की शुभकामनाएं—
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष अवतार, और परिवार के बारे में जाने पहली बार—
इस जग में सम्पूर्ण जीव जगत की रक्षा करने
वाले जगन्नाथ जी के चरणों में कोटि-कोटि नमन! अभिवादन।
जीवन को गढ़ने वाली महान विभूति का नाम है –
भगवान श्रीकृष्ण अवतार।
अमृतमपत्रिका के इस ब्लॉग में 55 से भी अधिक ग्रन्थ-पुराणों से संग्रहित जानकारी जाने-पहली बार……
【!】श्री का अर्थ क्या होता है?
【!!】अवतार किसे कहते है?
【!!!】कृष्ण का मतलब क्या है?
【!v】श्रीमती की माया
【v】सन्तों को श्री श्री 108 या 1008 की उपाधि का रहस्य क्या है?
श्रीकृष्ण अवतार की लीलाओं में वैज्ञानिकता भी छुपी हुई है, इसलिए पुराणों में कहा गया
“नमो विज्ञान रूपाय” अर्थात हे विज्ञान पुरुष आपको नमन है। भगवान श्री कृष्ण जो देखने में अति सुन्दर हैं इन्हें देखते ही मनुष्य मंत्रमुग्ध हो जाते है। इसीलिए ये नयनाभिराम कहलाते है। इनकी आंख की कोर को नयनोपांत कहते है।
श्री कृष्ण अवतार क्या है-
सबसे पहले अवतार का अर्थ समझे… “अव” का मतलब है नीचे-गिरे हुए, भ्रमित, अज्ञानी लोगों को तारने और उनका उद्धार करने के लिए जो प्रथ्वी पर जन्म लेता है, जो तार-तार बिखरे दुखियों कोसंसार को तार दे, उसे “अवतार” कहते हैं।
असंख्य, अनेक अन्धश्रद्धालुओं, भ्रमित-भटके लोगों को उचित मार्ग, सही पथ बताने-समझाने वाला वह अवतारी युगपुरुष युगंधर कृष्ण कहलाता है।
आध्यात्मिक ग्रंथों की माने, तो तप-ध्यान-ज्ञान एवं योग क्रिया से हर इंसान में ईश्वरीय अंश की वृद्धि होती जाती है। लोग उसे अवतार कहने लगते हैं।
“श्री” – का क्या अर्थ है- संस्कृत के सम्मानसूचक ‘श्री’ शब्द के अनेको पहलू व अर्थ है। ‘श्री’ अर्थात सौन्दर्य, अनिरुद्ध, सामर्थ्य, अलौकिक, बुद्धि, अपार, सम्पत्ति, लक्ष्मी, असीम गुणवत्ता आदि
श्री की शक्ति का मतलब है। जिसमें में यह सब गुण-लक्षण होने वही श्री कहलाने का अधिकारी है।
श्री यानि ज्ञान। श्री रहित जीवन अंधकार और अहंकार की तरफ ले जाता है। अपनी आत्मशक्ति के सर्वागीण विकास में अहंकार बाधा डालता है। अहंकार के शास्त्रमत अनेक भेद हैं- सत्ता का, शक्ति-सामर्थ्य का, सम्पत्ति का, ज्ञान का, सौन्दर्य का, कीर्ति का – कोई भी घमण्ड जीव को कभी उन्नति की और अग्रसर नहीं होने देता।
कृष्ण से श्रीकृष्ण बनने के लिए उपरोक्त योग्यता की जरूरत है।
श्री का एक अर्थ मकड़ी भी है, जो अपने बनाये जाल में खुद उलझ जाती है। मकड़ी की तरह मोह-माया में उलझे सबका यही हाल है।
श्री मकड़ी का मंदिर – श्रीकालाहस्ती…
आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि- श्री यानि मकड़ी ने भी शिवजी की घोर आराधना की थी। मकड़ी द्वारा खोजा गया करोड़ों वर्ष प्राचीन स्वयम्भू शिवालय यह वायु तत्व शिंवलिंग तिरुपति बालाजी मंदिर से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। यहां एक शिंवलिंग में मकड़ी का प्रकटन है। राहु की कृपा पाने तथा कालसर्प-पितृदोष की शांति के लिए यह शिंवलिंग दुनिया में अद्वतीय है। यहां
चन्द्र-सूर्य ग्रहण के समय विशेष चन्दन इत्र की धारा से 24 घण्टे निरन्तर रुद्राभिषेक किया जाता है।
श्री कुबेर की जन्मस्थली भी यहीं है। इस मंदिर की दिलचस्प बातें जानने के लिए अमृतमपत्रिका के पुराने लेख गुग्गल पर सर्च कर पढ़ें।
नाम के पहले श्री लगाने की भारतीय परम्पराएं….
