कोई भी व्यक्ति भारी दुःखों से पीड़ित है, उसकी गरीबी नहीं मिट रही हो और केंसर, मधुमेह, रक्तचाप आदि असाध्य रोगों से परेशान हो, उन्हें यह लेख जरूर पढ़ना चाहिए।
- भविष्यपुराण में भगवान शिव ने श्रीकृष्ण को बताया है कि इस स्तोत्र से अनेक जन्मों का दुःख मिट जाता है। जैसे-कालसर्प, पितृदोष, ग्रहदोष, वास्तुदोष, दरिद्र दोष, कानूनी उलझने, जादू-टोना, करा-धरा, सम्मोहन, उच्चाटन, मोहिनी, मारण, टोटका आदि का नाश होता है।
- सबसे पहले भ्रम मिटायें…संसार में सबको यही पता है कि महर्षि वशिष्ठ द्वारा श्रीराम को आदित्य ह्रदय स्तोत्र मुक्ति हेतु बताया था।
- हर दर्द की दवा है-शिव का आदित्य ह्रदय स्तोत्र…
- लेकिन लोगों को यह नहीं मालूम कि भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति के फलस्वरूप महादेव ने भी आदित्य ह्रदय स्तोत्र का जप सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य-कीर्ति प्राप्ति के लिए पाठ करने का निर्देश दिया था।
- एक से गरीबी मिटेगी और दूसरे से मुक्ति मिलेगी…दोनों में मात्र इतना अंतर है कि अगर धन की कामना हो, तो महादेव रचित आदित्य ह्रदय स्तोत्र का निम्नलिखित पाठ करें और मुक्ति की इच्छा हो, तो महर्षि वशिष्ठ द्वारा राम को बताया गया पाठ करें।
- अमृतम पत्रिका से साभार यह स्तोत्र दुनिया में दुर्लभ है। इस स्तोत्र को सरल भाषा में अनुवाद ऋतम संस्कृत पत्रिका के मुख्य सम्पादक पण्डित श्याम मोहन मिश्र ने 90 वर्ष की अवस्था में किया था। उन्हें हम सादर साष्टांग प्रणाम करते हैं।
- आदित्य-हृदय स्तोत्रम् श्री भविष्योत्तर-पुराण में लोगों के हित एवं अथाह धन-दौलत की इच्छापूर्ति के लिए भोलेनाथ रचित यह एक महत्त्वपूर्ण स्तोत्र है।
- यह स्तोत्र श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था, जिसे श्रेष्ठ विप्र सुमन्तु ने राजा शतानीक को बताया था।
- भविष्यपुराण में पहले भगवान श्री कृष्ण ने आदित्य हृदय का महत्त्व संसार के कल्याण हेतु महत्वऔर फिर विनियोग बताया।
- विनियोग का अर्थ है नियुक्ति अथवा किसी भी विशिष्ट कार्य में लगा देना। फिर करन्यास, हृदयादिन्यास, दिग्बन्ध और ध्यान है।
- आगे शरीर न्यास और दिग्बन्ध फिर से। श्री कृष्ण ने आगे न्यास का महत्त्व बताया और फिर शान्ति प्रदायिनी सूर्यदेव की प्रार्थना कही।
- कहीं-कहीं हमने शंका समाधान और परामर्श भी दिया। जहाँ कहीं क्रिया कठिन प्रतीत हुई उसका स्पष्टीकरण किया। इस “आदित्य हृदयम्’ का द्वादश मण्डलम् हृदय है।
- बस एक घण्टा रोज दे भगवान सूर्य को और चमत्कार देखें…
।। अथ आदित्य-हृदय-स्तोत्रम्।। –
- श्री भविष्योत्तर-पुराण मुताबिक श्रीकृष्णार्जुन-संवाद में आदित्य-हृदय स्तोत्र प्रारम्भ…शतानीक उवाच…
