- जब तक जीवन का साथ ही, तब तक सात का महत्व है। सात शरीर में सात चक्र भी विद्यमान होते हैं।
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- 70 शास्त्र, किताबों के ७० दिन साथ रहकर सच्चे मन से 7 अंक की सच्चाई प्रस्तुत है। इसे पढ़ने में भी कम से कम ७० मिनिट, तो लग ही जायेंगे। क्योंकि यह लेख सत्तर हजार शब्दों से पिरोया है। इसके बाद 7/सात के बारे में जानने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
- आपको भारत के विचित ग्रन्थों, पुस्तकों के नाम पहली बार पता लगेंगे।
सात के बारे में इस लेख का श्रीगणेश/आरम्भ आध्यात्मिक ज्ञान की ऊर्जा से करते हैं..
- शाक्त तंत्र साधकों ने आत्मप्रज्ञा व आत्मानुसंधान के द्वारा मनुष्य के शरीर में ७ शरीरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है।
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- तंत्र साधना के अनुसार ये सात शरीर मनुष्य के अंदर निहित ७ चक्रों से संबंधित हैं। ये चक्र हैं-
१. स्थूल शरीर,
२. आकाश शरीर,
३ सूक्ष्म शरीर,
४. मनस् शरीर,
५. आत्मिक शरीर,
६. ब्रह्म शरीर,
७. निर्वाण शरीर ।
- ये सात शरीर मनुष्य में ऊर्जा के प्रमुख केंद्र हैं, जिन्हें कुंडलिनी साधना के माध्यम से जाग्रत किया जाता है । कुंडलिनी तंत्र साधना में इन सात शरीरों के सात चक्र होते हैं
- पहला मूलाधार चक्र, जो स्थूल शरीर की प्रवृत्तियों से संबंधित है, जिसे जाग्रत कर व्यक्ति विषय-वासना या देह के विकारों से ऊपर उठ जाता है। यह चक्र स्थूल शरीर से संबंधित है।
- दूसरा स्वाधिष्ठान चक्र है, जो आकाश शरीर से संबंधित है । इस चक्र को साधना द्वारा जाग्रत करने पर व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है।
- तीसरा मणिपुर चक्र को जाग्रत करने पर व्यक्ति यश लिप्सा से मुक्त हो जाता है । यह चक्र सूक्ष्म शरीर से संबद्ध है।
- चौथा अनाहत चक्र के जाग्रत होने पर मनुष्य के अंदर आध्यात्मिक भावों व सात्विक गुणों का तेज उत्पन्न होता है। यह चक्र मनस् शरीर से संबद्ध है।
- पांचवा विशुद्ध चक्र आत्मिक शरीर से संबंधित है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति माया-मोह के बंधन से ऊपर उठकर आत्म साक्षात्कार की ओर उन्मुख होता है।
- छटवा आज्ञा चक्र, दोनों भौहों के मध्य में स्थित होता है, जिसके जागरण पर व्यक्ति ईश्वर से साक्षात्कार करने में समर्थ हो जाता है तथा देश, काल से ऊपर उठ जाता है।यह ब्रह्म शरीर से संबंधित होता है।
- सातवां सहस्त्रार चक्र कपाल में स्थित होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति परमात्मा में एकाकार हो जाता है। जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो ‘ब्रह्मात्मा’ स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
- यह चक्र निर्वाण शरीर से संबंध विज्ञान अभी तक सूक्ष्म शरीर तक ही अपनी यात्रा कर सका है। शेष शरीर या चक्र अभी उसकी पहुंच से बाहर है।
- विज्ञान की भाषा में अज्ञात का तात्पर्य अनस्तित्व से नहीं होता है। अज्ञात को ज्ञात के दायरे में लाना ही विज्ञान का लक्ष्य है।
- फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि विज्ञान आज मनुष्य के अंदर निहित जिन असीम क्षमताओं को समझने-बूझने में लगा हुआ है, उन्हें भारतीय योगियों-चिंतकों-दार्शनिकों और दिव्य पुरुषों ने बहुत पहले ही समझ-बूझ लिया था।
- वैसे भी धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। इनमें भेद सिर्फ दृष्टि का है।
- विज्ञान जहां पदार्थ का अध्ययन करता है, वहीं धर्म-दर्शन आत्म तत्व या चेतना का अनुसंधान करता है।
- इस सदी के महानतम सन्त स्वामी विवेकानंद ने कहा था-अंततः एक दिन धर्म को विज्ञान की ओर व विज्ञान को धर्म की ओर लौटना होगा, तभी शांति सम्भव होगी। सूक्ष्म शरीर की सत्ता स्वीकारने के बाद अब विज्ञान इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है।
- अकालमृत्यु के 7 कारण होते हैं-अग्नि, जल, वृक्ष, दंश, विष, वज्र, आपात।
- अक्षर-वर्ण-वर्ग ७ हैं- -कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अंत:स्थ, ऊष्म।
- अग्निजिह्वा सात हैं… हिरण्या, कनका, रक्ता, आरक्ता, सुप्रभा, बहुरूपा तथा सती। (इन्हें जिह्वादेवी कहा गया है। इनके ध्यान से सर्वार्थसिद्धि निर्दिष्ट है। (भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय-१६) –
- अग्निभेद सात हैं…जिह्वा, हिरण्या, कृष्णा, रक्तिका, अतिरक्तिका, गगना, बहुरूपा।
- सात अज्ञात-गति…मूर्ख, सर्प, सिंह, श्वान, राजा, मधुमक्खी, शिशु।
- अप्सरा भी 7 हैं…उर्वशी, मेनका, रंभा, सुकेशी,तिलोत्तमा, मंजुघोषा, घृताची।
- अयत्नज अलंकार सात होते हैं…शोभालंकार, कांति अलंकार, दीप्ति अलंकार, माधुर्य अलंकार, प्रगल्भतालंकार, औदार्यालंकार तथा धैर्यालंकार।(दशरूपक : धनंजय : २.३५) -साहित्यदर्पण : ३.९६ -नाट्यशास्त्र : भरत : २४.२७-२९ ८.
- अर्थभेद 7 हैं… —-दिव्य, दिव्यमानुष, मानुष, पातालीय, मर्त्यपातालीय, दिव्यपातालीय एवं दिव्यमर्त्यपातालीय। -राजशेखरकृत काव्यमीमांसा : नवम अधयय ९.
