बनारस के 1100 स्वयम्भू शिंवलिंग की श्रृंखला

दुनिया का एक मात्र तीर्थ है-काशी
जहां शिवलिंगों की स्थापना का श्रेय देवी-देवताओं, किन्नरों, दैत्यों, राक्षसों, अप्सराओं, ऋषियों एवं सन्त-महात्माओं और यति सन्यासियों को जाता है। ख़श में लगभग 21000 से भी अधिक शिव मंदिर हैं, जिसमें 1100 करीब स्वयम्भू होंगे

पौराणिक साहित्य हो या वेद-पुराण, भाष्य, धर्मग्रन्थ, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद में वाराणसी के स्वयम्भू शिवालयों का बहुत महत्व है। होगा भी क्यों नहीं, काशी वह तीर्थ है, जहां सारी दुनिया में सर्वाधिक स्वयम्भू शिवमंदिर स्थापित हैं।

बनारस को शैव धर्म का केंद्र और तीर्थ कहा गया है। 1100 शिंवलिंग के तो मैंने अपने जीवन में विगत 30 से 35 वर्षों में दर्शन किये हैं। इसके अतिरिक्त अनेक और भी शिंवलिंग है, जो स्वयं प्रकट हैं। काशी में कुल 20 से 25 हजार शिंवलिंग हो सकते हैं, जिसमें करीब 2 से 3 हजार तक स्वयम्भू होंगे। ऐसा मेरा अनुमान है।
सारी सृष्टि में यह एक मात्र वह तीर्थ है, जहाँ शिवलिंगों के नाम सुनकर ही अचंभित हो जाएंगे। हालांकि स्कन्ध पुराण के चौथे खण्ड में ही लगभग 84 हजार स्वयम्भू शिवलिंगों की चर्चा है। इन्हें वर्तमान में खोजना भी एक बहुत कठिन कार्य है।
आज तक पूरे भारत में मैंने 25 से 30 हजार शिवलिंगों के दर्शन किये हैं जिनमें अधिकांश स्वयम्भू ही हैं लेकिन पुराणों में इनके नाम कुछ अलग भी हैं।
ओरिजनल वैधनाथ धाम ज्योतिर्लिंग…
भारत में लगभग 4 से 5 वैधनाथ धाम स्थित हैं किंतु मूल वैधनाथ ज्योतिर्लिंग दक्षिण भारत के चिदम्बरम से करीब 38 किलोमीटर दूर “वेदेहीश्वरम कोइल” में स्थित है, जहां सभी नवग्रह एक ही सीध या लाइन में बाबा वैधनाथ स्वागत हेतु खड़े हैं।
ओरिजनल भीमा और शंकर ज्योतिर्लिंग
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग एक नहीं, बल्कि दो हैं। भीमा औऱ शंकर ये दोनों ज्योतिर्लिंग दातावरम और कुमारावरम में दोनों एक दूसरे से 30 किलोमीटर की दूरी पर हैं। शंकर ज्योतिर्लिंग समुद्र तट पर है, जहां पानी के जहाज बनते हैं। यह दोनों मूल ज्योतिर्लिंग
विशाखापतन्नम से 400 किलोमीटर दूर हैदराबाद मार्ग पर जंगल में समुद्र किनारे स्थापित हैं।
महाराष्ट्र का भीमाशंकर स्वयम्भू शिंवलिंग है, क्यों कि गुरु गोरखनाथ ने वहां तप किया था। लेकिन मूल ज्योतिर्लिंग नहीं है।
काशी के कलाकार हैं शिव...
