अतिसार क्या है?

  • अतिसार का अर्थ है दस्त लगना। दस्त रोकने का उपचार तुरन्त नहीं करना चाहिए। ये आंतों और पर की गंदगी बाहर निकाल कर उदर की पूरी तरह सफाई कर देता है।
  • आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों के लिए ये आर्टिकल बहुत कम आएगा।
  • अतिसार या दस्त 24 घंटे में अपने आप स्वत: ही बंद होकर ठीक हो जाता है अन्यथा दीनदयाल कंपनी की कर्पूर रस अहिफेन युक्त की एक गोली सादे से खिलाएं, तो दस्त शीघ्र रुक जाता है।
  • आयुर्वेद के सर्वाधिक सिद्ध ग्रंथ माधव निदान में अतिसार, दस्त, विसूचिका आदि होने के कारण, लक्षण, उपचार का विस्तृत जानकारी उपलब्ध है।

अतीसारनिदानम् माधवनिदानम्

      • अथातीसारनिदानम्।

गुर्वतिस्निग्धरूक्षोष्णद्रवस्थूला तिशीतलैः।विरुद्धाध्यशनाजीर्णैर्विषमैश्चापि भोजनैः॥१॥

स्नेहायैरतियुक्त मिथ्यायुक्तैविषैर्भयैः।

शोकाद्वदुष्टाम्बुमद्यातिपानैः सात्म्यर्तुपर्ययैः॥२॥ जलाभिरमणैर्वेगविघातैः क्रिमिदोषतः।

नृणां भवत्यतीसारो लक्षणं तस्य वक्ष्यते॥३॥ (सु. उ. ४०).

