श्रीयंत्र में 2896 देविय शक्ति और 96
देवताओं का वास होता है।
करीब 80 प्राचीन तांत्रिक ग्रंथों, उपनिषदों,
सूर्य शांति कल्प आदि किताबों की कठिन,
जटिल भाषा शैली को बहुत ही सरल शब्दों
में लिखने का विनम्र प्रयास किया है।
उम्मीद है कि अनृतम पाठको को समझ आएगा।
॥श्री यन्त्रम॥ के दुलभ रहस्य जानकर
चकरा जाओगे। क्योंकि यंत्रराज –
श्रीयंत्र सिद्धि- समृद्धियों का खजाना है।
श्रीयंत्र पूजन में यंत्र निर्माण एवं सविधि पूजा का विशेष महत्व है। यंत्र निर्माण मुख्य रूप से सूर्य
एवं चंद्र ग्रहण, रवि एवं गुरु-पुष्य योग, दीपावली, महाशिवरात्रि आहे शुभ मुहूर्त में किया चाहिए।
विविध कामना अलग-अलग धातु निर्माण का
शास्त्रीय उपलब्ध होता है।
पीतांबरा पीठ दतिया मप्र के अधिपति
स्वामी जी महाराज अक्सर श्रीयंत्र की
चर्चा करते थे।
गुरुदेव के अनुसार मानव शरीर श्रीयंत्र
की ही परिकल्पना है। यह 16 वो 64
त्रिकोण से निर्मित होता है।
तंत्र संहिता के अनुसार मनुष्य के देह में
64 त्रिकोण विराजमान हैं। जिसे जानकार
तांत्रिक योग मुद्रा बनाकर सिद्धि पाते हैं।
श्रीयंत्र के अदभुत फायदे…
श्रीयंत्र दैत्य, दानव, कालाजादू, तंत्र टोटके,
मारण, मोहन, सम्मोहन, मूठ, देवी प्रकोप,
दरिद्रा दोष, वास्तुदोष, काया कोप और
देवता तक से रक्षा कर समस्त बाधामुक्ति
में सहायक होता है।
श्रीयंत्र में सम्पूर्ण सृष्टि केअनेकानेक
देवी-देवताओं का वास है। अतः इसे
समृद्धि का देवद्वार भी कहा जाता है।
कौलावीनिर्णय
में वर्णन है किबिना यंत्रेण चेत्पूजा देवता न प्रसेसीदतीनिर्णय।।
अर्थात बिना यंत्र के देवपूजा निष्फल है।
यही कारण है कि
श्रीनाथ द्वारा मंदिर राजस्थान में सुदर्शन चक्र, जगन्नानपुरी में भैरवी चक्र तथा
तिरुपति बालाजी मंदिर में स्थापित श्रीयंत्र
का प्रभाव एवं चमत्कार देश-विदेश के
श्रद्धालुओं को सर्वविदित है।
दुनिया के सभी प्रसिद्ध प्राचीन देव स्थलों में
श्रीयंत्र विराजमान है। यहां तक भी विश्व के
अनेक संसद भवन में श्रीयंत्र स्थापित है।
श्रीयंत्र अथवा चक्र को यंत्रों के राजा
अर्थात् यंत्रराज के रूप में जाना जाता है।
यह षोडशी यंत्र के नाम से भी प्रसिद्ध है।
शक्तिसंगमतंत्र ग्रंथ के अनुसार यंत्र में अथाह
गुप्त शक्तियां गुम्फत होती हैं। कोई भी यंत्र हो,
उसमें तंत्र मंत्र की शक्तियों को नियंत्रित करने
की असीम क्षमता होती है।
कालीतंत्र के मुताबिक जो घर या मंदिर श्रीयंत्र
रहित हो, वहां ऊर्जा या एनर्जी कम या नहीं होती।
इसीलिए सौंदर्य लहरी में हरेक घर या देवालय
में श्रीयंत्र अवश्य लगाना चाहिए।
यंत्र का उपयोग देवता विशेष की पूजा एवं
विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हेतु होता है। यंत्र
देवता रूपी महामंत्र है इस पर पूजित देवता
शीघ्र प्रसन्न होकर मनोकामना पूर्ण करते हैं।
तंत्रराज, श्रीविद्यार्णव, त्रिपुरारहस्य,
परशुरामकल्पसूत्र, नित्योत्सव,
यंत्रमहावर्णव, सौंदर्यलहरी एवं
नित्यशोडशार्णव आदि
धर्मशास्त्रों एवं तांत्रिक ग्रंथों में