- आधुनिक हिंदी-आलोचना के 7-प्रकार (साहित्य) – परिचय-प्रधान, गवेषणा-प्रधान, सिद्धांत-प्रधान, शास्त्र-प्रधान, प्रभाव-प्रधान, तुलना-प्रधान तथा चिंतन-प्रधान।(हिंदी-साहित्य-कोश, खंड-१, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ-१२४)
- आवाहनीय 7 नदी समूह-….गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु तथा कावेरी।
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।(नारदीयपुराण:२७-३३)
- सात तरह के उपविष….अर्कदुग्ध (अकौआ का दूध), थूहर दुग्ध, कलिहारी, दोनों कनेर, धतूर, कुचला तथा वत्सनाभ। (अमृतसागर,श्रीसवाई प्रताप सिंहजी महाराज)
- सात हैं-ऊर्ध्वलोक….. -ब्रह्मलोक, वैकुंठलोक, शिवलोक, सुरलोक, सूर्यलोक, पितृलोक, सिद्धलोक।
- सात ऋषिभेद…. श्रुतर्षि (पवित्रकथादिश्रवणकर्ता), कांडर्षि (वेदों के प्रधान कांडों का उपदेष्टा), परमर्षि (मुनिभेलप्रभृति), महर्षि (व्यास आदि), राजर्षि (विश्वामित्र आदि), ब्रह्मर्षि (वसिष्ठ आदि), देवर्षि नारद आदि।
- सात कल्प ….-पार्थिव, कूर्म, अनंत, ब्रह्म, रुद्र, श्वेतवाराह, प्रलय।
- काव्य लक्षण की 7 विशेषताएँ….-मृदुललितपदावली, गूढशब्दार्थ हीनता, सर्वसुगमता, युक्तिमत्ता, नृत्योपयोगयोग्यता, बहुकृतरसमार्गता तथा संधियुक्तता।-(नाट्यशास्त्र : भरतमुनि : १६, ११८)
- सात काव्यात्म-संप्रदाय….. -रस-संप्रदाय, ध्वनि-संप्रदाय, रीति-संप्रदाय, अलंकार-संप्रदाय, वक्रोक्ति-संप्रदाय, चमत्कारसंप्रदाय।
- कुल भी 7 प्रकार के बताए हैं…-मातृकुल, पितृकुल, स्त्रीकुल, भगिनीकुल, , गुरुकुल, मातृस्वषाकुल, पितृस्वषाकुल।
- क्रौंचद्वीपांतर्गत आदि 7 पर्वत….मेरु पर्वत, जलधार पर्वत, रैवतक पर्वत, श्याम पर्वत, अस्तगिरि पर्वत, आंबिकेय पर्वत तथा केसरि पर्वत। -(ब्रह्मांडपुराण, प्रथम भाग, अनुषंगपाद)
- गांधर्व की 7 वेदोक्तकला…. -नृत्यकला, वादनकला, वस्त्रालंकार-संधानकला, रूपप्रकाशन-कला, शय्यास्तरण-संयोगपुष्पादिग्रथन-कला, द्यूतादिक्रीडाकला एवं रतिज्ञान-कला। (-शुक्रनीति : महर्षि शुक्राचार्य: ४, ६७-७०)
- आयुर्वेद के 7 गुटिका-पर्यायनाम…… -गुटिका, वटी, मोदक, वटिका, पिंडी, गुड़ तथा वर्ति यानि बाती।-(अमृतसागर, श्रीसवाई प्रताप सिंह महाराज, पृष्ठ-५०)
- सात गोत्रकार-ऋषि…. -बृहस्पति, गौतम, ऋषिश्रेष्ठ संवर्त, उतथ्य, वामदेव, अजस्य तथा ऋषिज। (मत्स्यपुराण : १९६, ४)
- सात तरह के गोस्वामी…. -गिरि, पुरी, वन, पर्वत, भारती, सागर, आर्शव्य।
- सात ग्राम-पशु…. -गो, अज, पुरुष, मेष, अश्व, अश्वतर तथा गर्दभ!
- गौरजः पुरुषो मेषो ह्यश्वोऽश्वतरगर्दभौ (वायुपुराण:९, ४६)
- चक्रवर्ती व्यक्ति के सात चिह्न….-चक्र, रथ, मणि, भार्या, निधि, अश्व, गज।
‘चक्रं रथो मणिर्भार्या, निधिरश्वो गजस्तथा।
प्रोक्तानि सप्तरत्नानि सर्वेषां चक्रवर्त्तिनाम्।’-(राजशेखरकृत काव्यमीमांसा, अध्याय-७)
- चमत्कार के सात-भेद …..-गुण, रीति, रस, वृत्ति, पाक, शय्या, अलंकर (चमत्कार-चंद्रिका, विश्वेश्वर)।
- सात चित्र-(शब्दालंकार-भेद)…. प्रभेद -प्रश्न, प्रेहलिका, गुप्तपद, च्युतपद, दत्तपद, च्युतदत्तपद तथा समस्या। (अग्निपुराण, काव्यशास्त्रीय भाग)
- सात जंबूद्वीपस्थ पर्वत….हिमालय, विंध्याचल, हेमकूट, निषध, मल्लिमान्, पारियात्र, गंधमादन।
- जगाने के योग्य 7 प्राणी….विद्यार्थी, गुरु, भांडारी, कृषिरक्षक, भामिनी, बुभुक्षित, कार्यकर्ता।
- दिव्यपिता 7 कहलाते हैं….आज्यपा, उष्मपा, अग्निष्वात्ता, सुकालीन, बर्हिषद्, सौम्य, हविष्म॑त।
- देवपुरी 7 होती हैं….-विष्णु, ब्रह्मा, शिव, यम, वरुण, अलका, अमरावती।
- सप्तद्वीप…. -जंबू, शाल्मलि, क्रौंच, कुश, शाक, पुष्कर, प्लक्ष!
- सात तरह के धर्मानुकूल-धनागम-स्रोत….यानि ईमानदारी से कमाया हुआ धन। जैसे–दाय (वंशपरंपरागत धन), लाभ (निधि आदि का लाभ), क्रय (खरीदकर लाया हुआ), जय (जीतकर लाया हुआ), प्रयोग (व्याज आदि), कर्मयोग (कृषि, वाणिज्य) तथा सत्प्रतिग्रह। (-मनुस्मृति : १०.११५)
- सप्तधान्य ……-गेहूँ, जौ, तिल, उड़द, मूंग, कांगनी, मसूर।
- सात नायिका-भेद…. (अवस्थाधार पर) -स्वाधीनभर्तृका (स्वाधीनपतिका), खंडिता, अभिसारिका, कलहांतरिता, विप्रलब्धा, वासकसज्जा तथा विरहोत्कंठिता।(द्रष्टव्य अंक-२ तथा ३)
- सात प्रकार के पदार्थ…. -द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव।
- सात पद्यभेद….. – महाकाव्य, कलाप, पर्याबंध, विशेषक, कुलक, मुक्तक तथा कोश।
महाकाव्यं कलापश्च पर्याबन्धो विशेषकम्।
कुलकं मुक्तकं कोष इति पद्यकुटुम्बकम्।
(अग्निपुराण : काव्यशास्त्रीय भाग)
- पाटलिपुत्र-परीक्षित शास्त्रकार 7 हैं….उपवर्ष, वर्ष, पाणिनि, पिंगल, व्याडि, वररुचि तथा पतंजलि।
श्रूयते च पाटलिपुत्रे शास्त्रपरीक्षा’ ..
अत्रोपवर्षवर्षाविह पाणिनिपिङ्गलाविह व्याडिः!
