कपास, रुई भी एक औषधि है। इसकी बाती बनाकर दीपक जलाने से रोग मिटकर, धन वृद्धि होती है..

कपास की जड़ की छाल गर्भाशयसंकोचक एवं भाविजनन है। गर्भाशय पर इसको क्रिया अगटे ( Ergot) की तरह होती है। इससे गर्भाशय का अच्छी तरह संकोच होकर रक्तस्त्राव रुकता है।

इसकी अधिक मात्रा से गर्भपात होता है।

        1. प्रसव के बाद इसकी छाल का काथ पिलाने से गर्भाशय का संकोच होता है। यह आँवल ( अपरा ) गिरने के बाद पिलाना चाहिए।
        2. यदि आधे घण्टे में गर्भाशय संकुचित होकर गद की तरह न मालूम पड़े तथा नाडी की गति तेज हो तो फिर दुबारा से देना चाहिये।
        3. पीडितार्तव तथा शीत से उत्पन्न अनार्तव में छाल के क्वाथ से लाभ होता है।
        4. श्वेत प्रदर में इसकी जड़ को चावल के धोवन के साथ देते हैं।
        5. प्रसूता को दुग्ध वृद्धि के लिये बीजों की पेया बनाकर देते हैं।
        6. बीजों की चाय प्रवाहिका में उपयोगी है । शीतज्वर में ज्वर के पूर्व इसका काथ पिलाते हैं।
        7. इसके पुष्पों का शरबत उदासीनता-प्रधान मानसिक रोगों ( Hypochondriasis) में पिलाते हैं।
        8. घाव में रुई जलाकर भरने से रक्तस्राव रुकता है तथा घाव जल्दी अच्छा होता है। रुई का उपयोग शीत से रक्षा, उष्णता पहुँचाने तथा व्रण संरक्षण के लिये करते हैं। (५) इसके कोमल पत्तों का रस आमातिसार में देते हैं।

संस्कृत का एक श्लोक कपास को समर्पित है।

कार्यासी तुण्डकेशी च समुद्रान्ता च कथ्यते।

कार्पासकी लघु कोष्णा मधुरा वातनाशिनी ।।

‘कपास’ के फायदे, नाम तथा गुण – कार्पासी, तुण्डकेशी और समुद्रान्ता ये सब नाम ‘कपास’ के हैं। कपास-लघु, किञ्चित् उष्णवीर्य, मधुर तथा वातनाशक होता है।

  • कपास अथ तत्पत्रबीजयोगणानाह

तत्पलाशं समीरघ्नं रक्तकृन्मूत्रवर्द्धनम्।

तत्कर्णपिडकानादपूयास्रावविनाशनम्॥ १५१ ॥

तबीजं स्तन्यदं वृष्यं स्निग्धं कफकरं गुरु॥ १५२॥

कपास के पत्ते तथा बीजों के गुण-कपास के पत्ते-वायुनाशक, रक्त तथा मूत्रवर्धक होते हैं।

कपास का तेल कर्णपिडका (कान की फुन्सी), कर्णनाद (कान में शब्द होना) और कर्णप्यास्राव यानि कान से पीव का आना इन सब को नाश करने वाला होता हैं।

  • कपास के बीज दुग्धवर्धक, वृष्य ( वीर्यवर्धक ), स्निग्ध, कफकारक तथा पाक में गुरु होते हैं ॥ १५१-१५२ ।।

कपास के पास भी अनेक नाम उपलब्ध हैं।

    • हिंदी में-कपास, रूई।
    • मराठी में-कापसी, कापूस।
    • गुजराती में बोण, कपास।
    • बंगाली में-कार्पास, तुला
    • तेलगु में-पत्तिचेट टु, कार्पासमु।
    • कन्नड़ में-हत्ति। तामिल में-परुत्ति ।
    • फारसी में-पंबः।
    • अरबी भाषा में-नवातुलकुल।
    • अंग्रेजी में-Cotton Plant (कॉटन प्लॅण्ट), Indian Cotton ( इण्डियन कॉटन )। ले०-Gossypium herbaceum Linn. (गॉसिपिअम् हर्बेसिअम् लिन.); Fam. Malvaceae (मालवेसी)
  • कपास के बीज के नाम-हिंदी में-बिनौला। मराठी भाषा में-सरकी। गुजरात-कपासिया। मा०-कांकड़ा अरबी-हब्बुलकुत्न। फारसी-पंबः दाना।

कपास या रूई यह सुप्रसिद्ध द्रव्य है। भारतवर्ष के अनेक भागों में बहुलता से इसकी खेती को जाती है। भारत के महाराष्ट्र में तथा मिस्र, अमेरिका तथा संसार के अन्य उष्ण प्रदेशों में भी इसकी खेती की जाती है।

यह गुल्म जाति की वनस्पति ४-५ फीट तक ऊँची होती है। इसके पत्ते-हाथ के पंजे के समान कई मागों में विभक्त रहते हैं। प्रायः ३ से ७ भाग तक देखने में आते हैं।

