- लहसुन का संस्कृत नाम रसोन भी है। लहसुन गर्म होने के कारण शरीर से वात रसों को सुखाने में कारगर है। पित्त से पीड़ित या उदर रोगों से परेशान लोगों को को लहसुन खाना निषेध है।
- भाव प्रकाश निघंटू के अनुसार आयुर्वेद में हर ओषधि, मसाले, जड़ीबूटियों के अनुपान की मात्रा निश्चित है।
- अष्टाङ्ग ह्रदय ग्रन्थ में उल्लेख है कि कोई कच्ची ओषधि 3 से 5 ग्राम और उसका रस 5 में तक लेना फायदेमंद होता है। इससे अधिक न लेवें।
लहसुन लेने की आयुर्वेदिक विधि
- द्रव्यगुण विज्ञान ग्रंथानुसार लहसुन की एक छोटी पोथी केवल रात को भोजन से एक घण्टे पहले सादे जल से लेना हितकारी है। यदि बीपी हाइ की शिकायत हो, क्रोधी स्वभाव हो, धूप में काम करते हों, दूध एवं गुड़ खाने वालों को तो लहसुन कभी नहीं लेना चाहिए। लहसुन को केवल दाल-सब्जी में डालकर लेना उचित है।
किसे खाना चाहिए लहसुन
- लहसुन का उपयोग केवल वात और कफ तासीर वालों के लिए श्रेष्ठ है और पित्त दोष वालों के लिये भयंकर हानिकर है। लहसुन का स्वाद विशिष्ट प्रकार का कटु होता है।
लहसून के नुकसान
- एक दिन में दो पोटली से अधिक खून खाने से सिरदर्द- सिर में भारीपन, बैचेनी, उच्च रक्तचाप हो सकता है।
- व्यायाम, आतप (धूप फिरना), ज्यादा गुस्सा करने वाले, मानसिक क्लेश, तनाव से पीड़ित, क्रोध करना, अत्यन्त जल पीना, दूध और गुड़ इन सब को लहसुन खाने वाले पुरुष सदा छोड़ दें, क्योंकि ये सब अहितकर हैं।
- अधिक मात्रा में लहसुन के सेवन से दमा, श्वास की शिकायत हो सकती है। कफ सूखने लगता है, जिससे जोड़ों में लुब्रिकेंट नहीं बनता और दर्द, सूजन की दिक्कत होने लग जाती है।
- ज्यादा लहसुन के सेवन शरीर से दुर्गंध आने की समस्या हो सकती है।
- लहसून का अधिक इस्तेमाल गंदा पसीना बढ़ाता है।
- अधिक मात्रा में लहसुन का सेवनसे स्त्रियों को ब्लीडिंग की समस्या को भी बढ़ा सकता है। माहवारी बिगड़ने लगती है।
- कब्ज- एसिडिटी की समस्या से पेट दर्द, पेट फूलना और गैस बनने लगती है और ऐसे में लहसुन का सेवन करना इस समस्या को और बढ़ा सकता है।
- अधिक मात्रा में लहसुन के सेवन से सांस और शरीर से दुर्गंध आने की समस्या हो सकती है।
- आयुर्वेद की सलाह माने, तो आप लहसुन की जगह रसोन वटी का सेवन करें। रोज एक गोली लेने के उदर सहित शरीर के अनेक रोग जड़ से मिटने लगेंगे।
रसोन वटी बनाने की विधि
- यह योग चरक संहिता में वर्णित है।रसोन वटी को लशुनादि बटी भी कहते हैं।
- छिलका निकाला हुआ लशुन 50 तोला लेकर छिले हुए लहसुन को 3 दिन तक छाछ में भिगोकर पश्चात् निकालकर जल से धोकर डालें।
- जीरा सफेद, शुद्ध गन्धक, सेंधा नमक, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, घी में भुनी हुई हींग – प्रत्येक 1-1 तोला इन सबको यथा-विधि कूट, कपड़छन चूर्ण बना, नींबू के रस में 3 दिन तक घोंटकर एक एक ग्राम की गोलियाँ बना, सुखाकर – 4 रख लें। – (वैद्य जीवन)
- अनुपान मात्रा और मात्रा एक दिन में 1 से 3 गोली तक – भोजन करने के बाद गर्म जल से लेवें।
अथ लशुन, तस्य नामान्याह
लशुनस्तु रसोनः स्य!दुग्रन्धो महौषधम्अ।
रिष्टो म्लेच्छकन्दश्च यवनेष्टो रसोनकः॥
- लहसुन के संस्कृत नाम–लशुन, रसोन, उग्रगन्थ, महौषध, अरिष्ट, म्लेच्छकन्द, यवनेष्ट और रसोनक ये नाम लहसुन के हैं। ये हरीतक्यादिवर्गः की ओषधि है।
