क्यों जरूरत है हरड़ मुरब्बा युक्त दवा की….
स्वस्थ्य रहने के लिए पाचन तंत्र की मजबूती जरूरी है और जब पाचन दुरुस्त रहेगा, तो इम्यून सिस्टम भी सन्तुलित बना रहेगा।
सारी बीमारी की वजह है-पेट के रोग, जो लिवर, ह्रदय, गुर्दा, किडनी, फेफड़ों, आँतों को दूषित कर अनेक आधि-व्याधि पैदा कर देता है।
हरड़ मुरब्बा एक ऐसी अदभुत ओषधि है, जो 91 तरह के उदर विकारों से राहत देती है। बवासीर/पाइल्स को कभी पनपने नहीं देती।
पेट में गड़बड़ी, उदररोग, शरीर में दर्द और सूखी खांसी से हों परेशान,तो अमृतम हरड़ चूर्ण या हरड़ मुरब्बा युक्त ओषधियाँ सेवन करें.
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- हरड़ मल को फुलाकर पेट साफ रखती है। हरड़ के सेवन से शरीर पर कभी कब्ज का कब्जा नहीं हो पाता। गैस, एसिडिटी, भूख की कमी, भोजन न पचना, बेचैनी आदि दिक्कतों से निजात दिलाता है।
- आयुर्वेद में सबसे चमत्कारी ओषधि है हरड़ या हरीतकी। इसे अभया भी कहते हैं। क्योंकि यह लोगों के मन से रोगों के भय को भगा देती है। प्रतिदिन हरड़ मुरब्बा खाने से व्यक्ति हमेशा स्वस्थ्य और स्फूर्तिवान रहता है।
हरड़ मुरब्बा से निर्मित आयुर्वेदिक दवाओं का उपयोग स्वस्थ्य जीवन हेतु आवश्यक है। हरड़ मुरब्बा घर पर भी बना सकते हैं।
हरति/मलानइतिहरितकी अर्थात-हरड़ रोगों पेट की गंदगी का हरण करती है।
हरस्य भवने जाता हरिता च स्वभावत:।
हरते सर्वरोगानश्च ततः प्रोक्ता हरीतकी।। म.नि.
हर, हर्रे, हरीतकी, अमृतम, अमृत, हरड़, बालहरितकी, हरीतकी गाछ, नर्रा, हरड़े, हिमज, आदि कई नामों से जाने वाली हरड़ तन को बिना जतन ठीक करने की क्षमता रखती है।
छोटी हरड़ मुरब्बा रक्त संचार सुचारू कर ब्लडप्रेशर को सन्तुलित करता है। ह्रदय रोगों से बचाता है।
- हरड़ मुरब्बा युक्त ओषधियाँ के सेवन से बुढापा जल्दी नहीं आता। यह च्यवनप्राश, त्रिफला चूर्ण का मुख्य घटक है। तन की तंदरुस्ती के लिए यह बेजोड़ है।
हजारों विकारों की एक दवा…हरड़ मुरब्बा के सेवन से श्वास, कास, प्रमेह, बवासीर, कुष्ठ, शोध, पेट के कृमि (अथवा उदर सम्बन्धी रोग और कृमि), स्वरभेद (आवाज की खराबी) जिंदगी में कभी पनपते नहीं हैं।
- आयुर्वेदिक ग्रन्थों में हरड़ की भूरी-भूरी प्रसंशा की गई है। हरड़ को उदर के लिए अमृत बताया है। विजयासर्वरोगेषु अर्थात हरड़ सभी रोगों पर विजयी है।
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- हरड़ को स्वस्थ जीवन हेतु परम् हितकारी कहा गया है । उदर रोगों की मारक है। शरीर के समस्त दोषों का नाश करना इसका मुख्य गुण है । हर रोग को हरने (मिटाने) के कारण इसे हरड़ कहते हैं, आयुर्वेद की यह अमृतम ओषधि है ।
!!हरतिरोगान मलान इति हरीतकी!! हरड़ रोगों का हरण करती है! रोगों की जड़ उदर है और यह मल विसर्जन द्वारा रोगों को तन से बाहर फेंकती है।
- हरड़ मुरब्बा महणी सम्बन्धी रोग तथा दिबन्ध (मलमूत्रादि को विपद्धता अर्थात् रुक जाना), विषमज्वर, गुल्म, उदराध्यान, तृषा, वमन, हिचकी, खुजली, हृद्रोग, कमला, शूल, आनाह, प्लीहा यकृत, अश्मरी (पथरी), मूत्रकृच्छ तथा मूत्राघात ये सब रोग दूर होते हैं। निघण्टु शास्त्र(१९-२२)
तन को भय रहित करने से इसे “अभया“कहते हैं ।?
