श्राध्द की सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत समझाईस आप पहली बार पढ़ेंगे–सन 2020 में 1 सितम्बर से आरम्भ होकर–17 सितम्बर को समाप्त होंगे।
पितृपक्ष हिंदुओं का महापर्व है–
श्राद्ध को गरुड़पुराण में महापर्व इसलिए बताया है क्योंकि नवदुर्गा महोत्सव नौ दिन का होता है, दशहरा पर्व दस दिन का होता है, पर यह पितृ पक्ष सोलह दिनों तक चलता है।
क्यों जरूरी है श्राद्ध, क्या है? पितृ पक्ष का महत्व और क्या है सही तरीका..
पूर्वजों का कर्ज चुकाने के लिए जरूर करें श्राध्द। पितृपक्ष या कड़वे दिनों में हरेक हिन्दू को करना चाहिए। सम्पत्ति-सन्तति एवं सुखी जीवन के लिए आवश्यक है।
ढोल ग्यारस श्री गणेश विसर्जन के 3 दिन बाद भादों या भाद्र माह की पूर्णिमा से एक दिन पहले अनंत चतुदर्शी से अपने पितृ-पूर्वजों की आत्मा की शांति तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व शुरू हो जाता है।
दुर्गा सप्तशती केे रचनाकार एवं महामृत्युंजय मंत्र के अविष्कारक परम शिवभक्त ऋषि मार्केंडेयश्वर ने “मार्केंडेय पुराण” में लिखा है- पितरों के निमित्त की गई सेवा और उनके स्मरण को श्राद्ध कहते हैं।
श्राद्ध ही मनुष्य को सुखी बनाता है…
श्राद्ध कर्म से सांसारिक जीवन, इहलोक एवं परलोक सुधरता है। दुनिया में जितने भी अमीर धनाढ्य लोग हैं, उन पर पितरों का विशेष आशीर्वाद है। हमारी पूजा-पुण्य का फल पितृगण ही दिलवाते हैं। पितृ के रूठने से कोई पूजा नहीं लगती।
शिवसहिंता तथा मार्केंडेय पुराण के अनुसार पितृगण श्राद्ध से तृप्त होकर परिवार को स्वस्थ्य जीवन देकर दीर्घायु बनाते हैं।
सन्तति यानि संतान, पुत्रादि, धन, विद्या एवं सम्पूर्ण सुख-सम्पन्नता प्रदान करते हैं।
तैत्तरीय ब्राह्मण उपनिषद में तो इतना तक कह है कि-देवताओं और पितरों के कार्य में प्रमाद, आलस्य करने से आने वाली पीढ़ी अविवाहित रहकर फटेहाल जिंदगी गुजरती हैं।
श्राध्द न करने लगता है पितृदोष और पितृदोष कभी आत्मा को पवित्र और जीवन को प्रकाशवान नहीं होने देता..