कथमादित्यमुद्यन्त,-मुपतिष्ठेद्-द्विजोत्तम।
एतन्मे ब्रूहि विप्रेन्द्र, प्रपद्ये शरणं तव।।1।। –
- हे विप्रेन्द्र सुमन्तुः! हे द्विजोत्तम! मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मुझे यह बताएँ कि आदित्य यानि सूर्य का उदय कैसे हुआ? सुमन्तुरुवाच-सुमन्तु बोले
इदमेव पुरा पृष्टः,शंखचक्र-गदाधराः।
प्रणम्य शिरसा देव-मर्जुनेन महात्मना।।२।। कृष्णनाथं समासाद्य, प्रार्थयित्वा-ब्रवीदिदम्।।३।।
- पहले शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले श्रीकृष्ण को सामने पाकर महारथी अर्जुन ने शिर झुका कर प्रणाम करके प्रार्थना करते हुए इस प्रकार पूछा- अर्जुन उवाच
ज्ञानं च धर्म- शास्त्राणां, गुह्याद्गुह्यतरं तथा।
मया कृष्ण परिज्ञातं, वाङ्मयं सचराचरम्।।४।।
- अर्थात-हे कृष्ण ! धर्म शास्त्रों का ज्ञान गुप्त से गुप्ततर है। मैंने आपकी वाणी से चराचर का कुछ ज्ञान प्राप्त किया।
सूर्यस्तुति-मयंन्यासं, वक्तुमर्हसि माधव।
भक्त्या पृच्छामि देवेश, कथयस्व प्रसादतः ।।५।।
- अर्थात-हे देवेश! मैं भक्ति पूर्वक आपसे पूछता हूँ। आप कृपा पूर्वक हमें बताएँ। हे माधव! न्यास सहित सूर्य-स्तुति आप ही बता सकते हैं।
सूर्यभक्तिं करिष्यामि, कथं सूर्यं प्रपूजयेत्।
तदहं श्रोतुमिच्छामि, त्वत्प्रसादेन यादव।।६।।
- अर्थात- मैं सूर्यभक्ति करूँगा। सूर्य की पूजा कैसे की जाए। हे कृष्ण! आपकी कृपा से मैं महादेव के द्वारा रचित आदित्य ह्रदय स्तोत्र के रहस्य विस्तार से सुनना चाहता हूँ।
श्रीभगवान कृष्ण उवाच…
रुद्रादि-दैवतैः सर्वैः, पृष्टेन कथितं मया।
वक्ष्येऽहं सूर्यविन्यासं,शृणु पाण्डव यत्नतः।।७।।
- अर्थात- मैंने रुद्र आदि सभी देवों के द्वारा पूछने पर यह सब बताया। हे धनुर्धर अर्जुन ! इस स्तोत्र को ध्यानपूर्वक सावधानी से सुनने का प्रयास करो।
- महादेव रचित आदित्य ह्र्दय स्तोत्र का रहस्य…यह आदित्य हृदय स्तोत्र सबका सब प्रक कल्याण करता है, सभी प्रकार के पापों से दूर रखता है सब प्रकार के रोग दूर करता है और उम्र बढ़ाता है।
अमित्रदमनं पार्थ, संग्रामे जयवर्धनम्।
वर्धनं धन-पुत्राणा,-मादित्य- हृदयंशृणु।।१२।। –
-
- हे पार्थ! यह शत्रुओं का दमन करने वाला संग्राम में जीत दिलाने वाला तथा धन और पुत्र बढ़ाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र सुनो।
यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो, मुच्यते नात्र संशयः।
त्रिषु लोकेषु विख्यातं, निः श्रेयस्करं परम्।।१३।।
- अर्थात-इसे सुनकर भक्त सभी पापों से मुक्त हो जाता है तथा सब प्रकार के पाप करना बन्द कर देता है। इसमें कोई शंका नहीं है। तीनों लोकों में यह प्रसिद्ध है। यह सबसे बड़ा कल्याण करने वाला है।
देवदेवं नमस्कृत्य, प्रातरुत्थाय चार्जुन।