काशी में चित्र-विचित्र  और अटपटे नामों वाले शिंवलिंग हैं इसलिए ही इसे शिव की नगरी कहा जाता है। काशी दर्शन के समय कुछ प्राचीन शिंवलिंग, तो ऐसे थे जिसमें ब्राह्मणों की गृहस्थी वास कर रही है। दुर्लभ शिंवलिंग खोजने के लिए यहां बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। काशी का इतिहास, स्कन्ध पुराण, शिवपुराण आदि ऐसा कोई प्राचीन ग्रंथ नहीं है जिसमें काशी के सन्त औऱ शिंवलिंग की चर्चा न हो। काशी खण्ड नामक पुस्तक में भी अनेकों शिवलिंगों का उल्लेख है।
इस लेख में हम आपको काशी तीर्थ की यात्रा करायेंगे। पाठक गण यहां के मंदिरों के नाम पढ़कर भौचक्के हो सकते हैं। यहां शिंवलिंग साधू-सन्याशी चित्र-विचित्र एवं अनोखे हैं। काशी का अपना इतिहास भी है।
संस्कार, संस्कृत भाषा की रक्षा और हिन्दू धर्म का वैज्ञानिक आधार एवं प्रचार में काशी के विद्वान ब्राह्मणों का भारी योगदान है। देश की संस्कृति और परम्परा बनाये रखने में इनका योगदान अमूल्य है। बनारस की गंगा आरती के लिए देश-विदेश के असंख्य दर्शनार्थी बनारस आने के लिए सदैव आतुर रहते हैं।
काशी में लोगों के माथे यानि मस्तिष्क को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे शिवजी ने उन्हें त्रिपुण्ड के रूप में मस्तक पर रख लिया हो।
कुश और काश के जंगलों से भरी होने के कारण भी इसका नाम काशी पड़ा हो। कुश घास को पूजा में अति पवित्र माना जाता है। पूजा-अनुष्ठान के पूर्व कुश की पवित्री उंगलियों में पहनकर तन-मन का पवित्रीकरण करते हैं।
काशी का पुराना सप्तसागर मोहल्ले में
कुछ समय पूर्व तक सात समुद्रों के कूप और मन्दिर थे, जहां “सप्तसागर” महादान पूजा आदि होती थी। मथुरा, प्रयाग, पाटिलीपुत्र एवं उज्जैन में भी ऐसे सप्त कूपों का वर्णन मत्स्य पुराण के अध्याय २८७ में भी है।
अथर्ववेद में काशी को केतु ग्रह की नगरी कहा है। यह सत्य भी हो सकता है क्यों कि केतु धर्म का विशेष कारक ग्रह है। सन्सार से मोह भंग करने केतु का ही काम है। काशी में जितने गृहस्थ लोग रहते हैं उससे दुगने यहां साधु-संत, महात्मा हैं। एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है:
राढ़-साढ़, सन्यासी,
मिलेंगे मथुरा काशी।
व्यंग रूप में कहने का आशय यही है कि इन जगहों पर ये तीन सबसे ज्यादा हैं।
काशी का सबसे महत्वपूर्ण मन्दिर अविमुक्तेश्वर शिंवलिंग था जिसे देवदेव स्वामी भी कहते थे।
वनपर्व ८४-१८ में लिखा भी है….
अविमुक्तं, समासाद्य तीर्थसेवी कुरुद्वह।
दर्शनाद देवदेवस्य मुच्यते ब्रह्महत्यया।।
अर्थात अविमुक्त नामक स्थान पर यात्री दर्शन कर स्वयं को धन्य समझता था। काशी की  प्राचीन स्वयम्भू शिवलिंगों में गभस्तीश्वर,
श्री सरस्वताश्वर यह रावण के पूर्वजों द्वारा खोज गया था।  सारस्वत ब्राह्मण रावण परम शिवभक्त थे। रुद्राभिषेक में भी “सारस्वत च मे” अर्थात शिव जी कहते हैं कि- ब्राह्मणों में सारस्वत गोत्री भी में ही हूं। ऐसा प्रतीत होता है कि कभी सारस्वत ब्राह्मण शिव के परम् उपासक रहे होंगे। या फिर भगवान शिव का यही गोत्र हो। अतः ब्राह्मण अपनी वंशावली से पता लगा सकते हैं।
योगेश्वर, पीतकेश्वर स्वामी शिंवलिंग, भृंगेश्वर, बटुकेश्वर स्वामी, कलसेश्वर, कर्दमरुद्र और श्री स्कन्दरुद्र स्वामी यह सब देव मंदिर हैं।
 ब्राह्मण ग्रंथों में इनका उल्लेख है।
चलना ही जिंदगी है….
