भिलावा एक बेहतरीन नपुंसकता नाशक ओषधि है!

मल्लातक: -मल्ल इवातति, अत सातत्वगमने।

  • अर्थात भाले की तरह से यह मलों का भेदन करता है।)
  • भावश्काशनिघण्टुः के अबुसा यह हरीतक्यादिवर्गः की औषधि है।

Amrutam पत्रिका से साभार

  • संस्कृत में भिलावे को भल्लान्तक कहते हैं।
भिलावा ओषधि भी है और जहर भी। भिलावे के 25 फायदे जानकार हैरान हो जाएंगे। एक दम नाइ जानकारी।

भल्लातक शोधन

  • भिलावा हमेशा अपने हाथों से ही शुद्ध करें। बाज़ार में मिलने वाला भिलावा हानिप्रद हो सकता है। कुछ लोग फलों को केवल उबालकर ठंडे जल से धोकर काम में लाते हैं।
  • औषधि में प्रयोग के लिये अच्छे सुपक्व तथा जल में डालने पर जो डूब जायें ऐसे भिलावों को लेकर कतरकर ईंट के टुकड़ों के साथ बोरे के अन्दर रगड़कर फिर धोकर काम में लाना चाहिये।
  • इससे उसके अन्दर का तैल सदृश रस कम होकर उसकी तीव्रता कम हो जाती है। इसके शोधन के पूर्व मुख, हाथ एवं पैर आदि खुले अंगों पर नारियल का तेल लगा लेना चाहिये।

