ही नहीं किया, बल्कि आकाशगामिनी विद्या भी बतलाई उन्हें ।वे स्वयं आकाशमार्ग से नित्य तीर्थयात्रा करते थे। उन्होने प्रसन्न होकर नागार्जुन को आकाशगमन – विद्या के सारे रहस्यों से परिचित करा दिया था।
- भारतीय रसायन के इतिहास में नागार्जुन का महत्वपूर्ण नाम है।
- पारद-विद्या के दो महत्वपूर्ण अंग है-तारबीज और हेमबीज । प्रकारान्तर में इन्ही दोनों को तारक-विद्या और हेमवती-विद्या कहते हैं।
- जैसे हेमवतीविद्या स्वर्ण-निमार्ण से संबंधित है, वैसे ही तारक विद्या है आकाशगमन से सम्बन्धित। दोनों में पारद का प्रयोग है। पारद का पर्याय रस है।
- आकाशगमन योग द्वारा तो सम्भव है ही, पारद – सिद्धि द्वारा भी सम्भव है। नागार्जुन पारद-विद्या के ज्ञाता तो थे ही, इसके अतिरिक्त तारक-विद्या और हेमवती- विद्या के भी प्रकाण्ड विद्वान थे।
- तिब्बत में रस – रसायन से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं, जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है ‘बौद्धतन्त्र’ जिसके लेखक नागार्जुन हैं। महायान – सम्प्रदाय के इस तन्त्र का नाम ‘रस – रत्नाकार’ है । रस – रत्नाकार में नागार्जुन को रसशास्त्र का एक महान सिद्ध बतलाया गया
- जैसा कि ऊपर बतलाया गया है ‘रस’ यानी पारद द्वारा भी आकाश-गमन सम्भव है।
- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में व्याडी नामक एक रसायन शास्त्री ने अत्यधिक परिश्रम से सोना बनाने और आकाश में उड़ने की कला प्राप्त की थी। इस विषय में व्याडी ने एक पुस्तक भी लिखी थी, जो अब उपलब्ध नहीं है।
- वैद्य व्याडी उज्जैन का निवासी थे। वह रसायन-विद्या की खोज में इतना डूब गये कि अपनी सम्पत्ति सहित अपना जीवन तक भी नष्ट कर डाला था।
- वैद्य व्याडी ने अपना सर्वस्व गँवा देने के बाद उसे इस विद्या से घोर घृणा हो गयीं। एक दिन शोकमग्न नदी के तट पर बैठा था। उसके हाथ में वह ‘भेषजसंस्कार’ ग्रन्थ था- जिसमें से वह अपने शोध के लिए व्यवस्था – पत्र लिखा करता था।
- निराशा से उत्तेजित होकर वह एक-एक पत्र फाड़कर जल में फेंकने लगा। व्याडी से कुछ दूर पर नदी के किनारे प्रवाह की दिशा में एक वेश्या भी बैठी हुई थी।
- उसने पत्रों को बहते देखकर पानी से बाहर निकाल लिया उन्हें| व्याडी की नजर उस पर तब पड़ी, जब वह पुस्तक के सारे पत्र फाड़कर नदी में फेंक चुका था। तभी वह वेश्या उसके पास गयी और पुस्तक फाड़ने का कारण पूछा।
- व्याडी ने सारी बात दी और अन्त में कहा- ‘घोर असफलता के कारण मुझे इस विद्या से घृणा हो गयी है।
- यह सुनकर वेश्या बोली- ‘इस कार्य को मत छोड़ो। ऋषियों का ज्ञान मिथ्या नहीं हो सकता। आपकी कामना की सिद्धि में जो बाधा है वह सम्भवतः किसी सूत्र को ढंग से न समझ पाने के कारण है।
- कोशिश करने पर वह बाधा अवश्य दूर हो जायेगी। मेरे पास काफी धन है। आप वह धन लें लें और पुनः प्रयास करें। सफलता अवश्य मिलेगी।
- प्रोत्साहन पाकर व्याडी के मन में पुनः आशा का संचार हुआ। वह उस वेश्या से धन लेकर पुनः रसायन के रहस्यों की खोज में जुट गया।
- वास्तव में व्याडी से एक औषधि के व्यवस्था – पत्र का एक शब्द समझने में भूल हो गयी थी। उस शब्द का अर्थ यह था कि इसके लिए तेल और नर- रक्त दोनों की आवश्यकता है।