जीवन में जब कभी भी मुझे मौका या समय मिला, तब-तब काशी पहुंच जाता। बनारस का रस शिव की भक्ति में है। मैंने कभी यात्रा और मात्रा पर दिमाग नहीं लगाया, जब जितना मिला, उससे मेरा काम चला, क्योंकि यात्रा, तो अनंत है। जीवन-मृत्यु यात्रा ही है। यह एक ऐसी यात्रा है जिसमें ८४ लाख योनियों में कई जन्मों से भटक रहे हैं, पर
हर चीज की मात्रा निर्धारित है।
चाहें वह भोजन की हो या भजन की। दवा की हो या दुआ की। व्याकरण में मात्रा की जरा सी भूल अर्थ ही बदल देती है।
एक स्कूल के बाहर बोर्ड पर लिखा था…
कल स्कूल बंद रखा जाएगा“। किसी शैतान बच्चे ने ‘र’ शब्द को ‘बन्द’ के साथ जोड़ दिया, तो उसका अर्थ बदलकर बन्दर हो गया अर्थात- ‘कल स्कूल बंद रखा जाएगा’ के स्थान पर …”कल स्कूल ‘बन्दर’ खा जाएगा” हो गया।
जीवन में यात्रा और मात्रा का बहुत महत्व है।
यात्रा अंदर की हो या बाहर की । वन की जीवन की हो या व्यापार की। तीर्थ की हो या वन की हो जीवन की।
जीवन में तीर्थयात्रा का विशेष महत्व है।
विष्णु स्मृति ३०/६ में तीर्थयात्रा का फल अश्वमेध यज्ञ के समान माना है। बृहस्पति स्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है कि जो स्थान या मन्दिर पवित्र नदी के किनारे स्थित हैं वही तीर्थ कहलाते हैं।
महाभारत अध्याय ७८/१५८ तीर्थ यात्रा पर्व में रावण के बाबा ऋषि पुलस्त्य, लोमश ऋषि, धौम्य और आंगिरस ने तीर्थयात्रा फल का वर्णन किया है।
मात्रा हर क्षेत्र में निश्चित है शब्दों या व्याकरण में, तो मात्रा का विशेष महत्व है ही साथ में भोजन की, दवा-दारू, दान मान सम्मान, समान की, जल, दूध, ओषधि, सबकी मात्रा निश्चित है।
शिंवलिंग की खोज मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा। बचपन में पिताजी भी कहा करते थे-शिव बिना सब शव समान है।
मानव का बर्थ इस शर्त के साथ हुआ कि वह केवल शिव को साधे। बाकी सब व्यर्थ और अनर्थ है।
बनारस के शिवालय का महत्व इसलिए भी ज्यादा है कि हर एक शिव मंदिर में स्नान, संकल्प, प्रार्थना, दान, जप, पूजा तथा पिण्डदान, तर्पण और श्राद्ध तुरन्त फलदायक हैं। किस शिवालय में क्या करना लाभकारी है।
पैप्पलाद शाखा, ५/२२/१४ मनु २/११,
कौशीतकी उपनिषद १/३००-७१५, १००-५
के अनुसार काशी के राजा अजातशत्रु थे, जिन्होंने स्वयम्भू शिवमंदिरों का सर्वाधिक
जीर्णोद्वार कराकर शिव भक्ति का प्रचार किया।
काशी में पांच विनायक मन्दिर भी स्वयं प्रकट हैं। लिंग पुराण के अनुसार अवि यानि पाप मुक्त क्षेत्र होने के कारण इसे अविमुक्त भी कहते हैं। कपालमोचन तीर्थ में पिण्डदान और श्राद्ध करने का महत्व गया बिहार से भी ज्यादा है। केतु ग्रह की शान्ति 
के लिये यह बहुत चमत्कारी है