अथ लशुनोत्पत्तिमाह
यदाऽमृतं वैनतेयो जहार सुरसत्तमात्।
तदा ततोऽपतद् बिन्दुः स रसोनोऽभवद् भुवि॥
लहसुन की उत्पत्ति—
- अर्थात जिस समय गरुडने इन्द्र के पास से अमृत हरण किया था उस समय स अमृत) से जो बिन्दु (अमृत-बिन्दु) पृथ्वी पर गिरा उसी से लहसुन की उत्पत्ति हुई।
अथ रसोनशब्दस्य निरुक्तिमाह
पञ्चभिश्च रसैर्युक्तो रसेनाम्लेन वर्जितः।
तस्माद्रसोन इत्युक्तो द्रव्याणां गुणवेदिभिः॥
लहसुन का एक नाम ‘रसोन’ है अर्थात इसमें प्राकृतिक रस पर्याप्त होता है।
लहसून नाम की व्युत्पत्ति-
लहसुन में ६ प्रकार के रसों में से रहते हैं किन्तु केवल एक अम्ल रस नहीं रहता है, अतएव रस अर्थात् केवल अम्ल रस से ऊन अर्थात् शून्य रहने से द्रव्यों के गुणादिक जानने वाले विद्वानों ने इसका ‘रसोन’ नाम रक्खा है।
अथ लशुने रसस्थानान्याह
कटुकश्चापि मूलेषु तिक्तः पत्रेषु संस्थितः।
नाले कषाय उद्दिष्टो नालाग्रे लवणः स्मृतः॥
बीजे तु मधुरः प्रोक्तो रसस्तद्गुणवेदिभिः।
- अर्थात कटु लहसुन में आदि पांचो रसों के रहने के स्थान – इसके मूलभाग में कटु रस रहता है।
- लहसून के पत्तों में तिक्त रस, नाल में कषाय रस, नाल के अग्रभाग में लवण रस तथा
- लहसुन के बीज में मधुर रस रहता है, ऐसा लहसुन के गुणों के जानने वाले विद्वानों ने कहा है।
अथ लशुनगुणानाह
रसोनो बृंहणो वृष्यः स्निग्धोष्णः पाचनः सरः।
रसे पाके च कटुकस्तीचणो मधुरको मतः॥ भग्नसन्धानकृत्कण्ठ्यो गुरुः पित्तात्रवृद्धिदः।
बलवर्णकरो मेधाहितो नेत्र्यो रसायनः॥
हृद्रोगजीर्णज्वरकुचिशूल – विबन्धगुलमा रुचिकासशोफान्। दुर्नामकुष्ठानलसादजन्तु – समीरणश्वासकफांश्च हन्ति।।
अर्थात लहसुन के गुण –
- कम मात्रा में लहसुन बृंहण यानि धातुवर्धक, वृष्य यानि वीर्यवर्धक, स्निग्ध यानि देह में चिकनाहट देने वाला, उष्णवीर्य, पाचक तथा सारक होता है।
- लहसुन का रस तथा पाक में कर तथा मधुर रस युक्त, तीक्ष्ण, भग्न-सन्धान कारक अर्थात टूटी हड्डियों को जोड़ने वाला होता है।
- लहसुन कण्ठ, गले, कफ को हितकारी होता है।
- लहसून गुरु यानि भारी होने से देर में पचता है।
- एक दिन में एक से 2 पोथी लहसुन पित्त एवं रक्तवर्धक, शरीर में बल तथा वर्ण को उत्पन्न करने वाला, मेघाशक्ति तथा नेत्रों के लिये हितकर और रसायन होता है ।
- हृद्रोग अर्थात दिल की बीमारियों जीर्णज्वर, कुक्षिशूल, मल तथा वातादिक की विबन्धता, गुल्म, अरुचि, कास, शोथ, बवासीर, कुष्ठ, अग्निमान्द्य, कृमि, वायु, श्वास और कफ को नष्ट करता है॥
अथ लशुनसेविनां हिताहितपदार्थानाह
मद्यं मांसं तथाऽम्लञ्च हितं लशुनसेविनाम्।
व्यायाममातपं रोषमतिनीरं पयो गुडम्।।
रसोनमश्नन् पुरुषस्त्यजेदेतान् निरन्तरम्॥
- लहसुन सेवन करने वालों के लिये हितकर तथा अहितकर पदार्थ – मद्य, मांस तथा अम्लरस में युक्त भक्ष्य पदार्थं ये सब लहसुन खाने वालों के लिये हितकर हैं।
लहसुन के चमत्कारी गुण और 30 फायदे और प्रयोग –
- लहसुन एक बहुत ही उपयोगी औषधि है। प्राचीन काल से इसका प्रयोग किया जाता रहा है और आधुनिक विद्वानों ने भी इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
- राजयक्ष्मा ( Tuberculosis ) एवं अन्य फुफ्फुसविकार, वातविकार, शैथिल्यप्रधान कुपचन ( Atonic dyspepsia ) एवं व्रण आदि के लिये यह बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है।