वररुचिपतञ्जली इह परीक्षिताः ख्यातिमुपजग्मुः।।
(राजशेखरकृत काव्यमीमांसा : दशम अध्याय)
- सात पाताल….अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
अतलं वितलं चैव सुतलं च तलातलम्।
महातलं च पातालं रसातलमधस्ततः।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखंड, अध्याय-७, पद-१३)
सात पुरी….अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, उज्जैन, द्वारका।
- सात प्रकृति-बंधक….धर्म, अधर्म, अज्ञान, वैराग्य, अवैराग्य, ऐश्वर्य, अनैश्वर्य । (इन सात रूपों में प्रकृति अपने आपको बाँधती है।)
- सात प्रज्ञावस्था….-हेयशून्य अवस्था, हेयहेतुक्षीणावस्था, प्राप्यप्राप्तावस्था, चिकीर्षाशून्यावस्था, चित्तसत्त्व, कृतार्थता, गुणशीलता तथा आत्मस्थिति। (पातंजलयोगदर्शन : साधनपाद, २७)
- तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा।
- सात तरह के मणिदोष…मंदराग (हलका रंग), मंदप्रभ (हलकी प्रभा), सशर्कर (खुरदरा), पुष्पच्छिद्र (छोटे छिद्रवाला), खंड (खंडित), दुर्विद्ध (जिसमें उपयुक्त स्थान पर वेधन न किया गया हो) तथा लेखाकीर्ण (विभिन्न रेखायुक्त)। (कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण-२, प्रकरण-२७, अध्याय-११, पृष्ठ-४०)
- सप्त मधुभेद….माक्षिक, भ्रामर, क्षौद्र, पौत्तिक, छात्र, आर्घ्य, औद्दालक तथा दाल। (शहद के सात भेद) शुद्ध मधु सेवन करना हो, तो amrutam मधु पंचामृत लेवें।(भावप्रकाशनिघंटुः, मधुवर्गः, पद-७)
- सात मातायें….जननी, गुरुपत्नी, ब्राह्मणी, राजपत्नी, गोमाता, धात्री, पृथ्वी। [सप्तमातरः]
- सात युद्ध-प्रकार….खड्ग, चक्र, गदा, धनुष, मल्ल, मुष्टिका, शूल।
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- योग के सात प्रकार….राजयोग (ध्यानयोग), ज्ञानयोग (सांख्ययोग), कर्मयोग (अनासक्तियोग), भक्तियोग (ईश्वरप्रणिधानयोग), हठयोग, लययोग तथा मनोयोग (दृष्टिबंध-(Sightism), अंतरावेश(Spiritualism), सम्मोहन)
- सात योग-सहायक….अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनीर्ष्या ईर्ष्या-राहित्य) तथा दया। (नारदीयपुराण : ३३, ३५)
- सप्त योगिनी….मंगला, पिंगला, धान्या, भ्रामरी, भद्रा, उल्का, सिद्धि।
- सात राजसंपूज्य….राजा के द्वारा सात आदरणीय हैं-वैदिक, व्याधिग्रस्त, बालक, वृद्ध, दरिद्र, श्रेष्ठकुलजात तथा उदारचरित्र। (मनुस्मृति : ८.३९५)
राजांग (राजा के सात अंग)…राजा, मंत्री, मित्र, कोश, राष्ट्र, दुर्ग तथा सेना। (इनमें राजा को शिर माना गया।) स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि च।
सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः।। –
(शुक्रनीति : महर्षि शुक्राचार्य, अध्याय-१, पद-६)
- राज्यांग यानि राजा के सात अंग होते हैं….सैन्य, दुर्ग, मंत्री, कोष, देश, मित्र, स्वामी।
- सप्त लोक ….माया, यम, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, दैत्य।
- लौकिक अप्सरा 7 हैं…(वैसे दिव्याप्सराएँ चौबीस हैं, द्रष्टव्य उक्त संख्या। लौकिक अप्सराएँ सात हैं।) जैसे-हंसा, सरस्वती, कमला, सूता, अभया, सुमुखी तथा हंसपादी। (-ब्रह्मांडपुराण, अध्याय-३, उपोद्घातपाद)
- वन्यपशु सात होते हैं…श्वापद, द्विखुर, हस्तिन्, वानर, पक्षी, उंदक (ऊदबिलाव) तथा सरीसृप। (वायुपुराण : ९, ४७-४८)
- वयःकृता-नारी के 7-अवस्था-भेद….कन्या, रोहिणी, गौरी, बाला, तरुणी, प्रौढ़ा तथा वृद्धा।
श्लथादीनां वयोभेदादवस्थासप्तकं विदुः!
अष्टवर्षा भवेत्कन्या नववर्षा तु रोहिणी।
दशवर्षा भवेद्गौरी बालाऽतष्पोडशावधिः।
आत्रिंशत्तरुणी प्रोक्ता प्रौढा पञ्चदशाब्दतः।
अत ऊर्ध्वं भवेवृद्धा सप्तावस्था वयः कृता। वशीकृतिप्रकारश्च यथोक्तानां निगद्यते। (रतिरत्नप्रदीपिका -श्रीप्रौढ़देवराजमहाराज विरचित), अध्याय-२, पद ३९-४१ –
सात तरह की मुख्य वायु….अनुवह, दिवह, संवह, आवाह, प्रवाह, परावह, परिवाह।
सात वार के नाम….रविवार या आदित्यावार, सोम या चन्द्रवार, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि।
- वार के 7 स्वामी….रविवार के भगवान शिव इनकी प्रसन्नता के लिए रविवार को व्रत रखकर शिवलिंग पर जलयुक्त दूध शिवलिंग पर अर्पित करने से गरीबी, धन की तंगी दूर होती है।
- सोमवार की माँ दुर्गा,
- मंगलवार के भगवान कार्तिकेय,
- बुधवार के भगवान विष्णु,
- गुरुवार या बृहस्पतिवार : ब्रह्मा,
- शुक्रवार के इंद्र यानि 10 इंद्रियों की शुद्धि के लिए शुक्रवार का व्रत करना हितकारी है। इससे शुक्र की रक्षा होती है और कोई रोग-विकार, बीमारी नहीं होते।
- शनिवार के काल रूपी महाकाल।
आदित्यश्चन्द्रमा भौमो बुधश्चाथ बृहस्पतिः।
शुक्र शनैश्चरश्चैते वासराः परिकीर्तिताः।
शिवो दुर्गा गुहो विष्णुब्रह्मेन्द्रः कालसंज्ञकः।
सूर्यादीनां क्रमादेते स्वामिनः परिकीर्तिताः।
(ज्योतिषशास्त्र)
विवाह-कर्तव्य 7 होते हैं… -मधुपर्क, होम, अग्नि, प्रदक्षिणा, पाणिग्रहण, लाजाहोम एवं आर्द्राक्षतारोहण।(रघुवंशम् कवि कालिदास कृत : ७)
वैदिक छंदः के 7 प्रकार …..-गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप तथा जगती।
सप्तछन्दांसि यान्यासां तानि सम्यक् प्रवर्तयेत् । गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च।
त्रिष्टुप् च जगती चैव छन्दास्येतानि वै। (महर्षियाज्ञवल्क्य)
व्यूहांग -उर, कक्ष, पक्ष, मध्य, पृष्ठ, प्रतिग्रह, कोटि (अग्रभाग)।
शब्दगुण के 7-भेद…. -श्लेष, लालित्य, गांभीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य तथा यौगिकी। (अग्निपुराण, काव्यशास्त्रीय भाग)
शरीरस्थ निराकार 7 लोक…. त्रिकुट, श्रीहट, गोल्हाट, ओष्ठ पीठ, भ्रमरगुफा, ब्रह्मरंध्र, सत्रावी कला।
शरीरस्थ 7-निम्नलोक….हस्त, उदर, पृष्ठ, पाद, लिंग, गुदा, नाभि!
