अमृतम पत्रिका, ग्वालियर से साभार
- ईश्वर की प्राप्ति के लिए सद्गुरु की प्राप्ति आवश्यक है। आप मानकर चलें की ईश्वर ही गुरु है और गुरु ही ईश्वर है।
- ईश्वर कहाँ हैं? हम मनुष्य, ईश्वर को न जाने कहाँ-कहाँ खोजते हैं। परन्तु वास्तविकता तो यह है कि ईश्वर आत्मरूप में सर्वत्र विराजमान हैं।
- भोलेनाथ के रूप में जो हमारे शरीर में भोली और पवित्र आत्मा है वही ईश्वर है । सद्गुरू इसका ज्ञान करने के कारण ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी बड़े माने जाते हैं।
अघोरी कहते हैं कि
शंभू त्याग बिना नहीं मिलता, चाहे कर लो लाख उपाय।
- सबकी आत्मा में, सबके हृदय में निवास करते हैं। उन्हें आत्मरूप में सर्वत्र अपनाया जा सकता है, और उन्हें भाव रूप में सर्वत्र अनुभव किया जा सकता है।
- हम यदि आत्मरूप में उन्हें खोजें, तो वे हमें सहज रूप से सुलभ होंगे और जब हम स्वयं की आत्मा को महसूस करेंगे, तो हमें उनका आभास होने लगेगा।
- इस प्रकार हम उनकी आत्मीयता प्राप्त कर, उनके भाव विवेक में उत्कर्ष की ओर उन्मुख होकर, जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
- हम कहीं पर भी क्यों न हों चाहे घर में हों अथवा बाहर हों, खेत-खलिहान में हों, शहर में हों, भीड़ में हों या फिर एकांत में यदि हम उस भाव से, उस विवेक से उन्हें खोजेंगे तो हमारे पहुँच निश्चित ही सार्वभौम होगी और हमारा उनसे मिलन होगा।
- ईश्वर की प्राप्ति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है गुरू के बिना गुरू की। ईश्वर की प्राप्ति नामुमकिन सी प्रतीत होती है क्योंकि गुरू ही उस राह को दिखलाता है।
- अध्यात्मिक मार्ग पर चलने का निर्देश देता है, उस राह में आने वाली बाधाओं से आगाह कराते हुए उससे उबारता भी है, जो राह सीधे ईश्वर तक जाती है।
- अत: हमें सर्वप्रथम सद्गुरू के प्राप्ति की कोशिश करनी चाहिये । जब हमें सद्गुरू मिल जायेंगे तो वे हमें स्वयं ही ईश्वर की राह की ओर प्रेरित करेंगे, फिर हमें ईश्वर प्राप्ति हेतु चिंतित नहीं होना पड़ेगा।
- हमें इस बात पर गर्व होना चाहिये कि हम भारतवर्ष जैसे देश में रहते हैं। क्योंकि इस देश की धरती में, देश की संस्कृति में सच्ची निष्ठा के पोषण की अद्भुत शक्ति है।
- यदि हम अपनी निष्ठा को अपने सद्गुरू के प्रति समर्पित करें तो हमें वह सब कुछ आसानी से प्राप्त होगा जिसकी प्राप्ति की कामना सभी मनुष्य करते हैं। हम ऐसी पवित्र भूमि पर रहते हैं जहाँ के कण-कण में शक्ति का वास है और यहाँ के वायुमंडल में संत–महापुरूषों की तपोमयी आत्मा विराज रही है।
- गुरू के आज्ञा – पालन से ही इच्छा रहित पूजा सम्भव हो सकती है। मनुष्य के जीवन में इच्छाएं सहज रूप से ही अंकुरित हुआ करती हैं।
- ऐसे में इच्छा-रहित पूजा अत्यन्त ही कठिन है। यदि हम गुरू की आज्ञा का पालन करते हैं, गुरू में निष्ठा रखते हैं, तो हमारी इच्छाओं का भी समर्पण होता रहता है।
- दृढ़ – निश्चयी, निष्ठावान शिष्य को गुरू अपनी सारी विद्या, सर्वस्व दे देते हैं। सच्चे शिष्य का कर्तव्य होता है कि वह अपना तन, मन सभी कुछ अपने गुरू के चरणों के आध तीन रखे। ऐसा करने से उस शिष्य के लिये सभी कुछ सम्भव है।
- गुरू ही साक्षात् महेश्वर हैं ऐसा ही भाव रखना चाहिये। गुरू अपने शिष्य की सभी भावी रेखायें बनाने तथा मिटाने में सर्वथा समर्थ हैं।
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