  1. गुरु अर्थात मात्रागुरू तथा स्वभाव गुरु यथा उड़द आदि।
  2. विरुद्धभोजन – संयोगविरुद्ध, देशविरुद्ध, कालविरुद्ध, मात्राविरुद्ध।
  3. भुक्तं पूर्वानशेषे तु पुनरध्यशनं मतम्।
  4. बहु स्तोकमकाले च तज्ज्ञेयं विषमाशनम्।।
      • भावार्थ – गुरु (१) अतिस्निग्ध, अतिरूक्ष, अतिउष्ण, अतिद्रव, अतिस्थूल एवं अतिशीतल पदार्थों का सेवन, विरुद्धाशन(२)अध्यशन(३) अपरिपक्व तथा विषम भोजन (४) करने से, स्नेहन, स्वेदन (पूर्वकर्म) तथा शिरोविरेचनातिरिक्त पञ्चकर्म के अतियोग या मिथ्यायोग से, विषप्रयोग, भय, शोक, दूषित जल तथा मद्य के अतिपान करने से, ऋतुविपर्यय एवं सात्म्यविपर्यय से, अत्यधिक जलक्रीडा, वेग, विधारण तथा क्रिमि दोष से मनुष्यों को अतिसार होता है। आगे दस्त का लक्षण बताया है –
  • पित्तज्वरेऽतीसारपाठाज्ज्वरातीसारयोरन्योन्योपद्रवस्वाच्च ज्वरानन्तरमतीसारमाह-गुर्वि.। तु रूहा, त्यादि। गुरुशब्देन मात्रागुरु गृह्यते, यथाऽतिमात्रोपयुक्तो रक्तशाल्यादिः; तथा स्वभावगुरु च माषादि; अथवा गुणतः पाकतश्च । अतिशब्दः स्थूलान्तैः सह संबध्यते । स्थूलं संहता. वयवं, यथा— लड्डुकपिष्टकादि । शीतलं स्पर्शाद्वर्या | विरुद्धमिति संयोगदेशकालमात्रादिभिर्विरुद्धं, यथा— तीरमत्स्यादि; तच्च बहुप्रकारं सुश्रुते हिताहितीयेऽध्याये ( सु. सू. अ. २०), चरके चात्रेयभद्रकौप्यीयाध्याये (च. स. अ.२६) द्रष्टव्यम्अ।
  • ध्यशनं पूर्व दिनाहारेऽजीर्णे भोजनम् । उक्तं हि चरके – ‘भुक्तं पूर्वान्नशेषे तु पुनरध्यशनं मतम्’ (च.चि.अ. १५) इति। एवं सर्वन्न।
  • अजीर्णम् अपक्कमन्नम् । विषमम् अकालादिभोजनम् । उक्तं हि सुश्रुते’बहु स्तोकमकाले वा तज्ज्ञेयं विषमाशनम्’ ( सु. सू. अ. ४६ ) इति । एवं सर्वत्र। ‘विषमैः’ इत्यत्र स्थाने ‘असात्म्यैः” इति पाठान्तरम्। भोजनैरिति विरुद्धादिभिः सर्वैः सम्बध्यते।
  • स्नेहाद्यैरिति स्नेहः स्नेहपानं, स्नेह आयो येषां ते स्नेहाद्याः स्वेदवमन विरेचनानुवासननितैरतियुक्तैरिति अतियोगयुक्तैः । एतच्च यथायोग्यं बोध्यं, वमनातियोगस्यातिसार कारणत्वायोगात् । मिथ्यायुक्तैरिति हीनयोगयुक्तैः, वमनादिकर्मणां मिथ्यायोगाभावात्, हीनयोगात्तु ते दोषानुत्क्लेश्यातीसाराय स्युः।
  • ननु, कदाचिद्वमनं प्रयुक्तं विरेकं करोति, विरेकश्च वमनमिति दर्शनात्तेषां मिथ्यायोगः संभवत्येव । न, सोऽप्ययोग एवेति सिद्धान्तः।
  • यदुक्तं चरके—’योगः सम्यक् प्रवृत्तिः स्यादतियोगोऽतिवर्तनम् । अयोगः प्रातिलोम्येन न चाल्पं वा प्रवर्तनम्’ ( चि. सि. अ. ६ ) इति । विषमन्त्र स्थावरमुच्यते, अधोगत्वात्; कार्तिकस्त्वाह-विषं दूषीविषं, तलक्षणेष्वतीसारपाठात्। दुष्टाम्बुमद्यातिपानैरिति दुष्टं व्यापनं, दुष्टयोरम्बुमच्द्ययोः पानात्, अदुष्टयोरप्यतिपानात् । यदा चरकः – ‘दुष्टमद्यपानीयातिपानात्’ (चरक चिकित्सा अध्याय १९) इति।
  • सात्म्यर्तुपर्ययैरिति सात्म्यविपर्ययैर्ऋतुविपर्ययैश्च, सात्म्यविपर्ययोsसात्म्यम्।नच पूर्वोक्तेन ‘असात्म्यैः’ इत्यनेन पौनरुक्त्यम्, उक्तं हि चरके आत्रेयभद्रकाप्यीये’द्विविधं हि सात्म्यं प्रकृतिसात्म्यमभ्याससात्म्यं च (च. सू. अ. २६) इति;