केदार लिंग, म्हालयलिंग, मध्यमेश्वर, पशुपतिश्वर, शंकुकर्णेश्वर, गोकर्ण के दो लिंग, दुमिचण्डेश्वर, भद्रेश्वर, स्थानेश्वर, एकाम्बरेश्वर, कामेश्वर, अजेश्वर, भैरवेश्वर, ईशानेश्वर यह कायावरोहण तीर्थ पर स्थित है।
महादेव मंदिर यह स्वयम्भू लिंग नगरी के पूर्वोत्तर भाग में है, जी आदि-महादेव के नाम से विख्यात है। इसी से लगा हुआ महादेव कूप था। इसका जल वाणी शुद्धि हेतु चमत्कारी है। इसी कूप के पश्चिम में वाराणसी देवी की मूर्ति थी जिनके प्रसाद से लोगों के स्वयं के मकान तुरन्त बनते हैं।
गोप्रेक्ष – आदि महादेव के पूर्व दिशा में इस मंदिर के दर्शन से अशांति मिटती है।
अनुसूयेश्वर – माँ अनुसूया द्वारा पार्थिव शिवलिंग के रूप में स्थापित यह गोप्रेक्ष के उत्तर में है।
गणेश्वर – अनुसूयेश्वर के आगे है।
हिरण्यकशिपु शिवालय – भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप द्वारा पूजित यह स्वयम्भू शिंवलिंग पर रुद्राभिषेक करने से स्वर्ण की वृद्धि होती है। यह गणेश्वर के पश्चिम में है।
सिध्हेश्वर – हिरण्यकशिपु के पश्चिम दिशा में है।
वृषभेश्वर, दधिकेश्वर, दैत्यराज मधुकैटभेश्वर,
बालकेश्वर, विजरेश्वर, देवेश्वर, वेदेश्वर, केशवेश्वर, संगमेश्वर यह के संगम पर स्न्नान कर अभिषेक करने से दुर्भाग्य दूर होता है।
प्रयागेश्वर– ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित शिवलिंग।
शांकरी देवी का मंदिर इसी परिसर में ब्रह्म वृक्ष यानि पाकर पेड़ के नीचे है।
यह सब शिंवलिंग आसपास ही हैं। कुछ बहुत ही जीर्ण-शीर्ण हैं।
गंगावर्णा संगम– जब कभी श्रवण युक्त नक्षत्र में द्वादशी तिथि को बुधवार पड़े, तो यहां संगम पर स्नान, अभिषेक व श्राध्द करने से क्रुरकाल खण्ड सुधरता है। कालसर्प दोष, पितृदोष की शान्ति हेतु यह अदभुत तीर्थ है।
कुम्भीश्वर – वर्णा के पूर्वी घाट पर स्थित स्वयम्भू शिंवलिंग है।
कालेश्वर-यहीं से पूर्व की तरफ नजदीक है।
कपिलह्वद शिवालय– कालेश्वर के उत्तर में है। नरक में पीड़ित पितृ गणों की मुक्ति हेतु यह सिद्धि दायक है। जिसकी पत्रिका में केतु खराब हो या पंचम भाव में स्थित हो उन्हें एक बार यहां श्राध्द अवश्य कराना चाहिए। त्रिपिंडी और नन्दी श्राद्ध के लिए दुनिया में सिद्ध क्षेत्र है। जो लोग नासिक में कालसर्प की पूजा करा कर संतुष्ट नहीं हों उन्हें यह जरूर आना चाहिए
स्कन्धेश्वर– मङ्गल दोष से पीड़ित अथवा मांगलिक जातक को यहां मंगलवार को मृगशिरा या धनिष्ठा नक्षत्र में गुड़, गन्ने का रस या मधु पंचामृत से रुद्राभिषेक करना चाहिए
यह आदि-महादेव शिवालय के पश्चिम में स्थापित है।
बलभद्रेश्वर– बलभद्र द्वारा स्थापित यहीं
स्कन्धेश्वर के नजदीक है।
नन्दीश्वर– स्कन्धेश्वर के दक्षिण दिशा की तरफ नन्दी द्वारा स्थापित है। जब कोई अधर्मी बहुत पीड़ा या दुःख पहुचाये, तो यहां दही, भात, घी मिलाकर अर्पित कर किसी साढ़, बैल या नंदी को खिलाएं। गुरुवार के दिन। लाभ होने पर राहुकी तेल के 108 दीपक जलावें।
