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लगभग 60 फुट गहरे वर्गाकार कुंडों की सुंदरता इनकी सीढ़ियों से है, जो पाषाण की होते हुए भी बोलती-सी हैं।
छतरियों के स्तंभों पर निर्मित बेल-बूटे और गमलों को नक्काशी बेजोड़ है। यहां पर गजलक्ष्मी, सरस्वती और गणेशजी की शास्त्रोक्त प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। ‘नागरसागर कुंड’ में उद्यान विकसित होने से आकर्षण और बढ़ गया हैं।
धाबाई कुंड’ भी बूंदी के ‘स्टेप वेल्स’ का अद्भुत उदाहरण है। ‘लंका गेट रोड’ पर स्थित कुंड का की निर्माण संभवतः 1911 के बावड़ी’ एशिया आसपास का है।
कुंड में प्रवेश द्वार से सामने की ओर सर्वश्रेष्ठ महलनुमा बरामदा और दो बावड़ियों में एक कमरे बने हुए हैं, जिसमें दो इस बावड़ी का झरोखे निर्मित हैं ।
इस कुंड के आंतरिक संरचना भी कलात्मक निर्माण सत्रहवी है। आंतरिक संरचना में शताब्दी के अंत में सीढ़ियों जमाव तकनीकी नाथावती ने रियासतकालीन कौशल एवं उसकी उपादेयता करवाया था। को प्रदर्शित करता है।
रावराजा रामसिंह द्वारा निर्मित शिकार बुर्ज में भी दो लघु कुंड हैं जबकि तारागढ़ दुर्ग स्थित ‘टांकों’ के पानी से तो पहाड़ी पर विशाल ‘टी.वी. टॉवर’ का निर्माण करवाया गया है। इस तथ्य से यह अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है कि प्राचीन बावड़ियां जल उपलब्धता के दृष्टिकोण से कितनी महत्त्वपूर्ण हैं ?
स्टेप ऑव वेल्स का शहर बून्दी राजस्थान की बावड़ी एक अपशकुन निवारण के लिए बनी थी, इनका रहस्य क्या हैं?
बूंदी में हजारों साल पुरानी ऐसी सैकड़ों बावड़ियां हैं, जो पेयजल उपयोग के साथ ही पर्यटन, धर्म और पुरातत्व के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इसीलिए तो ‘बूंदी शहर’ को ‘स्टेप ऑव वेल्स’ के नाम से नवाजा गया हैं।
उपेक्षा का शिकार…. धार्मिक आस्था और पुरातात्विक महत्त्व के साथ पेयजल उपलब्ध करानेवाली कई बावड़ियां तो आज ‘कचरा डिपो’ बनकर ही रह गयी हैं। किन्नर, गंधर्व और अप्सराओं का निवास मानी जानेवाली बावड़ियां अब सुनसान पड़ी हैं और उनके साथ प्रेतों, चुडैलों की कथाएं भी जुड़ गयी हैं।
प्रतिवर्ष पेयजल संकट होने के बावजूद हम मानवनिर्मित बावड़ियों को उपयोग में लाने में असमर्थ हो गये हैं। जल स्तर घटने, और सूखने के बावजूद ये बावड़ियां पर्यटन विकास के महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में वर्तमान पीढ़ी के लिए उपयोगी साबित हो रही हैं।
वास्तुशास्त्र के अनुसार बावड़ियां चतुष्कोणीय, वर्तुल, गोल तथा दीर्घ प्रकारों की होती हैं। इनके प्रवेश के मध्य भाग तक ईंटों अथवा पत्थरों का निर्माण होता है। और आगे आंगननुमा भाग, जिसके ठीक नीचे जल भरा होता है।
एक या अधिक मंजिल में निर्मित बावड़ियों में दरवाजे, सीढ़ियों की दीवारें तथा आलिये बने होते हैं, जिनमें बेलबूटों, झरोखों, मेहराब एवं जल-देवताओं का अंकन होता है।
राजस्थान का शहर बूंदी वस्तुत: बावड़ियों का शहर है। यहां पुरातत्व और सैकड़ों बावड़ियां है। ये पर्यटन की दृष्टि से अपना महत्त्व रखती हैं। यह अलग बात है कि उपेक्षा के कारण आज कई बावड़ियां ‘कचरा खाना या मैला डिपो बन चुकी हैं और कई सुनसान पड़ी हैं।