विघ्यानेक-रूपाणि, नश्यन्ति स्मरणादपि।।१४।।
- हे अर्जुन ! प्रातः काल उठकर ईश्वर मुद्रा में भगवान सूर्य देव को नमस्कार करे। उन्हें स्मरण करने से भी अनेक प्रकार के विघ्न नष्ट हो जाते हैं।
तस्मात्सर्व-प्रयत्नेन, सूर्यमावाहयेत्सदा।
आदित्य-हृदयं नित्यं ,जाप्यं तच्छृणुपाण्डव ।१५।
- अर्थात-इससे सारे प्रयास करके सूर्य का आवाहन करके आदित्यहृदय का नित्य जाप करना चाहिए। हे पाण्डव ! आदित्य ह्रदय का महत्त्व सुनो।
यज्जपान्मुच्यते जन्तुर्-दारिद्रयाशु दुस्तरात्।
लभते च महासिद्धिं, कुष्ठ व्याधि विनाशिनीम्।१६।
- अर्थात-इसके जाप-पाठ से व्यक्ति की कठिन से कठिन गरीबी समाप्त हो जाती है। इससे बहुत बड़ी सिद्धि मिलती है और कुष्ठ जैसी बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं।
अस्मिन् मन्त्रे ऋषिश्छन्दो, देवता शक्तिरेव च। सर्वमेव महाबाहो, कथयामि तवाग्रतः।।१७।।
- अर्थात- इस सूर्य स्तोत्र का कौन ऋषि है, क्या छन्द है! कौन देवता है और कौन शक्ति है? यह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
- सर्वप्रथम विनियोगः करें – दाहिनी हथेली में लाल पुष्प, अक्षत और जल लें और “विनियोगः” कहने पर हाथ का जल आदि अपने सामने धरती पर छोड़ दें
ॐ अस्य श्री आदित्य-हृदय-स्तोत्र-मन्त्रस्य ऋषिः श्रीकृष्ण:त्रिभुवनेश्वरः श्री सूर्यात्मा देवता।। अनुष्टुप छन्दः।। बीजम्।। ॐ नमो भगवते जितवैश्वानर- जातवेदस इति शक्तिः।। ऊँ नमो आदित्याय नम इति कीलकम्।। ॐ अग्नि-गर्भ-देवता इति मन्त्रः।।
ऊँ नमो भगवते तुभ्य-मादित्याय नमो नमः।
श्री सूर्यनारायण-प्रीत्यर्थं जपे विनियोगः।।
कहते हुए हथेली का जल आदि अपने सामने धरती पर छोड़ दें।
संक्षेप में विनियोग का अर्थ ….. ऊँ श्री आदित्य हृदय स्तोत्र मन्त्र के ऋषि “श्रीकृष्ण”।। त्रिभुवन के ईश्वर श्री सूर्यात्मा देवता हैं ।। इस स्तोत्र का छन्द “अनुष्टुप् ।।’
- हरे रंग के घोड़ो वाले रथ पर चलने वाले दिवाकर “घृणि” यह बीज है।
- ॐ भगवान् को नमस्कार अग्नि-विशेष (अन्न पकाने वाली अग्नि) और जातवेदस नाम के सूर्य “शक्ति’ है।।
- ॐ भगवान को नमस्कार, आदित्य को नमस्कार यह “कीलक”।। ऊँ अग्निगर्भ देवता यह मन्त्र है।। ॐ आदित्य रूप भगवान् को नमस्कार है।।
- श्री सूर्यनारायण को प्रसन्न करने के लिए जप में विनियोग है।।
- अथ न्यासः- करन्यासः ॐ ह्रां अगुष्ठाभ्यां नमः (दोनों हाथों की तर्जनी अँगूठे से पहली अँगुली से अंगूठे के मूल को छुएँ।
- ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः (दोनों हाथों के अंगूठे से तर्जनी को स्पर्श करें)
- ॐ ह्रूं मध्याभ्यां नमः (दोनों हाथों के अंगूठे से मध्यमा (बीच की ऊँगली) को छुएँ)।
- ॐ ह्रैं अनाभिकाभ्यां नमः (दोनों हाथे के अंगूठे से अनामिका (बीच की ऊँ गली के बाद तीसरी) अँगुली को स्पर्श करें।
- ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः (दोनों हाथों के अँगूठे;से कनिष्ठिका (सबसे छोटीअँगुली) को छुएँ।
- ॐ ह्रः करतलकर-पृष्ठाभ्यां नमः (दोनों हथेलियों को आपस में हाथ जोड़ने की स्थिति में आकर दोनों हथेलियों के पृष्ठ भाग को आपस में मिलाएँ।)
- हृदयादि-न्यासः- इसमें दाहिने हाथ की पोरों से मिली हुई अँगूठे सहित पाँचों अँगुलियों से हृदय आदि अङ्गों का स्पर्श किया जाता है।
- ॐ ह्रां हृदयाय नमः (दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से हृदय का स्पर्श करें)।
- ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा (पाँचों अँगुलियों से सिर का स्पर्श करें)।
- ॐ ह्रूं शिखायै वषट् (पाँचों अँगुलियों से शिखा का स्पर्श करें। शिखा न होने पर शिखा के स्थान का स्पर्श । करें)।
- ॐ ह्रैं कवचाय हुम् (दाहिने हाथ की अंगुलियों से बायें कन्धे का और बायें हाथ की अंगुलियों से दाहिने कन्धे का स्पर्श करें)।
- ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट (दाहिने हाथ की तर्जनी अँगुली से दाहिने नेत्र का, मध्यमा (बीच की) अँगुली से दोनों भौहों के मध्य स्थान का और मध्यमा के बाद की अनामिका अँगुली से बायें नेत्र का स्पर्श करें)।
- ॐ ह्रः अस्त्राय फट् (यह वाक्य पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे की ओर घुमाते हुए दाहिनी ओर से अपने सामने लायें और तर्जनी तथा मध्यमा (बीच की) दोनों अँगुलियों को मिलाकर बायें हाथ की हथेली पर ताली बजायें)।
अथ दिग्बन्धः….ऐकमेकं मन्त्र पठित्वा-प्रत्येक-दिशि अँगुली पीडनं कुर्वन दिग्बन्धं कुरु। अर्थात एक एक मन्त्र को पढ़कर प्रत्येक दिशा चुटकी बजाते हुए दिग्बन्ध करें।
1. ॐ ह्रां प्राच्यै नमः (पूर्व की ओर चुटकी बजाएँ), 2. ॐ ह्रीं आग्नेयै नमः (दक्षिण और पूर्व दिशा के मन के कोण में चुटकी बजाएँ),
3. ॐ ह्रूं दक्षिणायै नमः (दक्षिण की ओर चुटक बजाएँ),
4.ॐ ह्रैं नैर्ऋत्यै नमः (दक्षिण और पश्चिम के मध्य (कोण) चुटकी बजाएँ)
5. ॐ ह्रौं प्रतीच्यै नमः (पश्चिम की दिशा में चुटक बजाएँ)
6. ॐ ह्रः वायव्यै नमः (पश्चिम और उत्तर दिशा मध्य (कोण)में चुटकी बजाएँ),
7. ॐ ह्रां उदीच्यै नमः (उत्तर दिशा की ओर चुटक बजाएँ),
8. ॐ ह्रीं ऐशान्यै नमः (उत्तर और पूर्व के मध्य को ईशान दिशा में चुटकी बजाएँ),
9. ॐ ह्रूं आदित्याय ऊर्ध्वायै नमः (ऊपर आसमान की ओर चुटकी बजाएँ),
10. ॐ ह्रैं सूर्याय भूम्यै नमः (धरती की ओर चुटक बजाएँ) ।।
मगण, रगण, भगण, नगण,यगण, यगण,यगण ऽऽऽ, ऽ।ऽ, ऽ।।, ।।।, ।ऽऽ, ।ऽऽ ।ऽऽ
भास्वद्- रत्नाढ्य-मौलिः, स्फुर-दधर-रुचा रञ्जितश् चारु -केशो
परिचय:- यरिमन वर्णिक-छन्दे मगण-रगण. भगण-नर…: त्रयः यगणाश्च भवन्ति , तथा सप्तसप्त वर्णानामनन्तरं लघु-विरामाश्च
