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एक चमत्कारिक घटना जिससे प्रसिद्धि मिली
अघोरी कीनाराम के जीवन काल की एक अन्य घटना बड़ी प्रसिद्ध है। हुआ यह कि सन १७७० में जब बाबा के कृपापात्र काशी नरेश महाराज बलवंत सिंह की मृत्यु हो गई, तो उनके पुत्र चेतसिंह ने गद्दी सम्हाली।
महाराज चेत सिंह रोवीले और उग्र स्वभाव के व्यक्ति थे। उनके गद्दी पर बैठने के पूर्व से ही यहा साधु कीनाराम का राजदरबार आना जाना लगा रहता था तथापि किनाराम और उनके शिष्यों द्वारा में संपादित अघोर क्रिया कलापों से उन्हें घृणा थी।
ऐसे ही एक समय जब चेत सिंह ने शिवाला घाट महल में शिवमंदिर की स्थापना की। अन्य काशी के पंडित शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा कर रहे थे।
दरबारियों और मुसाहियों से घिरे महाराज चेत सिंह आसन पर विराजमान थे और मंत्री वरख्सी सदानंद पूजनादि की व्यवस्था कर रहे थे। ऐसे ही अवसर पर वावा किनाराम श्मशान की भस्म लगाये हंसते हुये मंदिर के प्रांगण में उपस्थित हुये।उनके हाथ में रस्सी का एक सिरा था जबकि रस्सी के दूसरे छोर से मुर्दे की अधजली टांग बंधी थी। उसे घसीटते हुये लाये थे का
महाराज चेतसिंह स्वयं पर नियंत्रण न रख पाये। एकदम आग बबूला होकर बोले! किसने इसे यहाँ आने दिया? इसे निकालो यहां से।साधु किनाराम से सभी परिचित थे अत: डर से किसी की हिम्मत उनसे कुछ भी कहने की नहीं हुई। परन्तु यह तो किनाराम का अपमान हुआ था।
अघोरी कीनाराम राजा चेतसिंह को कुछ समय के लिए अलपक निहारते रहे फिर अपना दायां हाथ उठाकर शाप दिया”चेतसिंह ! तू घमंडी और विवेक हीन हो गया है। तूं मुझे बाहर जाने का आदेश दे रहा है?
तेरे सहित यहाँ उपस्थित सभी का कभी वंश नहीं चलेगा अब सब नि:संतान मरेंगे।
बाबा किनाराम चलने को पीछे मुड़े। उन्होंने मंदिर के चारों ओर दृष्टिपात किया। दांया हाथ उठाकर पुनः शाप दिया” यह मंदिर विद्यार्मियों के अधिकार में चला जाएगा और कौये यहाँ वीट करेंगे “
यही अक्षरश: हुआ भी कि भविश्य में राजा चेत सिंह को पुत्र न होकर पुत्रि ही उत्पन्न हुई। सभी का यही हाल हुआ। सब कुछ सत्य निकला। अघोरी वचन कभी खाली नहीं जाता।बाद में महल और मंदिर अंग्रेजों के कब्जे में चले गये। राजा और ईस्ट इंडिया कंपनी की लड़ाई का यह परिणाम निकला कि गवर्नर वॉरेन हेस्टिंग महल पर अधिकार हो गया।
कोई पूजा और रखरखाव की व्यवस्था न होने से और चमगादड़ ही वहां रहने लगे। यह अभिशप्त महल एकांत के सन्नाटे में आज भी खड़ा है वीरान और उदास, खंडहरों में पूर्णरूपेण परिवर्तित हो जाने के लिये -यहाँ यह बताया जाना शेष है कि मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा के अवसर पर राजा चेत सिंह के मंत्री वख्सी सदानंद भी वहाँ उपस्थित थे।
धार्मिक, ज्ञानी और विवेकशील व्यक्ति थे वे नंगे पैर और नंगे सिर हाथ जोड़कर माफी की मुद्रा में साधु किनाराम के समय उपस्थित हुये और क्षमा याचना की।
बाबा ने प्रसन्न होकर अपने शाप से मुक्त करते हुये कहा सदानंद ! जब तक तुम तुम्हारे वंशजों के नाम में आनंद शब्द लगा रहेगा तब तक तुम्हारा वंश चलता रहेगा और सदा आनन्द ही रहेगा।
उनके वंशजों के नाम के साथ हमेशा आनन्द शब्द जुड़ा हुआ होता है उन्हीं के वेशन वख्सी सदानंद के वंशज डा0 संपूर्णानंद हुए जो उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बने तत्कालीन शासन में मंत्री थे। डॉक्टर संपूर्णानंद जी ने ही राज्य विलीनीकरण की व्यवस्था कराई थी।
बाबा किनारामअंतर तक बनारस के क्री कुंड आश्रम में ही रहे। जब कभी रामगढ़ आया- आया करते थे।अपने प्रथम गुरु बाबा शिवाराम की स्मृति में चार वैष्णव मठों की स्थापना अलग अलग स्थानों यानि भारुफपुर, नईहीड, परानापुर और महुअर में की।
द्वितीय गुरु की स्मृति में अघोर मत की गद्दियां क्रीं कुण्ड काशी के अतिरिक्त रामगढ़ जिला बनारस, देवल जिला गाजीपुर और हरिहरपुर जिला जौनपुर में स्थापित कीं।
वारणसी में 142 वर्ष की अवस्था में संवत 1826 में उन्हें शिवलोक प्राप्त हुआ। उनके द्वारा रचित पुस्तकों में अभी तक मात्र पांच पुस्तकें प्रकाशित हुई है।
- विवेक सार।
- राम गीता।
- राम रसाला
- गीतावली
- उन्मुनीराम
अघोर मत के प्रवर्तक के रूप में उनका नाम आज भी बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है।अधोर, पंथ उनके कारण ही विस्तारित हुआ और किनारामी परंपरा के कारण ही यह दुरुह और रहस्यमयी साधना पद्धतियों से परिपूर्ण अघोर मत आज भी विद्यमान है। ! ऐसी तेजस्वी दिव्यात्मा को अमृतम परिवार सभी देशवासियों के सहित बारंबार प्रणाम करता है।
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