- अश्वगंध इसे इसलिए कहते हैं क्यों कि इसमें अश्व यानी घोङे के खुर जैसी गन्ध आत्य है। अश्वगन्धा चूर्ण या इससे निर्मित ओषधियाँ के सेवन से नामर्द भी मर्द बन जाता है।
- अश्वगन्धा खाने से कमजोर आदमी भी में घोड़े जैसी ताकत, एनर्जी आ जाती है। अश्वगन्धा के बारे में संस्कृत के अनेकों श्लोकों में इसकी भारी तारीफ की गई है।
अश्वगन्धा के बारे में लिंक क्लिक कर ये वीडियो देखें-
गन्वान्ता वाजिनामादिरश्वगन्धा हयाह्वया।
वाराहकी वरदायलदा कुष्ठगन्धिनी॥१८०।।
अश्वगन्धानिलश्लेष्मश्वित्रशोथक्षयापहा।
बल्या रसायनो तिक्त्ता कषायोष्णातिशुक्रला।१८१।
(भावप्रकाश निघण्टु ग्रन्थानुसार)
अश्वगन्धा के अन्य नाम–अश्ववाचक जितने नाम हैं उनको आदि में रख कर ‘गंधा’ शब्द अंत में रखने पर जितने शब्द हों वे सब अश्वगंधवाचक है। (अश्वगंधा, बाजिगंधा, हयगंधा, तुरङ्गगंधा, सैववगंधा, किंक्यानगंधा इत्यादि) तथा वाराहकर्णी, वरदा, बलदा, कुष्ठगंधिनी, अश्वगंधा, वा घोड़े के जितने नाम हैं सब असगंध के संस्कृत नाम हैं। वं०-बंगाल में–अश्वगंधा। मराठी में–आसगंध कहते हैं।
भाषाभेद से नामभेद–हि०-असगंध । आसकंद, असन्ध । ग०–आसोंद, आरवसंध। क–आसान्दू, अंगूर । तमिल में-पिल्ली और बोटनिकल भाषा में अश्वगंधा–Withania Somnifera, Physalis Fluxuosa.
बम्बई फ्लोरा नामक पुस्तक के रचयिता कहते हैं ‘अश्वगंधा बीज में दूध जमाने । शक्ति है। हम लोगों ने परीक्षा द्वारा देखा है अश्वगंधा में उपर्युक्त शक्ति वर्तमान है।’ फारमाकोग्राफिया इण्डिका २ य खंड ५६७ पृ०)
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आयुर्वेद के गुडूच्यादिवर्गः में लिखा है-
अश्वगन्धा क गुण–फायदे…असगंध-बलदायक, रसायन, कड़वी, कसैली, गरम, वीर्यवर्द्धक और वायु, कफ, श्वेत कुष्ठ, शोथ तथा क्षय इन सबों को हरनेवाली है।
अश्वगन्धा की पहचान व वर्णन—अश्वगंधा के क्षुप २–२॥ हाथ ऊंचे होते हैं। साथ ही शाखा बहुत सी होती हैं। पत्र-चौड़े , डांटी छोटी तथा पत्रों में लोम होते हैं । फूल-छोटे, पुष्पदंड, छोट, पत्र वृन्त मूल से निर्गत होते हैं और दलबद्ध रहते हैं।
अश्वगन्धा के पत्तों वर्ण या रंग पीताभ हरित तथा ये आकार में चिलम की तरह दिखलाई पड़ते हैं।
अश्वगन्धा के फल-छोटे मटर की तरह लाल-लाल होते है। मूल-छोटी मूली की तरह पतले ऊपर कठा रंग के तथा नीचे श्वेत वर्ण के होते हैं। तोड़ने पर सफेद होते हैं। इसकी कच्ची जड़ अश्वमूत्रकी तरह गंधयुक्त होती है। शुष्क हो जाने पर गंध नहीं होता या कम रहता है।
अश्वगन्धा का स्वाद-मूल का स्वाद तिक्त होता है। बीज-अतिक्षद्र होते हैं।
अश्वगन्धा का औषधार्य व्यवहार–मूल ।
An alkaloid somniferin having hypnotic property, resin, fat and colouring matter. Actions and uses :—Tonic alterative and sedative; a paste of the root taken with milk and clarified butter helps the nutrition of children. As an alterative a confection given in consumption debility from old age and rheumatism. Native women combine it with various restoratives in nervous debility and leucorrhoea; as a sedative and hypnotic the leaves moistened with caster oil are applied to carbuncles. “Narayan tel” (which contains Ashwagandha) is dropped into the nose in deafness, and as an inunction over the body in hemiplegia, tetanus, rheumatism and lumbago as an enema in dysentery and anal Fistula. It is given internally in 15 to 60 ms. doses in consumption emaciation of children, debility from old age, leprosy, nervous diseases and rheumatism.
“The authors of Bombay Flora say that the seeds are employed to coagulate milk like those of W. Coaguls. We have tried the experiment and find them to have some coagulating power.
अश्वगन्धा के पदार्थ संगठन–इसके विश्लेषण करने पर एक क्षारीय सोमनीफेरिन पदाथ, राल चर्बी तथा कुछ रंजक पदार्थ मिलते हैं।
अश्वगंधा पर पाश्चात्य सिद्धान्तः- -अश्वगंधा-बल्य, रसायन, और अवसादक है।
अश्वगंधा के मूल का चूर्ण दुग्ध वा नवनीत के साथ सेवन कराने से क्षीण शिशु, पुष्टि लाभ करता है।
अश्वगन्धा रसायन होने के कारण अश्वगंधा खण्डमोदकादि रूप में क्षयरोग, जराकृत-दौर्बल्य अर्थात किसी लम्बी बीमारी, ज्वर मलेरिया के बाद आई खतरनाक कमजोरी एवं वातरोग में व्यवहृत होता है।
देश-दुनियां की रमणियां, अविवाहित लड़कियां अन्यपोषक द्रव्यों के साथ इसे वातज, दौर्बल्य और प्रदर में व्यवहार करती हैं।
अश्वगन्धा के पत्तों को एरण्ड तैल के साथ मिलाकर स्फोटकादि के ऊपर स्थापन करने से तज्जन्य त्वासुप्ति रोग नाश होकर स्पर्श ज्ञान लाभ होता है।
वधिरता में नारायणतेल का नस्य (अश्वगंधा जिसका अन्यतम उपादान है) तथा पक्षाघात, धनुस्तम्भ, वात वा कटिशूल म इसका अभ्यंग वा, आमरक्तातिसार में इसकी वस्ति (enema) का प्रयोग होता है।
नारायणतैल १०-५० बूंद मात्रा में क्षय, शिशु-कार्य (सुखण्डी) जराजन्यदौर्बल्य कुष्ठ, वातव्याधि इत्यादि रोगों में सेव्य है।
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