शिलाक्षेश्वर – शिव के वाहन नन्दी के पिता द्वारा स्थापित तथा वंदित शिंवलिंग। पुत्र की कामना हेतु यहाँ दही अर्पित कर किसी बुजुर्ग को खिलाएं। पुत्र की प्राप्ति होने के बाद शनिवार के दिन 54 शीशी अमृतम तेल दान करें। या कशेर, चन्दन, गुलाब इत्र, बादाम तेल, जैतून तेल युक्त तेल की 54 शीशी दान कर सकते हैं।
हिरण्याक्षेश्वर– परम शिवभक्त हिरण्यकश्यप द्वारा स्थापित शिवलिंग, जो
शिलाक्षेश्वर के पास ही है। यहीं कभी देवताओं द्वारा हजारों शिंवलिंग थे।
स्वर्ण वृद्धि की मनोकामना पूर्ण होती है।
अट्टहास शिवालय– हिरण्याक्षेश्वर के पश्चिम में पश्चिमाभिमुख शिंवलिंग। इनके दर्शन से आत्म ज्ञान उपलब्ध होता है। राजा विक्रमादित्य, आचार्य चाणक्य, भर्तहरि, आदि शंकराचार्य महाभारत के विधुर ने यही ज्ञान प्राप्त किया था।
अट्टहास के पास ही मित्रावरुणेश्वर नाम से दो शिंवलिंग हैं। इसी शिवालय में महर्षि
वसिष्ठ द्वारा पूजित वसिष्ठेश्वर तथा याज्ञवल्वयेश्वर चतुर्मुख लिंग हैं।
मैत्रेयीश्वर शिवालय याज्ञवल्वयेश्वर के समीप ही है। मैत्रेयी द्वारा खोज गया यह स्वयम्भू शिंवलिंग बहुत ऊर्जावान है।
याज्ञवल्वयेश्वर मन्दिर के पश्चिम दिशा की तरफ प्रह्लादेश्वर स्थापित है। इसके थोड़ा आगे स्वर्लीनेश्वर है, जो ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि हेतु जाना जाता था। ऐसा बताते हैं कि जब किसी प्रसन्न का उत्तर खोज में रुकावट होने पर यहां रुद्राभिषेक करने पर स्वप्न में उसका उत्तर मिल जाता था। आज भी यही शक्ति यहां विधमान है।
स्वर्लीनेश्वर के पास ही वैरोचनेश्वर शिंवलिंग है।
परम शिव भक्त बलि द्वारा स्थापित वाणेश्वर जो वैरोचनेश्वर के कुछ आगे है।
दैत्यों की परम पूज्य माँ राक्षसी शालकण्टकटा द्वारा स्थापित शिंवलिंग
शालकण्टकटेश्वर यहीं से नजदीक में है। इसी परिसर में हिरण्यगर्भ शिंवलिंग है। कुछ फक्कड़ सन्त बताते हैं कि स्वर्ण निर्माण के लिए यहां अतिरुद्र अभिषेक करवाते थे। इसी के जल से स्वर्ण शोधन व निर्माण होता था।
इसी परिसर में मोक्षेश्वर, स्वर्गेश्वर, शिंवलिंग भी है।
वासुकी नाग द्वारा पूजित वासुकीश्वर चतुर्मुख शिवलिंग और वासुकी तीर्थ
मोक्षेश्वर से उत्तर की तरफ है। यहां स्नान तथा दर्शन से असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं।
इसी के समीप ही चंद्रेश्वर शिंवलिंग चन्द्रमा द्वारा स्थापित है। जन्मपत्रिका में केमद्रुम दोष से मुक्ति के लिए पूर्णमा के चतुर्दशी या शुक्ल पक्ष की दोज को यहाँ रुद्राभिषेक कर सकते हैं १०० फीसदी राहत मिलती है। केमद्रुम दोष क्या होता है इसकी जानकारी अगले लेख में मिलेगी। 
यहीं से पूर्व में विध्येश्वर, वीरेश्वर शिंवलिंग स्थापित है।
