महाराजा रणजीत सिंह से मयूर सिंहासन लूटकर केसे प्रसिद्ध हुआ शाहजंहा का तख्ते ताउस जाने रोचक तथ्य। Amrutam

मुगल सम्राट शाहजहां का राज सिंहासन तख्तेताऊस की पूरी कहानी क्या है। खरबों रुपए का यह सिंहासन आज लापता है।
१७०७ ई. में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात विशाल मुगल साम्राज्य का एक प्रकार से पतन आरंभ हो गया। उसके बाद कोई भी ऐसा शासक दिल्ली की गद्दी पर नहीं बैठा, जो इस विशाल साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाकर उसके वैभव की रक्षा कर सकता।
मुगल परिवार की आंतरिक कलह और फूट से ग्रस्त, इस ह्रासोन्मुख साम्राज्य को १७३९ ई. में नादिरशाह जैसे क्रूर और आततायी आक्रमणकारी के हाथों विनाश का मुंह देखना पड़ा।
नादिरशाह का नर्क
नादिर शाह के एक हुकम से दिल्ली में मुसलमानों का जो कत्लेआम हुआ, उसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस समय दिल्ली के लाखों निरीह, निरपराध मुस्लिमों को 24 घंटे में मौत के घाट उतार दिया गया।
नादिरशाह ने २२ मार्च, १७३९ को चांदनी चौक की सुनहरी मसजिद में बैठकर तलवार म्यान से बाहर निकाली और हुकम दिया, “जब तक मैं लवार म्यान में न रखूं तब तक दिल्ली के मुगल शासक समर्थक मुसलमानों कल्लेआम जारी रहे।
 फिर क्या था ! उसके सैनिक दिल्लीवालों पर बाज की तरह टूट पड़े। सभी मुस्लिम स्त्री, पुरुष, बूढ़े- बच्चे, पशु-पक्षी, जो भी मिला, कत्ल कर दिया गया।
 हर घर से खून की धारा बह निकली।
चांदनी चौक, दरीबा, जामा मसजिद का आस-पड़ोस सभी आग में जल उठे। ९ घंटे तक हत्याकांड चलता रहा। यह एक लंबी कहानी है कि किस प्रकार यह रक्तपात बंद हो पाया और नादिरशाह को यहां से विदा किया गया।
किंतु कहते हैं कि दिल्ली के पूरे एक लाख मुस्लिम नागरिक इस हत्याकांड के शिकार हुए थे ।
इस दिल दहलानेवाले नरसंहार के साथ-साथ ही नादिरशाह ने शाही खजाने को भी खाली कर दिया और तत्कालीन दिल्ली सम्राट मुह्यमद शाह रंगीला असहाय होकर सब-कुछ देखता रहा।
नादिरशाह ने लूटा मुगलों का खजाना
बादशाह से नादिरशाह ने लाखों रुपये तथा साढ़े तीन सौ वर्षों से संगृहीत शाही खजाने के जवाहरात लिए और इनसे भी बढ़कर मुगल साम्राज्य का वैभव ‘कोहेनूर हीरा’ और शाहजहां का बहुमूल्य सिंहासन ‘तख्तेताऊस’ भी उसने छीन लिया।
दिल दहलानेवाले नर-संहार के साथ-साथ ही नादिरशाह ने शाही खजाने को भी खाली कर दिया और तत्कालीन दिल्ली सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला असहाय होकर सब-कुछ देखता रहा।
बादशाह से नादिरशाह से लाखों रुपये तथा साढ़े तीन सौ वर्षों से संग्रहीत जवाहरात लिए। कोहेनूर हीरा और बहुमूल्य सिंहासन तख्ते ताऊस भी हथिया लिया था।
‘कोहेनूर’ की भांति ही तख्तेताऊस भी शाहजहां की प्रसिद्ध निधियों में से एक था। कोहेनूर तो कट-छंटकर आज भी इंगलैंड की महारानी के ताज की शोभा बढ़ा रहा है, किंतु अभागे ‘तख्तेताऊस’ का कहीं भी नामों-निशान नहीं रहा। आइये एक बार फिर, मयूर सिंहासन के बारे में जाने कि इसकी इतनी कीमत और अहमियत क्यों थी।
रत्नों का महान पारखी था अय्यास शाहजहां