भवन्ति, स:स्त्रग्धरा प्रकृतिः वा छन्दो भवति।
सुरों का महत्व व परिचय- जिस वर्णिक छन्द में मगण, रगण, भगण, नगण, और तीन यगण होते हैं, तथा सात-सात वर्गों के बाद लघु विराम होते हैं, वह स्रग्धरा अथवा प्रकृति छन्द होता है।
अब भगवान सूर्य का ध्यान करें-अथ ध्यानम्
भास्वद्- रत्नाढ्य-मौलिः, स्फुर-दधर-रुचा, रञ्जितश्चारु-केशो;
भास्वान्यो दिव्यतेजाः,कर-कमल-युतः,
स्वर्ण-वर्णः प्रभाभिः।
विश्वाकाशा-वकाशा-, ग्रहपति-शिखरे,
भाति यश्चो-दयाद्रौ;
सर्वानन्द-प्रदाता, हरि-हर-नमितः,
पातु मां विश्वचक्षुः॥
अर्थात—चमकते हुए रत्नों की लड़ियों से सुशोभित शीश वाले, अधरों की शोभा भी स्पष्ट है। सुन्दर केश प्रकाशित हैं।
मेरे ह्रदय में दिव्य तेज फैल रहा है। स्वर्ण के रंग वाले अनेक प्रकार की चमकों से हाथ कमल जैसा सुशोभित है।
सभी ग्रहों के स्वामी विश्व के आकाश में उदयाचल पर्वत शिखर पर सुशोभित हो रहे हैं।
भगवान विष्णु और शिव भी जिन्हें नमस्कार करते हैं। सम्पूर्ण विश्व के चक्षु वही हैं, सबको आनन्द देने वाले वही सूर्य मेरी रक्षा करें।
सूर्य प्रार्थना…
पूर्वमष्टदलं पद्म, प्रणवादि-प्रतिष्ठितम्।
मायाबीजंदलाष्टाग्रे, यन्त्र-मुद्धारयेति च।।२।।
अर्थात-अपनी नाभि में पहले दल वाला कमल और प्रणव आदि प्रतिष्ठित करे आठ दलों के आगे माया बीज और यन्त्र स्थापित करे।
आपको प्रणाम है।
नमो नमस्तेऽस्तु सदा विभावसो,
सर्वात्मने सप्तहयाय भानवे।
अनन्त-शक्तिर्-मणि-भूषणेन,
ददस्व भुक्तिं मम मुक्ति-मव्ययम्।।७।।
हे विभावसु (सूर्य) ! आप सबकी आत्मा हैं, आपके रथ के सात घोड़े हैं, आप में अनन्त शक्ति है, तथा आप मणियों की भी शोभा हैं।
आपको बारम्बार प्रणाम है। आप मुझे सांसारिक भोग और अन्त में अव्यय (कभी समाप्त न होने वाली) मुक्ति प्रदान करें।
अथ शरीरे न्यासः तथा दिग्बन्धः-
अर्क तु मूर्ध्नि विन्यस्य, ललाटे तु रविं न्यसेत् । विन्यसे-नेत्रयोः सूर्य,कर्णर्योश्च दिवाकरम्।।८।।
(भावना करें-)शिर पर अर्क नामक सूर्य का न्यास करके ललाट पर रवि नामक सूर्य का न्यास करे। दोनों नेत्रों में सूर्य को न्यास करे और दोनों कानों में दिवाकर को।
नासिकायां न्यसेभानु, मुखे वै भास्करं न्यसेत्। पर्जन्य- मोष्ठयोश्चैव, तीक्ष्णं जिह्वान्तरे न्यसेत्।।९।।
अर्थात-नासिका में भानु नामक सूर्य को, मुख में भास्कर सूर्य को, पर्जन्य नामक सूर्य को दोनों होष्ठों में और जीभ के अन्दर तीक्ष्ण नामके सूर्य को न्यास करे।
सुवर्णरेतसंकण्ठे,स्कन्धयोसतिग्म-तेजसम्।
बाह्वोस्तु पूषणं चैव, मित्रं वै पृष्ठतो न्यसेत् ।।१०।।
सुवर्ण रेतस नामक सूर्य को (सुवर्ण रेतस नाम शिवजी का भी है) कण्ठ में, तिग्मतेजस (तीव्र तेजवाले) नामक सूर्य को दोनों कन्धों पर, दोनों भुजाओं में पूषण नामक सूर्य को और मित्र नामक सूर्य को पीठ पर न्यास करे।