- काश्यपसंहिता में लशुनकल्प नामक एक स्वतन्त्र अध्याय में इसका वर्णन किया गया है। धार्मिक ग्रन्थों में इसक सेवन निषिद्ध माना है ।
- लहसुन उष्ण, दीपन, पाचन, वातहर, स्वेदजनन, मूत्रल, उत्तेजक, कफनिःसारक, बल्य, वृष्य, रसायन, दुर्गन्धहर एवं उत्तम प्रतिदूषक (Antiseptic ) है।
- इसमें जो उड़नशील तैल होता है उसका उत्सर्ग त्वचा, फफ्फुस फेफड़ों एवं वृक्क द्वारा होता है। फुफ्फुस से उत्सर्ग के समय इससे कफ ढीला हो जाता है तथा उसमें के जीवाणुओं का नाश होकर कफ की दुर्गन्ध दूर होती हैं।
- वात नाडी संस्थान पर इसका उत्तेजक प्रभाव पड़ता है। अधिक मात्रा में इसके प्रयोग से वमन, विरेचन, एवं शिरःशूल आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। बच्चों में इसका सावधानी के साथ प्रयोग करना चाहिये । अधिक मात्रा में सेवन करने पर कभी कभी मृत्यु भी हो सकती है।
- इसका बाह्य प्रयोग त्वग्रागकारक ( Rubefacient ) एवं प्रतिदूषक औषधि के रूप में किया जाता है। अधिक समय तक त्वचा के साथ सम्पर्क होने से स्फोट यानि फोड़े, दाग उत्पन्न होते हैं।
- यक्ष्मा दण्डाणु अर्थात टीबी कृमि से उत्पन्न सभी विकृतियों जैसे फुफ्फुसविकार, स्वरयन्त्रशोथ, चर्मविकार, अस्थित्रण एवं नाडीव्रण आदि में यह निश्चित लाभदायक सिद्ध हुआ है।
- लहसुन के रस को इनमें पिलाया जाता है तथा इसका स्थानिक उपयोग भी किया जाता है।
- स्वरयंत्र शोध में इसका टिक्चर ३-१ डा. दिन में २, ३ वार देते हैं। पुराने कफविकार जैसे कास, श्वास, स्वरभङ्ग, श्वसनिका शोध, श्वसनिकाभिस्तीर्णता ( Brouchiectasis ) एवं वासकृच्छ्र आदि में इसका अवलेह बनाकर उपयोग किया जाता है।
- लहसुन एवं वायविडङ्ग का सेवन भी लाभदायक है। बच्चों के कुकास पुरानी खांसी, निमोनिया में इसको ३,४ घण्टे पर सुंघाया जाता है तथा इसके रस को पिलाते भी हैं जिससे कष्ट कम हो जाता है।
- फुफ्फुसकोथ ( Gangrene of lungs ) में लहसुन के टिंक्चर (५ में १) का उपयोग बहुत सफल रहा है। प्रारम्भ में इसको कम मात्रा में देना चाहिये तथा बाद में २० बूंद तक दिन में ३ बार देना चाहिये । थोड़े ही समय में ज्वर, कफ की दुर्गन्ध, स्वेदाधिक्य एवं अग्निमांद्य आदि दूर होकर लाभ होता है।
- इसी प्रकार खण्डीय फुफ्फुसपाक ( Lobar pneumonis ) में भी इसके टिंक्चर को ३० बूंद हर चार घण्टे पर जल के साथ देने से ४८ घण्टे के अन्दर ही लाभ मालूम होने लगता है तथा ५, ६ दिन में ज्वर कम हो जाता है। इन सभी विकारों में आन्तरिक प्रयोग के साथ-साथ इसको छाती पर लगाते भी हैं।
- वात रोगों का नाश लहसून वायविडङ्ग के साथ लहसुनका क्षीरपाक सभी वातविकार में जैसे गृध्रसी, कटिग्रह, अर्दित, पक्षाघात, एकाङ्गघात, ऊरुस्तम्भ, अपतन्त्रक एवं अपस्मार आदि में लाभदायक है।
- आन्तरिक प्रयोग के साथ लहसुन से सिद्ध तैल की मालिश भी की जाती है।
- अपस्मार में इसका फांट भोजन के पूर्व एवं पश्चात् देने का विधान है।
- अपतन्त्रक में इसको सुंघाया जाता है। इसी प्रकार ठण्डक लगने से उत्पन्न पीडा, जीर्ण आमवात एवं संधिशोथ तथा शिरःशूल आदि में इसको खिलाया जाता है तथा बाह्य लेप भी किया जाता है। बच्चों के वात विकारों में इसकी मालिश विशेष लाभदायक है।
