स्पर्श चिकित्सा को झाड़ फूंक की विधि भी कह सकते हैं-
हर दर्द की दवा है – गोविंद की गली में….
सिरदर्द, हाथ – पैरों में सूजन, कमर या रीढ़ की हड्डी में गैप या दर्द, मानसिक विकार, तनाव, डिप्रेशन, माइग्रेन, कम्पन आदि का इलाज आज भी उत्तर, हिमालय, तिब्बत, लद्दाख, असम के कामाख्या मंदिर के आसपास रहने वाले साधु, अघोरी, संत केवल स्पर्श मात्र से हमेशा के लिए ठीक कर देते हैं।
शिव की शरण में जाएं...
अध्यात्मिक उपचार करना हो, तो रुद्री के पंचम अध्याय के पांच पाठ से किसी शिवलिंग पर चंदन इत्र युक्त जल से अभिषेक करें।
दिन रविवार हो और समय शाम ४.३० से ६ बजे के बीच हो। अमृतम पत्रिका का अनुभव है कि इस उपाय को ५ रविवार करने से असाध्य से असाध्य या लाचार मरीज १०० फीसदी स्वस्थ्य हो जाता है।
!! ॐ शम्भूतेजसे नमः शिवाय !! मंत्र की ११ माला सूर्योदय से पूर्व ११ दिन एक दीपक राहुकी तेल का जलाकर करने से चमत्कारी लाभ होता है।
शक्तिपात एक चमत्कारी चिकित्सा…
सिद्ध अवधूत तो मात्र शक्तिपात के माध्यम से व्यक्ति का जीवन बदल देते हैं। ऐसी घटनाएं भारत में पहले आम होती थीं।
काशी के अनेक महात्मा शक्तिपात या प्राण स्पर्श चिकित्सा में गुणी थे। महा अघोरी, अवधूत संत कीनाराम बाबा तो मात्र भभूत फेंक कर बीमारी भगा देते थे।
बनारस में आज भी संत कीनाराम आश्रम में क्री कुंड में आज भी जेल रही धूनी को रोगांग पर लगाकर स्वस्थ हो जाते हैं।
बुढ़िया माई का मंदिर…ऐसे ही बनारस से करीब ६० किलोमीटर दूर हरिहर, रायपुर गांव के समीप हथियाराम मठ परिसर में हजारों साल पुराना बुढ़िया माई का एक प्राचीन मंदिर हैं। यहां लकवा के हजारों मरीज पहुंचकर मां की भभूत लकवा ग्रस्त स्थान पर मलकर सुबह की धूप में बैठते हैं और उनका पैरालाइसिस हमेशा के लिए जड़ से मिट जाता है।
बिना औषधियों के उपचार.…
आयुर्वेद के कुछ जीर्ण शीर्ण शास्त्रों में -प्राण चिकित्सा का विकल्प भी बताया है। इसमें किसी तरह की कोई दवाई नहीं खिलाई जाती। केवल उंगली या हाथ के स्पर्श द्वारा रोगी को ठीक किया जाता था।
इस चिकित्सा पद्धति में केवल प्राण ही प्राण है । सब कुछ प्राणवान हैं, न मशीनें हैं, न कंप्यूटर, न दवा और न निदान के लिए खर्चीली जांचों का उपक्रम।
यह चिकित्सा भी प्राणों से होती है और प्राण ही रोग को निर्मूल कर स्वाथ्य की करते हैं। अर्थात् यह प्राणों के द्वारा प्राणों की प्राणवान चिकित्सा है। पढ़िए स्पर्श चिकित्सा के अद्भुत प्रयोगों और अनुभवों का यह कारगर विवेचन….!
रोगों का व्यापार….
चिकित्सा आज निष्प्राण हो गयी है। यह आज कहीं कोई प्राणवान स्पर्श तक नहीं दिखता कहीं कोई किसी को पुचकारता नहीं, किसी की पीड़ा को कोई सहलाता नहीं, न सिरप कोई हाथ रखता है और न इस दुःख में किसी को कोई अपने साथ से आश्वस्त करता है।
वर्तमान में अपनी पीड़ा को भोगने के लिए अभिशप्प हर रोगी अकेला है।
व्यापारिक चिकित्सा में अब मानवी-स्पर्श के महत्व को भूल गये हैं या उसे ऊपरी तौर पर भुला दिया।
मगर भीतर से सभी उस स्पर्श को लालायित रहते हैं।
प्राण चिकित्सा निरंतर सुदर….
आयुर्वेद में अमृतम के लिए काम करते हुए सुदीर्ण संवेदनाओं के आधार पर में कह सकते हैं कि चिकित्सा को निष्प्राण बनाना और उसे इतना बाजारू व यंत्रीकत करना भारी भूल है।
‘प्राण चिकित्सा’ पूर्णतः शास्त्रोक्त विद्या है। स्पर्श या प्राण चिकित्सा शब्द का उल्लेख वेदों व अन्य प्राचीन शास्त्रों में मिलता है।
प्राणवान चिकित्सा करने का तरीका...