शुद्ध भिलावे के चमत्कारी फायदे

  1. गुण और प्रयोग – भिलावा उष्ण, रसायन, मेध्य, वाजीकर, वातकफहर, मूत्रजनन, वातनाडीबल्य, अग्निवर्धक, व्रणोत्पादक एवं कुष्ठघ्न है। इसका प्रचूषण बहुत जल्दी होता है लेकिन उत्सर्ग बहुत देर में होता है।
  2. आमाशय एवं उत्तरगुद पर भिलावे की विशेष क्रिया होती है। यकृत् पर उत्तेजक क्रिया होने से पित्तनाव ठीक होता है जिससे भूख बढ़ती है एवं रक्ताभिसरण और विनिमय क्रिया ठीक होने से अर्श में लाभ होता है।
  3. भिलावे के सेवन से त्वचा से उत्सर्ग के समय स्वेद आता है तथा त्वचा लाल हो जाती है। वृक्क पर उत्तेजक प्रभाव होने के कारण प्रारम्भ में मूत्र की मात्रा बढ़ती है लेकिन बाद में कम हो जाती है तथा कभी-कभी मूत्र में खून भी आ जाता है।
  4. भिलावे का नामर्द, नपुंसक पुरुषों के लिए वाजीकर प्रभाव वातनाड़ियों की उत्तेजना से एवं प्रत्यक्षतया मूत्रनलिका के प्रक्षोभ से होता है।
  5. प्रत्यक्ष माँसपेशियों की अपेक्षा वातनाड़ियों को बल प्राप्त होने से यह अनेक वातरोगों में लाभदायक है। इससे नाड़ी की गति बढ़ती है तथा हृदय का कार्य भी ठीक होने लगता है।
  6. रसग्रन्थियों की उत्तेजना से श्वेतकणों की वृद्धि होती है जिससे शोथ आदि में लाभ होता है। इस प्रकार शरीर की सभी क्रियाएँ ठीक होने से योग्य रूप में सेवन से इसको अमृत के समान लाभदायक एवं रसायन मानते हैं ।
  7. भिलावा बाह्य त्वचा पर भिलावे का तेल लगने से त्वचा काली होकर जलन होती है एवं फोड़े होकर व्रण उत्पन्न होते हैं । उचित रूप में प्रयोग करने से आन्तरिक प्रयोग में इस प्रकार के लक्षण नहीं होते।
  8. भिलावे तेल का उपयोग अर्श, वातविकार, कफविकार, फिरंग, गण्डमाला, कृमि, विसूचिका, गुल्म, आमवात एवं कुष्ठ आदि रोगों में किया जाता है ।
  9. भिलावे को दीपक पर गरम करने से जो तेल टपकता है वह दूध में टपकाकर हरिद्रा एवं मिश्री मिलाकर फुफ्फुस विकारों में रात के समय दिया जाता है।
  10. प्रारम्भ में एक बूँद तथा धीरे-धीरे इसे बढ़ाते हैं। तमकश्वास पीड़ित रोगियों के लिये शीत ऋतु में इसका नित्य प्रयोग लाभदायक है।
  11. उपजिह्वा एवं गलतोरणिका की शिथिलता से उत्पन्न कास में भी इससे लाभ होता है।
  12. फुफ्फुसपाक में मुलेठी के साथ भिलावा दिया जाता है ।
  13. अग्निमांद्य, कुपचन, आनाह, विबन्ध, ग्रहणी, अर्श, उदर, गुल्म एवं विसूचिका आदि रोगों में इसका बहुत प्रयोग किया जाता है। इससे स्निग्ध पदार्थों का पाचन अच्छी तरह से होता है।
  14. अर्श में भिलावा, हर्रा एवं तिल समान मात्रा में लेकर दुगुने गुड़ के साथ गोली बनाकर ३-६ ग्रा. खिलाते हैं तथा इसका धुआँ भी दिया जाता है।
  15. हैजे में एक भिलावे को ५ ग्रा. इमली के साथ पीसकर २० मि.ली. लहसुन के रस के साथ पिलाते हैं ।
  16. रसायन के लिये १ भिलावे को काटकर एवं कूटकर १६ गुने जल में उबाल कर आधा रहने पर फिर ८ गुना दूध मिलाकर फिर उबालें तथा आधा शेष रहने पर उस क्षीर को छानकर १०-२० मि.ली. की मात्रा में प्रयोग करें। इसके पूर्व थोड़ा सा घी मुख में चारों तरफ लगा देना चाहिये तथा थोड़ा सा घी निगलना भी चाहिये।
  17. प्रत्येक वर्ष, शीत ऋतु में इसका उपयोग करने से किसी प्रकार के रोग नहीं होने पाते।
  18. वातनाडी शोथ, गृध्रसी, अर्दित, अंगघात, ऊरुस्तम्भ, मस्तिष्कावरण शोथ तथा मानसिक नारियल कार्य अधिक करने के कारण उत्पन्न थकावट में इसको इमली की पत्ती, लहसुन, वायविडङ्ग, का रस एवं मिश्री के साथ खिलाते हैं।
  19. भिलावा १ भाग, काजू ६ भाग एवं शहद १ भाग अच्छी तरह घोंटकर २ ग्रा. दिन में ४ बार देने से नूतन तथा तीव्र आमवात में दो-तीन दिन में ही लाभ होता है। जीर्ण आमवात में विशेष लाभ नहीं होता है ।
  20. गण्डमाला के लिये भिलावा २, अजवायन २ एवं पारद १ इसको घोंटकर चने बराबर इसकी गोली दही के साथ खिलाई जाती है।
  21. भिलावे के तैल का आंतरिक एवं बाह्य प्रयोग किया जाता है। एक से दो बूँद तैल किसी अन्य तिलादि अक्षोभक तैल में मिलाकर फिरंग, गण्डमाला, कुपचन, अर्श, नाडी दौर्बल्य, चर्मरोग, कृमि, अपस्मार, अंगघात, आमवात एवं श्वास आदि रोगों में दिया जाता है।
  22. भिलावे का क्वाथ दुग्ध एवं घृत के साथ नाड़ी शोथ, वातबलासक, संखिया के विष से उत्पन्न नाडीविकार एवं आर्तवविकार में लाभदायक है।
  23. भिलावे के तैल का बाह्यप्रयोग प्रतिक्षोभक (Counter irritant) एवं स्फोटोत्पादक (Vesicant) के रूप में किया जाता है।
  24. भिलावा जीर्ण त्वचा के रोगों में इसका ज्यादा उपयोग होता है। चर्मकील, दद्रु, किलास, सन्धिपीड़ा, मोच, श्वित्र, गजचर्म, कुष्ठज ग्रन्थि एवं प्लीहावृद्धि आदि पर सूई के नोंक से कई जगह इसको लगाते हैं या इसको मक्खन के साथ मिलाकर मलहम के रूप में प्रयोग करते हैं।
  25. भिलावे की मज्जा वाजीकर होती है। गरी एवं जी के साथ इसका पाक सेवन कराया जाता है।

