सात पातालों के अंदर भी ऐश्वर्य है-
अतलं वितलं चैव,
सुतलं च तलातलम्।
महातलं च पातालं,
रसातलमधस्तत:।।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मलोक अध्याय
७ पद १३ एवं श्री मद्भागवत में यही सातों लोक बताकर कहा गया है-
एषेतु हि बिलस्थलेषु स्वर्गादप्यधिक।।
स्कन्ध पुराण ५अ. २४.८।।
ये सातों पाताल बिल भूमियाँ हैं, जिनमें स्वर्ग से भी अधिक ऐश्वर्य भोग है। अर्थात् ये सातों भूमियाँ बिल की भाँति दिखाई पड़ती हैं। इसलिए पुराणों में बिल भूमि कहा जाता है। इनमें किसी भी तारे (सूर्य) का प्रकाश नहीं पहुँचता।
पुराणों का ब्लैक होल क्या है?
आधुनिक विज्ञान इन्हें ब्लैक हॉल (श्याम विवर) कहता है। वह इन्हें न्यूट्रान ग्रह बताता है। बाहर से आने वाले किसी भी प्रकाश को ये परावर्तित न करके अपने में लय कर लेते हैं। यहाँ तक पुराण और विज्ञान की बात समान है। दोनों में अन्तर यह है कि आधुनिक विज्ञान इनमें कोई आबादी नहीं मानता जबकि पुराण इनमें स्वर्ग से भी अधिक ऐश्वर्य और आबादी मानता है।
कौन से हैं सात लोक
इन सातों पातालों के पश्चात्
【१】भू,
【२】भव:,
【३】स्वर्ग,
【४】मह,
【५】जन,
【६】तप और
【७】सत्य लोक हैं।
इन चौदहों लोकों की क्रमश: प्राप्ति के लिए पाँच-पाँच लाख पंचाक्षर मन्त्र जप का विधान बताया गया है।
मध्ये मृतश्चेद्भोगान्ते,
भूमौतज्जापको भवेत्।
पुनश्च पञ्चलक्षेण,
ब्राह्म-सामीप्य-माप्नुयात्।।
!!ॐ नमः शिवाय!! मन्त्र जप से मन, वचन व कर्म की पवित्रता के कारण
साधक हमेशा स्वस्थ्य और सबका भला करने वाला होता है। स्वभाव विनम्र हो जाता है।
जापक की आयु बढ़ जाती है, चौदहों लोकों को प्राप्त करने के बाद यदि पुन: ५ (पाँच) लाख पंचाक्षर मन्त्र ॐ नमः शिवाय जपता है, तो उसे ब्रह्म सायुज्य प्राप्त हो जाता है।
पुराणों का विज्ञान
पुराण के इस प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि कर्म-बन्धन जन्म-जन्मान्तर तो क्या महाप्रलय में भी जीव के सूक्ष्म तत्त्व के साथ लगे रहते हैं और पुन: सृष्टि-रचना के पश्चात् उस जीव का उसके कर्मानुसार जन्म और तदनुरूप अवसर प्राप्त होता रहता है।
पृथ्व्यादि कार्य-भूतेभ्यो,
लोका वै निर्मिता: क्रमात्।
पातालादि च सत्यान्तं,
ब्रह्मलोकाशचतुर्दश।।
शिवपुराण
पंच महाभूतों से पृथ्वी,
भूमि आदि के सभी कार्य पाताल से सत्य (ब्रह्म) लोकों तक (१४ लोकों) का निर्माण और विनाश हुआ करता है।
ब्रह्म कौन हैं-
पारब्रह्म परमेश्वर शिव है,
हर कोई जाने रे।
शिव है सबका भाग्य विधाता
सब कोई माने रे।
उक्त प्रसंग में जो कई बार ‘‘ब्रह्म’’ शब्द आया है, ध्वन्यालंकार से उसका अर्थ इस संसार का रचयिता ब्रह्मा स्वयं शिव है क्योंकि
असत्यश्चाशुचिश्चैव,
हिंसा चेवाथ निर्घणा।
असत्यादि चतुष्पाद:,
सर्वाश: कामयपधृक्।।
असत्य, अशुचि, हिंसा और निघृण (निर्दयता) ये चतुष्पाद काम (चार चरण) रूपधारी भगवान् शिव के अंश हैं।
पापों का पिटारा
असत्य, अशुचि (अपवित्रता),
हिंसा (किसी की हत्या करना या किसी को किसी प्रकार का कष्ट देना) और निर्दयता-भगवान् शिव के चरणांश हैं।
सारा संसार असत्य रूपी अन्धकार, अज्ञान में जी रहा है इसलिए अज्ञानी प्राणी अपवित्र है और जो अपवित्र है वहीं हिंसक है। हिंसा से भरे प्राणी में उदारता असंभव है। इसलिए वह निर्दयी है।
औघड़दानी शिव
इन चारों दुष्प्रवृत्तियों को भगवान शिव ने अपने चरणों में जगह दे रखी है। शिव औघड़दानी इसलिए भी कहे जाते हैं क्योंकि सृष्टि की समस्त उटपटांग वस्तुओं का स्थान उनके चरणों में है। जो साधक पंचाक्षर मन्त्र को उठते-बैठते, सोते-जागते, नहाते-खाते मन ही मन जपते रहते हैं उनके जीवन से अज्ञान, अपवित्रता, हिंसा और क्रूरता दूर हो जाती है। ऐसे साधकों को शिव सदा साधे रखते हैं।
कभी-कभी दु:खी लोग ऐसा भी कहते हैं कि सर्वाधिकार ईश्वर का ही है, तो उसने पापमय और दु:खमय संसार बनाया ही क्यों?