जल-देवताओं का चित्रण….बावड़ियों में अधिकांशतः कश्यप, मकर, भूदेवी, वराह, गंगा, विष्णु और दशावतार का चित्रण किया जाता है। बूंदी में स्थित लगभग समस्त बावड़ियों में उक्त विशेषताएं हैं।
एशिया की सर्वश्रेष्ल बावडी…….बूंदी की ‘रानीजी की बावड़ी’ की गणना तो एशिया की सर्वश्रेष्ठ बावड़ियों में होती है। इस अनुपम बावड़ी का निर्माण सत्रहवीं शताब्दी के अंत में राव राजा अनरुद्ध सिंह की रानी नाथावती ने करवाया था। इस कलात्मक बावड़ी में तीन द्वार हैं।
दो द्वार आमने-सामने और एक द्वार उनसे ठीक लंबवत। कुछ सीढ़ियां ऊपर बनी हुई हैं। यही द्वार हैं जहां से लंबी-लंबी सौ से भी अधिक सीढ़ियों के द्वारा बावड़ी के तल तक पहुंचा जा सकता है। –
रानी की बावड़ी….इस बावड़ी में खंभों पर बने ‘तोरण द्वार’ और शिखर पर
निर्मित कलात्मक गज प्रतिमाएं, प्रवेश करते ही दर्शक को मुग्ध कर देती हैं।
तोरण द्वारों का अलंकरण बेमिसाल है। वहीं तोरण द्वारों की तीस मीटर ऊंची मेहराबों के पास भिन्न मुदाओं में बनी हुई हाथो को मूर्तियां आकर्षक हैं।
बावडी को दोनों दीवारों पर हिंदू धर्म के दस अवतारों एवं नवग्रह की मूतया संस्थापित हैं इनमें मत्स्य अवतार, वरह अवतार, नृसिंह अवतार की प्रतिमाएं देखते ही बनती हैं।
प्रवेश द्वार पर गणेशजी और माँ सरस्वती की विशाल मूर्तियां बनी हुईं हैं। एक अन्य उत्कीर्णन में एक पनिहारिन राहगीर को पानी पिला रही है।
बावडी के ऊपर की ओर चार छतरियां बनी हुई हैं, मुगल स्थापत्य शिल्प का प्रभाव दर्शाती हैं। यह कला की अप्रतिम धरोहर है।
‘रानीजी की बावड़ी’ उत्तर मध्य युग की एक कलात्मक देन है। इस बावड़ी की रचना ऐसी की गयी है कि तपती लू और धूप में जनता यहां आकर राहत की सांस ले सके। बावड़ी के जीर्णोद्धार और चारों ओर उद्यान विकसित हो जाने से इसका आकर्षण सैलानियों के लिए और बढ़ गया है।
रियासत काल में निर्मित बावड़ियां तत्कालीन जल प्रबंधक समिति का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। वहीं धार्मिक मान्यताओं और आस्था का भी सीधा संबंध इन जलस्रोतों से था।
अपशकुन का निवारण हेतु बनी थी बावड़ी…..रावराजा छत्रसाल सिंह (वि. सं. 1512) के काल में तो एक अपशकुन के प्रायश्चित के फलस्वरूप जल स्रोतों का निर्माण कराया गया था।
कहा जाता है कि उस समय बाहरली बूंदी का समूचा क्षेत्र एक विशाल बाग के स्वरूप में अनुपम उदाहरण था।
एक दिन रावराजा शत्रुशल्य जो सिंह मय लाव-लवाजिमे के बगीचे में सैर कर रहे थे। एकाएक राजा के सिर पर तना हुआ छत्र टूटकर गिर पड़ा।
छत्र के टूटने को पंडितों ने बड़ा भारी अपशकुन और अनिष्ट का संकेत माना और इसके समाधान के लिए लवाजिमे के प्रत्येक सदस्य के हाथों परोपकारी कार्य करवाने का सुझाव दिया। इसी परोपकारी कार्य के रूप में रानी की दासी अनारकली ने वर्तमान बापुरा क्षेत्र में एक विशाल बावड़ी का निर्माण कराया जो ‘अनारकली की बावड़ी’ के नाम से विख्यात है।
इसी तरह नगारे को धूसा देनेवालों (नगाड़े बजानेवाले) के नाम से बाहर धूस को बावडी, सरदारों की ओर से ‘सामरया को बावड़ी दीवान के नाम से ‘दीवान की बावडी’ निर्मित हुई।
