पान पीढ़ी दर पीढ़ी से भारत की आन, बान, शान और सबकी जान है। ताम्बूल पत्र के फायदे पढ़कर जान आ जायेगी

  • पान अम्लपित्त का नाश करता है। चूना कैल्शियम वृद्धि कारक है। सौंफ पाचनतन्त्र मजबूत करती है ओर पान की चटनी ह्रदय को ताकत देती है। पान खस्ने से ज्ञान बढ़ता है। पान परमात्मा की जश्न ओर भारत की शान है -पान

Amrutam अमृतम पत्रिका, ग्वालियर से साभार

सावधान

बिना पान के पत्ते पर रख हुआ नैवेद्य बहुत प्रेत, पिशाच ग्रहण का जाते हैं। यह भगवान को नहीं मिलता। हमारी अज्ञानता ही हमें दुःख, तकलीफ देकर हमें गरीब, रोगी बनाती है।

स्कंध पुराण के मुताबिक ईश्वर को नैवेद्य कैसे अर्पित करना है। जानने के लिए लेख के अंत में पढ़ें।

  • पानताम्बूलं – तमु ग्लानौ। अर्थात पान के पत्ते जल के बिना मुरझा जाते हैं।
  • माधव निदान, द्रव्यगुण विज्ञान, आयुर्वेदिक निघण्टु नें इन सबके फायदे, गुणों के बारे में विस्तृत वर्णन है।
  • इस लेख में केवल ओआन के गुणों की चर्चा करेंगे।
    • पान जुबान को शुद्ध करता है। पान मुसलमान महिलाओं की जान है। पान बहुत पवित्र होता है। क्योंकि पान के पत्ते का आकार नाग फन की तरह होने से यह पूजा में उपयोगी है। पान खस्ने से एनर्जी आती है। पान के विषय पर संस्कृत के अनेज धलोक प्राचीन पुस्तकों में गुम्फित हैं

अथ ताम्बूलं (पान) । तस्य नामानि गुणाँश्च ताम्बूलवल्ली ताम्बूली नागिनी नागवल्लरी। ताम्बूलं विशदं रुच्यं तीक्ष्णोष्णं तुवरं सरम्॥

वश्यं तिक्तं कटु क्षारं रक्तपित्तकरं लघु।

बल्यं श्लेष्मास्यदौर्गन्ध्यमलवातश्रमापहम्॥

  • अर्थात पान के प्राचीन नाम तथा गुण-ताम्बूलवल्ली, ताम्बूली, नागिनी, नागवल्लरी और ताम्बूल ये सब संस्कृत नाम ‘पान’ के हैं।
  • पान – विशदगुणयुक्त, रुचिकारक, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, कसैला, दस्तावर, वशकारक, तिक्त, कटु रसयुक्त, क्षार गुणयुक्त, रक्तपित्त का उत्पादक, लघु तथा बलकारक होता है। यह कफ, मुख की दुर्गन्धता, मल, वात तथा श्रम को दूर करता है ।

