स्त्री का स्वभाव सरल हो, तो वह शक्ति के रूप में पूज्यनीय हो जाती है! शिव और शक्ति में से छोटी इ की मात्रा हटते ही शिव से शव और स्त्री शक्ति से सख्त हो जाती है! जाने क्या हैं चौकाने वाले रहस्य भाग-चार amrutam.global

!!ॐ शम्भूतेजसे नमः शिवाय!!

मंत्र की कम से कम एक माला या हो सके ११ माला जपें और पितृ गण, गुरु, महाकाल को अर्पित कर दें। बेमन जपने से भी तुरन्त दुःख मिटेगा।

प्रकृति में नयापन की तैयारी कराती नारी

नारी का मन और दृष्टि ख़राब होने से सृष्टि में बड़े बड़े परिवर्तन हुए। राहु के जन्म के पूर्व धरती पर दुःख, शोक, रोग, परेशानी, विकार आदि था ही नहीं।सिंहिका की ज़िद्द के कारण भोलेनाथ को झुकना पड़ा और मनचाहा परिणाम दिया।

राहु की माँ ही धूमेश्वरी नाम से पूज्य-प्रचलित हुईं-

राहु की माँ ने शिवजी का इतना ध्यान और घोर तप किया कि देह से धुआँ निकालने लगा। धूम निकालने के कारण इनका तंत्र की देवी धूमेश्वरी नाम पड़ा।श्री गणेश भी राहु केतु का संयुक्त रूप है। इस बारे में अमृतम पत्रिका के गणेषांक को पढ़ें।राम-रावण युद्ध हो अथवा महाभारत, मूल में स्त्री ही रही है। अनेक ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। शाप या श्राप भी स्त्रियों के बहुत प्रभावी होते हैं क्योंकि वे अंदर से दृढ़ संकल्पित होती हैं।

चीर-हरण के समय जब द्रौपदी कोरवों को शाप/श्राप देने लगी, तो गांधारी ने रोका कि’तुम कुछ भी करो, बस श्राप मत दो।

स्वयं भीष्म पितामह भी अम्बिका का श्राप भोग रहे थे। हर युग में ऐसे उदाहरण रहे हैं। वैसे सही शब्द शाप है! न कि श्राप। हिन्दी व्याकरण शब्दकोश पढ़ें।

देह यन्त्र या शरीर उपकरण: और प्रकृति संचालक

प्रकृति प्रकाश-विमर्श रूप है, प्रसार संकोच है। प्रकृति ही अद्वय को अद्वैत बनाती है और अद्वैत को द्वैत रूप में प्रकट करती है।

स्वयं अंधकार रूप होती है। हर पुरुष की अपनी प्रकृति भी होती है। वही स्त्री रूप में भीतर कार्य करती है।

प्रकृति के सत्व रज-तम रूप के अनुसार ही पुरुष का वर्ण यानी त्वचा का रंग ब्रह्म क्षेत्र – विट् वीर्य रूप में कर्म करता है।प्रकृति ही पुरुष हृदय में कामना का स्वरूप तय करती है। वैसा ही स्वभाव पुरुष का दृष्टिगोचर होता है।

शरीर में न इच्छा है, न ही गति! इच्छा मन में होती है और गति प्राण में शरीर कर्म करने का उपकरण मात्र है।

गृहस्थाश्रम प्रवेश का महत्व

पुरुष और प्रकृति ही इसमें दम्पती भाव में रहते हैं। प्रकृति भी जड़ रूप रहती है (अपरा)। पुरुष. चेतनायुक्त है। उसे प्रकृति और स्त्री सहज समर्पण भाव से चला रही है।

पुरुष के भोग्य पदार्थों को प्रकृति तय करती है। पुरुष को कर्मानुसार योनियों में भी प्रकृति ही भेजती है।

अतः मनुष्य की पहली आवश्यकता है स्वयं को जानना। स्वयं का आत्मा से परिचय करना- पुरुष रूप का आत्मबोध, तब उसे प्रकृति को समझना होगा। प्रकृति उसी की है। पुरुष की ही स्त्रैण शक्ति है।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः!

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते!! (गीता 3.27)

अर्थात् सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, परन्तु अहंकार से मोहित अन्तःकरण यानि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार वाला अज्ञानी मनुष्य ‘मैं कर्ता हूँ ऐसा मानता है।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि!

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति!!

अर्थात्-सम्पूर्ण प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? (गीता ३.३३)

पुरुष इसी प्रकृति के द्वारा संचालित होता है। सतोगुणी हो या तमोगुणी, वैसा ही स्वभाव, वैसा ही अत्र, मन, विचार, कर्म होगा!

अन्न से ही शुक्र, अन्न से ही नया जीवात्मादि सारा कुछ इस प्रकृति के दृढ़ हाथों में रहता है। प्रकृति को नहीं बदल पाता मनुष्य! सहज नहीं हैं।

अहंकृति आकृति भी साथ बदलती है। अतः कठोर संकल्प-तप-संयम जैसी चर्या से ही मनुष्य “निस्त्रैगुण्यभव‘ तक पहुंच पाता है। इसके प्रभाव में प्रकृति भीतर बैठकर आगे की योनियों का संचालन करती जाती है।

पुरुष यदि भीतर अपनी स्त्री (स्त्रैण भाव) को समझे और उसके संचालन का अभ्यास कर ले, तो क्यों नहीं है वह शक्तिमान बन सकता है !

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