  • कपास के फूल-घंटाकार पीले रक के होते हैं, उनके बीच का हिस्सा बैंगनी रङ्ग का होता है।
  • कपास के फल-डोडी या फल गोलाकार रोता है तथा उसके भीतर सफेद रूई से लिपटे हुये ५-७ बीज होते हैं।
  • कपास के बीज-किंचित् काले रङ्ग के, चने के समान गोल होते हैं और उनके भीतर सफेद मज्जा होती है।
  • कपास की जड़-बाहर से पीले रङ्ग की तथा अन्दर से सफेद होती है। जड़ की छाल गंधयुक्त, पतली, चिमड़, रेशेदार, धारीदार एवं करीब १ फीट तक लम्बी होती है।
  • कपास की छाल का स्वाद कुछ तीता एवं कषाय होता है।
  • कपास प्रतिवर्ष प्रायः चौमासे के आरम्म में खेतों में बीजों को रोपण करते हैं, और फाल्गुन-चैत में रूई संग्रह कर पौधे को काट कर खेत साफ कर देते हैं।

कपास की जाति-इसकी निम्न अन्य जातियाँ भो पाई जाती हैं। देशभेद से भी यह अनेक प्रकार का होता है।

उद्यान कार्पास-सं०-उद्यानकासि । हि०-ना । म०-देवकापसीण । गु०-हिरवणी । पं०-कपस । संता०-बुदिकरकोम । ले०-Gossypium arboreum Linn. ( गॉसिपिअम् आयोरिअम् लिन.)।

  • यह एक प्रकार की कपास होती है, जिसका बागों में रोपण करते हैं। इसके पौधे-बहुवर्षायु, ८-१० फीट तक ऊँचे होते हैं। पत्ते और फल भी कुछ बड़े होते हैं, तथा फूल लाल रंग के होते हैं।

-अरण्य कार्पासी-सं०-भारद्वाजी (च० सू० अ० ४, रा० नि०) । हि०-जंगली कपास, वनकपासी। म०-रानकापूस । ले०-Thes pesia lampas Dalz & Gibs ( थेस्पेसिआ लॅम्पस् डा., गि.)।

यह जाति जंगलों में स्वयं उत्पन्न होती है। इसके चुप-झाड़ीदार, दृढ़ तथा ४-६ फोट ऊँचे होते हैं। पत्ते-करतलाकार, ३ खण्डयुक्त या अखण्ड एवं व्यास में ४-५ इन्च होते हैं । फूलपीले रङ्ग के तथा मध्य में प्रायः लाल रङ्ग के होते हैं । इसकी रुई कुछ पीताम होती है।

  • कपास का रासायनिक संगठन-कपास की जड़ की छाल में एक रङ्गहीन या पीताम अम्ल राल ८% तक पाई जाती है जो आक्सीजन के संयोग से चमकीले रक्ताम भूरे रङ्ग की हो जाती है।
  • इसके अतिरिक्त कपास में डिहाइड्रोक्सि बेन्जोइक एसिड ( Dihydroxy benzoic acid ), सॅलिसिलिक एसिड ( Salicylic acid ), स्नेहाम्ल, बिटेन ( Betaine ), सेरिल अॅल्कोहोल ( Cery! alcohol ), फाइटोस्टेरॉल ( Phytosterol ), शर्करा एवं फेनॉल के सदृश दो पदार्थ पाये जाते है।
    • कपास के बीजों में १०-२९% हलके पीले रङ्ग का गन्धहीन तथा स्वादहीन तैल पाया जाता है जिसमें ग्लिसराइड्स, स्नेहाम्ल, फॉस्फोलिपिन्
    • (Phospholipin ), फाइटोस्टेरॉल
    • (Phytosterols) तथा रंजक द्रव्य पाये जाते हैं। तैल के फेनॉलयुक्त भाग से एक सुनहले वर्ण का गॉसिपॉल ( Gossypol) नामक विषैला रवेदार पदार्थ पाया जाता है जो जल में नहीं घुलता किन्तु मद्यसार आदि अन्य द्रवों में घुलता है । यह छाल में पाया जाता है।

कपास के गुण और प्रयोग-कपास के बीज-स्तन्यजनन, स्नेहन, संसन, श्लेष्म निःसारक, बल्य एवं नाडीसंस्थान के लिये पौष्टिक हैं।

कपास की रुई उपशोषण तथा रक्षण है। पुष्प-उत्तेषक तथा सौमनस्यजनन हैं। कोमल पत्ते-स्नेहन तथा मूत्रजनन हैं। तैल-स्नेहन, पौष्टिक तथा अधिक मात्रा में स्निग्ध विरेचक है।

  •  आधा माशा ।

इसमें कपास का अपेक्षा: ना अधिक रहने के कारण इसके पत्ते तथा जड़ का पों में अधिक उपयोग करते हैं । मूत्रकृच्छ्र में पत्तों को दूध में पोसकर पिलाते हैं।

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