कभी भी सेवन करने के कारण ऐसे ‘पथ्या‘ (हितकारिणी) कहा जाता है।
शरीर को सदा स्वस्थ बनाए रखने से ‘कायस्था‘ या शरीर धारक भी एक नाम है।
- हरड़ मुरब्बा तन को पवित्र करने के कारण इसे “पूतना” अर्थात पवित्रधारिणी कहते हैं।
- अमृततुल्य होने से हरड़ ‘अमृता’ है।
- “हेमवती” इसलिये कहा, क्योकि यह हिमालय पर पैदा होती है।
- व्यथानाशक होने के कारण हरड़ का एक नाम “अव्यथा” भी है।
- तन के सभी अवयवों को चेतन करने वाली हरड़ को “चेतकी” भी एक नाम है।
- “श्रेयसी” यानि हरड़ जो शरीर के लिये सर्वाधिक श्रेष्ठ है
- समस्त जीव जगत का कल्याण करने वाली हरड़ का एक नाम “शिवा” (कल्याण कारिणी)भी है ।
- हरड़ का एक नाम “वयः स्था (आयुस्थापक) भी है । हरड़ के सेवन से व्यक्ति स्वस्थ रहते हुए शतायु प्राप्त करता है।
- “विजया” अर्थात रोगों को जीतने वाली हरड़ का अन्य नाम है ।
- “रोहिणी” ( रोपणी) हरड़ ही है।
- “जीवंती” अर्थात जीवन दायिनी हरड़ ही है।
- इम्यून सिस्टम की मजबूती हेतु हरड़ मुरब्बा से बेहतरीन ओषधि इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।
- हरड़– अच्छा वरणरोपक भी है ।
हरड़ रोग प्रतिरोधक क्षमता वृद्धिकारक असरकारक ओषधि है । इसलिये अमृतम द्वारा निर्मित सभी माल्ट (अवलेह), च्यवनप्राश में हरड़ का मुरब्बा बनाकर मिश्रण किया है।
प्रतिस्थानके चम्पायाममृताऽभया च जनिता देशे सुराष्ट्राह्वये जीवन्तीति हरीतकी निगदिता सप्त प्रभेदा बुधैः ॥१॥ ]
हरीतकी के उत्पत्ति स्थान–विन्ध्य पर्वत पर विजया, हिमालय पर चेतकी, सिन्धु देश में पूतना,प्रत्येक स्थानों में रोहिणी, चम्पा देश में अमृता तथा अभया एवं सुराष्ट्र देश में जीवन्ती जाति की हरीतकी के उत्पन्न होने से उक्त प्रकार के सात भेद विद्वानों ने कहे हैं।
अथ तेषां पृथग्लक्षणान्याह अलाबुवृत्ता विजया वृत्ता सा रोहिणी स्मृता पूतनाऽस्थिमती सूक्ष्मा कथिता मांसलाऽमृता ॥९॥ परेखाऽभया प्रोक्ता जीवन्ती स्वर्णवर्णिनी। त्रिरेखा चेतकी ज्ञेया सप्तानामियमाकृतिः ॥१०॥
हरड़ सात प्रकार की होती है…
सात प्रकार की हरीतकी के पृथक्-पृथक् लक्षण-विजया’ हरीतकी लौकी की भाँति लंब गोल, ‘रोहिणी’ का आकार गोल, ‘पूतना’ की गुठली बड़ी तथा आकार सूक्ष्म, ‘अमृता’ हरीतकी मांसल (गूदेदार), ‘अभया’ पाँच रेखाओं से युक्त, ‘जीवन्ती’ सोने के समान रंग वाली और ‘चेतकी’ तीन रेखाओं से युक्त होती है। इस प्रकार सातों प्रकार की हरीतकी के ये आकार हैं।
अथ हरीतकीप्रयोगानाह- हरड़ के प्रयोग…
विजया सर्वरोगेषु रोहिणी व्रणरोहिणी प्रलेपे
पूतना योज्या शोधनार्थेऽमृता हिता ॥११॥
अक्षिरोगेऽभया शस्ता जीवन्ती सर्वरोगहृत् ।
चूर्णार्थेि चेतकी शस्ता यथायुक्तं प्रयोजयेत् ॥१२॥
चेतकी द्विविधा प्रोक्ता श्वेता कृष्णा च वर्णतः। षडङ्गुलायता शुक्ला कृष्णा त्वेकाङ्गुला स्मृता ॥१३॥ काचिदास्वादमात्रेण काचिद्रन्धेन भेदयेत् ।
काचित्स्पर्शेन दृष्ट्याऽन्या चतुर्द्धा भेदयेच्छिवा ॥१४॥ चेतकीपादपच्छायामुपसर्पन्ति ये नराः!
