भोग लगे या रूखे सूखे, शिव तो हैं श्रद्धा के भूखे!

अध्यात्म के क्षेत्र में जब तक श्रद्धा अटूट नहीं हैं। भक्ति की भावना और भावुकता में है, तब टीके ईश्वर के लिए सभी प्रयास, पूजा पाठ एसबी व्यर्थ हो जाता है।
 भावना की शक्ति महान है। इसी शक्ति ने मीरा को दिए हुए विष को अमृत में बदल दिया था। इसी शक्ति से धन्ना भक्त ने कंकर को भगवान बनाया था।
यह श्रद्धा भावना की शक्ति ही थी कि रुकमणि ने एक तुलसी से तौला था गिरधर को।
श्रद्धा की इसी शक्ति के कारण सुदामा के कच्चे चावलों में इतनी मिठास आ गई थी कि कृष्ण ने उनको बड़े चाव से खाया था।
 शबरी के बेरों का क्या ठिकाना है, इसलिए साधना में भावना का होना आवश्यक है, अन्यथा सिद्धि की आशा नहीं की जा सकती।
 एक स्थान पर कहा गया है –
 न काष्ठे विद्यतौ देवो न पाषाणै न मृण्मयौ। 
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावस्तु कारणम्।।
अर्थात लकड़ी, पत्थर और मिट्टी की मूर्तियों में देवता नहीं होते, वे तो मानसिक भावों में रहते हैं।
शास्त्र की भावना की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं।
भावेन लभते सर्व भावेन देव दर्शनम्।
 
भावेन परम ज्ञान तस्माद् भावावलम्बनम्।।
भाव से ही सब कुछ प्राप्त होता है, भावना की दृढ़ता से ही देव-दर्शन होते हैं, भावना से ही ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए भावना का ही अवलंबन करना चाहिए। साधक को साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए श्रद्धा और विश्वास के साथ-साथ भावना को भी चैतन्य कर लेना चाहिए।

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