पितृगण हमारे पूर्वज हैं, इनके कोई न कोई उपकार, एहसान के चलते जिनका ऋण हमारे ऊपर रहता है।
ईश्वर सबका है, लेकिन पितृगण केवल हमारे रक्तसम्बन्धी तथा गोत्री होते हैं। श्राध्द करने से ये हमें आशीर्वाद देते हैं। प्रपञ्चसार सहिंता के अनुसार पितृ परमात्मा के प्रतिनिधि होते हैं। हमारे द्वारा कोई भी पूजा-पाठ, मन्त्र जाप ये ही भगवान तक पहुंचाकर हमें सुखी-सम्पन्न बनाने हेतु शिव से निवेदन कर स्वयम भी प्रसन्न होते हैं।
6 ऐश्वर्य प्रदान करते हैं पितृगण…
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस: श्रिय:।
ज्ञान वैराग्ययोश्चेव षण्णां भग इतिरणा।।
अर्थात- ऐश्वर्य, धर्म, यश-कीर्ति, ज्ञान और वैराग्य ये छः जहां सम्पूर्ण रूप से हों उसे भग यानि भाग्य कहते हैं। महाभाग्यशाली वही लोग हो पाते हैं, जो पितृऋण मुक्त होते हैं।
अमृतनादोपनिषद, अनुष्ठान प्रकाश, तंत्रालोक आदि ग्रंथों में महाभाग्यशाली बनने के अनेकों सूत्रों का वर्णन है। कहा गया है कि पितृऋण और पितृदोष से पीड़ित व्यक्ति 6 प्रकार के भोग-विलास, सुख से हीन रहता है। अत्यधिक नकारात्मक यानि निगेटिव सोच से भरे होते हैं।
आठ प्रकार की गरीबी से परेशान…
पितृऋण न चुका पाने के कारण ऐसे अनेको लोग आठ प्रकार के दरिद्र से दुखी रहते हैं। यह अष्टदरिद्र दूर करने के लिए “जगतगुरु आदिशंकराचार्य” ने लिं
अष्टदरिद्र विनाशन लिंगम।
तत्प्रणमामी सदाशिव लिंगम।।
अर्थात- आठ तरह की दरिद्रता से मुक्ति पाने के लिए महादेव की उपासना यानि शिंवलिंग पर दही से रुद्राभिषेक करना चाहिए। अथवा 12 रविवार तक श्वान/कुत्ते को दही खिलाना चाहिए।
पितृऋण एवं शाप…
सन्सार में हरेक इंसान पर पिता का ऋण होता है। पिता पक्ष के लोगों को जब मुक्ति नहीं मिलती, तो वह पितृदोष से पीड़ित कर विभिन्न समस्याओं को खड़ा करते रहते हैं।
पितरों यानि पितृपक्ष का कुनबा…
पिता के पिता, बाबा, परबाबा, पिता के भाई यानी चाचा-ताऊ तथा पिछली तीन पीढ़ी की मृतात्माओं को मुक्ति न मिल पाने के कारण उनकी आत्मा भटकती रहती है, जिससे उनका शाप या बददुआ हमारे जीवन को प्रभावित करती है। ये आत्माएं हमारे घर में ही आंशिक रूप से वास करती हैं।
घर-परिवार में शिवजी की पूजा-पाठ, अनुष्ठान से यह प्रसन्न होती हैं और आलस्य, अय्यासी, हरामखोरी, मस्ती, आपसी विवाद और आपस में सुमद या सामंजस्य न होना, क्लेश से दुखी होकर हमें प्रताड़ित करती रहती हैं।
बुजुर्गों की वाणी है….
जहां सुमद, वहां सम्पद नाना।
जहां कुमद, वहां विपद निदाना।।
कहने का अर्थ यही है कि जिस घर-परिवार में आपसी तालमेल, प्रेमभाव हो वहां अनेक प्रकार के सुख और सम्पत्ति का वास होता है। इसके उलट जिस घर में रोज क्लेश तथा किच-किच होती है, वहां से लक्ष्मी चली जाती है। इसीलिए घर को मंदिर कहा गया है।
पितृदोष से पतन के लक्षण…
अधिकांश कानूनी उलझन, मुकदमेबाजी, जेल योग, कलंक आदि बदनामी, अपंगता, असाध्य रोग केन्सर एवं संतान न होना, वंश का नष्ट होना आदि दिक्कतें पितृदोष के कारण होती है।
पिता आकाश है….
“वराहपुराण” के मुताबिक माँ धरती और पिता आकाश है।
पिता ही हमें आकाश जैसी छत्र-छाया देता है। अंतिम समय तक दुःख-पीड़ा को अपने ऊपर लेकर पिता ही कर्म करना सिखाता है।
ज्योतिष के मुताबिक….
पिता और कर्म दोनों का स्थान दशम है..
