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माँ गिरिजा की ऊर्जा
ऊर्जा ही पुरुष है, पदार्थ ही स्त्री है। पदार्थ और ऊर्जा मिलकर जीवन चलाते हैं। कुण्डलिनी शक्ति का नाम प्रचलित है।हम केवल चक्रों के माध्यम से इस शक्ति का संचालन करते हैं। नीचे के पांच चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत और विशुद्धि-ये पंच महाभूतों से सम्बन्ध रखते हैं।
प्रत्येक चक्र अपने क्षेत्र के अवयवों की ऊर्जाओं का नियंत्रण करता है। चक्र बाहर से सूक्ष्म ऊर्जाएं ग्रहण करके अवयवों की सूक्ष्म ऊर्जा की पूर्ति करते हैं।
सर्वस्य योगमायासमावृतः (श्रीमद्भागवत ७/२५)
मेरे भीतर भी ब्रह्म तो है बीज रूप, किन्तु चारों ओर से आवरित है। ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए मुझे अंधकार में प्रवेश करना पड़ेगा।माया के इन आवरणों का उच्छेद करके भीतर प्रवेश करना होगा। प्रकाश तो अंधकार का पुत्र है-विवर्त है।
प्रकाश में छाया भी भ्रम का एक कारण बन जाती है। अंधकार में न छाया है, न ही रूप समान भाव में सभी प्रतिष्ठित रहते हैं। इसी तथ्य को इंगित करते हुए श्रीमद्भागवतगीता २/६९ में भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं-
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी!
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः!!
अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि समान (काल) है उसमें योगी जागता है और जिस काल में सब प्राणी जागते हैं, वह योगी की रात्रि है। अघोरी साधक काम आ चुकी ऊर्जा को आभामण्डल के माध्यम से बाहर फेंकते हैं।
सभी चक्र शक्ति के आधार पर कार्य करते हैं। शुरू (नीचे) के दो चक्र मूलाधार और स्वाधिष्ठान शरीर से जुड़े रहते हैं। मणिपूर, अनाहत और विशुद्धि चक्र व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की भूमिका में रहते हैं।
आगे ऊपर के दो चक्र- आज्ञा व सहस्रार आध्यात्मिक ऊंचाई के द्वार हैं। इन्हीं चक्रों में अलग से स्त्रैणभाव में शक्ति कार्य करती है। इनकी भूमिका शरीर के विभिन्न धातुओं के संचालन, व्यवस्था आदि से जुड़ी है। इनको डाकिनी, राकिनी, लाकिनी, काकिनी, शाकिनी और हाकिनी के नाम से जाना जाता है।
इनकी स्वरूप व्याख्या भी अन्य दैवी शक्तियों की तरह की गई है। उदाहरण के लिए काकिनी लाल कमल पर बैठती है। चार हाथ-एक में अंकुश, एक में मुण्ड तथा दो में वरमुद्रा भयहारी मुद्रा है।हम स्त्री को व्यवहार में बहिन माता पत्नी स्वरूप में ही जानते हैं। उसके शक्ति रूप में कई प्रमाण एवं जीवन संचालन के स्वरूप दिखाई देते हैं।
कभी लगता है कि उस पर मर्यादा के पहरे हैं, कहीं वह स्वतंत्र रूप से सृष्टि संचालन में स्वयं पूर्ण सक्षम है।एक ओर अत्याचारों की मार सहती है, दूसरी और पिता और पुत्र को एक साथ नियंत्रण में रखकर परिवार की दिशा तय करती है।
प्रत्येक स्त्री शक्ति और प्रकृति का अपना एक तंत्र होता है और तांत्रिक की तरह सूक्ष्म स्तर पर और परोक्ष भाव में गृहस्थी चलाती है।
स्त्री अपने स्वयं के जीवन का अलग से संचालन भी कर लेती है। सम्पूर्ण सृष्टि में योषा रूप स्त्री का यही स्वरूप है। शोणिताम्नि की तरह प्रत्येक लोक में स्त्री ही पुरुष को भोगती है। दिखाई विपरीत देता है।
शिवराधना द्वारा शक्ति की साधना
स्त्री जल है स्वाधिष्ठान है। जल से पृथ्वी बनती है। हमारा शरीर बनता है। अग्नि से जल का निर्माण होता है। अतः जल के भीतर अग्नि का निवास है। अग्नि और जल दोनों पृथ्वी के अंग हैं। पृथ्वी में पांचों तत्त्वों की उपस्थिति है। इसी प्रकार शरीर में पंच कोश हैं। केन्द्र में मनोमय कोश हैं जो कामना का उक्थ है।
यह कामना ही सूक्ष्म रूप शक्ति बनकर जीवन की दिशा तय करती है। इसी हृदय में तीनों प्रकृतियां महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली अपने-अपने शक्तिमान के साथ प्रतिष्ठित रहती हैं।यही मन को सृष्टि से जोड़कर मृत्युलोक में स्थापित करती है, यही मुक्ति साक्षी होकर ऊर्ध्व गति की प्रेरक बनती हैं।
पुरुष भी अन्दर स्त्री होता है अतः उसका श्राप कम प्रभावी निरुद्देश्य (भटकावपूर्ण) होता है। स्त्री अपनी वासना की शस्त्र होती है। वासना भी भीतर सहीं जाती है। अल्प अवधि की और रूप में भी उपयोग ले लेती है। योजनाबद्ध तरीके से तृप्ति के पर्याय तलाश लेती है।
आजकल जिस तरह की खबर लोग परोस रहे हैं। उसे पढ़ने से लगता है कि आदमी पशुवत् आचरण करने लगा हैं। प्रत्येक स्त्री में शक्ति का जाग्रत भाव ही दुराचारों के शमन में सहायक हो सकता है।
इससे आगे ब्रह्म का साम्राज्य है। काला घना अंधकार है। यही सोम अवस्था ब्रह्म का रात्रिकाल है। ब्रह्म प्रकाशित करता है ज्ञानरूप में, किन्तु स्वयं प्रकट नहीं होता। नाहं प्रकाशः।अन्त में इतना कहेंगे कि सब शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है। बल, मनोबल से भरा पुरुष ही वीर कहलाने योग्य है और वीरता सिटी से आती हैं।
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