जाने अघोरी की तिजोरी के रहस्य। जानकर आप भी अवधूत की भभूत लगाने पर मजबूर हो जाएँगे! भाग-तीन amrutam.global

दूध भात की जिद्द

सुसराल जाने के पूर्व उन्होंने अपनी मां से दूध-भात खाने हेतु मांगा। उत्तरप्रदेश के गांवों में दूध-भात मृतक के क्रिया कर्म के समय सामान्यतः खाया जाता है, ऐसी परम्परा आज भी है।

अत: शुभ अवसर पर इसे अपशकुन मानकर मां ने उन्हें दूध भात देने से इन्कार कर दिया। पर जैसा कि सभी जानते हैं राजहठ, त्रियाहठ और बाल्यहठ बड़ी विचित्र होती है, सो उनकी वाल्यहठ को मानकर मां ने उन्हें दूध-भात खाने को दे दिया।

दूसरे दिन पता चला कि किनाराम की धर्मपत्नि का तो देहावसान हो गया है। परिजन दुखी, तो थे ही ऐसी आकत्यिक घटना से।परन्तु आश्चर्यचकित भी थे कि संभवतः पत्नी के देहावसान के आभाष होने के कारण ही बालक किनाराम ने मां से दूध-भात खाने की जिद की थी।

इस घटना से सिद्ध होता है कि बालक किनाराम अल्पायु में भी ऐसे गुणों से – ऐसी सिद्धियों से – परिपूर्ण थे कि सुदूर घटनाओं को जान सके समझ सकें।

बालक किनाराम की न तो पढ़ने लिखने में कोई रुचि थी और न ही घर गृहस्थी के कार्यकलापों में।विरक्त भाव से घूमते घामते एक दिन ऐसा अवसर आया कि गाजीपुर जनपद के ग्राम कारों में जा पहुंचे वहाँ उनकी भेंट महान शिव उपासक अवधूत महात्मा शिवाराम से हुई, जो कि गृहस्थ थे। (शिवाराम के स्मारक की पूजा आज भी यहाँ होती है)।

अनेको बार अनुनय विनय के पश्चात महात्मा शिवाराम उन्हें दीक्षित करने के लिये तैयार हुये और गंगा नदी के किनारे उन्हें ले गये।शौच निवृत्ति के लिये साधु शिवाराम को पीछे छोड़कर किनाराम अकेले ही गंगा किनारे की ओर बढ़ गये।

गंगा तट पर खड़े होकर किनाराम ने बड़ी ही श्रद्धाभावना से गंगा मैया को प्रणाम किया। सिर झुकाकर भक्तिभाव से प्रार्थना के लिए सिर उठाया, तो यह आश्चर्यजनक दृश्या था कि गंगाजल उनके चरणों को स्पर्श कर रहा था।महात्मा शिवाराम ने भी यह दृश्य देखा और जहाँ उन्हें बालक किनाराम में अधिकारी शिष्य होने के गुण दिखे वहीं किनाराम को इस घटना का कारण ‘गुरु महिमा’ ही समझ आया।

स्नान पूजन आदि के उपरांत महात्मा शिवाराम ने इन्हें भगवान शिव का अघोर मंत्र का मंत्रोपदेश देकर दीक्षित किया।

तत्पश्चात दीर्घकाल तक किनाराम पूर्ण निष्ठा से अपने गुरु अघोर साधु शिवाराभ की सेवा हेतु समर्पित रहे। कुछ वर्षों के उपरांत किनाराम की गुरुमाता यानि साधु शिवाराम की धर्मपत्नि का स्वर्गवास हो गया।

साधु शिवाराम पुनः गृहस्थी वसाने हेतु पुर्नविवाह करना चाहते थे जो किनाराम को ठीक नहीं लगा। और गुरुद्वारा प्रस्तावित पुनर्विवाह से असहमत होने के कारण गुरु आज्ञा से आश्रम छोड़कर अन्यत्र चले गये।

साधक कीनाराम के साथ एक नई घटना हुई। ग्राम का नाम था नई हीड। यहीं रुके थे, वे जहाँ उन्हें एक रोती हुई वृद्ध स्त्री से भेंट हुई।मां! क्यों दुखी हो? क्यों रो रही हो?- साधु कीनाराम ने बड़ी ही कृपालुता से पूछा ऐती वृद्ध मां ने बताया कि उसके बेटे को जमीदार ने पकड़वा लिया है क्योकि जमीदार का कर्ज नहीं चुकाया जा सका है और इस कारण वह दुखी और परेशान है।

मां! मुझे ले चलो उस जमीदार के पास संभवतः तुम्हारे बेटे को स्वतंत्र कराने के लिये कुछ कर सकूं।”कीनाराम ने उसे आश्वस्त किया। डूबते को तिनके का सहारा लगा। वृद्धा को और वह उन्हें लेकर जमीदार के यहाँ ले जाकर अपने धूप में बैठे बेटे को दिखा दिया।