हस्तलिखित पांडुलिपियों में पान को गुडूच्यादिवर्गः की औषधि बताया है।

पान के १७ गुण फायदे और प्रयोग-

  1. पान उत्तम, दीपन, पाचन, श्लेष्मघ्न, वातहर, पित्तप्रकोपक, उष्ण, स्वर्य, सुगंधित, शोथघ्न, व्रणरोपक, प्रतिदूषक, कृमिघ्न, वृष्य एवं मुँह की कंडू- मल-क्लेद-दुर्गन्धनाशक है।
  2. भोजन के बाद पान खाने के फायदे जिन्हें पान खाने का व्यसन हो जाता है उन्हें पान खाने से अच्छा मालूम होता है। उनका मन है प्रसन्न होता है, थकावट दूर होती है, प्यास तथा भूख मालूम नहीं पड़ती एवं कुछ कामोत्तेजना होती है।
  3. गुलकन्द युक्त पान तीव्र मादक नहीं होता तथा इसके व्यसन से कोई विषैले परिणाम नहीं होते। सोकर उठने पर, स्नान के पश्चात्, भोजन के पश्चात् एवं वमन के पश्चात्, पान के सेवन का विधान है।
  4. पान चबाने से लालास्राव की वृद्धि होती है, जो पाचन में सहायक होती है । भात खाने वालों में इससे विशेष लाभ होता और यदि वे पान बंद कर दें तो उनका पाचन ठीक नहीं होता।
  5. खांसी जुकाम का अंत, तुरन्त कफप्रधान रोगों में यह बहुत लाभदायक होता है। तमक श्वास, श्वसनिका शोथ एवं स्वरयंत्र शोथ आदि में पान का रस पिलाते हैं एवं पान को ऊपर से बाँधते हैं।
  6. बच्चों के लिये गुणकारी कास, श्वासकृच्छ्र, श्वसनिकाशोथ एवं प्रतिश्याय आदि में पान के पत्तों को एरंडतैल लगाकर, गरम कर छाती पर बांधने से बहुत लाभ होता है ।
  7. रोहिणी (Diphtheria) नाशक पान बच्चों में बार बावर या अधिक होने वाले डिफ्थीरिया नामक घातक रोग गले के विकार में ४ पत्तों का रस थोड़े गरम पानी में मिलाकर गरारा करने को देते हैं। पान के तेल को १ बूँद की मात्रा में करीब १२५ मि.ली. उष्ण जल में मिलाकर इसी प्रकार प्रयोग करते हैं तथा उसकी वाष्प सूंघते हैं ।
  8. पीनस, खांसी नाशक पान पान का प्रयोग पीनस, कास, कफविकार, आध्मान तथा शोथादि में एवं कफविकारों में अनुपान के रूप में बहुत किया जाता है।
  9. सुपारी, चूना, कत्था एवं इलायची आदि पान के पत्ते में रखकर उसका बीड़ा बनाकर मुखशुद्धि आदि के लिये लोग खाते हैं।
  10. पान सूजन मिटाता है गांठ, शोथ एवं व्रण पर इसके पत्तों को गरम कर बाँधने से शोथ एवं वेदना कम होती है एवं व्रण जल्दी अच्छा होता है।
  11. स्त्रियों के स्तन में हितकारी इसी प्रकार स्तनों पर बाँधने से दुग्ध रुक जाता है तथा सूजन कम होती। पान के रस में थोड़ा चूना मिलाकर शोथ आदि पर पुल्टिस के रूप में व्यवहार करते हैं।
  12. गोवा, कोंकण महाराष्ट की तरफ पान के फलों को मधु के साथ खाँसी में देते हैं।
  13. उड़ीसा में इसके मूल को काली मिर्च के साथ संततिनियमन अर्थात गर्भपात रोकने के लिये सेवन करते हैं।
  14. आंखों की रोशनी बढ़ाये पान नेत्राभिष्यंद एवं रतौंधी में पत्तों का रस मधु मिलाकर आँख में डाला जाता है। निषेध – नेत्ररोग, रक्तपित्त, क्षत, वातविकार, विषबाधा, शोथ, मदात्यय, मोह एवं मूर्च्छा में इसका सेवन निषिद्ध है । मात्रा – स्वरस 2 से 3 मि.ली.।
  15. पान को खाते-खाते लोगों को इसका व्यसन हो जाता है। कोकेन खाने वाले पान में कोकेन रखकर खाते हैं। ह्रदय रोगों की कई औषधों को पान में रखकर खाने की प्रथा है ।
  16. जिसने पान कभी नहीं खाया है उसे प्रथम इसके सेवन के पश्चात् मुँह में जलन सी मालूम होती है, गले में एक तरह की जकड़न मालूम होती है, स्वाद ग्रहण करने की शक्ति कम होती है एवं मुँह आदि में छाले पड़ जाते हैं।
  17. पहली बार पान खाने वाले को कुछ देर तक बेचैनी, जी का धंसना, मूर्च्छा, संन्यास, कुछ उत्तेजना एवं स्वेदोत्पत्ति आदि लक्षण किसी-किसी में होते हैं ।