शरीरस्थ साकार 7 लोक….ब्रह्माणु, नेत्र, कर्ण, मुख, कंठ, हृदय, नासिका।
शुद्ध सप्तधातु -स्वर्ण (सोना), रजत (चाँदी), ताम्र (ताँबा), वंग, सीसा (शीशा), रंगक (राँगा) तथा लोह (लोहा) ये सात धातुएँ शुद्ध हैं। (शुक्रनीति : महर्षि शुक्राचार्य : ४, ८६)
सप्तत्वचा यानि स्किन के 7 प्रकार…. -अवमासिनी, रक्त, श्वेत, ताम्र, छेदनी, रोहिणी तथा स्थूल। (अमृतसागर, श्रीसवाई प्रताप सिंह, पृष्ठ-१०)
सप्तधातु …..रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा तथा वीर्य। -(अमृतसागर, श्रीसवाई प्रताप सिंह, पृष्ठ-९)
समाहर्ता के निरीक्षण 7 कार्य…..दुर्ग, राष्ट्र, खनि, सेतु, वन, व्रज तथा व्यापार (का निरीक्षण)। (कौटिलीय अर्थशास्त्र : प्रकरण-२२, अध्याय-६)
भगवान सूर्य के 7 गुणधर्म….अंधकार-नाश, राक्षस-नाश, दुःखरोग-नाश, , नेत्रज्योतिर्वृद्धि, चराचरात्मरूपता, आयुर्वृद्धि तथा लोकधारण। (ऋग्वेद: १०, ३७, ४)
येन सूर्य ज्योतिषा बाधसे तमो
जगच्च विश्वमुदियर्षि भानुना।
तेनास्मद् विश्वामनिरामनाहुतिमतामीवामप दुष्वप्यं सुव।
- सात सूर्य रश्मियां….सुषुम्ना, सुरादना, उदन्वसु, विश्वकर्मा, उदावसु, विश्वव्यचा तथा हरिकेश! (सांबपुराण: ७, ६०)
- सात तरह के सैन्य कर्म…साम, दान, भेद, दंड, उपेक्षा, इंद्रजाल, मायोपाय।
सामं दानं च भेदश्च दण्डोपेक्षेन्द्रजालकम्।
मायोपायाः सप्तपरे निक्षिपेत्साधनाय तान्।। -अग्निपुराणम् : उत्तरभाग: अध्याय : २४१, श्लोक-४६
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- सात तरह के स्वर (गान)….षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद। (स. रे. ग. म. प. ध. नी.)
- सात प्रकार के स्वरदेवता….अग्नि (षड्जाधिदेवः अग्नि:), ब्रह्मा (ऋषभाधिदेवः ब्रह्मा), सरस्वती (गान्धाराधिदेवी सरस्वती), महादेव (मध्यमस्वराधिदेवः महादेवः), विष्णु (पञ्चमाधिदेवः विष्णुः), गणेश (धैवताधिदेव: गणेश:) तथा सूर्य (निषादाधिदेवः सूर्यः)।
- सात कर्म से स्वर्गद्वार मिलते हैं -तप, दान, शम (शांति), दम (इंद्रियदमन) ह्री (लज्जा), आर्जव (सरलता) तथा सर्वभूतानुकंपा।
तपश्च दानं च शमो दमश्च
ह्रीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा।
स्वर्गस्य लोकस्य वदन्ति सन्तो
द्वाराणि सप्तैव महान्ति पुंसाम्।
(मत्स्यपुराण : ३९, २२)
- स्वारोचिष-मन्वंतरांतर्गत-सप्तर्षि….वसिष्ठपुत्र ऊर्जा, कश्यप पुत्र स्तंब, भार्गवपुत्र प्राण, ऋषभपुत्र अंगिरा, पुलस्त्यपुत्र दत्त, अत्रिपुत्र निश्चल तथा पुलहपुत्र अर्वरीवान्।
- कुमारीद्वीपस्थ सप्त-कुलपर्वत….विंध्य, पारियात्र, शुक्तिमान्, ऋक्ष, महेंद्र, सह्य तथा मलय। (-राजशेखरकृत काव्यमीमांसा : अध्याय-१७)
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- क्रौंच-द्वीपांतर्गत सप्तपर्वत….मेरु पर्वत, जलधार पर्वत, रैवतक पर्वत, श्याम पर्वत, अस्तगिरि पर्वत, आंबिकेय पर्वत तथा केसरि पर्वत। (-ब्रह्मांडपुराण, प्रथम भाग, अनुषंगपाद)
- प्लक्षद्वीपांतर्गत सप्तपर्वत तथा उनके जनपद ….गोमेद-पर्वत (गोमेद-जनपद), चंद्र-पर्वत (शिशिर-जनपद), नारद-पर्वत (सुखोदय जनपद), सोमक-पर्वत (शिव-वर्ष-जनपद), दुंदुभि-पर्वत (आनंद-वर्ष-पर्वत), ऋषभ-पर्वत (क्षेमक-वर्ष-जनपद) तथा वैभ्राज-पर्वत (ध्रुववर्ष-जनपद)।(ब्रह्मांडपुराण, प्रथम भाग, अनुषंगपाद)
- सात प्लक्ष-द्वीपांतर्गत सप्तसरित्….विपाशा, सुखी, अमृता, त्रिदिवा, अनुतप्ता, सुकृता तथा क्रम। (ब्रह्मांडपुराण, प्रथम भाग, अनुषंगपाद)
- भगवान शिव के -सप्तगण -कीर्तिमुख, शृंगी, भंगी, रिटि, बाण, चंडीश, वीरभद्र। (शिव-सान्निध्य में रहनेवाले)।
- सप्तक्षेत्र….कुरुक्षेत्र (हरियाणा), हरिहरक्षेत्र (सोनपुर), प्रभासक्षेत्र (वेरावल), रेणुकाक्षेत्र (मथुरा), भृगुक्षेत्र (भरुच), पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथपुरी), शूकरक्षेत्र (सारों)।
- सप्तगंगा….भागीरथी, वृद्धगंगा, कालिंदी, कावेरी, नर्मदा तथा – वेणी।
- सप्तगण…यक्ष, जागृ, हरिद्रा, चकास, शास्ति, दीधी, वेवी।
- सप्तगोत्र…..पिता, माता, भार्या, भगिनी (बहन), पुत्री, पितृष्वसा (फूआ) तथा पितृष्वसा। (-वायुपुराण : ११०, २६)
- सप्तधृतमातृका …. श्री, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा तथा सरस्वती।
- श्रीलक्ष्मीश्च धृतिर्मेधा पुष्टि: श्रद्धा सरस्वती मङ्गल्येषु प्रपूज्यन्ते सप्तैता घृतमातरः!