साधु कीनाराम ने उस युवक को छोड़ देने का आग्रह जमीदार से किया। उत्तर में जमीदार ने कहा – अरे! बाबा, तुम साधु हो, सो भिक्षा लो और जाओ।परन्तु बाबा निरंतर ही यह आग्रह करते रहे कि उस युवक को छोड़ दिया जाये। जमीदार चिड़कर बोला यदि इस युवक से इतना मोह है, तो कर्ज भरो और इसे ले जाओ।

अघोरी साधु किनाराम ने उस युवक से कहा “बेटा, खड़े हो जाओ। युवक खड़ा हो गया. तब किनाराम ने उसी स्थान को खोदकर जमीदार से कर्जा पूरा करने हेतु गड़े धन होने का संकेत दे दिया।जमीदार ने वह जगह खुदवाई और यह आश्चर्यजनक ही था कि वहाँ पर्याप्त मात्रा में धन था जिससे कर्जा चुकाया जा सके।

जमीदार ने किनाराम के चरण छूकर क्षमा याचना की और उस युवक को मुक्त कर दिया। वृद्धा मां “अपने बेटे को पाकर धन्य थी।वृद्धा मां बाबा से इतनी प्रभावित हुई कि उस युवक को किनाराम को ही सौंप दिया। उस युवक का नाम बीजाराम था, जो बाद में अघोर पंथ के महान साधकों की श्रेणी में गिने गये।

अघोरी साधु किनाराम ने गिरनार की यात्रा की। वे ऊपर पर्वत की ओर गये जहाँ उनकी भेंट भगवान दत्तात्रेय से हुई। इस -समय पर्वत नीचे शिष्य बीजाराम को छोड़ गये थे और उन्हें यह आदेश था कि केवल तीन घरों से भिक्षा मांगकर लाया करो।

गिरनार से उतरकर किनाराम जी अपने शिष्य बीजाराम को साथ लेकर जूनागढ़ गये। बीजाराम को भिक्षा मांगने का आदेश दिया।

भिक्षा प्राप्त करने गये बीजाराम को जूनागढ़ तात्कालिक मुसलमान शासक ने कारागृह में डाल दिया तथा चक्की पीसने पर मजबूर किया।मुसलमानी शासन में उस समय भिक्षावृति अपराध था और बीजाराम इसी आरोप के कारण काराग्रह में डाले गये।

अघोरी बीजाराम के न लोटने पर कीनाराम ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर सुदूर घटना का कारण और स्थान जान समझ लिया।अब किनाराम स्वयं भी मिक्षावृत्ति हेतु उस नगर में जा पहुंचे और उनका भी वही परिणाम हुआ। वे भी बन्दी गृह में डाल दिये गये। चक्की पीसने की सजा उन्हें भी मिली।

अनेक चक्कियां थी वहाँ जिन्हें विभिन्न वन्दियों को चलाने की सजा थी। उन्हीं में से एक चक्की चलाने के लिये किनाराम को भी दे दी गई।किनाराम ने चक्की से कहा चक्की चल, चक्की चल’ चक्की कहाँ चलने वाली थी। वह नहीं चली-स्थिर ही रही वह।चलती तो तब, जब उसे चलाया जाता। यहाँ उसे न चलाकर चलने को कहा जा रहा था। संतरी, दरबान भी सब दृश्य बड़े कौतूहल से देख सुन रहे थे।

जब कहने से चक्की नहीं चली, तो अघोरी किनाराम ने अपनी कूबड़ी से चक्की से प्रहार कर दिया और परिणाम यह हुआ सभी चक्कियां एक साथ चलने लगीं।

स्वतः उनकी आध्यात्मिक शक्ति से सभी बिना किसी के चलाये। और यह आश्चर्य जनक था संतरियों के लिये। उन्होंने तुरन्त वहाँ के शासक को खबर दी। चकित शासक ने उस साधु को दरबार में लाने का आदेश दिया।

संतरियों की अनुनय विनय का परिणाम यह हुआ कि बीजाराम सहित कीनाराम जी राजा के समक्ष राज दरवार में आ गये।

राजा ने उन्हें सम्मानित किया और भेंट स्वरूप कुछ रत्न उपहार में दिये। पर साधु तो साधु ही होते हैं वह भी अधोरी। उन्हें रत्नों से क्या काम ? सो किनाराम ने उन रत्नों में से कुछ को मुंह में डालकर थूक दिया-बोले ‘यह न तो खट्टे हैं न मीठे थे, यह तो बिलकुल स्वादहीन है।

राजा समझ गये कि साधु बहुत ही पहुंचवान सिद्ध हैं तथापि उन्होंने प्रार्थना की कि “कुछ सेवा का अवसर देने की कृपा करें।अघोरी किनाराभ ने उसकी श्रद्धाभावना को देखकर कहा आज से यह नियम बना कि जो भी साधु फकीर आये उसे ढाई पाव आटा दिया जाये।

मुसलमान शासक ने बड़ी ही विनम्रता से उनका यह आदेश स्वीकार किया और इस नियम का निरन्तर पालन किया। उस शासक की वंश परम्परा बावा के आशीर्वाद के फलस्वरूप लंबी चली।

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