पान का रासायनिक संगठन–

  • पान के पत्तों में एक सुगन्धित उड़नशील तैल (०.२ १.०% ), स्टार्च, शर्करा, टॅनिन एवं डायास्टेस (Diastase, 0.8-1.8% ) ये पदार्थ पाये जाते हैं।

पान का तैल

  • हल्के पीले रंग का, सुगन्धित, स्वाद में तीक्ष्ण तथा दाहकारक एवं ०.९५८-१.०५७वि. गु. वाला रहता है। इस तैल में चविकॉल (Chavicol), कॅडेनीन (Cadenene), चविबेटॉल (Chavibetol), यूजेनॉल का सभाजिक (Isomeride of Eugenol) एवं सेस्क्विटर्पेन (Sesquiterpene) ये पदार्थ पाये जाते हैं।
  • जावा एवं मनिला के तैल में फेनॉल (Phenols) की मात्रा बहुत रहती है। पुराने पत्तों की अपेक्षा नवीन पत्तों में तैल, डायास्टेस एवं शर्करा की मात्रा अधिक रहती है। चविकॉल यह कार्बोलिक एसिड की अपेक्षा ५ गुना अधिक प्रतिदूषक (Antiseptic) है जो इसके स्वरस में रहता है ।
  • पान के तैल के सेवन के पश्चात् मुख तथा आमाशय में उष्णता का अनुभव होता है। प्रारंभ में केन्द्रीय वातनाडी संस्थान की उत्तेजना के पश्चात् अधिक मात्रा से एक तरह का नशा उत्पन्न होता है।
  • पान में डायास्टेस (Diastase) की पर्याप्त मात्रा होने के कारण यह स्टार्च आदि पिष्टमय पदार्थों के पाचन में सहायक होता है।

पथ्यं सुप्तोत्थिते स्नाते भुक्ते वांते च संगरे।

सभायां विदुषां राज्ञां कुर्यात् तांबूलचर्वणम्।।

(भावप्रकाशनिघण्टु)

पान के विचित्र अन्य नाम

  • हिंदी में -पान। बंगला में-पान। मराठी भध में – नागवेल, विड्याचेपान। तेलगु में -तमाल पाकु।ता०-वेत्तिलै| गु०-, मा०-नागरवेल । मला० – वेत्तिल । फा० – तंबोल, बर्गे तम्बोल | अ० – तंबूल | अं०-Betel Leaf (बिटल लीफ)। ले०-Piper betel Linn. (पाइपर बीटल) | Fam. Piperaceae (पाइपरेसी)।