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- सप्तचक्र परिवार….. -शरीर में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नाड़ी सुषुम्ना है सुषुम्ना के भीतर वज्रनाड़ी है। वज्रनाड़ी के भीतर चित्रिणी और चित्रिणी के भीतर ब्रह्मनाड़ी है।
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- ये सभी नाड़ियाँ मकड़ी के जाले की तरह सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं। इनका ज्ञान योगियों को ही होता है। ये नाड़ियाँ सत्त्वप्रधान, प्रकाशमय तथा अद्भुत शक्ति-संपन्न हैं।
- यहीं सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म प्राण का स्थान और अधिवास है। यहाँ अनेक सूक्ष्म शक्तियों का केंद्र है।
- यहीं कुंडलिनी शक्ति है।
- यहाँ जन्मांतरों की स्मृतियों का संग्रहालय भी है। कुंडलिनी शक्ति का उज्जागरण समस्त शक्तियों की सिद्धि है। इन शक्ति-केंद्रों में सात प्रस्थानस्थल हैं, जिन्हें पद्म, कमल तथा चक्र कहते हैं।
- हठयोग, योग, अध्यात्मसाधना सभी क्षेत्रों में इन चक्रों का वैशिष्ट्य वर्णित है।
- प्रत्येक चक्र का अपना स्वरूप तथा विविध परिवार-संरचना है। सप्तचक्र-परिवार में प्रत्येक चक्र के परिमंडल का उल्लेख किया गया है।
- प्रत्येक चक्र के अंतर्गत पंद्रह या ग्यारह संख्यात वर्णन है। मूल तो सप्तचक्र हैं। इसलिए शेष विस्तार को उनका अंगीभूत मानकर अंक-प्रतीक सात में ही व्यवस्थित रखा गया है।
【१】मूलाधार-चक्र (Pelvic Plexus)…
- क. चक्रस्थान-गुदामूल से दो अंगुलि ऊपर तथा उपस्थ से दो अंगुलि नीचे।
- ख. आकृति-रक्त रंग के प्रकाश से प्रफुल्लित चतुर्दल कमल (सदृश)।
- ग. अक्षरविन्यास-चतुर्दल कमल-दल पर ‘वं शं षं सं’ इन चार अक्षरों का क्रमश: अधिवास।
- घ. तत्त्वस्थान-चतुष्कोण सुवर्णरंगी पृथ्वीतत्त्व का मुख्य स्थान । ङ. तत्त्व-बीज-लं।
- च. तत्त्वबीजगति-ऐरावत हाथी के सदृश अपने सामने की ओर गति।
- छ. गुण-गंधगुण
- ज. वायुस्थान-नीचे की ओर चलनेवाली अपानवायु का स्थान।
- झ. ज्ञानेंद्रिय-गंधतन्मात्रा से उत्पन्न घ्राणशक्ति नासिका का स्थान।
- ञ. कर्मेंद्रिय-पृथ्वी तत्त्व से उत्पन्न मलत्याग शक्ति गुदा का स्थान।
- ट. लोक-भूलोक (भू)।
- ठ. तत्त्व-बीजवाहन-ऐरावत हाथी, जिसपर इंद्र विराजमान हैं।
- ड. अधिपति देवता-चतुर्भुज ब्रह्मा।
- ढ. अधिपति देवता-शक्ति-डाकिनी।
- ण. यंत्र-चतुष्कोण (सुवर्ण रंग)।
- त. चक्रध्यान-फल-आरोग्य, आनंदचित्तता, वाक्य, काव्य, प्रबंधदक्षता।
- थ. विशेष संरचनात्मक स्थिति-इस चक्र के नीचे त्रिकोण यंत्रवत् एक सूक्ष्म योनिमंडल है, जिसके मध्य के कोण में सुषुम्ना (सरस्वती) नाड़ी, दक्षिण कोण में पिंगला (यमुना) नाड़ी तथा वाम कोण से इड़ा (गंगा) नाड़ी निकलती है। इसीलिए इसे मुक्तत्रिवेणी कहते हैं।
तांत्रिक वाङ्मय के अनुसार मूलाधारचक्र के योनिमंडल के मध्य में तेजोमय रक्तवर्ण ‘क्लीं’ बीजरूप कंदर्प नामक स्थिर वायु विद्यमान है, जिसके मध्य-भाग में स्थित ब्रह्मनाड़ी के मुख में स्वयंभू लिंग है।
इसमें कुंडलिनी-शक्ति साढ़े तीन कुंडल (लपेट) में शंख के आवर्तन के समान है। मूल शक्ति कुंडलिनी-शक्ति ही है। इसका आधार होने के कारण इसे मूलाधार-चक्र कहते हैं।
【२】स्वाधिष्ठान-चक्र (Hypogastric Plexus)
- क. चक्रस्थान-मूलाधार-चक्र से दो अंगुलि ऊपर लिंग या योनि के पीछे।
- ख. आकृति-पीत रंग के प्रकाश से प्रफुल्लित षट्दल कमलसदृश।
- ग. अक्षर-विन्यास-षट्दल कमल दल पर ‘बं भं मं यं रं लं’ इन छह अक्षरों का क्रमशः अधिवास है।
- घ. तत्त्वस्थान-श्वेत रंग, अर्धचंद्राकारवाले जल-तत्त्व का मुख्य स्थान।
- ङ. तत्त्व-बीज-बं। बं बीजमन्त्र के जाप से मधुमेह या डाइबिटीज जड़ से मिट जाता था। आज से 50 वर्ष पूर्व के लोग बम-बम बोलकर एक दूसरे का अभिवादन करते थे। जो अब नमस्कार और राम-राम में बदल गया।
- च. तत्त्वबीजगति-मकर के सदृश नीचे की ओर लंबी गति। जैसे मकर जल में लंबी डुबकी लगाता है।
- छ. गुण-रस।
- ज. वायुस्थान-संपूर्ण शरीर में व्याप्त-व्यापक होकर गति करनेवाली व्यान-वायु का मुख्य स्थान।
- झ. ज्ञानेंद्रिय-रसतन्मात्रा-उत्पन्न स्वाद-ग्रहण-शक्ति रसना का स्थान।
- ञ. कर्मेद्रिय-जल-तत्त्व से उत्पन्न मूत्र-त्याग-शक्ति उपस्थ का मुख्य स्थान।
- ट. लोक-भुवः।
- ठ. तत्त्वबीज-वाहन-मकर, जिसके ऊपर वरुण विराजमान हैं।
- ड. अधिपति देवता-विष्णु।
- ढ. अधिपति देवता-शक्ति-राकिनी।
- ण. यंत्र-अर्धचंद्राकार श्वेत रंग।
- त. चक्रध्यान-फल-सर्जन, पालन, निधन में सामर्थ्य, जिह्वा पर सरस्वती देवी का अधिवास।
- थ. विशेष संरचनात्मक स्थिति-समस्त आनंद का केंद्र यहीं है। प्रजनन, प्रजा और प्रजापति का अस्तित्व तथा साम्राज्य इसी चक्र से नियंत्रित है।
【३】मणिपूर-चक्र (Epigastric Plexus or Solar Plexus)
-
- क. चक्रस्थान-नाभिमूल।
- ख. आकृति-नील रंग।
- ग. अक्षरविन्यास-दशदलकमल-दल पर ‘डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं’ इन दस अक्षरों का क्रमशः अधिवास।
- घ. तत्त्वस्थान-रक्त रंग, त्रिकोणाकार अग्नितत्त्व का प्रमुख स्थान।
- ङ. तत्त्व-बीज-रं। यही रं बीज मंत्र लोग जुबान से राम-राम बोलकर अपनी देह, तन-मन-अन्तर्मन खराब कर रहे हैं और घोर गरीबी में जी रहे हैं।
- वैदिक मान्यता है कि कोई भी बीजमन्त्र बोलने या उच्चारण करने से उसकी शक्ति बाहर निकल जाती है। चूंकि रं बीज मंत्र अग्नि जागृत करता है अगर कण्ठ से जपें। लेकिन ज्यादातर लोग बोलकर अग्नि, शक्ति, उमंग तथा उर्जारहित हो रहे हैं। भारत में बहुत बड़ी बीमारी की वजह रं-रं की जगह राम-राम कहते हैं।
- सिद्ध अघोरी-अवधूत की पहचान यही है कि कभी भी वो राम-राम नहीं बोलेगा। छल-कपटी साधुयों का पता नहीं।
- च. तत्त्वबीजगति-मेष (भेंडा) की तरह ऊपर की ओर उछलकर चलने के समान इस तत्त्व की ऊर्ध्व-गति है।
- छ. गुण-रूप।