श्रीयंत्र की महिमा प्रतिपादित
करते हुए इसे यंत्रराज की संज्ञा
से विभूषित किया गया है।
श्रीयंत्र सर्वविध रक्षा का एक साधन है,
जो मृत्यु के देवता तक से रक्षा कर
बाधामुक्ति में सहायक होता है।
श्रीयंत्र की रचना अदभुत है।
बिंदु-त्रिकोण – वसुकोण- दशारयुग्मम,
मन्वस्त्र -नागदल – संयुयत – षोडशारम
वृत्त-त्र्यं च धरणी-सदन-त्र्यं च
श्रीचक्रमेतदुदितं पर देवतायाः।।
यह श्लोक श्रीयंत्र की रचना को स्पष्ट करते
हुए बतलाता है कि इसकी रचना बिंदु त्रिकोण,
वसुकोण, दशारयुग्म, चतुर्दशार, अष्टदल,
षोडशार, तीन कोण महालक्ष्मी (लक्ष्मी नहीं)
एवं बिंदु भगवती अर्थात् पूर्णता का प्रतीक है,
जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया को अभिव्यक्ति
करती है, इन तीनों का संयोग ही त्रिकोण है।
इस प्रकार ४३ त्रिकोण, २८ मर्म स्थान तथा
२४ संधियों से युक्त इसका संनिवेश मनोहर
और विन्यास विचित्र है।
इसमें कुल २८९६ देवियों एवं ९६ देवताओं का
वास है। नित्यषोडशिकार्णव में उल्लेख है।
।।संस्थितात्र महाचक्रे श्रोत्रिपुरसुंदरी।।
अर्थात श्रीमहात्रिपुरसुंदरी श्रीयंत्र में निवास
करती हैं। यह उनका दिव्यधाम तथा दिव्यरथ है,
जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। सृष्टि की समस्त वस्तुओं का इसमें समावेश है।
श्रीयंत्र के नवचक्रों का बहुत महत्त्व है, इन्हें ‘नवचक्रेश्वरी’ के नाम से जाना जाता है..
चतुर्भिः शिवचक्रेश्च शक्तिचक्रेश्च पंचभिः।
नवचक्रेश्च संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥
श्रीयंत्र में चार ऊपर मुख वाले त्रिकोण
जिन्हें शिव त्रिकोण तथा पांच नीचे
मुखवाले त्रिकोण जिन्हें शक्ति
त्रिकोण के नाम से जाना जाता है।
इस प्रकार त्रिकोण, अष्टकोण, दो दशार,
चतुर्दशार ये पांच शक्ति तथा बिंदु,
अष्टकमल, षोडशदल कमल और
चतुरस्र ये चार शिवचक्र के नाम से
जाने जाते हैं, जो आपस में एक-दूसरे
से मिले हुए हैं। बिंदु से भूपुर तक इस
यंत्र को तीन भागों
में बांटा गया है—
भूपुर से अष्ट दल ‘तक ‘सृष्टिचक्र’,
चतुर्दशार से अंतर्दशार तक ‘स्थितिचक्र’
और अष्टार से बिंदु तक ‘संहारचक्र’।
इन चक्रों को त्रिपुर भी कहा जाता है।
श्रीयंत की प्रधान नायिका श्रीमहात्रिपुरसुंदरी है जिनका मुख्य स्थान बिंदु है, जो शिव की
आदिशक्ति महादेव की पत्नी महालक्ष्मी का
प्रतीक है क्योंकि बिंदु से ही सभी प्रकार की
इस रेखाएं और त्रिकोण बनते हैं।
लक्ष्मी और महालक्ष्मी में फर्क….
स्कंधपुराण के अनुसार लक्ष्मी चंचला है, जो
श्रीहरि विष्णु की पत्नी के नाम से पूज्यनीय हैं।
ये स्थाई रूप से खून भी वास नहीं करती है।
लक्ष्मी सदैव आती जाती रहती है।
स्थाई धन संपदा, महालक्ष्मी की कृपा पाने के
लिए केवल महादेव की शक्ति महात्रिपुरसुंदरी
महालक्ष्मी की पूजा का विधान है, जो श्रीयंत्र
में स्थित है।
अधिकांश लोग चंचला लक्ष्मी की पूजा
आराधना करते हैं। इसलिए पैसे की
तंगी बनी रहती है।
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श्रीविद्या का यंत्र….