पान की बेल

  • सर्वप्रसिद्ध और सर्वप्रिय एक बेल के पत्र हैं। भारतवर्ष, लंका एवं मलयद्वीप के उष्ण एवं आर्द्र प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है।
  • पान की लता या मूलरोहिणी लता — – अत्यन्त सुहावनी और कोमल होती है।
  • पान का कांड —अर्धकाष्ठमय, मजबूत तथा गाँठों पर मोटा रहता है।
  • पान के पत्ते – पीपल के पत्तों के समान बड़े, चौड़े, अंडाकार, कुछ हृदयाकृति, कुछ लम्बाग्र, प्रायः ७ शिराओं से युक्त, चिकने, मोटे एवं करीब २.५ से.मी. लम्बे पर्णवृन्त से युक्त रहते हैं।
  • पान के फूल या पुष्प – अवृन्त काण्डज (Spike) पुष्पव्यूहों में आते हैं। फल—करीब ५ से.मी. लम्बे, मांसल, लटकते हुये व्यूहाक्ष में छोटे-छोटे बहुत फल रहते हैं। पान में मनोहर गंध रहती है तथा इसका स्वाद कुछ उष्ण एवं सुगंधयुक्त रहता है ।
  • पान के खेत इसकी जमीन बीच में ऊँची और दोनों किनारे नीची होती है। इससे खेत में पानी नहीं ठहरता। धूप और पाले से बचाव के लिये खेत के चारों और फूस की दीवार और छाजनी बना देते हैं। खेत के भीतर क्यारी बनाकर फरहद, जियल इत्यादि की डालियाँ लगा देते हैं। इन्हीं के सहारे पान की बेल फैलती है।
  • बंगला, सांची, महोबा (उप्र), छतरपुर जिले के महाराजपुरी, महाराजपुरा, फाड्लोही मलहरा, बागेश्वर धाम म3न बेशुमार पैन पैदा होता है।
  • गवालियर के बिलौआ में कपुरी, फुलवा इत्यादि नामों से इसकी कई जातियाँ होती हैं।
  • आयुर्वेद ग्रन्थ ध. नि. में इसके कृष्ण और शुभ्र ये दो भेद लिखे हुये हैं।
  • रा. नि. में श्रीवाटी (सिरिवाडीपान), अम्लवाटी (अंबाडेपर्ण), सतसा (सातसीपर्ण), गुहागरे (अडगरपर्ण), अम्लसरा (मालव में होने वाला अंगरापर्ण), पटुलिका (आंध्र में होने वाला पोटकुली पर्ण) एवं ह्वेसणीया (समुद्रदेशपर्ण) ये पान के सात भेद लिखे हैं जिनके अलग-अलग गुण भी लिखे हैं।

पान के प्रकार

  • स्थानादि भेद से पान विभिन्न प्रकार का होता है। अति प्राचीनकाल से अपने यहाँ पान का व्यवहार मुखशुद्धि, रुचिवृद्धि एवं सुगन्धि के लिये किया जाता है। चरक में मात्राशितीय अध्याय में ‘धार्याण्यास्येन वैशद्यरुचिसौगन्ध्यमिच्छता कंकोलफलं पत्रं तांबूलस्य शुभं तथा एवं।
  • हजारों सस्ल पुराने ग्रन्थ सुश्रुत सहिंता में अन्नपानविधि अध्याय में इसका उल्लेख है।

श्रीवाटी मधुरा तीक्ष्णा वातपित्तकफापहा। रसाढ्या सरसा रुच्या विपाके शिशिरा स्मृता। स्यादम्लवाटी कटुकाम्लतिक्ता

तीक्ष्णा तथोष्णा मुखपाककर्त्री।

विदाहपित्तास्रविकोपनी च विष्टंभदा

वातनिबर्हणी च।।

सतसा मधुरा तीक्ष्णा कटुरुष्णा च पाचनी। गुल्मोदराध्मानहरा रुचिकृद्दीपनी परा।।

गुहागरे सप्तशिरा प्रसिद्धा तत्पर्णजूतातिरसाऽतिरुच्या।

सुगन्धितीक्ष्णा मधुरातिहृद्या सन्दीपनी पुंस्त्वकराऽतिबल्या॥

नाम्नाऽन्याऽम्लसरा सुतीक्ष्णमधुरा

रुच्या हिमा दाहनुत्।

पित्तोद्रेकहरा सुदीपनकरी बल्या मुखमोदनी।। स्त्रीसौभाग्यविवर्धनी मदकरी राज्ञां सदा वल्लभा। गुल्माऽऽध्मानविबन्धजिच्च कथिता,

सा मालवे तु स्थिता॥

अन्ध्रे पटुलिका नाम कषायोष्णा कटुस्तथा। मलापकर्षा कंठस्य पित्तकृद्वातनाशनी।।

ह्वेसणीया कटुस्तीक्ष्णा हृद्या दीर्घदला च सा। कफवातहरा रुच्या कटुर्दीपनपाचनी।। (राजनिघन्टु.)