- ज. वायुस्थान-भुक्त भोजन के रस को अपने-अपने निर्धारित -स्थान पर पहुँचानेवाली समान-वायु का मुख्य स्थान।
- झ. ज्ञानेंद्रिय-रूप-तन्मात्रा से उत्पन्न दृष्टिशक्ति चक्षु का स्थान।
- ञ. कर्मेंद्रिय-अग्नि-तत्त्व से उत्पन्न चलने की शक्ति पाद (पैर) का स्थान।
- ट. लोक-स्वः।
- ठ, तत्त्वबीज-वाहन-मेष, जिसके ऊपर अग्निदेवता विराजमान
- ड. अधिपति देवता—-रुद्र।
- ढ. अधिपति देवता-शक्ति–लाकिनी ( चतुर्भुजा शक्ति ) । ण. यंत्र-त्रिकोण रक्त रंग।
- त. फल-इस चक्र पर ध्यान से शरीर व्यूह का ज्ञान होता है, अजीर्ण आदि रोग से मुक्ति मिलती है।
- थ. विशेष-संरचनात्मक स्थिति-नाभि से ही बच्चा अपने संपूर्ण शरीर के पोषण के लिए अपनी माता से गर्भस्थ रूप में ही रस ग्रहण कर लेता है।
- प्रसव के पश्चात् यह सेतु सूत्र काट दिया जाता है। यह शरीर केंद्र है। शयनावस्था में यही स्थान उठता-बैठता दीखता है। परा-वाक्शक्ति यहीं है।
【४】अनाहत-चक्र (हृदयचक्र-अनाहत) (Cardiac Plexus)
क, चक्रस्थान-हृदय के पास।
ख. आकृति-सिंदूरी रंग-भासित द्वादशदल-कलम-सदृश। ग. अक्षरविन्यास-चतुर्दशदल कमल पर ‘कं खं गं घं डं चं छं जं
झं बंटं ठं’ इन बारह अक्षरों का क्रमशः अधिवास।
घ. तत्त्वस्थान-धूम रंग षट्कोणाकार वायुतत्त्व का मुख्य स्थान।
ङ. तत्त्व-बीज-यं।
च, तत्त्वबीजगति-मृग-सदृश तिर्यक् (तिरछी) गति
छ. गुण-स्पर्श।
ज. वायुस्थान-मुख तथा नासिका से गतिशील प्राणवायु का मुख्य स्थान।
झ. ज्ञानेंद्रिय-स्पर्श-तन्मात्रा से उत्पन्न स्पर्श-शक्ति त्वचा का केंद्र। अ. कर्मेंद्रिय-वायुतत्त्व से उत्पन्न पकड़ने की शक्ति का स्थान। ट, लोक-
महर्लोक, अंत:करण का मुख्य स्थान। ठ, तत्त्वबीजवाहन-मृग।
ड. अधिपति देवता–ईशान रुद्र।
ढ. अधिपति देवता-शक्ति-त्रिनेत्र चतुर्भुजा-शक्ति काकिनी। ण. यंत्र–षट्कोणाकार धूम रंग।
त. फल-वाक्पतित्व, कवित्व-शक्ति, जितेंदियत्व। अनाहतनाद का स्थल। ॐकार का अधिवास।
थ. विशेष-संरचनात्मक स्थिति-भावभूमि।
शब्दब्रह्म जो सदाशिव है, उसका निवासस्थल यहीं है। इस चक्र के ही समीप निम्न मनश्चक्र अष्टदल-रूप में स्थित है।
भक्तिभाव का उद्गमस्थल यही है। यहाँ स्थित ॐकारमय शब्दब्रह्म के सदाशिवत्व के संबंध में कहा गया-
‘शब्दं ब्रह्मेति तं प्राह साक्षाद्देवः सदाशिवः!
अनाहतेषु चक्रेषु स शब्दः परिकीर्त्यते।(परापरिमलोल्लासः)
【५】विशुद्धचक्र (कंठचक्रविशुद्धि) (Carotid Plexus)
- क. चक्रस्थान-कंठदेश।
- ख. आकृति-धूमरंग से भासित षोडशदल कमल सदृश।
- ग. अक्षरविन्यास-षोडशदल कमल पर ‘अं आं ई ई उ ऊ लूं लूं एं ऐं ओं औं अं अंः’ इन सोलह अक्षरों का क्रमशः अधिवास।
- घ. तत्त्वस्थान-विविध रंगपूर्ण पूर्णचंद्र-सदृश गोलाकार आकाश तत्त्व का मुख्य स्थान।
- ङ. तत्त्व-बीज-इं।
- च. तत्त्वबीजगति-हाथी के समान घूम-घूमकर चलने की भाँति चक्रिल गति।
- छ. गुण-शब्द।
- ज. वायुस्थान-ऊर्ध्वगतिक शरीरपर्यंत उदानवायु का मुख्य स्थान।
- झ. ज्ञानेंद्रिय-शब्द-तन्मात्रा से उत्पन्न श्रवण-शक्ति-श्रोत्र का स्थान।
- ञ. कर्मेंद्रिय-आकाश-तत्त्व से उत्पन्न वाक्शक्ति वाणी का स्थान।
- ट, लोक-जनः।
- ठ, तत्त्वबीजवाहन-हस्ति, जिसके ऊपर प्रकाश-देवता आरूढ़। ड. अधिपति-देवता-पंचमुख सदाशिव ।
- ढ. अधिपति-देवता-शक्ति–चतुर्भुजा-शाकिनी शक्ति।
- ण. यंत्र–पूर्णचंद्र सदृश गोलाकार आकाश-मंडल। ,
- त. चक्र.- ध्यान-फल-कवित्व, महाज्ञान, शांतचित्तता, आरोग्य शोकहीनता तथा दीर्घजीवन।
- थ. विशेष संरचनात्मक स्थिति-इसका नाम कंठचक्र-विशुद्धि है।
- विशुद्धि आकाश-वाचक शब्द है। इस चक्र पर ध्यान से मन आकाश के समान विशुद्ध, निरंजन और पारदर्शी हो जाता है।
मन ही समस्त उत्थान-पतन का कारण है।
पंचकोश-निर्मित मानव-सत्ता में मन मध्यवर्ती है। अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश तथा आनंदमयकोश।
इनमें मध्य-स्थ मन (मनोमयकोश) जब नीचे की ओर प्रवृत्त होता है तो पाशबद्धता और पतन की स्थिति होती है। यही मन जब ऊपर की ओर प्रवृत्त होता है तो उत्थान और परमात्मिक आनंद का अवतरण होता है। विशुद्धिचक्र मन का आकाशवत् विशुद्धीकरण है।
【६】आज्ञाचक्र (Medula Plexus)
- क. चक्रस्थान-दोनों भौंहों के मध्य मस्तक पर भृकुटि के भीतर।
- ख. आकृति-श्वेत प्रकाशयुत द्विदल-कमल सदृश।
- ग. अक्षरविन्यास-दोनों पंखड़ियों पर ‘हं क्षं दो अक्षरों का क्रमशः अधिवास।
- घ. तत्त्वस्थान-लिंग अर्थात् लिंगाकार महत्तत्त्व।
- ङ. तत्त्व-बीज-ॐ (ओ३म्)।
- च. तत्त्वबीजगति-नाद।
- छ. लोक-तपः।
- ज. तत्वबीजवाहन-नाद, जिसपर लिंगदेवता आरूढ़
- झ. अधिपति-देवता-ज्ञानदाता शिव।
- ञ. अधिपति-देवता-शक्ति-चतुर्भुजा षडानना हाकिनी-शक्ति।
- ट, यंत्र-लिंगाकार।
- ठ, चक्र-फल-शेष सभी चक्रों के पृथक्-पृथक् ध्यान का फल यहाँ एकत्र उपलभ्य।
- विशेष संरचनात्मक स्थिति–इस स्थान पर मन और प्राण के स्थिर हो जाने पर संप्रज्ञात-समाधि लगती है।
- मूलाधार से निकलकर इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ आज्ञाचक्रस्थल पर मिलती हैं। इसीलिए इसे ‘युक्त त्रिवेणी’ कहते हैं।
- इड़ा (गंगा), पिंगला (यमुना) तथा सुषुम्ना (सरस्वती) के इस संगम (त्रिवेणी) को तीर्थराज कहा गया है, जिसमें स्नान करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।
- यह आज्ञाचक्र शिवनेत्र है। इसे दिव्यदृष्टियंत्र कहा गया है।
- सहस्रारचक्र (शून्य-चक्र) (Cerebral Plexus)
- क. चक्रस्थान-तालु के ऊपर मस्तिष्क में, जहाँ सभी शक्तियों का केंद्र है।
- ख. आकृति-नाना रंग प्रकाशयुत सहस्रदल कमल-सदृश। ग. अक्षरविन्यास-अ से क्ष-पर्यंत पचास अक्षर का क्रमश: अधिवास। एक हजार दलों पर संपूर्ण वर्णाक्षरों की बीस बार आवृत्ति।
-
- घ. तत्त्व-तत्त्वातीत।
- ङ. तत्त्वबीज-विसर्ग।
- च, तत्त्वबीजगति-बिंदु।
- छ. लोक-सत्यम्।
- ज. तत्त्वबीजवाहन-बिंदु।
- झ. अधिपति-देवता–परम ब्रह्म।
- ब, अधिपति-देवता-शक्ति-महाशक्ति।
- ट. यंत्र—पूर्णचंद्र शुभ्रवर्ण!