जन्मकुंडली में लग्न से दशम भाव केंद्र स्थान है। फारसी में इस भाव को शाहखाने, बादशाहखाने कहते हैं। यह एक उपचय यानि वृद्धिकारक भाव भी है। जन्म पत्रिका में इस दशम भाव से व्यक्ति की उन्नति एवं वृद्धि देखी जाती है।
यह तीन अन्य केन्द्रों लग्न, चतुर्थ तथा सप्तम भाव से अधिक बली भाव है। दशम भाव पिता का स्थान है। इससे कर्म, व्यवसाय राज्य का विचार किया जाता है| इन विषयों के अतिरिक्त सम्मान, पद-प्राप्ति, आज्ञा, अधिकार, यश, ऐश्वर्य, कीर्ति, उन्नति-अवनति, यश-अपयश, मंत्रीपद, राजकीय सम्मान, नेतृत्व, आदि का विचार भी इसी भाव से किया जाता है।
सास का स्थान भी है-दशम भाव….
दशम भाव जीवनसाथी की माँ अर्थात जातक की सास का प्रतीक भी है। क्यों कि कुंडली में सप्तम भाव पत्नी का है और यहां से चौथा यानी लग्न से दशम हाउस पत्नी की माँ अर्थात व्यक्ति की सासु मां का होता है।
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पितृदोष का प्रभाव..
जो लोग पितृऋण से मुक्त नहीं होते उन्हें जीवन में दशम भाव से सम्बंधित कार्यों में लाभ की जगह हानि होती है। पिता का प्यार तथा सास का दुलार नहीं मिलता। हर कर्म व्यर्थ जाता है। यश-कीर्ति, सम्पदा रूठ जाती है। व्यापार में नुकसान रहता है। पार्टनर धोखा दे जाते हैं। उनसे 6 तरह के ऐश्वर्य दूर रहते हैं। ईश्वर भी नहीं सुनता।
शास्त्रों की सच्चाई…
मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य,
मन्त्रर्थाभिधान पितृग्रन्थ और विज्ञान भैरव आदि किताबों में कहा गया है-
“यत पिंडे तत् ब्राह्मांडे”
अर्थात… मानव शरीर ब्रह्माण्ड का ही स्वरूप है। यह शरीर रूपी पिण्ड कहाँ से आता है।और कहां जाता है। दरअसल यह तन ब्रह्माण्ड का अंग है और यह तन ब्रह्म से उत्पन्न होकर उसमें ही समा जाता है। शास्त्रों में इसकी बहुत ही वैज्ञानिक व्याख्या की गई है।
कैसे होती है मनुष्यों की उत्पत्ती….
कोई भी प्राणी शरीर से पूर्व माँ के गर्भ में रहता है। फिर माता के गर्भ से पहले पिता के पेट में, इसके बाद बिंदु अर्थात वीर्य में रहता है। ऋषिगण कहते है-पिता का वीर्य गेहूं से बनता है। गेहूं खेत में उत्पन्न हुआ।
गेहूं को पंचमहाभूतों ने पैदा किया।
पंचतत्वों में मुख्य रहा जल, जल चन्द्रमा से उत्पन्न हुआ बताते हैं। अग्नि ने अन्न को पकाया। अग्नि की उत्पत्ति सूर्य से हुई बताते हैं। पृथ्वी में खेत की मिट्टी का मालिक मङ्गल है। इसलिए अन्नदान सबसे मङ्गल कार्य माना जाता है। आकाश तत्व से हर वस्तु में मुलायम पन आता है।
महर्षियों के महाविज्ञान को समझें…
हमारे जीवन का निर्माण कर उसे चलायमान रखने में सबसे ज्यादा महत्व नवग्रहों की रश्मियों का है, जो दीपदान करने से हमें सकारात्मक ऊर्जा शक्ति देकर हमारी रक्षा करती हैं।
कुंडली में जिस ग्रहों के तत्वों की अधिकता होती है। उन्हीं ग्रहों की कलाओं को लेकर हमारा शरीर उत्पन्न होता है। ग्रह-नक्षत्र, राशि और रश्मियों के द्वारा ही हमारा भाग्य-दुर्भाग्य, योग-दुर्योग, अमीरी-गरीबी तथा सुख-दुःख निर्धारित होता है।
राहु-केतु की कलाकारी..