- शैथिल्यप्रधान कुपचन ( Atonic dyspepsia ), आध्मान, उदरशूल, विसूचिका, वमन, गुल्म, उदावर्त, उदर की आंव एवं केंचुवों की बीमारी में इसका बहुत प्रयोग किया जाता है।
- पेट में कीड़े हों, केचुवा ( Round worms ) में १० – ३० बूंद रस दूध में मिलाकर पिलाते हैं।
- वातगुल्म में इसको पीस कर घृत के साथ खिलाने से लाभ होता है । ग्रहणीव्रण (Duodenal ulcer ) में भी इसको लाभदायक माना गया है।
- विषमज्वर में इसको तैल या घृत के साथ सुबह खिलाने से लाभ होता है । आन्त्रिक एवं तन्द्राभ ज्वर ( Typhoid and Typhus) के प्रतिबन्धन के लिये इसके टिंक्चर को १ ड्रा. हर ४ या ६ घण्टे पर शरबत के साथ देते हैं ।
- यदि रोग के प्रारम्भ में ही इसका प्रयोग किया जावेगा तो ज्वर बढ़ने नहीं पावेगा। इसका उपयोग आन्त्रिक प्रतिदूषक
- (Intestinal antisept. c औषधि के रूप में किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। बच्चों को ई ड्रा. की मात्रा में शरबत. के साथ पर्याप्त है।
- हृद्रोग दिल के रोग में लहसुन के प्रयोग से आध्मान वायु कम हो कर हृदय के जिससे हृदय को बल प्राप्त होकर मूत्र अधिक होने लगता है तथा लाभ होता है । ऊपर का दबाव दूर होता है।
- सर्वाङ्गशोथ एवं जलोदर में लहसुन के स्वरस को ३, ४ भाग जल में मिला कर क्षत तथा दुर्गन्धित व्रण प्रक्षालन के काम में लाया जाता है जिससे वेदना कम हो कर व्रण जल्दी ठीक होता है।
- कार्बोलिक एसिड ( Carbolic acid ) की अपेक्षा इससे धातुओं को कम नुकसान होता है।
- इसी प्रकार शोध, विद्रधि, बालतोड एवं दाद आदि पर इसका लेप लाभदायक है। इससे सिद्ध सर्षप तैल का उपयोग खुजली (पामा) में किया जाता है।
- रोहिणी ( Diphtheria ) नामक अत्यन्त उग्र गले के विकार में इसकी एक, एक कली चूसने को दी जाती है।३, ४ घण्टे में १ छटांक तक लहसुन दिया जाता है।
- विकृत कला ( Membrane ) के दूर होने पर दिन भर में १ छटांक तक लहसुन देना चाहिये।
- शिशुओं के लिये इस के रस को २०-३० बूंद हर चार घण्टे पर शरबत के साथ देना चाहिये।
लहसुन के अन्य नाम।
- हिंदी में-लहसुन, लशुन | बंगाली – रसुन | मराठी० – लसूण।कन्नड़० – बेल्लुल्लि | ते० – वेल्लुल्लि, तेललिगड्डा । ता०-वलइपुंडु । गु०-लसण | सिंधी – पोम | आसा० – नहरु | भोटि० – गोक्पस । फा०-सीर।
लहसून का रासायनिक संगठन —
- लहसुन में एक बादामी पीले रंग का उडनशील तैल ० १ – ०.३% पाया जाता है जिसका वि. गु. १९०४६ – १९०५७ होता है । इस तेल में प्रधान रूप से अलिल डाइसल्फाइड् ( Allyl disulphide, C% H10 S2 ) तथा अॅलिल्-प्रॉ पिल् ड|इसल्फाइड् ( Allyl-propyl disulphide ) एवं अल्प मात्रा में उच्च श्रेणी के पॉलीसल्फाइड्स ( Folysulphides ) पाये जाते हैं । इसके अतिरिक्त लहसुन के मद्यसारीय सत्त्व से एक अॅल्लीसिन् ( Allicin, Cg H10 S2 O ) नामक प्रतितृणाण्वीय ( Antibacterial ) तरल द्रव्य प्राप्त किया गया है। इसके साथ ही साथ अॅल्लीसेशन् I तथा अॅल्लीसेशन् II ( Allicetion I and Allicetion II ) नामक दो अत्यन्त तीव्र प्रतिजैविक ( Antibiotics ) पदार्थ भी पाये गये हैं जो ईथर ( Ether ) में घुलनशील लेकिन जल में न घुलने वाले होते हैं।
लहसून की लीला
अदरक को एक विशेष तरीके से सुखाने बाद इसे सौंठ बनाते है। अदरक को संस्कृत में आद्रक भी कहते हैं।
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