- ठ. फल– अमरता, मुक्ति।
- ड.विशेष-संरचनात्मक स्थिति-इस स्थान पर ध्यान से असंप्रज्ञात समाधि लगती है, क्योंकि इसी नियंत्रण कक्ष से सभी दुनिया का निक होता है।
- यहाँ ब्रह्मरंध्र है। इसीके ऊपर पदमार-चत्र यति है। चित्तस्थान भी यहीं है, जिस चित्त में जानान का प्राण प्रतिबिंबित होता है। चित्त ही कारणम्वरूप है या कारणाशरीर है।
- इस कारण शरीर मे संबंध के कारण ही आत्मा की संज्ञा जीवात्मा हो जाती है। कारण शरीर सूक्ष्मशरीर में और सूक्ष्मशरीर स्थूलशरीर में व्याप्त हो जाता है।
- सप्तचक्रभेदन कुंडलिनी-जागरण की प्रक्रिया है। (अमृतमपत्रिका संग्रह)
सात-७ का साथ अभी शेष है…
- सप्तचिरंजीवी….अश्वत्थामा, कृपाचार्य, विभीषण, व्यास, बलि, परशुराम, हनुमान।
- सप्त चांचल्या…मनोवृत्ति, दीपशिखा, विद्युत्, पताका, भृताग्नि, चलदलपत्र (पीपल के पत्ते), कच्छपशिर।
- सप्तजिह-अग्नि -काली-कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, उग्रा, प्रदीप्ता, कृपीटयोनि (बृहत्संहिता)।
- नामांतर-हिरण्या, कनका, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा, अतिरक्ता (कर्मविशेष के लिए)।
- नामांतर-पद्मरागा, सुवर्णा, भद्रलोहिता, लोहिता, श्वेता, धूमिनी, करालिका (काम्यकर्म के लिए)।
- नामांतर-विश्वमूर्ति, स्फुलिंगिनी, धूम्रवर्णा, मनोजवा, लोहिता, कराला, काली (क्रूरकर्म के लिए)।
- सप्तजिह्व….अधिदेवता-अमर्त्य, पितृ, गंधर्व, यक्ष, नाग, पिशाच, राक्षस। ।
- सप्तजिह्व-दिशा…. हिरण्या : ईशान, कनका : प्राची, रक्ता : अग्निकोण, कृष्णा : नैर्ऋत्यकोण, अतिरक्ता : वायव्यकोण, बहुरूपा : दक्षिणोत्तर, सुप्रभा : पश्चिम।
- सप्तज्ञान भूमिका….शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभाविनी तथा तुर्यगा। (वेदांतसिद्धांतादर्श)
- सप्त ज्वाला…. अग्नि। जिसकी सात ज्वालाएँ होती हैं।
- सप्ततंतु…..सप्तभू, सप्ताग्नि, सप्तजिह्व, सप्तव्याहृति, इत्यादि। यज्ञ।
- सप्ततल….तल, भूतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल।
- सप्तधातु…-(क) स्वर्ण, रजत, ताम्र पीतल, लौह, राँगा तथा शीशा।
- सुवर्ण रजतं ताम्रमारकूटं तथैव च।
- लोहं त्रपु तथा सीसं धातवः सप्तकीर्तिताः!! (निर्णयसिंधु)
- सप्तधातु (शरीरस्थ) (ख) रस, रक्त (अत्रे), मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र। -राजनिघंटु, सप्तधातवः
- सप्तधान्य….जव, गेहूँ, धान, तिल कंगु, साँवा चावल, चीनक। (निर्णयसिंधु)
- यव-गोधूम-धान्यानि तिलाः कङ्गुस्तथैव च!
- श्यामाकं चीनके चैव सप्तधान्यमुदाहृतम्।
- सप्त-नाडीचक्र….-चंड, वाद, दहन, सांख्य, नीर, जल, अमृत।
- सप्तपदार्थ….जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जर, बंध तथा मोक्ष। ( जैनधर्म)
- सप्तपदी…विवाहांग सप्तपदीगमन ।
- सप्तपदीमंत्र…ॐ एकमिषे विष्णुस्त्वा नयतु!
- द्वे ऊर्ध्वं विष्णुस्त्वा नयतु।
- त्रीणि व्रताय विष्णुस्त्वा नयतु!
- चत्वारि मायो भवाय विष्णुस्त्वा नयतु।
- पञ्च पशुभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु।
- षड्रायस्पोषाय विष्णुस्त्वा नयतु।
- सप्तसप्तभ्यो होत्राभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु।
- सप्तपर्ण….मिष्टान्न-विशेष!