भिद्यन्ते तत्क्षणादेव पशुपक्षिमृगादयः ॥१५॥
चेतकी तु धृता हस्ते यावत्तिष्ठति देहिनः ।
तावद्भिद्येत वेगैस्तु प्रभावान्नात्र संशयः ॥१६॥
नृपाणां सुकुमाराणां कृशानां भेषजद्विषाम् ।
चेतकी परमा शस्ता हिता सुखविरेचनी ॥१७॥ सप्तानामपि जातीनां प्रधाना विजया स्मृता
सुखप्रयोगा सुलभा सर्वरोगेषु शस्यते ॥१८॥
हरीतकी के प्रयोग–’विजया’ हरीतकी का उपयोग सभी रोगों में होता है। ‘रोहिणी’ व्रण पूरण करने वाली होती है। ‘पूतना’ का प्रयोग प्रलेप के लिये करना चाहिये।
अमृता हरड़ शोधन कर्म के लिये हितकर है। आँख के रोगों में ‘अभया’ उत्तम होती है और ‘जीवन्ती’ सम्पूर्ण रोगों का हरण करने वाली होती है।
चूर्ण बनाने के लिये ‘चेतकी हरड़’ उत्तम होती है। अत: जिस जाति की हरीतकी का जहाँ जिन रोगों में प्रयोग करना कहा गया है, उसका वहाँ पर प्रयोग करना चाहिये।
‘चेतकी हरड़’ श्वेत और कृष्ण दो प्रकार की होती है। उनमें शुक्ल वर्ण वाली ६ अङ्गुल की तथा कृष्ण वर्ण वाली एक अङ्गुल की लम्बी होती है। इनमें कोई हरीतकी खाने मात्र से, कोई सूंघने से, कोई स्पर्श करने से तथा कोई देखने मात्र से ही मल का भेदन करती हैं अर्थात् दस्त साफ होता है।
इस प्रकार हरीतकी चार प्रकार से दस्त कराकर पेट को हमेशा साफ रखती है। जो मनुष्य चेतकी जाति की हरड़ के पेड़ की छाया के नीचे पहुँच जाते हैं, उनको उसी समय दस्त आने लगता है।
यहाँ तक कि पशु, पक्षी, मृगादि की भी यही दशा हो जाती है और ‘चेतकी’ हरड़ को जब तक प्राणी अपने हाथ में धारण किये रहता है, तब तक उसके प्रभाव से उसे वेग से दस्त होता रहता है, इसमें सन्देह नहीं है।
राजा, सुकुमार या कृश हैं, किंवा विरेचक औषध खाने से भागने वाले हैं, उनके लिये ‘चेतकी’ हरड़ परम हितकारी एवं उत्तम होती है क्योंकि वह सुखपूर्वक दस्त लाती है।
पूर्वोक्त सात जातियों में ‘विजया’ जाति की जो हरीतकी होती है,नहीं औरों की अपेक्षा प्रधान है क्योंकि सुलभ होने से उसका प्रयोग सुखपूर्वक होता है तथा यह सभी में देने के लिये भी उनम होती है।।११-१८
अथ हरीतकीगुणानाह
हरीतकी पञ्चरसाउलवणा तुवरा परम्
कोष्णा दीपनी मेध्या स्वादुपाका रसायनी ॥१९॥
चक्षुष्य लघुरायुष्या गृहणी धानुलोमिनी भ्रासकासप्रमेहार्श: कुष्ठशोधोदरक्रिमीन् ||२०|| वैस्वर्यग्रहणीरोगविबन्धविषमज्वरान् । गुल्माध्मानतृषाउर्दिहिक्काकण्डूहदामयान् ॥२१॥ कामलां शूलमानाह प्लीहानज्ञ यकृत तथा
अश्मरी मूत्रकृच्छ्च मूत्राघातच नाशयेत् ॥ २२ ॥
अर्थात- हरीतकी के गुण-हरड़ में लवण रस को छोड़कर पाँच (मपुर, अम्ल, कटु, काय तिक्त) रस हते हैं किन्तु औरों की अपेक्षा कषाय रस ही अधिक रहता है।
हरीतकी क्षणी अग्निदीपक, मेघा (धारणाशक्ति) के लिये हितकारी, मधुर विपाक वाली रसायन वृद्धावस्था तथा व्याधियों को दूर करने वाली), नेत्रों के लिये हितकर, पचने में लघु (जल्दी पचने वाली), आयुवर्धक, बृहण (शरीर में मांसादि की वृद्धि करने वाली) और अनुलोमन (मलादि को नीचे की ओर प्रेरित करने वाली) होती है।
अथ हरीतक्या प्रभावनिबन्धनं दोषहन्तृत्वं न तु रसनिबन्धनमित्याह स्वादुतितकषायत्वात्पित्तहत्कफहनु सा कंदुतिक्तकमायत्वादम्लत्वाद्रातहच्छिवा ॥२३॥ पित्तकृत्कटुकाम्लत्वाद्वातकृत्र कथं शिवा ॥२४॥ प्रभावादोषहन्तृत्वं सिद्धं यत्तत्प्रकाश्यते। हेतुभिः शिष्यबोधार्थ नापूर्व क्रियतेऽधुना ॥२५॥