  • आहारा चारभेदादन्नपानभेदावा न पौनरुक्त्यमित्यन्ये। जलाभिरमणैरिति जलक्रीडादिभिः । वेगविघातैरिति मूत्रपुरीषादीनाम् । क्रिमिदोषत इति क्रिमिभिः पक्कामाशयदूषणात्, क्रिमिजनितवातादिकोपाद्वा।एतानि च निदानानि यथासम्भवं वातादीनां बोद्धव्यानि, दोषव्याधि हेतुत्वख्यापनार्थं पठितानि।एवमन्यत्रापि निदान विशेषपाठे प्रायो द्रष्टव्यमिति।।
    1. विमर्शः–अप्राकृत तथा प्रायशः जलबहुल मलका पुनः पुनः परित्याग ही अतिसार कहलाता है । अतिसार की उत्पत्ति में प्रधानतया दो परिणाम होते हैं।
    2. (क) आन्त्र की अत्यन्त तीव्र गति – (Rapid paristalsis), (ख) आन्त्रगत उद्रेनच, पाचन एवं शोषण में परिवर्तन।
    3. भद्रकालीयाध्याये’ इति क ख।
    4. पूर्वादशेषे’ इति क ख।
    5. प्रदुष्टमद्यपानीय पानादतिमद्यपानीयपानात्’ इति वर्तमानचरकपुस्तके पाठः
  • उपर्युक्त सभी निदान साक्षात् या परम्परया सर्वप्रथम आन्त्र में इन प्रधान विकृतियों को करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप मलत्याग अप्राकृत एवं स्वाभाविक से अधिक बार होता है।
  • आधुनिक वैद्यक के दृष्टिकोण से इस अवस्था को डायरिया (Diarrhoea) कहते हैं। इसकी उत्पत्ति निम्न कारण हैं।
  • १. उत्तेजक भोजन ( Irritating food ) – यह आन्त्र के आज्ञावाही चक्र की अत्यधिक उत्तेजना (Excessive stimulation of motor aotivity) के द्वारा आन्त्र की गति को बढ़ा अतिसार को उत्पन्न करता है।
  • संखिया सदृश अतिसारोत्पादक विष विरुद्धाशन तथा उभा/प्र से आन्त्र की गति को बढ़ाने वाले अन्य कारणों का संग्रह भी इसी शीर्षक के अंतर्गत आते हैं।
  • मधुकोश – विद्योतिनीटीकाद्वयोपेतम् के अनुसार ये उप्तेजक पदार्थ प्रति व्यक्ति के लिये भिन्न २ हो सकते हैं। यथा कतिपय व्यक्तियों को केवल मरिचादिभूयिष्ठ भीजन ही उत्तेजक भोजन हो सकता है जबकि दूसरे पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं दिखाई देता।
  • इस वैशिष्टय का कारण सात्म्यभेद है। अत एव कारण निरूपण में सात्म्यविपर्यय का भी परिगणन किया गया है । आन्त्र में भौतिक ( Mecha. nical ) या रासायनिक (Chemical) कारण की उपस्थिति गतिवर्धन में सहायक होती है।
  • रासायनिक कारणों में विष प्रधान है। यह जीवाणुजन्य, खाद्यपदार्थजन्य (Food Poisoning) या मुखद्वारा गृहीत विष हो सकता है।
  • विजयरक्षित जी के अनुसार विष से स्थावर विष का ही ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि स्थावर विष का स्वभाव अधोगामी होता है। किन्तु कार्तिककुण्डजी का कहना है कि विष से दूषीविष का ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि दूषीविष के लक्षणों में सुश्रुत ने अतिसार का भी पाठ किया। (१) है। इसका साधारण विवेचन पिछली पंक्तियों में किया जा चुका है। आन्त्र के अन्दर अत्यधिक मात्रा में उक्त पदार्थ की उपस्थिति भी अतिसार की उत्पत्ति का कारण हैं। इसे भौतिक कारण कहा जा सकता है।
  • अत एव कारण निरूपण में गुरु भोजन का भी पाठ किया है। कुछ पदार्थ स्वभाव से भी गुरु होते हैं । इनके पाचन में आन्त्र को पर्याप्त श्रम के साथ गति करनी पड़ती है । इस प्रवृद्ध गति का ही परिणाम अतिसार है।
  • २. कृमि ( Worms ) – इसके अन्तर्गत निदानोक्त कृमियों को समझना चाहिये। ( Round worm ) तथा डिसेन्ट्री उत्पन्न करने वाले परोपजीवी ( Parasites ) उल्लेखनीय हैं । आचार्य माधव ने भी आभ्यन्तर क्रिम्युपसर्ग का वर्णन करते हुए –

