- इस आर्टिकल में हम इसी नदी की चर्चा करेंगे, जिसका उल्लेख वेद पुराणों में, तो है लेकिन वो नदी अब इस धरती पर दिखाई नहीं पड़ती।
- वसुंधरा तीर्थांक के अनुसार इस नदी में नहाने और आचमन से सभी मानसिक रोग मिट जाते थे और ज्ञान की वृद्धि होती थी।
- आज भी यह जिज्ञासा का विषय है कि सरस्वती नदी कैसी थी, कौन-कौन-सी नदियों का पानी इसमें आकर मिलता था।
- वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, भूगोलशास्त्रियों तथा भूगर्भ शास्त्रियों ने अपने अथक प्रयत्न से प्राचीन ग्रंथों एवं तथ्यों के आधार पर वैदिक सरस्वती का एक मानचित्र तैयार किया, जो आपके सामने प्रस्तुत हैं।
- राजस्थान में पुष्कर क्षेत्र से निकलनेवाली नदी सरस्वती के नाम से जानी जाती है, आगे चलकर यह लूणी नदी में मिल जाती है और उसी नाम से विख्यात है।
- गुजरात में अंबाजी के पास से निकलनेवाली नदी सरस्वती के नाम से जानी जाती है। इसकी अन्य सहायक नदियां अर्जुनी तथा रूपन हैं, ये नदियां आज भी प्राचीन सरस्वती का सूक्ष्म रूप हैं ।
- ज्ञान की देवी और ब्रह्मा की पत्नी ब्रह्माणी, सरस्वती के नामवाली नदी सरस्वती आज लुप्त हो चुकी है और ऐसा माना जाता है कि वह आज भी प्रयागराज के संगम स्थल पर गुप्त रूप से त्रिवेणी (गंगा; यमुना एवं सरस्वती) रूप में विद्यमान है।
- आज यहां गंगा और यमुना तो बहती हैं, परंतु सरस्वती कहीं भी दिखायी नहीं देती। फिर, भी यह स्थल त्रिवेणी संगम के नाम से विख्यात है। किंवदंतियों के, अनुसार सरस्वती यहां गुप्त रूप से बहती है । क्या यह सच है ? क्यों नहीं !
ज्ञान की देवी सरस्वती के चरणों से निकली सरस्वती नदी के विलुप्त होने से संसार से ज्ञान भी लुप्त होता जा रहा है। अब हर जगह विज्ञान की जय जयकार हो रही है।
Amrutam पत्रिका ग्वालियर से साभार
- महाभारतकालीन सरस्वती नदी आखिर गई कहां, यह शोध-संदर्भ विषय है।
सहायक नदी विमलोद
- एक समय था जब सरस्वती में यमुना की एक धारा (जो महाभारत काल में विमलोद नाम से विख्यात थी) आकर मिलती थी, परंतु आज से करीब ४६०० वर्ष पूर्व एक भयंकर भूकंप आने के कारण सरस्वती नदी की उस सहायक नदी का मार्ग अवरुद्ध हो गया, जिससे वह धारा नदी का भाग बनकर रह गयी और इस प्रकार सरस्वती यमुना में विलीन हो गुप्त रूप से ‘बहने लगी।
- सरस्वती-पुत्रों का गंगा और यमुना मुख्य के संगम पर बसने तथा यमुना की एक सहायक धारा जो कि कभी सरस्वती की एक सहायक नदी थी, के यमुना में मिलने के कारण तीर्थराज प्रयाग त्रिवेणी संगम के नाम से विख्यात हो गया।
- सरस्वती नदी कब सूखी ? कब पूर्ण रूप से विलुप्त हो गयी ? इस पर विद्वानों में मतभेद है, फिर भी जो चित्र सामने है, उससे नदी का स्वरूप वृहद लगता है। इस नदी को देखकर यह अनुमान स्वतः ही लगाया जा सकता है कि कितने बड़े भू-भाग पर रहनेवाले लोगों का जीवन-पोषण यह नदी करती होगी।