भिलावे का – विषैला प्रभाव

  • किसी-किसी को भिलावा सहन नहीं होता है। इससे मूत्र का रंग गहरा, शरीर में दाह, खुजली, चकत्ते, अतिसार, ज्वर एवं कभी-कभी रक्तमेह, फोड़े फूटकर व्रण एवं उन्माद आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।
  • प्रारम्भ में मूत्र की मात्रा कम होती है तथा उसका रंग धुंधला होने लगता है। गुदा एवं शिश्नेन्द्रिय के मुख पर कण्डू उत्पन्न होती है।
  • प्रारंभिक लक्षण उत्पन्न होते ही औषधि को बन्द कर नारियल का दूध या इमली की पत्ती का रस या तिल एवं नारियल खाने को देना चाहिये।
  • शरीर पर नारियल का तेल, घी, राल या नागद्रव (Lead lotion – लेड लोशन) का बाह्य उपयोग करना चाहिये।
  • सावधानी पथ्य – भिलावे के प्रयोग के समय घी, दूध एवं चावल का सेवन अधिक करना चाहिये।
  • वर्ज्य – धूप में घूमना, स्त्रीसहवास, माँसभक्षण, नमक, व्यायाम एवं तैलाभ्यङ्ग आदि छोड़ देना चाहिये ।
  • भिलावे का निषेध – पैत्तिक विकार, रक्तस्रावी प्रवृत्ति, गर्भिणी, बाल, वृद्ध, अतिसार, वृक्कशोथ एवं उष्ण काल में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये ।

मात्रा — तैल – १ -२ बूँद, अवलेह – २ – ५ ग्रा., क्षीरपाक – १० – २० मि.ली.।

  • भिलावा-भल्लान्तक या अग्निमुख/ Semecarpus Anacardiumlinn परिचय, गुण, शोधन और हैरान कर देने वाले फायदे…

भिलावे की तासीर

  • भिलावा इतना गर्म होता है कि अगर इसका तेल कहीं भूलवश लग जाये, तो व्यक्ति को लावा जलने जैसा अनुभव होता है।
  • आयुर्वेद के बहुत ही पुरानी किताब भावप्रकाशनिघण्टु; के हरीतक्यादिवर्ग: के पृष्ठ 134 में संस्कृत का एक श्लोक वर्णित है। यथा-

!!भल्लातक: भल्ल इवातति, अतः सातत्यगमने!!

  • अर्थात- भिलावा भाले की तरह तीक्ष्ण होने से यह देह से मलों अर्थात दूषित गन्दगी का का भेदन करता है।
  • भिलावा को संस्कृत भाषा में अग्निमुख, भेला, भल्लान्तक कहते हैं। यह 36गढ़ राज्य में गरियाबंद आदि स्थानों पर सर्वाधिक होता है।
  • 36 गढ़ क्वहरेक आदिवासी के द्वार पर लगा मिलता है। वे इसे बहुत शुभ मानते हैं। इसके अलावा गर्म क्षेत्रों में एवं हिमालय के निचले भागों में पैदा होता है। असम के कामाख्या मंदिर के आसपास भी बहुतायत मिलता है।
  • तन्त्र में भिलावे की आहुति का विधान दुर्गा शप्तशती के साथ अन्य तांत्रिक ग्रन्थों, उपनिषद में भी है।
  • भिलावे की छाल पर चोट मारने से एक प्रकार का दाह नाशक भूरे रंग का गाढ़ा रस निकलता है, जो वार्निश के काम आता है। पहले समय में लकड़ी के किबाडों इसी से पोतते, रंगते थे।
  • भिलावे का उपयोग कभी ग्रीस के रूप में होता था। इसका तेल इतना गाढ़ा होता है कि पूर्वकाल में भिलावे के तेल को किसान लोग बैलगाड़ी आदि वाहनों में करते थे