भाट के नाम से, भट्ट की बावड़ी और धाया गूजर के नाम से ‘धाय का कुंड (नानकपुरिया) बनाया गया है।
वहीं लवाजिम में उपस्थित पठान
के नाम से, ‘पठान को बावड़ी’, सखी माता बाई के नाम से, ‘माता की बावड़ी’ दांबा नाहर धूंस की बावड़ी (खंजाजी) के नाम से, ‘दांबा की बावड़ी का निर्माण कराया गया।
बावड़ी में स्थापित बेजोड प्रतिमाएं…. छत्रपुरा स्थित ‘अनारकली बावड़ी’ , सिविल लाइंस के निकट स्थित ‘नाहरवूस की बावड़ी’ और ‘भावल्दी बावड़ी’ भी निर्माण के दृष्टिकोण से विशिष्ट हैं।
‘अनारकली बावड़ी’ तीन द्वारवाली अनूठी बावड़ी है, जिसमें 71 सीढ़ियां उतरकर तल तक पहुंचना पड़ता है।
‘नाहर धूस’ की बावडी से रियासतकाल में ‘ईश्वरी फ्रूट गार्डन’ को सिंचाई की जाती थी जबकि मल्लाशाह मंदिर क्षेत्र में स्थित ‘भाजल्टो बाजड़ो ने भीषण गरमी में गत वर्षों में क्षेत्र के लोगों को खूब राहत दी थी। विगत गरमियों में सूखी बाबही में सफाई के बाद जल की धारा फूर पड़ी थी। बावड़ी में प्राचीन बेजोड प्रतिमाएं भी स्थापित हैं।
पुरातात्विक महत्त्व की बावडियां…. बून्दी शहर के अलावा दुनिया में ऐसी बावड़ी कहीं भी देखबे को नहीं मिलती।
बूंदी-जयपुर मार्ग पर दधीमधी माता के मंदिर में भी एक विशाल बावड़ी है। इस बावड़ी की गहराई अपेक्षाकृत अधिक है। यहां बावड़ी के दोनों सिरों पर मूषकारूढ़ गणेश और हंस के रथ पर विराजमान सरस्वती की आकर्षक प्रतिमाएं हैं।
बावड़ियों का भंडार….इनके अतिरिक्त शहर में ‘गुल्ला बावड़ी’, ‘मोचियों की बावड़ी’, ‘साबूनाथ की बावड़ी’, ‘चंपावाले की बावडी’, ‘मेघनाथ की बावड़ी’, ‘दमरा बावड़ी’, ‘व्यास बावड़ी’, ‘चुडुंक्लयों की बावड़ी’, ‘मनोहर बावड़ी’, ‘डाकरा बावड़ी’, ‘मालनमासी की बावड़ी’, ‘चैनराय कटले की बावड़ी’, ‘नाथ की बावड़ी’ सहित कई बावड़ियां बनी हैं, जो पेयजल संसाधन के रूप में ही नहीं अपितु पर्यटन और पुरातत्व के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है।
इन बावड़ियों से बूंदी शहर में पेयजल वितरण किया जाता रहा है परंतु अब ज्यादातर बावड़ियों में जलस्तर दम तोड़ चुका है।
सैलानियों का आकर्षण….बूंदी ‘नागर-सागर कुंड’, ‘धाबाई कुंड’, ‘बोहराजी का कुंड’, ‘बाला कुंड’ और तारागढ़ दुर्ग पर बने ‘टांके भो ‘स्टेप वेल्स’ का ही स्वरूप हैं।
‘नागरसागर कुंड और ‘धाबाई कुंड’ की बनावट दूर से ही सैलानियों रानीजी को आकर्षित करती है।
नागर-सागर कुंड के नाम से पहचाने जानेवाले ‘कुंडकी युग्म का मूल नाम- गंगासागर’ और यमुनासागर’ है। हैं।
शहर के हृदय स्थल में इस ‘कुंड-समूह’ का निर्माण संवत् 1942 में रावराजा रामसिंह की रानी चंद्रभान कंवर ने जनरानी सेवार्थ करवाया था।
आमजनों को जल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से निर्मित ये कुंड अपने शास्त्र-सम्मत स्थापन, संयोजन और कला के लिए अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। इस ‘कुंड-समूह’ के कोनों पर संयोजित संगमरमर की कलात्मक छतरियां आज भी शहर के आंतरिक सौंदर्य का परिचायक बन चुकी हैं।
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