- इतिहास वेत्ताओं एवं भूगर्भ शास्त्रियों के अनुसार ईसा से २६०० वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में एक भयंकर भूकंप आया इसी कारण मुख्यतः राजस्थान एवं साथ लगे क्षेत्रों में भौगोलिक परिवर्तन हुए और सरस्वती नदी सूखने लगी।
- सरस्वती नदी प्राचीन सप्त सिंधुओं में से एक थी और वर्तमान के हिमाचल प्रदेश से निकलकर हरियाणा, राजस्थान होती हुई गुजरात से गुजरती अरब सागर में गिरती थी।
- आज भी हरियाणा, राजस्थान तथा गुजरात के भौगोलिक मानचित्रों में सरस्वती नदी को दिखाया जाता है।
- हरियाणा के मानचित्र में मरकंद और यमुना नगर के सधौरा क्षेत्र से निकलनेवाली नदी आपस में मिलने के बाद कुरुक्षेत्र से सुरसती (सरस्वती) कहलाती है।
- इसके बाद यह घघ्घर नदी में आकर मिल जाती है और यह घघ्घर के नाम से जानी जाती है।
- राजस्थान में के पुष्कर क्षेत्र से निकलनेवाली नदी सरस्वती के नाम से जानी जाती है, आगे चलकर यह लूणी नदी में मिल जाती है और उसी नाम से विख्यात है।
- गुजरात में अंबाजी के पास से निकलनेवाली नदी सरस्वती के नाम से जानी जाती है। इसकी अन्य सहायक नदियां अर्जुनी तथा रूपन हैं, ये नदियां आज भी प्राचीन सरस्वती का सूक्ष्म रूप हैं।
- ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती की बारह सहायक नदियां थीं, परंतु महाभारत काल में केवल सात धाराओं का वर्णन है । ये सभी नदियां सप्त सारस्वत के नाम से जानी जाती हैं।
श्री बलराम का तीर्थाटन मार्ग
- आइए आपको ले चलते हैं महाभारत काल में भ्राताद्वय श्रीकृष्ण एवं श्री बलराम इस बात पर एकमत नहीं हो पा रहे थे कि वे कौरवों का साथ दें या पांडवों का।
- श्रीकृष्ण दृढ़ थे कि वह पांडवों का ही साथ देंगे क्योंकि पांडवों की ओर धर्म है, परंतु बलरामजी इसके लिए तैयार नहीं थे। अंततः बलरामजी ने युद्ध में भाग न लेकर तीर्थाटन करना ही श्रेयस्कर समझा।
- बलरामजी ने अपना तीर्थाटन सरस्वती नदी के तट पर किया और वह द्वारका से समुद्र के किनारे-किनारे तीर्थों पर जाकर ऋषि-मुनियों से मिले, उनसे ज्ञान का लाभ प्राप्त किया और में कुरुक्षेत्र जा पहुंचे। उन्हें इस यात्रा में ४२ दिन लगे।
- श्रीकृष्ण के भाई बलरामजी ने अपनी यात्रा प्रभास क्षेत्र से शुरू की, जहां सरस्वती पश्चिमी समुद्र तट पर समुद्र में गिरती थी।
- वहां से वह चमसोद्भेद तीर्थ गये और फिर भ्रमण करते ह उपान तीर्थ पहुंचे, यहां नदी में जल नहीं था, इससे यह पता चलता है कि उस समय नदी के विलुप्त होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी, परंतु नदी के किनारे स्थित इस तीर्थ में कुआं खोदने पर वह नदी के जल से भर जाता था।
- इसलिए यह भी समझ में आता है कि ऊपर पूरी तरह सूखने पर भी नदी में नीचे की ओर पानी की धाराएं मौजूद थीं, जहां वह तीर्थ था।
- इस नदी के किनारे आगे चलकर वह विनशन तीर्थ गये, जहां नदी पूर्ण रूप से सूखी थी, परंतु सूखे नदी के चिह्न स्पष्ट थे।
