अघोर संत किनाराम का जीवन परिचय
भारतभूमि प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक रूप से सम्पन्न सेतों की साधना स्थली रही है। मानव कल्याण के हितार्थ के उद्देश्य से अनेक अवसरों पर महांत आत्माओं का यहाँ अवतरण होता रहा है।
विक्रमी से, 1658 में भारत वर्ष के प्रसिद्ध धार्मिक क्षेत्र वाराणसी जनपद की तहसील चन्दौली के रामगढ़ ग्राम में एक बालक का जन्म हुआ नाम रखा गया – किनाराम रघुवंश क्षत्रिय कुल (ठाकुर जाति) में जन्में इस बालक का भोलेनाथ से सम्बन्ध बड़ा अद्भुद प्रतीत होता है- ये कट्टर शिव भक्त थे, जो हिन्दुओं के आराध्य देव ही हैं।
आध्यात्मिक गुणों का प्रस्फुटन इनमें वाल्यकाल से ही आरम्भ हो गया था, तभी तो बालकोचित क्रियाकलापों से विपरीत किनाराम अपने समवयस्क बालकों को एकत्रित कर शिव नाम ॐ नमः शिवाय का कीर्तन करने-कराने में रुचि लिया करते थे।
।।ॐ शंभूतेजसे नमः शिवाय मंत्र।। को सिद्ध कर लिया था।अपने जीवन काल में उन्होंने इस मंत्र के 108 पुनश्चरन कर अनेक सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं। एक पुनश्चारण 11 लाख जपने से पूर्ण होता है।आज भी इस मंत्र का एक पुंश्चरण यानि 11 लाख जप 11 महीने में जो भी शिवभक्त कर लेता है, उसे अनेक सिद्धियां मिल जाती हैं।
महाभयानक तकलीफ को बाबा 5 बार इस मंत्र को बोलकर ठीक कर देते थे। संत कीनाराम के आशीर्वाद से अनेक गरीब शिष्य अथाह सम्पदा के स्वामी बने और आज भी हैं।
लगभग सभी गुटके, पान मसाला वाले उद्योगपतियों के पूर्वजों ने बहुत सेवा की थी। तत्कालीन सामाजिक परिपाटी के कारण मात्र वर्ष की बाल्यावस्था में ही इनका विवाह हो गया था। तीन वर्ष पश्चात द्विरागमन (गौने) का समय आया, तो किनाराम का अपनी सुसराल जाना भी आवश्यक था।
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