 रत्नों के पारखी मुगल बादशाहों में शाहजहां-जैसा रत्नों का पारखी और प्रेमी कोई दूसरा नहीं हुआ । प्रतिदिन उसके दरबार में देश-विदेश के जौहरी बहुमूल्य हीरे, माणिक, पन्ना, पुखराज आदि कीमती पत्थरों को लेकर उपस्थित हुआ करते थे। वह उन्हें आंखों से देखकर ही उनका मूल्यांकन करते तथा पसंद की चीजों को खरीदा करते थे। स्वभावतः बादशाह का रत्न-भंडार संसार के तत्कालीन सभी रत्न – भंडारों से सवाया था।
१६२८ ई. में औपचारिक रूप से सिंहासनारूढ़ होने के तुरंत बाद शाहजहां को एक ऐसे राज-सिंहासन का पता लगा, जो अन्य किसी भी बादशाह के सिंहासन से कहीं अधिक श्रेष्ठ एवं मूल्यवान और दुनिया में निराला था। ये मयूर सिंहासन के नाम से प्रख्यात था
रत्नों से अलंकृत ये मयूर सिंहासन ७ वर्ष के सतत् परिश्रम के बाद १६३४ ई. में यह सिंहासन बनकर तैयार हुआ था।
मयूर सिंहासन यानि तख्त-ए-ताउत का
तख्तेताऊस’ का आकार-प्रकार का उल्लेख ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑव इंडिया के पृष्ठ ३७७ पर मिलता है।
 यह सिंहासन एक पलंग के आकार का था, जिसके पाये सोने के बने थे । इसकी चित्रित छत, पन्ने के बने बारह स्तंभों पर टिकी हुई थी और प्रत्येक स्तंभ पर दो-दो मोर थे, जिनके ऊपर रत्न जड़े हुए थे।
प्रत्येक जोड़े के पक्षियों के बीच में एक वृक्ष था, जो हीरों, पन्नों और माणिक तथा मोतियों से सुसज्जित था। यह अलंकृत सिंहासन की उस समय एल लागत कम-से-कम एक करोड़ रुपये अर्थात् उस समय के साढ़े बारह लाख पौंड के बराबर थी।
यह देखने में चारपायी के किस्म का था, छह फुट लंबा, सोने के चार खंबों पर स्थित था।
१७३९ तक लालकिले में उस समय तक शोभायमान रहा, जब तक कि नादिरशाह उसे उठाकर ईरान नहीं ले गया।
तख्त का पिछला हिस्सा हू-बहू मोर की पूंछ के रंग और आकार-प्रकार का था, जिसमें उच्च श्रेणी के हीरे, माणिक और नीलम लगे हुए थे। छत के छोटे-छोटे आधार-स्तंभ सोने के बने हुए और पन्ना तथा मोतियों से आच्छादित थे।
१७वीं सदी में ‘जीन थेवनो’ नाम का एक फ्रांसीसी यात्री भारत आया था । उसने लिखा है – “कहते हैं इसमें २० करोड़ का तो सोना ही लगा है पर कौन इसकी कीमत चुका सकता है ? इसका मूल्यांकन तो उन बहुमूल्य पत्थरों की कीमत जानने पर ही किया जा सकता है, जिनसे यह लदा हुआ है।
शर लॉक होम्स” के रचयिता ‘सर ऑर्थर कानन डायल’ ने अपनी आत्मकथा में लिखा था- ‘दिल्ली में मुगलों के महल में रखा मयूर के रूप में निर्मित यह अद्भुत सिंहासन पूरी तरह सोने का बना था और भांति-भांति के हीरों-रत्नों आदि से जुड़ा था।
 वह स्वर्णयुक्त पांववाले ऐसे छोटे पलंग-जैसा दिखायी देता था, जिसके पतले स्तंभों पर हीरे-पन्ने तथा रत्न बड़े कलात्मक ढंग से जड़े गये थे।
सिंहासन के पृष्ठ भाग में दो मयूर प्रतिष्ठित थे, जिनके शरीर तथा फैले पंखों पर भी भांति-भांति के दमकते चमकते रत्न, हीरे और पत्रे आदि शोभायमान थे।
इसी प्रकार अन्यान्य विदेशी यात्रियों ने इसके संबंध में लिखा है और इसकी कीमत के संबंध में तरह-तरह की अटकलबाजियां लगायी हैं।