नो ग्रहों में राहु-केतु छाया ग्रह हैं। यह दोनों सदैव वक्री रहते हैं। इनकी छत्रछाया में रहने वाला व्यक्ति शून्य से शिखर पर पहुंच जाता है और इनकी कुदृष्टि या कालीछाया से व्यक्ति शिखर से शून्य पर आकर काला पड़ जाता है। हर जीव-जगत के पाप-पुण्य का लेख-जोखा राहु-केतु के पास रहता है उसी के अनुसार यह जातक को सफलता-असफलता प्रदान करते हैं।
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लोक-त्रिलोक की मान्यता….
मनुष्य लोक से ऊपर पितृलोक है। इसके ऊपर सूर्यलोक है फिर, स्वर्गलोक है।
श्रीमद्भागवत गीता तथा महानिर्वाण तन्त्र के हिसाब से आत्मा इस जीर्ण-शीर्ण शरीर को त्यागकर ऊपर की उठकर पितृलोक में जाती है, जहां हमारे पितृ-पूर्वज मिलते हैं।
यदि आत्मा पुण्य-पवित्र होती है, तो वह सूर्यलोक की तरफ बढ़ती है और यदि वह बहुत ही पुण्यात्मा है, तो उसे स्वर्ग का मार्ग सरलता से मिल जाता है। लेकिन ऐसी करोड़ों में से एक होती है, जो परमात्मा शिव से मिल पाती है। जिन्हें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता। यह मोक्ष कहलाता है।
पितृदोष पनपने का कारण….
मनुष्यलोक में रह रही आत्मा को जब मुक्ति या शांति नहीं मिलती, तो वे पिशाच योनि में रहकर सब अनिष्ट करती रहती है। पितृलोक में बहुत सी आत्माएं अपनी इच्छा और मोहवश द्वारा अपने कुल या रक्तसम्बन्धियों के यहां जन्म लेती हैं। इसलिए कभी-कभी जन्मे बच्चे की आदत कुल के पूर्वजों से बहुत मिलती-जुलती हैं।
श्राद्ध से पितृ होते हैं प्रसन्न….
हमारे पितृ किस योनि को भोग रहे हैं यह जानना मुश्किल है। वायुपुराण में
बताया है कि देवयोनि में गए पितृ अमृत यानि हवन में अर्पित घी के रूप में, मनुष्य योनि में गए पितृ अन्न के रूप में तथा अन्य जीव-कृमि योनि में गए पितृ तृण यानि ओषधि या चारे के रूप में इसके अतिरिक्त
दूसरी योनियों में गए पितृ श्राध्दिय वस्तु को
भोगजनक पदार्थ के रूप में ग्रहण करते हैं।
जिस तरह एक बछड़ा हजारों गायों में अपनी माँ को पहचान कर दूध पी लेता है। वैसे ही पितृ भी अपने वंशजों द्वारा किये गए श्राद्ध को पहचान कर भोज्य पदार्थ ग्रहण कर लेते हैं।
श्राध्द करते समय जरूरी वस्तुएं….
विष्णु और गरुड़ पुराण के मुताबिक—तिल, कुशा, गीतापाठ, ईश्वर का ध्यान और शिवलिंग की पूजा, पंचाक्षर मन्त्र का जाप अत्यन्त पवित्र माने गए हैं।
श्राध्द के लिए दुपहर 11.40 से 12.50 का समय विशेष बताया है।
श्राध्द में जिन ब्राह्मणों को भोजन करावें, उनसे 5 माला पितरों के निमित्त गायत्री मंत्र की करना बहुत श्रेष्टकारी रहता है।
कैसे करना है पितरों का ध्यान और पूजा..