प्रारब्ध क्या है?
स्वर्ग से लेकर पृथ्वी लोक तक मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी भोग योनियाँ हैं, केवल मनुष्य ही भोग योनि और कर्म योनि दोनों ही है। अर्थात् मनुष्य अपने विगत कर्मो को भोगते हुए नये कर्म करके अपना नया भाग्य निर्माण करता है और पुराणों में कई बार आया है कि ईश्वर को सभी योनियों में मनुष्य सबसे अधिक प्रिय है। अत: मनुष्यों को अपना अच्छा भविष्य बनाने के लिए ईश्वर एक अन्तिम मौका देते हैं इसलिए वह सृष्टि रचना किया करते हैं।
शिवपुराण में लिखा है कि
तदर्वाक् कर्म भोगो हि,
तदूध्र्व ज्ञान-भोगकम्।
तदर्वाक् कर्म-माया हि,
ज्ञानमायादूध्र्वकम्।।
यदि हम वर्तमान जीवन में दुर्गुणों से दूर रहते हैं, तो भी हमें पिछले कमों का भोग भोगना है, इसके आगे वर्तमान जीवन में हमने जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह भी भोगना होता है, उसके आगे कर्म माया का अद्भुत जाल है और इसके भी आगे ज्ञान-माया का क्षेत्र है।
जो साधक ध्यान, धर्म और सदाचार पूर्वक जीवन यापन करता हुआ पंचाक्षर- साधना याानि नियमित !ॐ नमः शिवाय!
जाप करता रहता है, उन पर समाधिस्थ आत्मानन्द स्वरूप भगवान् शिव
निश्चित ही अनुग्रह और कृपा करते हैं, उनका यह नित्य ध्यान ही नित्य कर्म-यज्ञ है, निश्चित ही भगवान् शिव में उनका प्रेम हो जाता है।
क्रियादि शिवकर्मेभ्य:,
शिवज्ञानं प्रसाधयेत्।
तद्दर्शन-गता: सर्वे,
मुक्ता एव न संशय:।।
ऊपर बताया गया ध्यान, पंचाक्षर जप, धर्म और सदाचारी जीवन ये सभी कर्म शिव कर्म हैं। इन्हीं कर्मो से शिव का ज्ञान प्राप्त होता है। उनका (शिव जी का) ध्यान-दर्शन (ध्यान में दर्शन करना) करके सभी लोग मुक्त होते ही हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
जब ध्यान लगे शिव की लगन में
अधिकांश साधकों की एक समस्या रहती है कि ध्यान में उनका मन इधर-उधर भटक जाता है। मन के भटकने में चिन्तित नहीें होना चाहिए अपितु प्रयासपूर्वक अपनी बुद्धि को या ध्यान को मन के पीछे लगा दो और देखते रहो कि मन कैसे-कैसे स्थानों में जाता है, क्या सोचता है और क्या करता है? जैसे कोई अभिनेता दो विरोधी पात्रों का अभिनय (डबल रोल) करता है, उसी प्रकार साधक को ध्यान में दोहरा अभिनय करना होता है।
अरे मन समझ-समझ पग धरिये
एक तो मन का अभिनय यह है कि मन भटक रहा है और दूसरा मन वह है, जो उसके पीछे-पीछे उसकी चंचलाओं का निरीक्षण करता चलता है। ऐसी स्थिति में भटकने वाला चंचल मन जब अपने पीछे-पीछे ध्यान करने वाले अपने ही स्वरूप को निरीक्षक के रूप में देखता है, तो चंचल मन की भटकन थम जाती है, तब वह पुन: ध्यान में लग जाता है।
ध्यान में यह क्रिया बारम्बार हुआ करती है और अभ्यास करते-करते मन स्थिर होने लगता है। एक बात और है कि चंचल मन को ध्यान में उतना आनन्द (मजा) नहीं आता, जितना सांसारिक माया में। इसी से पुराणकारों ने ध्यान के विविध रूप या श्रेणियाँ निर्धारित की हैं।
संहिता के श्लोक 59 से 99 तक में ध्यान की बड़ी लम्बी यात्रा का वर्णन किया गया है। यह प्रकरण बड़ा मनोवैज्ञानिक है। यह यात्रा कोई भौतिक यात्रा तो है नहीं कि अपने वाहन पर सवार होकर आनन्द से मार्ग के विविध दृश्य देखते हुए जा रहे हैं। इस ध्यान-यात्रा में तो मन को ही सब कुछ करना है।
वह (मन) विभिन्न आध्यात्मिक लोकों की यात्रा मानसिक रूप से करेगा। अर्थात् यात्रा मार्ग के उन सभी विभिन्न लोकों की रचना पढ़े अनुसार उसे स्वयं करनी है। यात्रा क्रम भूल जाने पर वह फिर पहले स्थान से यात्रा प्रारम्भ करेगा।
ऐसा करते-करते उसका (मन का) अभ्यास बढ़ेगा, तब भूल हो जाने पर वह प्रथम पड़ाव (लोक) से यात्रा प्रारंभ नहीं करेगा, अपितु मन को याद रहेगा कि उसने अमुक लोक तक की यात्रा कर ली है और वह वहीं से प्रारंभ करेगा। इस प्रकार मन को इधर-उधर भटकने का अवसर ही नहीं मिलेगा। फिर वृषभ नन्दीश्वर का ध्यान लगायेगा, तो उसे (मन को) भी आनंद आने लगेगा।
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