शास्त्रों में कहा है कि-
‘चिता चिंता एक समान’ हैं।
बेकार की अधिक सोच हमारे मन-मस्तिष्क में दीमक लगाकर हमें मनोरोगी बना देती है। हमारे शरीर के अन्य रोग भी सोचने की वजह से ही होते हैं। अति सोच से दिमाग सुन्न होना, बातें भुल जाना विचार शक्ती का क्षीण होना, याददाश्त कम हो जाना।
उदासी छा जाना, सरदर्द होना।
अपने आप को किसी भी लायक न समझना, परेशानियों में ही उलझे रहना आदि बदलाव आने लगते हैं।
सोचने से धीरे धीरे तनाव बढते जाता हैं। और यह तनाव ही अवसाद को जन्म देती हैं जो ना सम्भलने से कई बड़ी बीमारियों को न्योता दे देता हैं।
ये सब तकलीफें हमें जल्दी समझ
नहीं आती हैं, पर जब देर हो जाती हैं तब बहुत नुकसान कर देती हैं।
आज की भूल आगे चल कर बड़ी परेशानी बने उससे पहले ही सम्भल जाना चाहिए। रोकथाम करना उपचार करते रहने से अधिक बेहतर हैं।
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