वरुणं दक्षिणे हस्ते, त्वष्टारं वामतः करे।
हस्ता-वुष्णकरः पातु, हृदयं पातु भानुमत् ।।११।।
अर्थात- वरुण नामक सूर्य को दाहिने हाथ में, त्वष्टा नामक सूर्य को बायें हाथ में, दोनों हाथों में उष्णकर नामक सूर्य को और भानुमत् नामक सूर्य को हृदय में न्यास करें।
उदरे तु यमं विन्द्या-दादित्यं नाभिमण्डले।
कट्या तु विन्येद्धंसं, रुद्र-मूर्वोस्तु विन्यसेत् ।।१२।।
अर्थात-यम नमक सूर्य को उदर में, आदित्य नामक सूर्य को नाभि में, हंस नामक सूर्य को कमर में और रुद्र नामक सूर्य को जंघा में न्यास करे।
जान्वोस्तु गोपतिं न्यस्य, सवितारं तु जंघयोः।
पादयोस्तु विवस्वन्तं , गुल्फयोश्चदिवाकरम्।।१३।।
अर्थात- दोनों घुटनों में गोपित नामके सूर्य को, दोनों पैरों के (जंघयोः) एड़ी से घुटनों तक के भाग में सविता को, दोनों पैरों में विवस्वान को और (गुल्फयोः) टखना अर्थात एड़ी से ऊपर की गाँठों में दिवाकर को न्यास करें।
बाह्यतस्तु तमो ध्वंसं, भगमयन्तरे न्यसेत्।
सर्वाङ्गेषु सहस्राशुं, दिग्विदिक्षु भगं न्यसेत् ।।४।।
शरीर के सम्पूर्ण बाह्य भाग में तमोध्वंस नामक सूर्य को, शरी’ के अन्दर के सभी भागों में भग नामक सूर्य को, सभी अंगों में सहस्रांश नामक सूर्य को तथा सभी दिशाओं में शिव का न्यास करें।
इति शरीर न्यास: दिग्बन्धश्च।
न्यासानां महत्त्वम् – न्यास का महत्व…
एषआदित्य विन्यासो, देवानामपि दुर्लभः।
इमं भक्त्या न्यसेत्पार्थ, स याति परमां गतिम्।१५।
(भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-) हे पार्थ! देवताओं के लिए भी यह आदित्य विन्यास दुर्लभ है, जो व्यक्ति भक्ति से आदित्य न्यास करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।
काम क्रोध-कृतात्पापान, मुच्यते नात्र संशयः। सर्पादपि भयं नैव, संग्रामेषु पथिष्वपि।।१६।।
- अर्थात-काम,क्रोधसे होने वाले पापों से वह सदा पृथक रहता है, इसमें कोई भी संशय नहीं है।
- झगड़े-झंझटोंमें तथा मार्गों में भी नाग का कोई भय नहीं रहता।
रिपु-सङ्घट्ट-कालेषु, तथा चोर-समागमे।
त्रिसन्ध्यं जपतो न्यासं,महापातक-नाशनम्।।१७।।
अर्थात-यदि शत्रुओं के साथ कोई विवाद हो जाये, चोरों के (घर में) आने पर उनसे छुटकारा मिलता है तथा तीनों सन्ध्याओंको न्यास का जप करे, तो उस व्यक्ति के महा पातक भी नष्ट हो जाते हैं! अर्थात् सभी अष्ट दरिद्र आदि पातकों से दूर रहता है।
विस्फोटक-समुत्पन्नं, तीव्रज्वर-समुद्भवम्। शिरोरोगं नेत्र-रोगं,सर्व-व्याधि-विनाशनम्।।१८।।
अर्थात-शरीर में कोई फोड़े निकल आये हों, तीव्र-ज्वर आ गया हो, शिर या नेत्रों में कोई रोग हो, सभी कैंसर आदि व्याधियों का इस आदित्य हृदयका पाठ करनेसे विनाश हो जाता है।