प्रसिद्ध यात्री ट्रेवनिर्यर ने जो इसका आंखों देखा विवरण प्रस्तुत किया है, वह अधिक प्रामाणिक है। उनके शब्दों में मुख्य सिंहासन’ जो पहले दरबार के मुख्य भाग में स्थित है।
 वह हमारे शिविर की चारपाइयों से आकार और प्रकार में मिला-जुलता है, अर्थात् यह लगभग ६ फुट लंबा और ४ फुट चौड़ा है।
चारों पार्यों के ऊपर ४ सलाखें लगी हुई हैं जो २० से लेकर २५ इंच तक ऊंची हैं। ये सिंहासन के आधार को सहारा दिये हुए हैं। उन सलाखों के ऊपर बारह स्तंभ हैं, जो इसकी छतरी को तीन ओर से संभाले हुए हैं। पायों और सलाखों, दोनों ही के ऊपर, जो १८ इंच से बड़े हैं, सोने के पत्र चढ़े हुए हैं और उन पर अनेक हीरे, माणिक और पत्रे बड़े हुए हैं।
“मैंने इस सिंहासन में बड़े-बड़े माणिकों को गिना है, वे १०८ के लगभग हैं। इनमें सबसे छोटे का भार १०० कैरेट है, किंतु कुछ ऐसे भी हैं, जो २०० कैरेट या उससे बड़े दिखायी देते हैं।
छतरी का अंदर का भाग हीरों और मोतियों से ढका हुआ है, जिसके चारों ओर मोतियों की झालर लगी हुई है। छतरी के ऊपर, जो एक चौकोर गुंबद की शक्ल की है, एक मोर स्थित है जिसकी पूंछ ऊपर को उठी हुई है।
पूंछ नील मणि तथा अन्य रंगों के पत्थरों से बनी है। मोर का शरीर सोने का है जिसमें बहुमूल्य पत्थर लगे हुए हैं। इसकी छाती के सामने एक बड़ा माणिक लगा है जिसके ऊपर भाले के आकार का एक लगभग ५० कैरेट भार का मोती है, जो कुछ-कुछ पीले जल-जैसा है।
ट्रेवर्नियर का कथन है कि तैमूरलंग के समय से संगृहीत धन से प्रारंभ और शाहजहां द्वारा पूर्ण इस सिंहासन का मूल्य १,०७००० लाख है।
इस भव्य सिंहासन के पीछे एक छोटा सिंहासन है, जो स्नान कुंड के आकार का है यह अंडाकार है, जसकी ऊंचाई ७ फुट और चौड़ाई ५ फुट है। इसके बाहर हीरे और मोती जड़े हुए हैं, किंतु इसकी छतरी नहीं है।
लार्ड कर्जन ने जिस तख्त को तेहरान में देखा था, उसके विषय में वह लिखता है कि यह तख्त ताऊत बिलकुल भी भारती कृति नहीं है । इसका निर्माण इस्फहान के मुहम्मद हुसैन खां सदर ने अली शाह १७९३-१८४७ के लिए उस समय कराया था, जब शाह ने एक इस्फहानी युवती के साथ विवाह किया था।
नादिरशाह के मूल “मयूर सिंहासन (अर्थात दो दो प्रतिकृतियों के अवशेष) को आगा मुहम्मद शाह ( १७८५-९७) ने टूटी-फूटी और जीर्ण-शीर्ष अवस्था में प्राप्त किया था उसने इसे विजेता के रूप में अन्य जवाहरात के साथ प्राप्त किया था।
 इसके बाद इसके प्राप्त अंशों से आधुनिक रूप और प्रकार का एक अन्य सिंहासन बनाया गया जो आज तेहरान के महल में स्थित है।… अतः इस कुरसी पर महान मुगलों में मयूर सिंहासन के अवशेष विद्यमान हैं।
नादिरशाह को यह तख्त इतना अधिक पसंद था कि वह जहां कहीं भी जाता इसे अपने साथ ले जाता था । इसके बाद यह तख्त आगा मुहम्मद शाह के हाथ पड़ा, जिसने फारस की बादशाहत भी नादिरशाह के मरन पर हड़प ली थी।
१९१९ में यह अफवाह फैली थी कि मुगल सम्राटों का ‘तख्त-ए-ताऊत’ कुस्तुनतुनिया में है और तुर्कों से खरीदकर इसे शायद दिल्ली लाया जाएगा।