प्राणों के उपचार की इस प्रक्रिया में रोगी के साथ तादात्म्य स्थापित करने के साथ ही उसके शरीर को भी सक्रिय कर उसमें स्पंदन करना होता है। यह सक्रियता वास्तव में आरोग्योन्मुखी सक्रियता कहलाएगी, मगर यह संभव होता है शुद्ध एवं समर्पित स्पर्श से।
अपने हाथों में भगवान शिव या गुरू का वास समझते हुए हाथों से रोगी के किस अंग-उपांग अथवा स्नायु-तंत्र में कहां कितना अवरोध है शरीर को टटोला जाता है।
हमारी मान्यता है कि अमुक स्थान एवं संस्थान में अवरोध से अमुक रोग प्रकट होता है। यह अवरोध यदि दूर हो जाए तो वह रोग भी दूर होता है।
अपनी इसी मान्यता के अंतर्गत हम रोगी के स्नायु तंत्रको टटोल कर अवरोधों को समझने का प्रयत्न करते हैं।
स्पर्श से चिकित्सा अवरोधों को टटोलने के लिए शिव-संकल्प के साथ दिया गया आरोग्योन्मुखी स्पर्श ही प्राण चिकित्सा का मूल आधार है।
रोगी को दिये गये इस आरोग्योन्मुखी स्पर्श का अपना एक अलग विज्ञान है। इसका अपना एक अलग व्याकरण है। यह कोई जादुई स्पर्श भी नहीं और किसी औलिया-पीर का चमत्कारी स्पर्श भी नहीं।
प्राकृतिक चिकित्सा का यह व्याकरण व्याधि की समग्र-समझ से विकसित होता है।
अतः हर रोगी के लिए है अलग और नया होता है । इस प्रकार एक तरह के नितांत वैयक्तिक व्याकरण के अंतर्गत दिया गया स्पर्श उसके मर्म-स्थानों को झंकृत एवम सक्रिय कर उनमें प्राणों का संचार करता है।
नव-प्राण के संचरण से अवरोध दूर होकर जगह-जगह रुके विजातीय द्रव्य प्रवाहित हो विसर्जित होते हैं तथा रक्त का नवसंचार स्नायु संस्थान एवं अन्य कोशिकाओं को पुनर्जीवित करता है।
शरीर के अंग-उपांगों के अंतरतल में छिपे मृतप्राय कोशों का पुनर्जन्म भी व्याधि को दूर करता है ।
यह स्पर्श, मात्र स्पर्श तक सीमित नहीं रहता है। रोगी को स्थिति व देह को देखते अलग-अलग मर्मस्थानों को अलग-अलग दवाव के सब सक्रिय किया जाता है। कारण है कि लोग इस पद्धति को एक्यूप्रेशर के समकक्ष रख कर देखते हैं।
मर्म-स्थानों को दबने की तीवता एवं समय व्याधि एवं व्यक्ति के अनुरूप होता है। मर्म-स्थानों का जाल शरीर में एड़ी से चेटी तक फैला है। इन मर्म-स्थानों को दवाकर सजग करने की प्रक्रिया में रोगी को स्थानीय पीड़ा का अहसास अवश्य होता है, मगर इसका परिणाम सुखदायी एवं शांतिदायी होता है।
रीढ़ सब रोगों की जड़
मर्म-स्थानों के इस संपूर्ण तंत्र को समझें तो हम पाते हैं कि सबका उद्गम-स्थल हमारी रीढ़ ही है। इसका दूसरा नाम मूलाधार है।
नया आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि सारे स्नायु तंत्र का मूल उद्गम-स्थल मूलाधार है।
मूल प्राण शक्ति का प्रवहन भी मूलाधार के मध्य से ही होता है।
अतः प्राण चिकित्सा में भी मूलाधार पर हमारा सारा ध्यान केंद्रित रहता है।
प्रयास रहता है कि मूलाधार से निःसृत स्नायुओं की सजगता को टटोलें, समझें और कमजोर स्नायुओं को पुनः सक्रिय एवं सजग बनाएं।
इन स्नायुओं की सजगता रोगमुक्ति में तो मदद करती ही है, मगर साथ ही रोगी की प्राण-शक्ति का संवर्धन-पोषण करती है।
उसकी चित्तवृत्ति का परिमार्जन करती है और रोगमुक्ति में उसकी मदद करती है । यही कारण है कि प्राण चिकित्सा में मूलाधार ही हमारा केंद्र बिंदु होता है।
जानकारों था साधुओं ने इस चिकित्सा पद्धति से सर्वाइकल स्पोंडिलाइटिस, साइटिका, माइग्रेन, कमर के दर्द, पाचन संस्थान की नानां बीमारियों एवं जोड़ों के दर्द के हजारों रोगियों का उपचार किया है।
अनेक रोगी एलोपैथी चिकित्सा विशेषज्ञों की राय के बाद भी निरोग नहीं हो पा रहे हैं, उन्हें एक बार इस स्पर्श चिकित्सा को जानना चाहिए।
भरोसा रखने वाले अनेकों क्रॉनिक रोगों से ठीक हो सकते हैं।
एसएन १९९५ के करीब एक बार एक बहुत ही असाध्य रोगी को दिखाने मैं वैद्य रविशंकर शर्मा के पास जयपुर ले गया था और उन्होंने उसे पूरी तरह स्वस्थ्य कर दिया बाद में कुछ मरीज भी भेजे उन्हें भी लाभ हुआ।
२५ साल पुराना ये पता मेरे पास है।इसके बाद की कोई जानकारी नहीं है।
भारतीय प्राण चिकिस्ता एवं अनुसंधान केंद्र सी-८४, रामदास मार्ग, तिलक नगर, जयपुर!
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