संजीवनी औषधि चार तरह की बताई हैं……. जाने विशेष दुर्लभ बात!!!!
वाल्मीकि रामायण में उल्लिखित संजीवनी के अंतर्गत चार वनौषधियों में से एक है।
इस संदर्भ में रामायण का निम्नलिखित श्लोक विशेष उल्लेखनीय है :
दक्षिणा शिखरे तल्या जातमोषधपानव । विशल्याकरण नाम विशवकरणीम्
तथा संजीवनीमपि। रणींनापियवा शीघ्रामिहास्य ।
(युद्ध कांड बाल्मीकि रामायण)
अर्थात_हे हनुमान! आप (विलक्षण औषधियों
से युक्त) उस पर्वत-शिखर के दक्षिण भाग में उत्पन्न हुई शाल्य को शारीर से बाहर निकाल देने वाली विशल्यकरणी नामक औषधि, क्षत-भाग को जोड़नेवाली संधानकरणी, त्वचा के रंग को एक-सा करनेवाली सवर्णकरणी एवं मूदि या अंदरूनी चोट को समाप्त कर पुनः नवीन चेतना प्रदान करनेवाली संजीवनी औषधियों को जाकर शीघ्र ले आइए।
नवीनतम अनुसंधान की जरूरत….
स्पष्ट है, इस श्लोक में संजीवनी के अतिरिक्त विशल्यकरणी. संधानकरणी और सवर्णकरणी– इन तीन और वनौषधियों के भी नाम हैं।
इन नामों को सुनकर लगता है कि विशल्यकरणी का उपयोग श्रीलक्ष्मणजी के सीने में विधे वाण ( वाणों) को निकालने के लिए किया होगा, संधानकरणी का प्रयोग शरीर पर लगे घावों को ठीक करने के लिए किया होगा और सवर्णकरणी द्वारा इन घावों द्वारा बने निशानों को हटाया होगा । इस कथानक से यह भी स्पष्ट हो जाता है, कि संजीवनी द्वारा श्री लक्ष्मणजी की मूर्च्छा टूट गयी थी। जिसे स्थानीय भाषा में ‘संधानी’ कहा जाता है
कुछ नास्तिक लोग हनुमान द्वारा औषध-पर्वत एवं संजीवनी को लानेवाली कथाएं मनगढ़त बताते हैं, जबकि अनेक विद्वानों के अनुसार ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।
दादी मां की कही जानेवाली अनेक औषधियां प्रयोगात्मक स्तर पर प्रभावकारी सिद्ध हुई हैं।
आशा है निकट भविष्य में इस खोज से प्लास्टिक शल्य चिकित्सा में एक नये युग का सूत्रपात होगा।
“पश्चिमी देशों में भारतीय देशी दवाओं की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा की वजह से पूरी दुनिया में आयुर्वेद के प्रति दिनोंदिन जागरूकता बढ़ती जा रही है।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति की तुलना में आयुर्वेद एक रसायन रहित शुद्ध प्राकृतिक विज्ञान है-उसे चिकित्सा पद्धतिमात्र नहीं कहा जा सकता- यह तो समनजीवन दर्शन है। वर्तमान चिकित्साशास्त्र मात्र रोगों के बचाव एवं उपचार को ही लक्ष्य मानता है।
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