- सप्तानां द्राक्षादीनां पर्णमिव यत्र। द्राक्षादाडिमखर्जूरमृजिताम्र सशर्करम् लाजचूर्ण समध्वाज्यं सप्तपर्णमुदाहतम्।
- सप्तपाकयज्ञ…अष्टका (प्रथम), अष्टका (द्वितीय), पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री तथा आश्वभुजी।(भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, २.१५५)
- सप्त-पुण्यनदी….गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, कावेरी, नर्मदा तथा सिंधु।
- गङ्गे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
- नर्मदे सिंधु कावेरि जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु।
- सप्तप्रकृति….स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड (सेना) तथा मित्र (कौटिलीय अर्थशास्त्र : अधिकरण-४, प्रकरण १६, अध्याय-१)
- सप्तभंगी-न्याय…१. स्यादस्ति (संभव है, पदार्थ की सत्ता हो),
- २. स्यान्नास्ति (संभव है, उसकी सत्ता न हो), ३. स्यादस्ति च नास्ति च (हो सकता है कि पदार्थ की सत्ता हो भी और न भी हो),
- ४. स्यादवक्तव्य (संभव है, वर्णनीय न हो),
- ५. स्यादस्ति चावक्तव्यश्च (संभव है, उसकी सत्ता हो, पर वर्णन करने के योग्य न हो),
- ६. स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च (संभव है, उसकी सत्ता भी न हो और वह वर्णन करने के योग्य भी न हो) तथा
- ७. स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च (संभव है, उसकी सत्ता हो, न भी हो और वह वर्णन करने के योग्य भी न हो)।
- (जैनधर्म के अंतर्गत स्याद्वाद के विचार-क्रम में प्रसिद्ध सप्तभंगीन्याय का विकास।)
सप्त-भूषण….सूर्य (दिनभूषण), चंद्र (रात्रिभूषण), भक्ति (दासभूषण), ज्ञान (भक्तिभूषण), ध्यान (ज्ञानभूषण), त्याग (ध्यानभूषण) तथा शांत (त्यागभूषण)।
अघोरियों के सप्तमकार….मांस, मत्स्य, मैथुन, मदिरा, मुद्रा, मल, मूत्र।
सप्तमख….भोजन, पान, परिधान, गान, शोभा, नीरोग, संयोग।
सप्त-मरुत्….प्रवह, आवह, उद्वह, संवह, विवह, निवह तथा परिवह । (इनमें प्रत्येक पवन के सात-सात प्रभेद हैं! कुल उनचास मरुत या पवन हैं।
(भविष्यपुराण, ब्राह्म पर्व, अध्याय १२५-२६)
मरुतों के 49 नाम भी जाने…यह लेख बहुत बड़ा हो रहा है। अगले किसी लेख में 49 दिति पुत्र, 49 पवन, 49 मन्त्र दोष, 49 मरुदगण, 49 कला मातृका, 49 वर्ण धर्म और ४९ वर्णाक्षर के बारे में बताएंगे। ये जानकारी भी बहुत रोचक होगी।
सप्त-मातृका…..ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी, चामुंडा। ये सात माताएं जगत की रक्षा करती हैं।
सप्तमृत्तिका यानि 7 तरह की पवित्र माटी….पूजा-पाठ कर्म में सात स्थानों की मिट्टी का ग्रहण पवित्र माना गया है। यथा- गज स्थल, अश्व स्थल, नाग-वल्मीक अर्थात बांबी की मिट्टी,, नदी-संगम, कुंड/सरोवर, गोष्ठ एवं राज्यद्वार आदि ये 7 मिट्टी पूजा में उपयोगी हैं।
गजाश्वरथवाल्मीकसङ्गमाद्धदगोकुलात्।
मृदमानीय कुम्भेषु प्रक्षिपेच्चत्वरात्तथा।
गोकुलावधि सप्त चत्वरेण सहाष्टौ मृदो भवन्ति!
(निर्णयसिंधुग्रन्थानुसार)
सप्तयक्ष….मणिभद्र, सिद्धार्थ, सूर्यतेजा, सुमना, नंदन, मणिकांत तथा चंद्रप्रभ। याद रखें-यक्षाधिपति मणिभद्र और उनके पुत्र मिलकर सप्तयक्ष बनते हैं । सर्वतोभद्रमंडल पर दक्षिण और नैर्ऋत्यकोण के बीच यम एवं निर्ऋति देवता के जो कोष्ठक हैं, उनके मध्य के कोष्ठक में सप्तयक्षों की स्थापना एवं पूजा होती है। ऐसा अनेक पुराणों में उल्लेख है।
सप्त-योनि….-नर, पशु, पक्षी, कृमि, जलजंतु, वृक्षादि, धातु।
मुख्य सप्त-रक्त (अंग)….करतल, पादतल, जिह्वा, तालु, अधर, नख, नेत्रकोण। इन स्थानों पर खून का संचार अधिक रहता है।
सप्तर्षि-सात ऋषि…(क) मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, क्रतु, वसिष्ठ, पुलह।(सप्तब्राह्मण/सप्तमानसपुत्र)
(ख) गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, कश्यप, जमदग्नि, वसिष्ठ तथा अत्रि। (भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय १२५-२६)
सप्तलोक….भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, मह:लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक।
सप्त-वार…रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार, शनिवार।
सप्तशती ….दुर्गसप्तशती। सात सौ श्लोकोंवाली। –
सप्तशिरा -नागवल्ली
सप्तांशुपुंगव- शनि
सप्ताश्व- भगवान सूर्य
सप्ताश्ववाहन- भगवान सूर्य
सप्तसर…रामसर, मानसर, मणिसर, पंपासर, नेवारिसर, गरुड़सर।
सप्तसरस्वती….-सुप्रभा (पुष्कर), कांचीनाक्षी (नैमिष), विशाला (गया), मनोरमा (उत्तरकोसल), ओघवती (कुरुक्षेत्र), सुरेणु (हरिद्वार) तथा विमलोदका (हिमालय)।
सप्तसागर …..-(क) क्षारसागर, इक्षुसागर, सुरासागर, घृतसागर, दधिसागर, दुग्धसागर, जलसागर! ‘लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवान्।’ -(ब्रह्मवैवर्तपुराण: ब्रह्मखंड, अध्याय-७, श्लोक-५)
(ख) हिंदमहासागर, प्रशांतमहासागर, अंध-महासागर, उत्तरहिममहासागर, दक्षिणहिम-महासागर, अरबसागर, भूमध्यसागर।
(ग) लवणसागर, क्षीरसागर, दधिसागर, घृतसागर, मधुसागर, इक्षुसागर, सुस्वादु (जल) सागर।(भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय-१२६)
सप्तसामगान-स्वर -षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, क्रुष्ट (धैवत) तथा अतिस्वर (निषाद)।(नारदीयपुराण : ५०, २५)
सप्तसिद्धांत….पांचरात्र, कापिल, उपरांतरतम, ब्रह्मिष्ठ, हैरण्यगर्भ, पाशुपत तथा शैव। (ये सप्तसिद्धांत हैं।) याज्ञवल्क्यस्मृति, वात्स्यायन-कामसूत्र इत्यादि ग्रंथों में उल्लेख।
सप्तसोम…अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम। (भविष्यपुराण,ब्राह्मपर्व, २.१५५)
सप्तसोमयज्ञ….अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं अप्तोर्याम! (लाट्यायनश्रौत : ५.४.३४)-
सप्तस्वर…उदात्त, उदात्ततर, अनुदात्त, अनुदात्ततर, स्वरित, स्वरितोदात्त तथा श्रुति। (ऋग्वेद-भाष्य:-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य संस्करण : १९६५, पृष्ठ-८)
सप्तस्वर्ग…भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महलोक, जनलोक, तप:लोक, सत्यलोक।
सप्तस्वार-भेद…जा.त्य, क्षेप्र, अभिनिहित, तैख्यंजन, तिरोविराम, प्रश्लिष्ट तथा अपादवृत्त! (नारदीय पुराण :५०,१२९-३०) –
सप्तहविर्यज्ञ…..अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, चातुर्मास्य, निरुठ्यशुबंध तथा सौत्रायणी। (भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, २.१५५)
सप्तेंद्रिय….आँख, कान, नाक, रसना, त्वचा, वाक् तथा मन। -(वेदांतदर्शन : पाद-४, अध्याय-२, सूत्र-५ ‘सप्तगतेर्विशेषितत्वाच्च)
ध्यान देंवें— ये सात इंद्रियाँ सात लोकों में विचरण करती हैं, उनके सात प्राण हैं। उनके अर्चिष, समिध तथा होम भी सात-सात हैं । ‘मुंडकोपनिषद्’ (२.१.८) में कहा गया है!
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति
तस्मात्सप्तार्चिषः समिधः सप्त-होमाः।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहताः
सप्त-सप्त।
सुप्-प्रत्याहारगत (सप्त) विभक्ति…
अभी भी यह ब्लॉग अधूरा है। करीब 40 ग्रन्थानुसार लेख को आगे बढ़ना है।
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