ज्वरो विवर्णता शूलं हृद्रोगः सदनंभ्रमः।

भक्तद्वेषोऽतिसारश्च संजातक्रिमिलक्षणम्॥

  • अर्थात इस श्लोक के द्वारा अतिसार को क्रिमि जन्य उपसर्ग का फल कहा है। इसके आगे सौसुराद आदि क्रिमियों की अतिसारजनकता का स्पष्ट भाषा में उल्लेख करते हुए कहते हैं।

सौसुरादाः सशूलाख्या लेलिहा जनयन्ति हि।विड्भेदशूलविष्टम्भकार्यपारुष्यपाण्डुताः।

रोमहर्षाग्निसदनं गुदकण्डूर्विमार्गगाः॥ ( क्रिमिनिदानम् )

  • ३. अतिद्रवसेवन — अत्यधिक भोजन के समान ही इसका प्रभाव भी आन्त्र की गति को बढ़ाने में होता है। जल की निश्चित मात्रा का शोषण ही बृहदन्त्र के द्वारा हो सकता है।
  • मात्राधिक्य होने पर उसका शोषण नहीं होता, अत एव वह आन्त्र की पुरःसरणगति को बढ़ाने में सहायक होकर जलबहुल अतिसार को उत्पन्न करता है।
  • ४. अतिशीत ( Chill ) — इससे स्पर्श एवं वीर्य उभयविध शीत का ग्रहण करना चाहिये । अतिशीत के कारण आन्त्र प्रथम संकुचित हो जाती है। किन्तु पुनः उत्तेजित होकर तीव्र गति करने लगती है। इस तीव्रगति के परिणाम स्वरूप श्लैष्मिककला से स्राव भी प्रचुर मात्रा में होता है।
  • अत एव मलत्याग स्वाभाविक से अधिक बार एवं तरल रूप में होता है।
  • ५. विसूचिका ( Cholera ) – यद्यपि यह रोग पूर्णतः भिन्न है तथापि अतिसारकारक होने से इसकी कारणता भी निर्विवाद है।
  • विसूचिका से तात्पर्य है विसूचिकाकारक विषाणु ।
  • ६. आन्त्रिकगति के नियन्त्रक नाडीतन्तु व आन्त्रिक पेशियों की परमोत्तेजनशीलता (Over-excitability of the neuro-muscular mechanism which controls the intestinal movements ) – इसके तीन विभाग किये जा सकते हैं
      • (१) यत् स्थावरं जङ्गमकृत्रिमं वा देहादशेषं यदनिर्गतं तत् । जीर्ण विषघ्नौषधिभिर्हतं वा दावाग्निवातातपशोषितं वा। स्वभावतो वा गुणविग्रहीनं विषं हि दूषीविषतामुपैति । दूषितं देशकालान्न दिवास्वप्नैरभीक्ष्णशः । यस्माद् दृषीविषलक्षणानिदूषयते धातून् तस्माद् दूषीविषं स्मतम्॥
  • तेनार्दितो भिन्नपुरीषवर्णों वैगन्ध्यवैरस्ययुतः पिपासी।मूर्च्छन् वमन् गद्गद्वाविषण्णो भवेच्च दूभ्योदरलिङ्गजुटः। सु०
  • (क) भोजनोत्तरभावी अतिसार (Post-prandioal diarrhoea ) — बिना किसी अन्य कारण के साधारण अवस्था में खाली पेट पर किया हुआ भोजन आमाशय में पहुंचते ही आमाशयजन्य आन्त्रिक प्रत्यावर्तन क्रिया (Gastrooolio reflex ) को उत्पन्न कर देता है जिसके परिणामस्वरूप बृहदन्त्र की गतिशीलता बढ़ जाती है।
  • अधिकांश व्यक्तियों में यह प्रवृत्ति प्रातराश के पश्चात् पाई जाती है; क्योंकि उस समय श्रोणिगुदीय आन्त्र ( Pelvio oolon ) मल से परिपूर्ण रहता है। प्रत्यावर्तन क्रिया के परिणामस्वरूप मल यकायक मलाशय में चला जाता है और मलत्याग की इच्छा उत्पन्न हो जाती है।
  • मलत्याग की प्रवृत्ति के लिये विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार के उत्तेजकों की अपेक्षा रहती है । यथा – कतिपय व्यक्ति बीड़ी या सिगरेट पीने के पश्चात् ही मलत्याग कर सकते हैं।
  • ठण्डा और कुछ गर्म पानी पीने के पश्चात् ही इस योग्य होते हैं । कुछ व्यक्तियों को चंक्रमण के पश्चात् ही मलत्याग करने का अभ्यास हो जाता है।
  • मलत्याग के पूर्व बेड टो| तो आज के सभ्य समाज का आभूषण सी ही बन गई है। साधारणतया इस प्रकार के मलत्याग की गणना अतिसार में नहीं कर सकते; तथापि इस प्रकार की प्रत्यावर्तन क्रियाओं की प्रचुरता के परिणामस्वरूप पुनः पुनः मलत्याग का होना अतिसार की कोटि में आजाता है।
  • (ख) वातनाडीजन्य (Nervous) भयज एवं शोकज अतिसार की गणना उक्त शीर्षक के अन्तर्गत की जा सकती है । इस विषय में प्राइस महोदय का कथन है
      • It is not uncommon for a fright to result in the immidiate passage of a semi-fluid stool. In some patients who are often not otherwise neurotic, attocks of diarrhoea occur whenever they are in any place where it would be awkward for them to relieve themselues. When this has once happened it is likely to recur under simitar eircumstances, largely ouwing to are often fear that it will do so. Post-prandial and nervous diarrhoea associated together, a patient suffering from the former being particularly likely to feel an urgent desire to defaecate if he is at a dinner party or in a rialway carriage without a lavatory.”
      • तात्पर्य यह है कि किसी विशेष विपत्ति से मुक्ति न मिल पाने के भय एवं शङ्का से इस प्रकार के अतिसार का होना अस्वाभाविक नहीं है । इसके अतिरिक्त मलत्याग के लिये उपयुक्त समय एवं स्थान का अभाव भी कभी कभी कुछ व्यक्तियों में इस प्रकार की प्रवृत्ति का जनक हो सकता है । In this call for evacuation comes immidiately after food or following mental excitement such as fright. 2
  • (ग) उपद्रवस्वरूप अतिसार – आन्त्र के कतिपय रोगों के उपद्रवरूप में भी अतिसार होता है। ग्रहणीशोषं ( Intestinal T. B. ) क्षुद्रान्त्रशोथ ( Enteritis ) तथा बृहदन्त्रशोथ ( Colitis ) इस श्रेणी के प्रधान रोग हैं ।
  • ७. अतिस्निग्ध-स्नेहपाचन के लिये पित्त ( Bile) की आवश्यकता होती है । और अतिस्निग्ध भोजनों के पाचनार्थ पित्त का उत्सर्ग भी स्वाभाविक से अधिक मात्रा में होता है । आन्त्र में पित्त की अतिमात्रा अतिसार को उत्पन्न करती है ।
  • ८. दुष्टाम्बुमद्यपान – दुष्ट जल तथा दुष्ट मद्य का पान अतिसार उत्पन्न करता है । पित्तवर्धक होने के कारण अदुष्ट मद्य भी अतिमात्रा में पीने पर अतिसारजनक होता है। अत्यधिक जल के पीने से अतिसार किस प्रकार उत्पन्न होता है इसका विवेचन अतिद्रव शीर्षक के अन्तर्गत किया जा चुका है।
  • पीट नामक विशिष्ट पदार्थ से दुष्ट होने के कारण पर्वतीय जल अतिसारकारक होता है यह सिद्ध हैं इससे उत्पन्न अतिसार को पर्वतीयातिसार (Hill-diarrhoea ) कहते हैं । चरक ने भी त्रिदोषज अतिसार का वर्णन करते हुए कहा है-