कर्मान्यत्वंगुणैः साम्यं दृष्टमाश्रयभेदतः।
यतस्ततो नेति चिन्त्यं मत धात्रीलकुचयोर्यथा ॥२६॥
हरीतकी मुरब्बे का प्रभाव- हरड़ में मथुर, तिक्त और कषाय रस रहता है, अतएव यह पित्तनाशक और कटु तिक्त तथा कषाय रस होने से कफनाशक है तथा अम्ल रस होने से वायु का भी शमन करती है। हरड़ को सर्वदोषों का नाशक बताया है। हरड़ मुरब्बा देह के सभी दोषों का नाश अपने प्रभाव से ही करता है। हरड़ रसों में इन इन दोषों को दूर करने की शक्ति रहती है। हरड़ में स्थित जो कटु तथा अम्ल रस है।
अथ हरीतक्यां तद्रसादीनां स्थानान्याहपच्याया मज्जनि स्वादुः स्नाय्यामम्लो व्यवस्थितः । वृन्ते तिक्तस्त्वचि कटुरस्थिस्थस्तुवरो रसः ||२७||
हरड़ में रसों के रहने के स्थान— हरड़ की मींगी में मधुर रस, रेशों में अम्लरस, वृन्त (छेपी) में तिक्करस, छिल्के में कटु रस और गुठली में कषाय रस रहता है।
अथोत्तमहरीतक्या लक्षणान्याह
नवा स्निग्धा घना वृत्ता गुर्वी क्षिप्ता च याऽम्भसि निमज्जेत्सा प्रशस्ता च कथिताऽतिगुणप्रदा ॥२८॥ नवादिगुणयुक्तत्वं तथैवात्र द्विकर्षता।
हरीतक्या: फले यत्र द्वयं तच्छ्रेष्ठमुच्यते ॥२९॥
उत्तम हरड़ के लक्षण-जो हरड़ नवीन, स्निग्ध, घन (ठोस), गोल और गुरु (वजनदार) हो तथा जल में डालने पर डूब जाय वह उत्तम और अत्यन्त गुणकारी मानी जाती है। जिस हरीतकों के फल में पूर्वोक्त नूतनता आदि सम्पूर्ण गुण हों एवं तौल भी उसका दो कर्ष अर्थात् दो बहेड़े के बराबर हो वह उत्तम कही जाती है।
अथ हरीतक्याः प्रयोगभेदेन फलभेदानाह
चर्विता वर्द्धयत्यग्नि पेषिता मलशोधिनी।
स्विन्ना संग्राहिणी पथ्या भृष्टा प्रोक्ता त्रिदोषनुत् ॥३०॥ उन्मीलिन बुद्धिवलेन्द्रियाणां निर्मूलिनी पित्तकफानिलानाम् । विस्रसिनी मूत्रशकृन्मलानां हरीतकीस्यात् सह भोजनेन ॥३१॥ अन्नपानकृतान्दोषान्वातपित्तकफोद्भवान् ।
हरीतकी हरत्याशु भुक्तस्योपरि योजिता ॥३२॥
लवणेन कर्फ हन्ति पित्तं हन्ति सशर्करा ।
घृतेन वातजान् रोगान्सर्वरोगान्गुडान्विता ॥ ३३॥
हरीतकी के प्रयोग भेद से गुण भेद- हरीतकी यदि चबाकर खाई जाय तो जठराग्नि की वृद्धि करती है, शिला पर पीसकर खाई जाय तो मल शोधन करती है।
हरड़ उबालकर खाई जाय तो मल रोकती है, भूनकर खाई जाय तो त्रिदोष को दूर करती है।
हरड़ मुरब्बा भोजन के साथ सेवन करने से बुद्धि, बल तथा इन्द्रियों को विकसित करने वाली, पित्त, कफ तथा वायु को नष्ट करने वाली एवं मूत्र, विष्ठा तथा मल पदार्थों का विरेचन करने वाली होती है।
यदि वही हरीतकी भोजन कर चुकने के बाद ऊपर से खाई जाय तो अन्त्र तथा पान सम्बन्धी दोषों को एवं वात, पित्त तथा कफ से उत्पन्न होने वाले विकारों को शीघ्र हरने वाली होती है।
हरड़ सेंधा नमक के साथ खाने से कफ़, शक्कर के साथ खाने से पित्त, घृत के साथ खाने से वात सम्बन्धी रोग और गुड़ के साथ खाने से समस्त व्याधियों को दूर करने वाली होती है। [३०-३३]
अथ रसायनगुणार्थिनां कृते हरीतकीप्रयोगविधिमाह
सिंधूत्यशर्कराशुण्ठीकणामधुगुडैः क्रमात् ।
वर्षादिष्वभया प्राश्या रसायनगुणैषिणा ॥३४॥