गंगा को धरती पर लाने वाले शिव भक्त भगीरथ के पूर्वज द्वारा स्थापित सगरेश्वर,
राम भक्त हनुमान द्वारा खोजा गया हनुमदीश्वर, भद्रदोहतीर्थ इसी के पश्चिम किनारे भद्रेश्वर, इसके नेऋत्य कोण में चक्रेश्वर शिवलिंग भी है।
शुलेश्वर के दर्शन से रुद्रलोक मिलता है।
नारदजी द्वारा स्थापित नारदेश्वर, धर्मेश्वर यहां दोनो जगह प्राकृतिक कुण्ड भी हैं। 
विनायक कुण्ड यह मुर्गाबी गड़ही में है। इस कुण्ड में स्नान से विध्न दूर होते हैं। यहीं से उत्तर की तरफ अमरकहृद तीर्थ है। यदि भूल से भी कोई पाप या दुष्कर्म हुआ हो, तो इससे मुक्ति के लिए अगरिया ताल के अमरकेश्वर के दर्शन जरूर करें। 
शैलेश्वर, भीष्मचण्डिका, कोटितीर्थ श्मशान स्तम्भ कपालमोचन, कपालेश्वर इसे भैरवनाथ ने खोजा था। इसी के उत्तर की तरफ ऋण मोचक तीर्थ में 3 शिंवलिंग के दर्शन से विभिन्न कर्जों से मुक्ति मिलती है। अंगारेश्वर या मंगलेश्वर के नाम से प्रसिद्ध शिंवलिंग के बारे में बताते हैं कि कभी चतुर्थी या अष्टमी को मंगलवार के दिन धनिष्ठा नक्षत्र पड़े, तो यहां स्नान एवं रुद्राभिषेक करने से अनेकों ऋणों तथा केन्सर जैसा असाध्य रोगों से मुक्ति मिलती है। पास में ही विश्वकर्मेशर, बुधेश्वर हैं।
जैतपुरा के वागीश्वरी देवी मंदिर के नीचे बहुत छोटी गुफानुमा कोठरी में महामुण्डेश्वर स्वयम्भू शिवालय है। यहां स्नान के समय शिवजी की मुंडमाला गिरने से इसका नामकरण हुआ था। इसी में खटवांगेश्वर शिंवलिंग व कूप है। नजदीक में भुवनेश्वर उत्तराभिमुख शिंवलिंग है। महर्षि भृगु द्वारा स्थापित भृगविश्वर बड़ा शिंवलिंग है।
यहीं से दक्षिण में नंदीशेश्वर है, कपिलेश्वर
जहां सप्तऋषियों ने 1000 वर्ष तक शिव की तपस्या की थी।
मत्स्योदरी एवं श्रीकंठ
पर स्वयम्भू शिवलिंगों अम्बार है। उद्दालक ऋषि, पराशर मुनि, वाष्कली मुनि, आरुणि, सावर्णि, अघोर मुनि, जाबाल ऋषि आदि अनेकों सिद्ध महात्माओं ने इस स्थान पर सिद्धियां प्राप्त की थी।
रुद्रवास पर आद्रा नक्षत्र में स्नान से राहु का प्रकोप कम होता है।
पितरों की शांति एवं पिण्डदान हेतु रुद्रमहालय एवं पितरों द्वारा स्थापित मन्दिर में कालसर्प दोष की शांति होती है, जो नासिक से भी ज्यादा जल्दी लाभकारी है।पिण्ड को कूप में डालकर पितृदोष से मुक्ति पाते हैं। 
गुरु बृहस्पति द्वारा स्थापित ब्रह्स्पतिश्वर शिंवलिंग पास में है।
घासी टोले में गली के कोने पर कामेश्वर  पंचालकेश्वर मन्दिर जो कि नलकुबरेश्वर के नाम से है। यहां कुबेर के पुत्रों ने शिवजी की घोर आराधना की थी। यहां रुद्राभिषेक करने से धन वृद्धि की कामना एक वर्ष में पूर्ण होती है। 
शेष अगले लेख में और दिलचस्प जानकारी दुर्लभ शिवलिंग के बारे में
 
 
 
 
 

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