लकड़ी के एक पाटे पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर स्टार/सितार बनाकर 5 दिशाओं में पान, केले, पीपल आदि के 5 पत्ते रखकर
इन पर गंगाजल छिड़ककर पितरों के निमित्त
उनका ध्यान करके सभी पत्तों पर एक-एक सफेद फूल, तुलसी पत्र, मक्ख़न-मिश्री एवं घर की बनी हुई 2-2 पूड़ी, सब्जी, खीर, मालपुए, दहीबड़े या जो भी उपलब्ध हो वह सब रखें।
इस चौक पर पश्चिम दिशा के कोने पर गाय के लिए, दक्षिण में कुत्ते के लिए, उत्तर में कौए के लिए तथा चौक के बीचोंबीच
देवों के लिए एवं पूर्व में चीटिंयों के लिए पत्तों पर भोजन आदि रखकर छोटे से हवन कुंड में कंडे की अग्नि पर पितरों का ध्यान करते हुए इस मंत्र को बोलते हुए हवन में भोज्य पदार्थ का नैवेद्य छोड़ते जाएं-
ॐ उदानाय स्वाहा
ॐ व्यानाय स्वाहा
ॐ समानाय स्वाहा
ॐ अपानाय स्वाहा
ॐ प्राणाय स्वाहा
ॐ पितरेश्वराय नमः
ॐ पितृमातृकाएँ नमः
ॐ मातृमातृकाएँ नमः
ॐ कुल देवता, ग्राम देवता, स्थान देवता नमः
इस हवन से उठे धुएं को धूप देना कहते हैं।
गाय, चींटी को निकाल गया भोग जिन्हें बलि देने कहा जाता है। इनमें से देवताओं वाला ग्रास परिवार के सदस्य भी खा सकते हैं। शेष जिनके लिए निकाला गया है, उन्हें खिलावें।
अमावस्या का महत्व…
जातक-परिजात, रुद्रमहालय तन्त्र के अनुसार पितृपक्ष के अंतिम दिन अमावस्या को उपरोक्त तरीके से श्राध्द करने से निश्चित सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
धन बिन न रहें उदास…
सभी ग्रन्थ शास्त्रों का एक साथ मत है कि किसी न किसी तरह श्राध्द अवश्य करना चाहिए। जगतगुरु आदिशंकराचार्य के अनुसार मानसिक रूप से भी की गई पूजा, ध्यान भी पितृगण स्वीकार करते हैं। यदि शिंवलिंग पर एक लोटा जल ॐ पितरेश्वराय नमः कहकर 2 सफेद फूल भी श्रद्धा से चढ़ाकर प्रार्थना करें, तो भी पितृ प्रसन्न हो जाते हैं।
■ यदि धन का बहुत ज्यादा अभाव हो तो अपने पितरों की तिथि में घांस काटकर गाय को खिलावें।
■ गरीब बच्चों को दही-जलेबी खिलाएं
पितृदोष से पीड़ित होने पर करें यह उपाय
●किसी शिवभक्त सदगुरू की शरण में जावें
● गुरुमन्त्र लेकर जाप करें
● प्रतिदिन राहुकाल में राहुकी तेल के दीपक जलाकर पंचाक्षर मन्त्र का जाप करे।
● प्रत्येक रविवार दही-जलेबी, गरीबों को खिलाएं
● शिंवलिंग पर नारियल का जल चढ़ाएं
● पक्षियो की नमकीन चुगाये।
● किसी विधवा स्त्री की कन्या का विवाह करावें।
● किसी गरीब लड़की की शादी में बिस्तर सहित पलंग दान करें।
● हर महीने की मास शिवरात्रि अर्थात अमावस्या के एक दिन पहले कृष्ण चतुर्दशी को अमृतम मधु पंचामृत से रात्रि में शिंवलिंग पर रुद्राभिषेक कराकर 27 दीपक राहुकी तेल के जलावें।
हमें सामाजिक और पारिवारिक पहचान मिले इसके लिए श्राद्ध कर्म के रूप में अपने पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक कुशा-जल, पुष्प द्वारा अपनी भावभीनी श्रद्धाजंलि अर्पित कर आशीर्वाद के आकांक्षी बने।
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