हरीतकी का रसायन प्रयोग-जो रसायन के गुणों को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं उन्हें चाहिए कि वे वर्षा आदि छ: ऋतुओं में क्रम से सेंधानमक, शक्कर, सोंठ, पीपल, मधु और गुड़ साथ हरीतकी का सेवन करें, अर्थात् वर्षा ऋतु में सेंधानमक के साथ, शरद ऋतु में शक्कर के साथ | के हेमन्त ऋतु में सौंठ के साथ, शिशिर ऋतु में पीपल के साथ, वसन्त ऋतु में मधु के साथ एवं ग्रीष्म ऋतु में गुड़ के साथ हरीतकी सेवन करने से रसायन के फल की प्राप्ति होती है।
अथ हरीतकी भक्षणानर्हजनानाह
अध्वातिखिन्नो बलवर्जितश्च रूक्षः कृशो लङ्घनकर्शितश्च ।पित्ताधिको गर्भवती च नारी विमुक्तरक्तस्त्वभयां न खादेत् ||
अर्थात- हरीतकी सेवन करने के अयोग्य व्यक्ति-रास्ता चलने से थके हुए, बल रहित, रूक्ष, कृश, उपवास किए, अधिक पित्त वाले व्यक्ति तथा गर्भवती स्त्री एवं जिसे रक्तमोक्षण कराया गया हो उन सबों को हरीतकी का सेवन नहीं करना चाहिये।
हरीतकी के कार्य….हरति रोगान्/मलान् इति हरीतकी (यह रोगों (मतों) का हरण करती है।)
हरस्य भवने जाता हरिता व स्वभावतः
हरते सर्वांश्च तत प्रोक्ता हरीतकी राम निः॥
हिंदी-हरड़, हरें, हरे, हर्ड, हरें ब०हरीतकी, बातहरीतकी, हरीतकी गाछ, न म हिरडा, हरडे, बालहरडी। गु०-हरडे, हिमज ते-करकट्टु, करकाप्य, करक्वाय ता० डुक्काय करकैया, कटुकेमरम।
कन्नड़ में-अभिलेय अभिले, अनिलैकाय उड़िहरिया द-हलरा, कलग। मा० हरडे प०-हड, हरड आमा-हिलिखा, सिल्लिका लिपचा सिलिम सिकम-हन, सिलिमक्रंग, सित्तिमकुंग मैसूर-अलले। कच्छार-होरतकी।
नेपाल में-हरों फारसी-हलेलज अस्फर, हलैले जर्द, हताह, हलेसह बर्द। अरबी-अहलीलज, रहतीलज-कावली, अहलो अफर जलील अस्यद, हले अस्फर। अं०-Myrobalan (माईबेल), Chebulic Myrobalan (चेब्यूलिक माइरोबेलन)। से०- (१) Terminalia chebula Retz (टर्मिनेलिया वेब्युला)। (२) Terminalia citrina Roxb. ex Flem (टर्मिनेलिया सिट्रिना) Fam. Combretaceae (कॉम्ब्रेटसी) ।
हरीतकी अत्यन्त सुगमता से सर्वत्र प्राप्त होने वाली किन्तु विविध गुण सम्पन्न औषधि का फल है। इसका वृक्ष हमारे देश के प्रायः सभी प्रान्तों में कहीं न कहीं पाया जाता है। यह उत्तर भारत में बहुलता से उत्पन्न होती है।
कुमाऊँ से बंगाल तक, आसाम, ब्रह्मा (म्यानमार) तथा दक्षिण में चेन्नई (मद्रास) प्रान्त, कोयम्बटूर, कनारा, पश्चिमघाट के पूर्वीय प्रान्तों में, गजान, गोदावरों की तलहटी, सतपुरा पहाड़, गुजरात, मुम्बई प्रान्त के घाटों के पास ऊंचे जंगलों में, कोकण, मलावार, विन्ध्याचल पहाड़, हिमालय पर्वत एवं काबुल की ओर इसके वृक्ष अधिकता से देखने में आते हैं। इसका वाटिकाओं में भी रोपण करते हैं।
हरड़ वृक्ष की पहचान…प्रायः इसका वृक्ष मध्यमाकार का होता है किन्तु कहीं-कहीं बड़े-बड़े वृक्ष भी देखने में आते हैं। नर्मदा के दक्षिण के वृक्ष ३० मी. तक ऊँचे होते हैं किन्तु उत्तर भारत में उत्पन्न हुए वृक्ष इतने बड़े नहीं होते।
हरीतकी के वृक्ष वट, पीपल आदि वृक्षों की तरह दीर्घायु नहीं होते हैं, बल्कि कालान्तर में सूख कर गिर जाया करते हैं।
हरड़ की छाल कालापन युक्त भूरे रंग की २५ मि.मी. तक मोटी होती है। लकड़ी-पक्की और बहुत मजबूत होती है। इमारत के काम के लिये अच्छी समझी जाती है।