कुष्ठ-व्याधिस्तथा दद्रु-रोगाश्च विविधाश्च ये।
जपमानस्य नश्यन्ति, शृणु भक्त्या तर्जुन ।।१९।। अर्थात- कोढ़ रोग, विविध प्रकारके खाज रोग इसका जप करने से नष्ट हो जाते हैं।
हे अर्जुन ! यह बात श्रद्धा पूर्वक सुनो-
आदित्यो मन्त्रसंयुक्त, आदित्यो भुवनेश्वरः। आदित्यान्नापरो देवो, ह्यादित्यः परमेश्वरः।।२०।।
ब्रह्माण्ड के समस्त मन्त्रों से युक्त आदित्य ही हैं।आदित्य ही तीनों भुवनों के स्वामी हैं। आदित्य से बड़ा कोई देवता नहीं है। आदित्य ही परमेश्वर हैं।
आदित्य-मर्चयेद्-ब्रह्मा, शिव आदित्य-मर्चयेत्। यदादित्यमयं तेजो,मम तेजस्तदार्जुन ।।२१।।
(श्रीकृष्ण कहते हैं-) हे अर्जुन ! ब्रह्मा और शिव आदित्य की अर्चना-प्रार्थना, स्तोत्र करते हैं और मेरा तेज आदित्यमय है।
आदित्यं मन्त्र-संयुक्त – मादित्यं भुवनेश्वरम्। आदित्यं ये प्रपश्यन्ति, मां पश्यन्ति न संशयः ।२२।
अर्थात-त्रिलोकके स्वामी आदित्यको जो लोग मन्त्रजाप या पाठ सहित देखते है, वे निश्चय ही मुझको नहीं देख पाते (क्योकिं आदित्यप्रकट हैं और मैं श्रीकृष्ण) प्रक्षिप्त यानि छिपा हुआ हूँ।)
त्रिसन्ध्य-मर्चयेत्सूर्यं, स्मरेद्भक्त्या तु यो नरः।
स न पश्यति दारिद्रयं, जन्म-जन्मनि चार्जुन।२३।
अर्थात- हे अर्जुन ! जो व्यक्ति तीनों सन्ध्याओं (प्रातः, दोपहर, शाम)को भक्ति पूर्वक अर्चना (पूजा) करता है, वह व्यक्ति अनेक जन्मों तक गरीबी नहीं देखता।
एतत् कथितं पार्थ,आदित्य-हृदयं मया।
शृण्वन् मुक्तश्च पापेभ्यः, सूर्य-लोके महीयते।२४।
- अर्थात-हे पार्थ! मैंने यह जो “आदित्य हृदय” इस प्रकार कहा है उसे सदा सुनते हुए वह व्यक्ति पापों से अलग हो जाता है अर्थात् वह पापकर्म करना बन्द कर देता है और वह सूर्यलोक प्राप्त करता है।
-
- अब भगवान सूर्य से प्रार्थना करें….
बहुत सावधानीसे सम्पूर्ण सुनता है, वह सब प्रकारके पाप करना बन्द कर देता है। कामनाओंको पूर्ण करने वाला इससे और कोई श्रेष्ठ उपाय नहीं है।
एतज्जपस्व कौन्तेय, येन श्रेयो ह्यवाप्स्यसि। आदित्य-हृदयं नित्यं,य: पठेत्सुसमाहितः।।८३।।
अर्थात- हे कौन्तेय! जो व्यक्ति नित्य ही बहुत सावधान होकर मन एकाग्र करके “आदित्य-हृदयम्” का शुद्ध पाठ करता है। इससे उसे निश्चय ही श्रेय प्राप्त होता है।
पातकानि च सर्वाणि, दहत्येव न संशयः।
य इदं शृणुयान्नित्यं, जपेद्वापि समाहितः।।८४।।
अर्थात-जो व्यक्ति बहुत सावधान होकर इसे आदित्यहृदय स्तोत्र को नित्य सुनता है अथवा जपता है। उसके सभी भयानक से भयानक पाप जलकर नष्ट हो जाते हैं।
सर्वपाप-विशुद्धात्मा, सूर्यलोके महीयते।
अपुत्रो लभते पुत्रान्, निर्धनो धनमाप्नुयात्।।८६ ।।
अर्थात-