लार्ड कर्जन ने– “दि टाइम्स’ में १० सितंबर, १९१९ को लिखे गये अपने एक पत्र में उपर्युक्त तथ्य को दोहराया है। उसने कहा है कि नादिरशाह की मृत्यु से दो वर्ष पूर्व जब तुर्कों ने ईरान पर आक्रमण किया तो उन्हें भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा और यह विजयोपहार उनके हाथ में न आ सका“।
तख्ते ताऊस समुद्र में
कुछ लोगों का अनुमान है कि नादिरशाह के हार्थों असली तख्ते ताऊत नहीं लग सका था। जिस तख्त को नादिरशाह नहीं लूट सका उसे लूटने के बाद में अंगरेजों ने सफलता प्राप्त की, किंतु दुर्भाग्य से वह तख्ते ताऊस इंगलैंड तक भी नहीं पहुंच पाया और समुद्र में ही गायब हो गया।
इस संबंध में एक बड़ी रोचक कथा प्रचलित है। १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह सिंहासन अंगरेजों के हाथ लगा और मद्रास लाया गया और वहां से “ग्रौस वेनर” नामक एक विशाल जलयान से जून, १७८२ में इंगलैंड के लिए रवाना किया गया।
 उसके कप्तान के अनुसार उस जहाज पर ३००,००० पौंड मूल्य के कीमती हीरे, जवाहिरात, जिनमें विश्वविख्यात तख्ते ताऊत भी शामिल था, इंगलैंड भेजे जा रहे थे।
 किंतु दुर्भाग्यवश जहाज पूर्वी अमरीका के आस-पास एक घोर तूफान के चंगुल में जा फंसा और एक चट्टान से टकराकर ध्वस्त हो गया।
कुछ कहते हैं कि जहाज जल समाधि को प्राप्त हुआ, और साथ ही तख्ते-ताऊस भी । कुछ का मानना है कि जहाज से जो यात्री तट पर आ सके, उन्हें वहां रहनेवाले हब्सियों ने लूटा।
 इसी बहुगूल्य रत्न और हीरे तथा तख्ते ताऊस के जवाहिरात भी उनके हाथ लगे और इस अपार धनराशि को उन्होंने एक गढ्डे में दबा दिया।
दक्षिण अफरीका के प्रसिद्ध अन्वेषक इतिहासकार जार्ज मैक्थील ने १८२५ में यह अनुमान प्रस्तुत किया कि ‘ग्रौस वेनर’ का खजाना उम्जीमुबु नदी से कुछ किलोमीटर उत्तर की ओर स्थित एक गढ्डे में छिपा है। किंतु यह क्षेत्र विषैले नागों का क्षेत्र था। इसलिए किसी ने वहां जाकर इसे खोजने का प्रयास ही नहीं किए।
मायू4 सिंहासन को खोज निकालने के अनेकवार प्रयत्न किए गये किंतु कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। १९२२ में यह तख्त फिर चर्चा का विषय बना और एक नई ‘प्रौस बेनर बुलियन सिंडीकेट’ की स्थापना की गयी। उसने लंदन स्थित ‘इंडिया हाऊस” को लिखे पत्र में कुछ रहस्यों की सूचना दी थी, किंतु इंडिया हाऊस ने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया।
भूगर्भ वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि सागर के गर्भ में छिपी लुप्त संपदा को बाहर लाने के लिए सभी देशों को मिलकर एक अतिविशाल और अति खर्चीली योजना बनानी होगी— जो शायद अभी संभव नहीं है।
इन चर्चाओं के बाद फिर से प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं कि क्या तेहरान के खजाने में रखा ‘तख्ते ताऊस’ नकली है?
यदि यह नकली है तो असली ‘तख्ते ताऊस’ क्या वही था, ज़ो’ग्रौस वेनर’ जहाज द्वारा इंगलैंड ले जाया जा रहा था? क्या वह समुद्र के गर्भ में समा गया है या दक्षिणी अफरीका के किसी कोने में अभी तक भी दबा पड़ा है ?
इन प्रश्नों का अभी उत्तर मिल भी सकेगा, संभावना क्षीण ही है।

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