‘प्रदुष्टमद्यपानीयपानादतिमद्यपानात्’ ।

  • स्नेहाद्यैः—इससे स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, अनुवासन तथा निरूह का ग्रहण होता है। इनके अतियोग से अतिसार होता है। इसके अन्तर्गत वमन का ग्रहण न करना चाहिये; क्योंकि वमन का अतियोग अतिसार कदापि उत्पन्न नहीं कर सकता।
  • अतः स्नेहन आदि के साथ यथायोग्य विशेषण देना चाहिये। जिससे अतिसार कराने में समर्थ क्रिया का ही ग्रहण हो।
  • वमन के अतिरिक्त अन्य सभी उपक्रमों का अतियोग अतिसार को उत्पन्न कर सकता है। मिथ्या योग का अर्थ यहां हीन योग ही है; क्योंकि वमन आदि का मिथ्यायोग नहीं होता। इनका हीनयोग दोष को बढ़ाकर अतिसार को उत्पन्न कर सकता है।
  • यदि कोई कहे कि कभी वमन की औषध विरेचन और विरेचन की वमन करा देती है तो उसे इनका मिथ्यायोग ही स्वीकार किया जाय तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि वह भी प्रयुक्त औषध का अयोग या हीनयोग ही है। क्योंकि कहा है

‘अयोगः प्रातिलोम्येन यच्चारूपं वा प्रवर्तनम्।

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