- उस तीर्थ पर यह माना जाता था कि नदी जमीन के भीतर अदृश्य रूप से बह रही है।
- अतः यह स्पष्ट है कि उस काल में सरस्वती के सूखने की प्रक्रिया काफी हद तक बढ़ चुकी थी। उसके आगे का तीर्थ सुभूमिक तीर्थ था, जहां पर नदी बह रही थी और सरस्वती नदी पर उत्तम तट पर बना था और उन्होंने वहां स्नान भी किया।
- इसके बाद वह गंधर्व तीर्थ और फिर गर्ग-स्रोत तीर्थ गये, ये सब तीर्थ जल पूरित सरस्वती के तट पर थे। आगे चलते हुए वह शंखतीर्थ जा पहुंचे, जहां नदी एक ऊंचे शंख के पास से बहती थी, उसके तट पर बहुत से पेड़ भी लगे थे।
- इससे स्पष्ट है कि सरस्वती का अच्छा प्रवाह था और भूमि भी हरी-भरी एवं पेड़ों से युक्त थी।
- आगे बढ़ने पर वह सरस्वती नदी के दक्षिण भाग में थोड़ी दूर स्थित नागधन्वा तीर्थ गये, जहां पर कभी राजा वासुकी का देवताओं ने अभिषेक किया था।
- फिर वह पूर्व दिशा की ओर चलकर उस स्थान पर जा पहुंचे जहां पश्चिम की ओर बहनेवाली नदी पूर्व दिशा की ओर लौट जाती है।
- वहां से वह नैमिषारण्य तीर्थ जा पहुंचे। वहां से वह सप्त-सारस्वत तीर्थ पहुंचे। यह एक ऐसा तीर्थ था, जहां सात नदियों का जल एक स्थान पर एकत्र होता था और वे सात धाराएं सप्त- सारस्वत कहलाती हैं। इन सात धाराओं के नाम थे- सुप्रभा, कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, ओघवती, सुरेणु तथा विमलोद।
- इन सातों में सुप्रभा जो पुष्कर तीर्थ से तथा ओघवती जो कुरुक्षेत्र से निकलती है, आज भी मानचित्र में सरस्वती के नाम से दिखलायी जाती है । एक और धारा जो अलग से से गुजरात निकलकर समुद्र में मिलती है, भी सरस्वती के नाम से मानचित्र में दिखायी जाती है। विलुप्त सरस्वती को मानचित्र में महाभारतकालीन सात धाराओं को वर्णन के आधार पर नामित किया है।
- बलरामजी इसके बाद औशनस तीर्थ गये. इसे कपिल मोचन तीर्थ भी कहते हैं। वहां से वे रूषडु मुनि के आश्रम गये और फिर वहां से पृथूक तीर्थ गये, यह तीर्थ सरस्वती नदी के उत्तर किनारे पर स्थित है। इसके बाद वह उस स्थान पर गये, जहां लोक पितामह ब्रह्माजी ने सृष्टि प्रारंभ की थी और यहां आष्र्ष्टिषेण, सिंध-दीप, देवापि तथा विश्वामित्र आदि राजाओं ने सरस्वती के तट पर तप किया था।
- अतः विमलोद नदी को यहीं से बहता हुआ मानना चाहिए । वहां से वह यायात तीर्थ गये, जहां राजा ययाति ने कभी विशाल यज्ञ किया था यहां से चलकर वह वासिष्ठापवाह तीर्थ गये तथा वहां से स्थाणु तीर्थ गये, जहां कार्तिकेयजी का देवों के सेनापति पद पर अभिषेक किया गया था।
- इस स्थान पर सरस्वतीजी से अरुणा नदी मिलती है। इसी के पास अरुणा नदी के तट पर इंद्र ने स्नान कर ब्रह्म हत्या से छुटकारा पाया था। फिर बलरामजी सोमतीर्थ गये, यहां राजा सोम ने राजसूय यज्ञ किया था और इसी स्थान पर वरुण का अभिषेक किया गया था । वहां से चलकर वह अग्नि तीर्थ गये।