श्रीयंत्र श्री विद्या का यंत्र है। यह श्रीविद्या
के पंचदशाक्षरी बीज मंत्रों से बना है।
तंत्रशास्त्र में—
कालीतारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी,
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
मातंगी सिद्धविद्या च कथिता बगलामुखी,
एता दशमहाविद्या सर्वतंत्रेषु गोपिता।। इन दशमहाविद्याओं का बहुत महत्त्व है।
शक्ति साधना में काली और तारा महाविद्या,
षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता तथा
धूमावती विद्या तथा मातंगी, कमला और
बगलामुखी जो सिद्धविद्या के नाम से प्रसिद्ध हैं।
इन विद्याओं में षोडशी अर्थात श्री की विद्या
को श्रीविद्या के नाम से जाना जाता है।
ललिता, राजराजेश्वरी, महात्रिपुरसुंदरी तथा बालापंचदशी श्रीविद्या के ही प्रमुख नाम हैं।
शिव, श्रीयंत्र और इसकी विद्या की आराधना
से भोग और मोक्ष दोनों की ही प्राप्ति होती है –
यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोक्षो,
यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोगः।
श्रीसुंदरी सेवनतत्पराणां, भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव। अर्थात जहां भोग है वहां मोक्ष नहीं।
जहां मोक्ष है वहां भोग नहीं, किंतु
श्रीत्रिपुरसुंदरी की सेवा-सुश्रुषा में भोग
और मोक्ष दोनों की प्राप्ति में आदि होती है।
शिव शक्ति साधना अनंतगुणा फलदायी.…
शिव मंत्र और श्रीयंत्र की विधिवत् साधना हेतु गुरुदीक्षा आवश्यक है। गुरु द्वारा अभिषिक्त
साधक को फलप्राप्ति शीघ्र होती है।
श्रीयंत्र की पूजा अर्चना सामान्य जन द्वारा भी आसानीपूर्वक की जा सकती है।
सामान्यजन को पूजन आरंभ में श्रीगणेश
एवं गुरु का स्मरण आवश्यक है।
श्रीयंत्र पूजन में यंत्र निर्माण एवं सविधि पूजा
का विशेष महत्त्व है।
केसे करे श्रीयंत्र निर्माण या स्थापना…
यंत्र निर्माण मुख्य रूप से सूर्य एवं चंद्र ग्रहण,
रवि एवं गुरु-पुष्य योग, दीपावली की अर्धरात्रि, नवरात्र, महाशिवरात्रि आदि शुभ मुहूर्त में किया
जाना चाहिए।
विविध कामना हेतु अलग-अलग धातु के
श्रीयंत्र निर्माण का शास्त्रीय विधान उपलब्ध
होता है।
सौभाग्य एवं अष्टसिद्धियों की प्राप्ति हेतु
त्रिलोह (समभाग सोना-तांबा-चांदी),
धन-पुत्र-पत्नी एवं यश प्राप्ति हेतु
प्रवाल – पद्मराग, इंद्र नीलमणि,
नीलकांतमणि, स्फटिक अथवा
मरकतमणि का श्रीयंत्र श्रेष्ठ
रहता है।
कांति हेतु ताम्रपत्र का श्रीयंत्र।
शत्रु नाश हेतु सोना, स्वर्ण का श्रीयंत्र।
मंगल कामना एवम कल्याण प्राप्ति हेतु
चांदी के पात्र पर श्रीयंत्र उत्कीर्ण करना चाहिए
सभी प्रकार की व्यापारिक, औधोगिक उन्नति, सफलता हेतु स्फटिक मणि से निर्मित यंत्र की
पूजा करना चाहिए।
किस धातु के श्रीयंत्र से क्या होंगे फायदे..
शास्त्रों ने सोने का श्रीयंत्र उत्तम,
चांदी का मध्यम तथा तांबे का अधम माना है।
स्वर्ण और स्फटिक से निर्मित श्रीयंत्र का फल अनंतगुणा, चांदी का कोटिगुणा तथा
तांबे का श्रीयंत्र बनाकर पूजा करने का फल
सौ गुणा कहा गया है।
सामान्यतः यंत्र एक से चार तोले तक के
वजन का बनाया जा सकता है।
स्फटिक और मरकतमणि का यंत्र
सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है, जो किसी भी
मात्रा तक का बनाया जा सकता है।
श्रीयंत्र के प्रकार ….