वैदिक विधान है कि पान के पत्ते पर ही रखें, भगवान के लिए नेवैद्य।

नैवेद्य या प्रसाद अर्पित करने की विधि

  • इसका भी रखे ध्यान… नैवेद्य हमेशा पात्र के नीचे पान के पत्ते पर ही रखकर अर्पित करना चाहिए। नैवेद्य लगाते समय निम्नलिखित 6 मन्त्र अवश्य बोले अन्यथा ईश्वर या देवता इसे ग्रहण नहीं करते-
  1. ॐ व्यानाय स्वाहा
  2. ॐ उदानाय स्वाहा
  3. ॐ अपानाय स्वाहा
  4. ॐ समानाय स्वाहा
  5. ॐ प्राणाय स्वाहा
  6. ॐ ब्रह्मअणु स्वाहा
  • फिर जल हाथ में लेकर प्रसाद के चारो तरफ घुमाकर प्रथ्वी पर छोड़ना चाहिए। तककि वायु द्वारा नैवेद्य की खुशबू जीव-जगत के सुक्ष कीटाणुओं को भी मिल सके।
  • शेष बचे प्रसाद को अपने पूर्वज, पितरों का ध्यान करके उन्हें ग्रहण करने का निवेदन करें और जल धरती पर गिराएं।
  • धार्मिक रीति से ही नैवेद्य अर्पित करने से जीवन में कभी धन धान्य की घर में कमी नहीं आती अन्यथा हमारा नैवेद्य दुष्ट-दूषित, छल-कपटी आत्माएं ग्रहण कर हमारे सदैव परेशान करती हैं।
  • इस प्रकार से नैवेद्य अर्पित करने से परिवार, बच्चों में स्नेह, अपनापन ओर प्रेम बना रहता है। घर का मकान जल्दी बनता है। यश, कीर्ति, सम्मान की कमी नहीं होती।
  • सुख-समृद्धि बढ़ती है। एक बार 54 दिन नियमित रूप से ऐसा करके देखें। जीवन में चमत्कार होने लगेगा।

क्यों जरूरी है पूजा प्रसाद में पान?

  • नैवेद्य पान के पत्ते पर ही अर्पित क्यों करना चाहिए-आयुर्वेद ग्रंथों में पान की उत्पत्ति अमृत की बूंदों से हुई, जब समुद्र मन्थन हुआ था। यह देवी-देवताओं को अतिप्रिय है, तभी ईश्वर को नैवैद्य, भोग को पान के पत्ते पर रखकर अर्पित करने की प्राचीन परम्परा है।
  • स्कंदपुराण के नैवेद्य प्रकरण श्लोक के अनुसार बिना पान के पत्ते पर रखा गया भोग, रोग उत्पन्न कर भोग्यहीन-भाग्यहीन, दरिद्र बना देता है।

भ्रम मिटायें-स्वस्थ्य जीवन और समृद्धि पाएं

  • सर्वप्रथम तो आप भोग-प्रसाद और नैवेद्य में अंतर समझ लें। भारत में यह बहुत बड़ा भ्रम फैला हुआ कि भगवान को भोग या प्रसाद चढ़ाना है। यह शब्द अत्यन्त मलिनता युक्त है।
  • पहली बात तो यह है कि वैदिक परंपरा में ईश्वर को नैवेद्य अर्पित करना बताया है। भोग या प्रसाद नहीं।

भोग-प्रसाद-नैवेद्य में फर्क क्या है?