- यह तीर्थ सरस्वती के तट पर है तथा यहाँ एक शमी वृक्ष है। फिर बलरामजी कौबर तीर्थ गये, यहाँ तपस्या करके कुबेर के धन के स्वामी बने। इसके बाद वह बंदर पाचन तीर्थ (बंदर गये, जहां से यमुना एक धारा के रूप में निकलती है, बलरामजी ने वहां स्नान किया
- उसके बाद वह इंद्र तीर्थ गये, वहां से चलकर वह राम तीर्थ गये, इस स्थान पर परशुरामजी ने यज्ञ किया था। इसके बाद वह यमुना तीर्थ गये जहां वरुण ने राजसूय यज्ञ किया था।
- फिर वह आदित्य तीर्थ गये। यह्मं ऋषियों और मुनियों ने सरस्वती तट पर सिद्धि प्राप्त की थी।
- वहां से देवल मुनि के आश्रम होते हुए सारस्वत तीर्थ गये। इसके बाद वह समंत पंचक तीर्थ गये, जो कुरुक्षेत्र में आता है। वहां से चलकर वह कारपवन तीर्थ गये जहां सरस्वती नदी का उद्गम स्थल है। वहां से वरुणमित्र यानी वशिष्ठ मुनि के पवित्र आश्रम पर गये, जो यमुना तट पर है।
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- इस आधार पर यह कहना उचित होगा कि महाभारत काल में सरस्वती नदी थी, स्पष्टतः उसका स्वरूप पूर्ण नहीं था और नदी के सूखने की प्रक्रिया तीव्र हो चली थी।
महाभारत काल
- महाभारत काल पर बहुत मतभेद हैं फिर भी इतिहास वेत्ताओं द्वारा निरंतर की जा रही खोज के आधार पर महाभारत काल का सुस्पष्ट निर्धारण न भी हो सके, परंतु काल की अवधि का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है।
- कुछ इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल आज से करीब ५००० वर्ष पूर्व माना गया है, परंतु विशेषकर बेट द्वारका की खोज के बाद इस काल को ईसा से १५०० – १६०० वर्ष से पूर्व का माना जा रहा है।
- डॉ. एस. आर. राव, सलाहकार ओशनोग्राफी सामुद्रिक पुरातत्व केंद्र इंस्टीट्यूट ऑव ओशनोग्राफी, गोवा के अनुसार ईसा से १५०० वर्ष पूर्व द्वारका डूब गयी थी।
- महाभारत के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद द्वारका समुद्र में विलीन हो गयी थी । इस कारण महाभारत काल को उससे पूर्व का माना जा सकता है।
- कुछ फ्रांसीसी तथा अमेरिकी पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार मेसापोटामिया (इराक) में ईसा से २२०० वर्ष पूर्व एक भयंकर सूखा पड़ा, जो करीब ३०० वर्षों तक रहा, जिसमें प्राकृतिक परिवर्तन आये।
- डॉ. राजाराम के अनुसार ईसा से ३००० वर्ष पूर्व भौगोलिक परिवर्तन शुरू हो गये थे, परंतु ईसा से २२०० वर्ष पूर्व एक भयंकर ज्वालामुखी फूटा, जिसने अकादियन साम्राज्य को समाप्त कर दिया और उसके आसपास भौगोलिक परिवर्तन से नदी सरस्वती के सूखने की प्रक्रिया तीव्र हो गयी थी।
- अतः यह माना जा सकता है कि महाभारत काल ईसा से २२०० वर्ष पूर्व से १६०० वर्ष पूर्व के बीच का था।
- इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सरस्वती आज से करीब ४२०० वर्ष पूर्व हमारे देश की एक गौरवशाली विशाल जल संपन्न नदी थी, जिसे समय के थपेड़ों ने अपने भौगोलिक परिवर्तन से जल शून्य कर दिया ।
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