श्री विद्यार्णतंत्र ग्रंथ में उल्लेख है कि –
यावज्जीवं सुवर्णे, स्याद्,
रूप्ये द्वा-विंशतिःप्रिये।
ताम्रं द्वादशकं वर्ष,
तदर्धं मूर्ज पत्रके।।
अर्थात् सोने से बना यंत्र आजीवन,
चांदी से २२ वर्ष, तांबे पर १२ वर्ष तथा
भोजपत्र पर लिखित श्रीयंत्र ६ वर्ष तक
फल देता है। बाद में वह निष्फल हो जाता है।
लकड़ी, कपड़ा, दीवाल पर स्थापित श्रीयंत्र
विपरीत फल प्रदान करता है यानि गरीबी
प्रदान करता है।
गौरीयालतंत्र में श्रीयंत्र के मुख्यरूप से तीन
प्रकार बतलाये हैं—
भूपृष्ठ अर्थात समतल इसमें समतल धातु
पर यंत्र की आकृति में बनाया जाता है।
यह विधि अत्यंत सरल एवं प्रचलित है।
कूर्मपृष्ठ में नीचे का आकार चौकोर तथा
ऊपरी भाग कछुए की पीठ के समान होता है।
मेरूपृष्ठ में यंत्र की आकृति पर्वत के समान
होती है जिसका अंतिम भाग शिखर होता है
तथा रेखाएं उभरी और उठी है हुई होती हैं।
ये तीनों प्रकार क्रमशः
भूप्रस्तार,
मेरूप्रस्तार एवं
कैलाशप्रस्तार आदि नामों से जाने जाते हैं।
श्रीयंत्र अथवा चक्र का निर्माण…
श्रीयंत्र का पूजन आश्विनकृष्ण पक्ष नवमी
आर्द्रा नक्षत्र से प्रारंभ करना सर्वश्रेष्ठ है।
क्योंकि आर्द्रा राहु का नक्षत्र है और इसके
अधिपति, स्वामी स्वयं भगवान शिव हैं।
आद्रा नक्षत्र को महालक्ष्मी के समान माना
गया है।
यंत्र निर्माण – विधि के साथ ही इसकी
सविधि शुभ मुहूर्त में चल अथवा अचल –
प्राणप्रतिष्ठा करना आवश्यक है।
प्राणप्रतिष्ठित यंत्र ही पूजायोग्य एवं फलदायक
माना जाता है। चल प्रतिष्ठा में यंत्र एक स्थान
से दूसरे स्थान पर पूजा हेतु ले जाया जा सकता
है, किंतु अचल प्रतिष्ठा में यंत्र निर्धारित स्थान पर
ही स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना करनी होती है।
जानने योग बातें…
श्रीयंत्र की धारणविधि में यंत्र को शरीर पर
धारण किया अथवा साथ में रखा जा सकता है।
श्रीसूक्त की सोलह ऋचाओं से विभिन्न पूजा
उपचारों द्वारा पूजा करनी चाहिए।
श्रीयंत्र के कमलदल में केशर का प्रयोग
वर्जित है अतः कुंकुम, सिंदूर और
अमृतम चंदन का प्रयोग करें।
यंत्र पूजन के साथ यंत्र दर्शन एवं यंत्र को
मधु पंचामृत से स्नान कराकर उसका पान
करने का विशेष फल प्राप्त होता है।
नीचे दिया गया श्रीयंत्र मैसूर राज्य घराने के ज्योतिषाचार्य द्वारा हस्त लिखित निर्मित है। उनकी कृपा से यह मुझे सन 2001 के मध्य प्राप्त हुआ था।
मैसूर महल परिसर में एक यंत्र मंत्र तंत्र
वेधयशाला में अनेक प्रकार के श्रीयंत्र दर्शनीय हैं।
चेन्नई से 35 किलोमीटर एकामरेश्वर मंदिर के
समीप महा लक्ष्मी मंदिर में भी आदि शंकराचार्य
को महादेव से मिला श्रीयंत्र स्थापित है।
वेलूर के श्रीयंत्र स्वर्ण महालक्ष्मी मंदिर
भी श्रीयंत्र के आकार का बना हुआ है।
ठान के सिद्ध लक्ष्मी पीठाधीश्वर श्री शक्ति अम्मा हैं।
था एक स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है, जो
नाग बांबी से निकले थे।
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