जो व्यक्ति शिव रचित“आदित्य-हृदयम्” स्तोत्र का 120 दिन पाठ करता है, तो वह सर्व पाप, सर्वदुष्टानां, सर्वदोषों से मुक्त हो जाता है। यदि उसके कोई पुत्र न हो, तो पुत्र प्राप्त हो जाता है और धन न हो, तो उसे धन मिल जाता है और अन्त में सूर्यलोक में स्थान पाता है।
विशेषः- इदं सर्वत्र ध्यातव्यं यत् शुद्धपाठेनैव सुप्रभावो भवति, अशुद्धपाठेन च दुष्प्रभावो भवति।
विशेष:- यह सब जगह ध्यान रखना चाहिए कि शुद्ध मन, अच्छे मन से ही अच्छा प्रभाव होता है और अशुद्ध भाव-विकार युक्त पाठ से दुष्प्रभाव होता हैं।
- आदित्य ह्रदय स्तोत्र तथा सूर्य उपासना के फायदे…
कुरोगी मुच्यते रोगाद्-भक्त्या यः पठते सदा। यस्त्वादित्यदिने पार्थ,नाभिमात्र-जले स्थितः!८७।
हे पार्थ! जो व्यक्ति रविवार-को जलमें नाभि तक खड़े होकर भक्ति पूर्वक पाठ करता है, वह खराब रोग से भी मुक्त हो जाता है।
विशेष- पापानां दहनस्यार्थः- केनापि कृतानि पापानि कस्यापि देवस्य पूजनेन तस्य स्तोत्रस्य पाठेन वा पापानि नश्यन्ति न, अपितु देवं पूजकस्य स्तोत्रं पाठकस्य वा मनसि शरीरे च ईदृशी आध्यात्मिकशक्तिरुद्भवति यत् पापानां दण्डानि सामान्य-रूपेण भोक्तुं शक्यन्ते।
यथा यत् कोऽपि निर्बल: पुरुष एकमपि वेत्रयष्टिं सहितुं न शक्नोति,यदा हि सबल: पुरुषः अनेकानि वेत्रयष्टीनि सहितुं शक्नोति।
ईदृशे भवत्यपि पाठक-पूजक पुरुषेण “आदित्य-हृदयम्’ स्तोत्र-पाठेन सह स्वपापेभ्यः निरन्तरं पश्चातापोऽपिकरणं भविष्यते।
ईदृशः कदापि भवितुं न शक्नोति यत वयं नित्यम् “आदित्य-हृदयम्” स्तोत्रस्य पाठं कुर्याम, पारिश्रमिकं दत्वा केनापि पण्डितेन पाठः कारयेम वा वयं च पापं कुर्याम्, त्रिकालेष्वपि पापानां दण्डेभ्यः मुक्तिः न भविष्यति, यतो हि कोऽपि ईश्वर-भक्त देव-पूजकः अन्यः पुरुषो वा भवन्नस्ति यदि किमपि पापं करोति, तदा पापस्य दण्डम् सोऽवश्यमेव प्राप्नोति।
विशेष- पापों के नाश होने तथा जलनेका अर्थ है कि- किसी के भी द्वारा किये गए पाप, किसी भी देवता की पूजा अथवा स्तोत्र पाठ से पाप नष्ट नहीं होते, बल्कि देवको पूजने वालेके अथवा स्तोत्र पाठक के मन में और शरीरवमें ऐसी आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है, कि पापों के दण्ड सामान्य रूपसे भोगे जा सकते हैं।
जैसे कि कोई भी निर्बल व्यक्ति एक भी बेंत सहन नहीं कर सकता, जब कि बलवान व्यक्ति अनेक बेतों को सह सकता है। ऐसा होते हुए भी पाठक और पूजक पुरुषके द्वारा “आदित्य हृदयम् स्तोत्र पाठ के साथ निरन्तर पश्चाताप भी करना होगा। ऐसा कभी नहीं हो प्रतिदिन “आदित्य-हृदयम्” स्तोत्रका पाठ करें अथवा पारिश्रमिक देकर
किसी ब्राह्मण से पथ करवाएं। करना स्वयं ही पड़ेगा, तभी फल मिलेगा।
हम पाप करें, त्रिकालों में भी पापों के दण्ड से मुक्ति नहीं होगी।
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