भिलावे के विभिन्न नाम

  • हिंदी में -भिलावा, भेला। बं०-मेला, भेलातुको । म० बिब्बा। गु० – मा०-भिलामो । क०मेरकाचे। तेऽ–जिडिचेद्दुः जेड़ोविद्भुतु। ता०-शेनकोट्टै| मला०-चेर्मर । फ़ा०–बलादुर, बिलादुर। हम्बुरकट, हम्बुर्लह्म। अॅ०-The Marking-nut Tree (दि मार्किङ्ग नट् टी)। ले०Semecarpus cmacardium Linn. f. (सेमेकापस् अॅनाकार्डियम्) | Fam. Anacardiaceae
  • मिलावे के वृक्ष इस देश के विशेषकर गरम प्रान्तों में एवं हिमालय के निचले भागों में ११०० नं. के ऊँचाई तक सतलज से पूर्व की ओर आसान तक उत्पन्न होते हैं।

इल्य वृक्ष—देखने में सुन्दर ६ से १२ मी. तक ऊँचा होता है।

  • भिलावे की छाल—२.५ से.मी. मोटी हु रंग की होती है। झाल पर चोट मारने से उसमें से एक प्रकार का दाहजनक भूरे रंग का गाढ़ा रस निकलता है जो वार्निश बनाने के कान में आता है।
  • भिलावे की लकड़ी—खाकी मिश्रित लाली युक्त सफेदी या पूरे रंग की होती है। छोटी-छोटी शाखाओं के नीचे कुछ तीक्ष्ण रोवें होते हैं। डालियों के अन्त में सघन पत्ते रहते हैं और वे २२-६० से.मी. तक लम्बे तथा १२ से ३५ से.मी. तक चौड़े, ऊपर से लट्वाकारआयताकार एवं सरल धारवाले होते हैं।
  • माघ में पुराने पत्ते गिर जाते हैं और फागुन में नवीन पत्ते निकल आते हैं, नाव वगुन में इसका वृक्ष फूलता है किन्तु इसके अलावा कई बार वृक्षों पर फूल देखने में आते हैं।
  • नन्हें-नन्हें फूलों की मञ्जरियाँ आती हैं। पुष्यदल — हरापन युक्त सफेद या हरापन युक्त पीले होते हैं। फल—२.५ से.मी. लम्बा तथा १८ मि.मी. चौड़ा, चिपटा सा, हृदयाकृति, चमकीले काले रंग का तथा चिकना होता है।
  • कच्चे फलों में दूध जैसा श्वेत वर्ण का रस होता है जो पकने पर कुछ गाढ़ा एवं काले रंग का हो जाता है। इस फल का आधारभाग मांसल तथा नारंगी वर्ण के स्तम्भक से बना होता है जो खाने के काम आता है।
  • फलत्वक् में एक स्फोटकारक विषैला रस होता है जिससे धोबी कपड़ों में निशान लगाने की स्याही बनाते हैं। फल के अन्दर की मज्जा स्वादिष्ट होती है तथा वह भी खाने के काम आती ह।
  • कुछ लोगों में पुष्मित भल्लातक वृक्ष के पास सोने से या पुष्पपराग की हवा लगने से शरीर पर सूजन आ जाती है।
  • रासायनिक संगठन–इसके रासायनिक संगठन के विषय में कुछ मतभेद हैं और अभी संशोधन की आवश्यकता है। लेकिन इतना निश्चित है कि फलत्वक् के स्वरस में एक दाहजनक तैलीय पदार्थ एवं मज्जा में काजू की तरह पौष्टिक द्रव्य और एक प्रकार का तैल पाया जाता है।

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