यह किञ्चित् हरापन या पीलापनयुक्त भूरे रंग के साथ खाकी रंग की होती है। टहनियों पर पत्ते सघन नहीं रहते, बल्कि न्यूनाधिक विपरीत रहते हैं।
पत्ते-अड्से के पत्तों से कुछ चौड़े महुवे के पत्तों के समान, १०-१२ से.मी. तक लम्बे, किञ्चित् अंडाकार, नोकदार, सफेदीयुक्त हरे और चमकदार होते हैं तथा स्पर्श में खुरदुरे जान पड़ते हैं।
वृन्त २.५ से.मी. से कम एवं उसके अग्र भाग के ऊपरी पृष्ठ पर दो या अधिक सूक्ष्म मन्दियाँ पाई जाती हैं।
वसन्त ऋतु में पुराने पत्ते गिरकर नवीन पत्ते निकल आते हैं। फूल-बारीक आम की मंजरी के समान दिखाई देते हैं और वे देखने में सफेदी मायल या कुछ पीले रंग के होते हैं तथा उनमें दुर्गन्ध आती है।
फल-किञ्चित् लम्बाईयुक्त गोलाकार होते हैं, सूखते-सूखते छिलके सिकुड़ जाते हैं और पाँच कोणाकार या पाँच रेखायुक्त दिखाई देने लगते हैं।
शक्ल-सूरत, आकार और डीलडौल एवं छोटे-बड़े, लम्बे गोल इत्यादि भेदों से फल कई प्रकार के देखने में आते है। भावप्रकाशनिघण्टुः
पूर्व बंगाल, आसाम और म्यानमार (बर्मा) में एक अन्य जाति पाई जाती है। इसे लेटिन में Terminalia citrina Roxb. ex Flem (टर्मिलिया सिट्रिना) कहते हैं। इसका वृक्ष २५ मी. तक ऊंचा होता है।
हरड़ के फल ५ से.मी. तक लम्बे होते हैं। हरीतकी के फल पूर्ण पकने तक वृक्ष में बहुत कम ठहरते हैं। प्रायः कच्ची अवस्था में ही गिर जाया करते हैं। पका फल उत्तम समझा जाता है। उत्तम फल वह है जो नया हो और चिकना, लंब, गोल, भारी, तौल में कम से कम १० ग्राम से भी अधिक हो तथा पानी में डालने से डूब जाय
अपक्य अवस्था के छोटे, काले, द्राक्ष के समान फल मिलते हैं। यह बड़े हरें की अपेक्षा बहुत छोटे होते हैं। इन्हें हिन्दी में जंगी हरड़ एवं मराठी में बालहिरडा कहा जाता है। इनका स्वाद अधिक कसैला तथा कड़वा होता है।
किसी-किसी वाटिका में हरीतकी का वृक्ष नमूने की तरह देखने में आता है। वर्षा ऋतु में हरीतकी के छिलके को सुगमता से दूर कर गुठलियों को भूमि पर फेंक देने से ही कोई-कोई बीज अकुरित होकर पौधे के रूप में बढ़ते हैं।
पतझड़ में पुराने पत्ते गिर जाने से चैत के महीने में प्राय: इसके पौधे सूखे से दिखाई देते हैं। उस समय से ज्येष्ठ तक पौधों को पानी से कभी-कभी सींचना होता है।
बरसात का पानी पड़ने पर नवीन पत्ते निकल आते हैं और पौधे हरे-भरे हो जाते हैं। उसी समय उनको उठाकर स्थायी रूप से इष्ट जगह पर रोपण करना चाहिये।
बरसात का पानी जमा होकर जहाँ पर तर मिट्टी जमा होती है, उस जगह पर रोपण किया हुआ पौधा सतेज होता है। साधारण वृक्षों की तरह परिचयां करने से ही इसके वृक्ष तैयार हो जाते हैं।
आयुर्वेद में हरीतकी की जो सात जातियाँ कहीं गई है उनके आकार तथा रंग-रूप और गुण भी भिन्न-भिन्न होते हैं।
आयुर्वेद में प्रत्येक जाति की हरड़ के गुणों का वर्णन बहुत ही विचारपूर्वक किया गया है, परन्तु आजकल के पाश्चात्य विद्वान् लोग केवल दो ही प्रकार की हरीतकी को ग्राह्य मानते हैं।
शेष जाति को हरीतकियों में यद्यपि प्रकार भेद मानते हैं, परन्तु गुणों में कुछ भेद नहीं मानते। इस संबंध में विशेष अनुसन्धान की आवश्यकता है।