  • वैसे तो भोग कहना भगवान के लिए सही शब्द नहीं है। रुद्र सहिंता तथा व्रतराज ग्रन्थ के मुताबिक ईश्वर को नैवेेद्य अर्पित किया जाता है।
  • नैवेद्य चढ़ाने के बाद प्रसाद रूप में जो सबको बांटते हैं और बाद में फिर, जो लोग या भक्त इसे ग्रहणकर खाते हैं, उसे भोग कहा जाता है।
  • भोग शब्द न बोले, यह झूठन है…भोग झूठन शब्द है। कोशिश करें कि- ईश्वर को कुछ भी खाद्य-पदार्थ अर्पित करें, तो नैवेद्य कहना उचित होगा।

नैवेद्य अर्पित करने का प्राचीन वैदिक विधि

  • ईश्वर को नैवेद्य देते समय ये मन्त्र बोले, तभी नैवेद्य ग्रहण कर भोलेनाथ किसी भी योनि रूप में रह रहे हमारे पितरों, पितृमातृकाओं तथा मातृमात्रकाओं को नैवेद्य का कुछ अंश उन्हें प्रदान करते हैं, तो उनकी आत्मा प्रसन्नतापूर्वक हमें आशीर्वाद देती है। जिससे घर में सुख-समृद्धि, धन-धान्य एवं आरोग्यता की कमी नहीं रहती।

पान में है-ईश्वर की जान

  • देवता भी पानरहित प्रसाद कभी स्वीकार नहीं करते। इस भोग का भोजन भूत-प्रेत एवं दुष्ट आत्माएं ग्रहण करती है। जो खाकर, गर्राती हैं और परेशान करती हैं। धीरे-धीरे वे घर में अपना अधिकार जमाकर मानसिक क्लेश पैदा करके परिवार का माहौल अशांत कर देती हैं। घर में वास्तुदोष लगता है।
  • स्मरण रखें कि हमारी लापरवाही, जल्दबाजी और अज्ञानता ही गृहकलेश, रोग, बीमारी, कष्टो का कारण हैं।
  • स्कंदपुराण के अनुसार- बिना मंत्रों के अर्पित किया गया नैवेद्य तनाव का कारण होता है। शिव रहस्य सूत्र, कालितन्त्र, रहस्योउपनिषद एवं व्रतराज सहिंता आदि शास्त्रों में भी ऐसा वर्णन है।
  • इस लेख में अभी केवल पान की चर्चा करेंगे। सौंफ, गुलकन्द, चूना, नवरत्न चटनी की जानकारी की जरूरत हो, तो कमेंट्स करें।
  • गुलकन्द भोजन के बाद अवश्य खाँसना चाहिए इससे खाना जल्दी पच जाता है। एसिडिटी, सीने में जलन की शिकायत नहीं होती।

सभी चित्र और गुलकन्द की जानकारी गूगल से

Gulkand –

Ayurvedic Rose Petals Jam

  • Gulkand is a powerful antioxidant and a very good rejuvenator. Consuming 1 – 2 teaspoons of Gulkand helps reduce acidity and stomach heat. It also helps in treating ulcers and prevents swelling in the intestine. Additionally, Gulkand helps treat mouth ulcers, strengthens teeth and gums and aids digestion.

How to Use

  • Consume one or two teaspoons once or twice a day, or take as directed by a physician.

Benefits

  • Gulkand is cooling in nature and helps in alleviating all heat-related problems such as tiredness, lethargy, aches and pains.
  • People who have excessive heat bodies feel the burning sensations in palms and soles, Gulkand acts as a natural coolant and reduces it.
  • Gulkand is a powerful antioxidant and people of all types of constitutions can consume it as per Ayurveda. Take the Amrutam Dosha Quiz here to learn more about your body type.
  • Gulkand helps in digestion, reduces acidity and stomach burn. Also, improves the health of gut flora and intestinal mucus. It aids in constipation and is safe for consumption for pregnant women and children.
  • It’s rich in calcium. It boosts your energy levels because of the natural sweeteners present in it; Gulkand is also a good rejuvenator.
  • Gulkand removes toxins from the body and gives a clear complexion to the skin.
  • Thereby, it helps in controlling various skin issues – pimples, acne, boils, whiteheads, blemishes, etc.
  • It’s said that having 2 tsps of Gulkand before going out in the sun prevents sunburns, sunstroke & controls nose-bleeding.

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