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Amrutam पत्रिका की यह वैदिक खोज आपके जीवन में उत्साह, उमंग का संचार कर जीवन को सात्विक बनाएगी और आप हमेशा स्वस्थ्य, प्रसन्न, खुश रहेंगे।आयुर्वेद के इस संस्कृत श्लोक पर आधुनिक वैज्ञानिकों का बहुत भरोसा बढ़ा है।
साकं यक्ष्म प्र पत. चाषेण किकिदीविना।
साकं वातस्य ध्राज्या, साकं नश्य निहाकया।।
हे (यक्ष्म) रोग! तुम नीलकण्ठ, बाज, वायु और गोह के समान रोगी के शरीर से शीघ्र दूर हो जाओ।
अन्या वो अन्यामवं, त्वन्यान्यस्या उपावत।
ताः सर्वाः संविदाना, इदं मे प्रावता वचः।।
अर्थात हे ओषधियो! (वो-व:) तुममें से अन्य (पहली) अन्य (दूसरी) के पास, और (अन्या) दूसरी (अन्यस्याः) तीसरी के पास (उपावत) (अवतु) जावे। इस प्रकार सब ओषधियाँ (संविदाना) मिलकर (मे वच:) मेरे वचन की (प्रावता) रक्षा करें।अर्थात् ओषधियों के सम्मिश्रण से मेरे मस्तिष्क, दिमाग के सभी रोग दूर हों।
याः फलिनीर्या अफला, अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पति – प्रसूतास, ता नो मुञ्चन्त्वंहसः।।
अर्थात (बृहस्पति-प्रसूता:) सभी ओषधियां गुरु बृहस्पति से उत्पन्न (अर्थात् बृहस्पति द्वारा खोजी गई या उगाई गई) जो ओषधियाँ फलवाली, बिना फलवाली, बिना पुष्पा वाली और जो फूलों वाली हों वे सब (नो) हमें (अहंस 🙂 रोगों से (मुञ्चन्तु) विश्व को मुक्त करें।)
अथैकादशो वर्गः।। मुञ्चन्तु मा शपथ्या। दथो वरुण्यादुत। अथो यमस्य पड्वीशात्, सर्वस्मादेवकिल्विंषात्।।
अर्थात ओषधियाँ मुझे ( या किसी भी रोगीको) (शपथ्यात्) झूठी कसम खाने के पाप से, ( उत वरुणात्) वरुण के पाश से, यम की (पड्वीशात्) बेड़ी से और (सर्वस्मात्) सभी देवों के प्रति किये जाने वाले पाप से (मुञ्चन्तु) मुक्त करो (दूर रखो)।
अर्थात् आयुर्वेद ओषधियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनके उपयोग से मन का मानसिक संतुलन ठीक होता है।
ब्राह्मी, त्रिफला, मालकांगनी, शंखपुष्पी, हरड़ के सेवन से व्यक्ति इतना सात्विकी हो जाता है कि वह झूठी कसम नहीं खाता, जलोदर जुकाम आदि रोग नहीं होते, उसकी उम्र बढ़ जाती है और देवोंका सम्मान करने लगता है।
अवपतन्ती रवदन्, दिव ओषधयस्परि।
यं जीव-मश्नवाम है, न स रिष्याति पूरुषः।।
अर्थात ओषधिनों ने (दिव) स्वर्ग से नीचे (अवपतन्ती:) उतरते हुए (अवदन्) कहा था कि हम जिस जीवित व्यक्ति के अंदर (अश्नवाम है) प्रवेश कर जाती हैं, वह व्यक्ति ( न रिश्याति) नष्ट नहीं होता।
वेदों में औषधियों का आव्हान कर उनसे बीमारी दूर करने का निवेदन स्वयं भगवान शिव ने इस प्रकार किया है। देखें वेद की एक ऋषा
या ओषधीः सोमराज्ञीर्, बह्वीः शतविचक्षणाः।
तासां त्वमस्युत्तमारं कामाय शं हृदे।।
अर्थात जो ओषधियाँ सोमराज्ञी अर्थात् सोम राजा की प्रजाएँ हैं, वे अगणित है और वे (शत विचक्षणा:) सैकड़ों गुणों वाली हैं। (जो औषधि उपयोग की जानी है, उसे सर्वोत्तम स्वीकार करने की मानसिकता दृढ़ करनी होती है।
अतः कहो-) हे औषधि ! तुम उन सबमें सर्वोत्तम हो । तुम स्वस्थ रहने की हमारी अभिलाषाओं को पूर्ण करके मन को शान्ति दो ।
या ओषधी: सोमराज्ञीर्, विष्ठिता पृथिवीमनु।