- वह शब्द रक्तामल था, जिसका अर्थ उसने लाल आमलक यानी आँवला समझा।
- जानते हैं, इस भूल का क्या परिणाम हुआ? जब व्याडी ने औषधि का प्रयोग किया, तो उसका कुछ भी असर नही हुआ। तब बैचेन होकर वह विविध औषधियाँ पकाने लगा।
- इस क्रिया में अग्निशिखा उसके सिर से छू गयी और उसका सिर जल गया । इसलिए उसने अपनी खोपड़ी पर बहुत सा तेल डाल लिया और उसको मला।
- फिर, वह किसी काम के लिए भटटी से उठकर बाहर जाने लगा। उसके सिर उसमें लगा और रक्त बहने लगा।
- पीड़ा होने के कारण वह नीचे की ओर देखने लगा। उससे तेल के साथ मिले रक्त की कुछ बूँदों को गिरते हुए नही देखा। फिर जब देगची में रसायन पक गया तो उसने और उसकी पत्नी ने परीक्षा करने के लिए रसायन को अपने शरीरों पर मल लिया। इस क्रिया की आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया हुई। जानते है क्या हुआ, वे दोनों वायु में उड़ने लगे।
- इसके बाद ‘आकाशगामिंनी विद्या’ के विषय में कोई स्पष्ट उल्लेख नही मिलता। इसका कारण यह था कि इससे सम्बन्धित साहित्य नष्ट हो गया।
- हिन्दुकुश पर्वत श्रेणी को पार कर बर्बर असभ्य आक्रमणकारी यहाँ आये। उन्होंने मन्दिरों और विश्वविद्यालयों के अथाह धन और ज्ञान को लूटा और दुर्लभ पुस्तकों तथा प्राचीन ग्रन्थों को जलाकर नष्ट कर डाला।
- सबसे अधिक क्षति का सामना नालन्दा विश्वविद्यालय को करना पड़ा।
- पूर्व-मध्यकाल में केवल यही एक विश्वविद्यालय बचा था, जहाँ अनेक प्रकार की प्राचीन और रहस्यमयी विद्यायें जीवित थी।
- आचार्य गौणपाद, अनंगवज्र, गोरखनाथ, चर्पटीनाथ, नागसेन आदि सिद्ध उस युग के असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान थे।
- बाणभट्ट के अनुसार सिद्ध तपस्वियों का साधनास्थल ‘श्री पर्वत’ था, जो वर्तमान नागार्जुन कोंडा (आन्ध्र प्रदेश) के निकट नरहल्ल पर्वत है।
- आज भी हिमालय की सुरम्य घाटियों, गिरि-गुहाओं और दुर्गम स्थानों में प्राचीन विद्याओं के गौरव से मण्डित अनेक सिद्ध पुरुष निवास करते हैं।
- सिद्ध पारद द्वारा उन्होंने शरीर को काल के बन्धनों से मुक्त कर लिया है। आकाशगामिनी विद्या द्वारा वे इच्छानुसार यत्र-तत्र विचरण करते रहते हैं।
- सामान्यतः उन्हे देख पाना सम्भव नहीं है। किन्तु इसमें तनिक भी सन्देह नही कि कुछ पुण्यात्मा लोगों को उनके दर्शन हुए है। उन्होने उन्हे प्रत्यक्ष आकाशमार्ग से गमन करते हुए देखा है।
- आठ-दस वर्ष पहले हॉलीवुड की अभिनेत्री शर्ल मैक्लीलन एक बार भूटान आदि पर्वतीय प्रदेशों की यात्रा पर गई थी। अपनी यात्रा से सम्बन्धित संस्मरण में लिखा है कि उन्होंने आकाश में पीतवस्त्रधारी एक लामा को उड़ते हुए देखा था। उस आश्चर्यजनक दृश्य को देखकर उनके मुख से अनायास निकल पड़ा था – ‘काश! आज न्यूटन और आइन्स्टीन यहाँ होते।
- खेचरी मुद्रा हमारे गले में उपस्थित थायरॉयड ग्लैंड के सिक्रीशन को बढ़ाती है। जिससे हमारा मेटाबॉलिज्म इंप्रूव होता है। मेटाबॉलिज्म इंप्रूव होने से पेट के रोग भी नहीं लगते हैं। शरीर स्वस्थ रहता है और खाना ठीक से पचता है।
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