हरड़ के रासायनिक संगठन–पक्व हरीतकी में करीब ३० प्रतिशत कसैला द्रव्य होता है जो चेव्युलीनिक एसिड के कारण है। इसके अतिरिक्त दैनिक एसिड २० ४० प्रतिशत, गैलिक एसिड, राल, विटामिन सी एवं पोषक द्रव्य आदि हैं।
हरड़ का विरेचक द्रव्य एक ग्लाइकोसाइड है जो संभवतः सेनोसाइड ए के समान है। बालहरड़ में एक हरे रंग की तैलीय राल मिलती है जिसे कभी-कभी माइरोबॅलानिन् कहा जाता है।
- हरड़ के सेवन से फायदे ही फायदे हैं, हानि कुछ भी नहीं होती…गुण और प्रयोग- हरीतको श्रेष्ठ मृदु विरेचक द्रव्य है। इससे किसी प्रकार की हानि नहीं होती। शरीर की सभी क्रियाएँ इसके सेवन से सुधरती है।
- हरड़ का उपयोग जीर्ण ज्वर, अतिसार, रक्तातिसार, अर्श, नेत्ररोग, अजीर्ण, प्रमेह, पाण्डु, अम्लपित्त, कामला आदि में लाभकर होता है।
- आधुनिक प्रयोगों से भी इसकी विभिन्न रोगों में उपयोगिता सिद्ध हुई है। जीर्ण कास, अर्श आदि में अगस्त्य हरीतको एवं व्याघ्नी हरीतकी आदि योगों के रूप भी इसका व्यवहार किया जाता है। त्रिफलाचूर्ण, अभयारिष्ट, पथ्यादि क्याय आदि अन्य प्रमुख योग हैं।
हरीतकी अच्छा व्रणरोपक है। मुखव्रण, पुराने घावों तथा अर्श में इसका लेप लाभप्रद है। दन्त मञ्जन के लिये इसका महीन चूर्ण उपयोगी है। बालहरीतकी—यह मृदु विरेचक है। जीर्ण विबन्ध एवं अर्श में इसका अच्छा उपयोग होता है। मात्रा- चूर्ण ३ से ६ ग्राम । हरीतक्यादिवर्ग:
आयुर्वेद के एक प्राचीन ग्रन्थ हरीतक्यादिवर्ग में हरड़ के बारे में संस्कृत का श्लोक का उल्लेख है-
रसगुणवीर्यविपाकप्रभावाणां स्वरूपाण्यभिधाय कुत्र द्रव्ये के रसगुणवीर्यविपाकप्रभावाः सन्तीति बोधयितुं द्रव्यगतान् रसगुणवीर्यविपाकप्रभावानाह। तत्र प्रथमं हरीतक्या उत्पत्तिनामलक्षणगुणानाह दक्षं प्रजापतिं स्वस्थमश्विनौ वाक्यमूचतुः।
कुतो हरीतकी जाता तस्यास्तु कति जातयः ॥१॥
रसा: कति समाख्याताः कति चोपरसाः स्मृताः।
नामानि कति चोक्तानि किं वा तासां च लक्षणम्॥२॥
के च वर्णा गुणाः के च का च कुत्र प्रयुज्यते ।
केन द्रव्येण संयुक्ता कांश्च रोगान्व्यपोहति ॥३॥ प्रश्नमेतद्यथा पृष्टं भगवन्वक्तुमर्हसि ।
अश्विनीर्वचनं श्रुत्वा दक्षो वचनमब्रवीत् ॥४॥
पपात विन्दुर्मेदिन्यां शक्रस्य पिबतोऽमृतम् ।
ततो दिव्यात्समुत्पन्ना सप्तजातिहरीतकी ॥५॥
अर्थात- रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव के स्वरूपों को कहकर किस द्रव्य में कौन रस, कौन गुण तथा कैसा वीर्य, विपाक एवं प्रभाव रहता है, इन सबको बताने के लिये प्रत्येक द्रव्यगत रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव का वर्णन करते हैं। उनमें हरीतकी (हरड़) सर्वश्रेष्ठ है। हरड़ की उत्पत्ति, नाम, लक्षण तथा गुणों को जाने..
दक्ष प्रजापति से दोनों अश्विनीकुमारों ने पूछा?..हे भगवान् ! हरीतकी (हरड़) कहाँ से उत्पन्न हुई ? और उसकी कितनी जातियाँ है?
हरड़ में प्रधान रूप से कौन-कौन रस और कौन-कौन उपरस होते हैं?
हरड़ के कितने नाम हैं ? और उन सबों के क्या-क्या लक्षण हैं ? और उनका वर्ण कैसा है ? उनमें गुण कौन-कौन हैं ? और किस जाति के हरड़ का किस कार्य में प्रयोग किया जाता है ? तथा किन द्रव्यों के साथ संयोग होने पर किन रोगों को दूर करती है ?
