भैषज्यरत्नावलीनामकभेषजग्रन्थस्य मेदोरोगाधिकारस्य
आयुर्वेद के एक प्राचीन ग्रंथ योग रत्नाकर में स्थौल्य रोग यानि मोटापा मिटाने के पथ्य यानि परहेज की चर्चा गुमफिट है – (यो. र.)
पुराणशालयो मुद्गकुलत्थयवकोद्रवाः।
लेखना बस्तयश्चैव सेव्या मेदस्विना सदा॥६३॥
अर्थात मेदोरोग में पुराना शालिचावल, मूँग की दाल, कुलत्य, जौ, कोदो तथा लेखनबस्ति का प्रयोग हितकर या लाभदायक है।
मेदोरोग में पथ्य….
चिन्ता श्रमो जागरणं व्यवायः
प्रोद्वर्त्तनं लङ्घनमातपश्च
हस्त्यश्वयानं भ्रमणं विरेकः
प्रच्छर्दनं चाप्यपतर्पणानि ॥६४॥
पुरातना वैणवकोरदूष
श्यामाकनीवारप्रियङ्गवश्च।
यवाः कुलत्थाश्चणका मसूरा
मुद्गास्तुवर्योऽपि मधूनि लाजाः॥६५॥
कटूनि तिक्तानि कषायकाणि
तक्रं सुरा चिङ्गटमत्स्य एव।
दग्धानि वार्त्ताकुफलानि चापि
फलत्रयं गुग्गुलुरायसं च।
कटुत्रयं सर्षपतैलमेला
रूक्षाणि सर्वाणि च मुख्यतैलम्।। पत्रोत्थशाकागुरुलेपनानि
प्रतप्तनीराणि शिलाजतूनि।
प्राग्भोजनस्यापि च वारिपानं च॥६६॥
मेदोगदं पथ्यमिदं निहन्ति ॥६७॥
अर्थात मेदो रोग मोटापे लाभकारी चीज….
शरीर के स्थूल होने में—चिन्ता, श्रम, रात्रिजागरण, मैथुन, उबटन, लंघन करना, धूपसेवन, हाथी-घोड़े की सवारी करना, घूमना।
अपतर्पण करना, पुराना बाँस का यव, कोदो, यव, साँवा, नीवारक, क्षुद्रधान्य, प्रियङ्गु, जौ, कुलथी, चना, मसूर, मूँग।
अरहर की दाल, मधु, धान की खील, सभी तरह के कटु – तिक्त एवं कषाय रस युक्त द्रव्य, तक्र, मद्य, चिङ्गर मछली, बैंगन का भुर्ता, त्रिफला गुग्गुलु, लौहभस्म, त्रिकटु।
सरसों तैल, छोटी इलायची, सभी प्रकार के रूक्ष पदार्थों का सेवन, तिलतैल, पत्र के साग, अगुरु का लेप, उष्णजल, शुद्ध शिलाजतु और भोजन के पहले पानी पीना – ये सभी द्रव्य मेदो रोग में हितकर यानि फायदेमंद हैं। “
मेदोरोग में अपथ्य यानि त्यागने योग्य कर्म….
स्नानं रसायनं शालीन् गोधूमान्सुखशीलताम् । क्षीरेक्षुविकृतिर्माषान् सौहित्यं स्नेहनानि च ॥६८॥ मत्स्यं मांसं दिवानिद्रां स्त्रग्गन्धान् मधुराणि च । स्वभावस्थत्वमन्विच्छन् मेदस्वी परिवर्जयेत् ॥६९ ॥ भोजनस्य समग्रस्य पश्चात्पानं जलस्य च । अतिमात्रस्तूपचितो विशेषाद् वमनक्रियाम् ॥७०॥
इति भैषज्यरत्नावल्यां मेदोरोगाधिकारः।
छोड़ने, त्यागने योग्य चीजे….शीतल जल से स्नान, रसायन औषधों का सेवन, नया शाली चावल, गेहूँ, सुखासन पर हमेशा बैठे या लेटे रहना।
दूध एवं इक्षु विकार ( दही, घी, खोया, गुड़, राब, चीनी आदि), उड़द की दाल, स्नेहन क्रिया (अभ्यङ्ग एवं तैलादि पान), मछली-मांस खाना, दिवा शयन, पुष्पमाला, चन्दन, इत्र आदि सुगन्धित द्रव्यों का धारण, मधुर पदार्थ का सेवन और भोजन कर चुकने के बाद पुनः अधिक जल पीना आदि– ये सभी कर्म अति स्थूली को छोड़ देना चाहिए।
इति श्रीगोविन्ददाससेनसङ्कलितस्य भैषज्यरत्नावलीन जामनगरस्थ- गुजरात – आयुर्वेद विश्वविद्यालयस्य प्रोफेसर-सिद्धिनन्दनमिश्रेण कृता ‘सिद्धिप्रद
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