बृहस्पति प्रसूता, अस्यै सं दत्त वीर्यम्।।
अर्थात जो ओषधियाँ सोमराजा की प्रजाएँ हैं, स्वर्ग से आकर पृथिवी पर फैली हैं, जो महादेव एवं बृहस्पतिसे उत्पन्न हैं, वे ओषधियाँ इस रोगी को (वीर्यम्) शक्ति दें।
मावो रिषत्खनिता, यस्मै चाहं खनामि।
वः द्विपच्चतुष्पदस्माकं सर्वमस्त्वनातुरम्।।
अर्थात ओषधियाँ उखाड़ या खोदकर लाने से पूर्व यह मन्त्र पढ़ने की परंपरा थी।हे ओषधियो! ।।अहं वः खनिता।। अर्थात मैं तुम्हारा खोदने वाला हूँ। तुम मुझे (मारिषत्) नष्ट मत करना।यस्मै अहं च वः खनामि और जिसके (जिनके) लिए तुम्हें खोदता हूँ, उन्हें भी नष्ट मत करना।हमारे दो पैरों एवं चार पैरों वाले (पक्षी, पशु व मनुष्य) सभी जीव रोग रहित हों।
याश्चेद-मुपशृण्वन्ति, याश्च दूरंपरागताः।
सर्वा: संगत्य वीरुधो, ऽस्यै सं दत्त वीर्यम्।।
अर्थात जो ओषधियाँ मेरा यह स्तोत्र (उपशृण्वन्ति) सुन रही हैं अथवा जो दूर चली गई हैं वे सभी (संगत्य) एकत्र होकर इस रोगी को शक्ति प्रदान करें अर्थात् स्वस्थ करें।
ओषधयः सं वदन्ते, सोमेन सह राज्ञा।
यस्मै कृणोति ब्राह्मण, तं पारयामसि।।
हे राजन् राजा! सोमेन सह ओषधयः संवदन्ते अर्थात ओषधियाँ सोमराजा के साथ इस प्रकार बातचीत करती हैं- हे राजन् ! वैदिक स्तोत्रों का पाठ करने वाला ब्राह्मण जिसका (कृणोति) उपचार करता है हम उसीकी रक्षा करते हैं।
त्वमुत्तमास्योषघे, तव वृक्षा उपस्तयः ।
उपस्तिरस्तु सो ३ऽस्माकं, यो अस्मा अभिदासति।।
हे ओषधियो ! तुम सबसे श्रेष्ठ हो । सभी वृक्षों का महत्त्व तुमसे कम है। जो हमें (हमारे स्वास्थ्य को) हानि पहुँचाता है, वह हमसे निर्बल रहे, जिससे वह हमें कोई हानि न पहुँचा सके।
वेद मंत्र और आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों का सारांश:-
(१) पुरा ओषध्य: देवेभ्यः जाता:।
- अर्थात् परग्रहवासिनः देवाः (जाति विशेष:)
- अवनीमागत्य ओषधीनां बीजानि अवन्याः सप्ताधिकैकशतस्थानेषु अवपन् ।
- अर्थात पहले ओषधियाँ देवोंसे उत्पन्न हुईं। अर्थात् परग्रहवासी देवों (जाति विशेष) ने धरती पर आकर ओषधियों के बीज अवनी के एक सौ सात स्थानों में बोये ।
( २ ) ओषधयः मातुरिव रोगिणं पालयति।
अर्थात ओषधियाँ माताकी तरह रोगीको पालती हैं।
( ३ ) ओषधमः पुष्पवत्यः फलवत्यश्च भवन्ति।
ओषधियाँ पुष्प व फलवाली होती हैं।
(४) वैद्यस्य सम्मानम् । वैद्य का सम्मान।
(५) या ओषधयः अश्वत्थे पलासे वा उद्भवन्ति
ता: निश्चिरूपेण लाभदायिकाः भवन्ति।
तासाम् उपयोग: गोदुग्धेन सह भवति।
अर्थात जो औषधियाँ पीपल और पलासके वृक्ष पर उत्पन्न होती हैं, वे निश्चित रूप से लाभदायिक होती हैं। उनका उपयोग गोदुग्ध के साथ होता है।
नीचे चित्र ग्वालियर जयविलास पैलेस का है! महारानी सिंधिया amrutam उत्पाद के लिए बधाई पुरुस्कार देती हुई
(६) तदा ब्राह्मणैव भिषजरभवन्त ब।
प्राचीन काल में ब्रह्मशी ऋषि मुनि ही ही चिकित्सक होते थे।
(७) तदा भिषज औषधीनाम् अस्तोमयन्।
तब चिकित्सक (वैद्य) औषधियों की स्तुति करते थे।
(८) ओषधयः निश्चतरूपेण सफला अभवन्।
ओषधियाँ निश्चित रूप से सफल होती थीं।
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