अश्विनीकुमारों के वचनों को सुनकर दक्षप्रजापति ने बताया कि—एक समय अमृत पान करते हुए भगवान् शिवेंद्र/शिव के मुख से दैवात् एक बूँद अमृत पृथ्वी पर गिर पड़ा तब उसी दिव्य अमृत बिन्दु से सात जाति वाली हरीतकी उत्पन्न हुई।
अथहरीतकीनामान्याह. हरीतक्यभया पथ्या कायस्था पूतनाऽमृता। श्रेयसी शिवा ॥६॥ हैमवत्यव्यथा चापि चेतकीवयस्था विजया चापि जीवन्ती रोहिणीति च ॥७॥
हरीतकी के अन्य नाम- हरीतकी, अभया पथ्या, कायस्था, पूतना, अमृता, हैमवती, अव्यथा, चेतकी, श्रेयसी, शिवा, वयस्था, विजया, जीवन्ती तथा रोहिणी ये सब ‘हरीतकी’ के नाम हैं।
अथ हरीतक्याः सप्तभेदानाह विजया रोहिणी चैव पूतना चामृताऽभया । जीवन्ती चेतकी चेति पथ्यायाः’ सप्तजातयः ||८ ।। हरीतकी के भेद-१. विजया, २. रोहिणी, ३. पूतना, ४. अमृता, ५. अभया, ६. जीवन्ती, ७. चेतकी ये हरीतकी की सात जातियाँ (भेद) हैं। (भावप्रकाशनिघण्टुः)
अथ सप्तजातेर्हरीतक्या उत्पत्तिस्थानान्याह ‘विच्याद्रौ विजया हिमाचलभवा स्याच्चेतकी पूतना सिन्धौ स्यादथ रोहिणी निगदिता जाता।
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- हरड़ युक्त दवा की एक जबरदस्त जानकारी….पूरे विश्व में मात्र अमृतम फार्मास्युटिकल्स ही आयुर्वेद की एक ऐसी कंपनी है, जिसने पहली बार अलग–अलग रोगों के लिए करीब 23 माल्टो का निर्माण किया है । जैसे-
पाचन ठीक कर रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और भूख व खून वृद्धि हेतु-
सोमरोग या पीसीओडी से मुक्ति तथा महिलाओं के स्वास्थ्य व सुंदरता हेतु-
स्त्री रोगों के लिये – नारिसौन्दर्य कैप्सूल।
बालों की जड़ को बलशाली हेतु-कुन्तल केयर माल्ट
वात विकार नाशक – ऑर्थोकी गोल्ड माल्ट
- बवासीर की तासीर ठीक करने हेतु- पाइल्स की माल्ट अमृतम द्वारा निर्मित pileskey malt एवम भयंकर बवासीर नाशक माल्ट जो कि बवासीर (अर्श) बीमारियों की बेहतरीन आयुर्वेदिक दवा हरड़ के योग से ही बनाई जाती है।
मानसिक शांति व याददास्त हेतु –ब्रेनकी गोल्ड माल्ट बच्चों को तंदरुस्ती हेतु – चाइल्ड केअर माल्ट एसिडिटी अम्लपित्त नाशक – जिओ माल्ट
लिवर की सुरक्षा हेतु – कीलिव माल्ट
ज्वर व चिकनगुनिया नाशक- फ्लुकी माल्ट
सेक्स पावर वृद्धि हेतु– बी.फेराल माल्ट
केशरोग नाशक- कुंतल केअर केप्सूल
खांसी का अंत…करे तुरन्त – लोजेन्ज माल्ट
- आदि उपरोक्त माल्ट में हरड़ का मुरब्बा बनाकर आयुर्वेद की प्राचीन विशेष विधि विधान से निर्मित किया है।
हरड़ के विषय में आयुर्वेद के अति प्राचीन ग्रंथों से जो भी संकलन किया है उन ग्रंथों के रचनाकारों, वैज्ञानिकों का स्मरण कर उन महान आत्माओं को प्रणाम, शत-शत नमन करते हुए आयुर्वेद के शास्त्रों के नाम निम्नानुसार हैं
- वंगसेन सहिंता (वैद्यराज श्री वंगसेन)
- वनोषधि दर्पण (कविराज विरजाचरन)
- शंकर निघण्टु (वैद्य महर्षि श्री शंकरदत्त गौड़)
- मदनपाल निघंटु (वैद्य श्री मदनपाल)
- संदिग्ध ब्यूटी चित्रावली
- (श्री श्री वैद्य रूपलाल जी)
- शालिग्राम निघंटु ( राजवैद्य श्री शालिग्रामजी)
- राजनिघंटु ( काशीनरेश राजा श्रीकाशीराज)
- चरक की संस्कृत टीका (श्री चक्रपाणि वैद्य)
- अष्टांग हृदय ( महर्षि वागभट्ट)
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