पहले समय में सम्बधी को 11 श्री, दामाद सहित इनके परिवार को 5 श्री लगाने का विधान था। घर परिवार में अपने पिता-पितामह, कुलदेवी-कुलदेवता के लिए 7 श्री, बड़े भाई को 3 श्री लगाकर ही विवाह आदि की सूचना देते थे।
श्रीपति को प्रणाम-
इस सृष्टि का सर्वाधिक श्रीपति भगवान भोलेनाथ, श्रीहरि विष्णु और कुबेर को बताया है। प्रथ्वी लोक में श्री यानि अपनी बुद्धि-विवेक से जो इंसान अथाह लक्ष्मी का मालिक मतलब श्रीपति बन जाये, तो लोग उसके सम्मान में नाम के पहले श्री लगाने लगते है।
श्रीमती की माया…
इन सबसे बड़ी होती है श्रीमती।सम्पूर्ण ब्रह्मांड में केवल इनके लिए श्री और मति दोनों उपयोग होता है। इसका मतलब है- जिसके पास श्री यानी धन-लक्ष्मी एवं मति- मतलब बुद्धि-ज्ञान दोनों हों उसे श्रीमती कहा गया है। श्रीमती के बारे में पूरा एक व्यंग्य लेख अलग से दिया जाएगा।
★ सन्त-महात्माओं के नाम के पहले श्री श्री 108 अथवा 1008, अनंत श्री आदि! लगाने का गणित-क्या है यह उपाधि?
जाने धर्म की दुर्लभ बातें आइए जानते हैं इसके बारे में….
पहले पुनश्चरण की परम्परा को पढ़े….
(एक दम नवीन जानकारी)
पुनश्चरण के लिए माला से जाप जरूरी है..
रहस्योपनिषद के अनुसार पुनश्चरण का मतलब है जिस मन्त्र में जितने अक्षर हैं..
उतने लाख जप से एक पुनश्चरण पूर्ण होता है। जैसे
!!ॐ नमःशिवाय!!
मन्त्र में 5 अक्षर हैं, इसके 5 लाख जाप करने से एक पुनश्चरण पूरा हो जाता है।
वैदिक परम्परा है कि-
एक पुनश्चरण होने के बाद ही कोई भी सन्त-महात्मा या कोई भी साधक एक श्री की उपाधि लायक हो जाता है। यदि किसी महात्मा का गुरु मन्त्र गायत्री है, जिसमें 24 अक्षर होते हैं। अतः गायत्री के 24 लाख जाप करने के बाद वह सन्त-महात्मा एक श्री लगाने का अधिकारी हो जाता है। अतः श्री श्री 108 का उपयोग करने वाले महात्मा को 108×5 लाख = 5 करोड़ 40 लाख बार
!!ॐ नमःशिवाय!! जप करना आवश्यक है, तभी वह श्री श्री १०८ लगाने का अधिकारी है और अगर किसी सन्त का गायत्री गुरु मन्त्र है, तो 108×24 लाख= 25 करोड़ 92 लाख अर्थात 24 लाख माला का जाप 100 साल में पूरा हो पायेगा, तब वे सन्त श्री श्री 108 की उपाधि से विभूषित हो सकते हैं।
मान लो- एक महात्मा की उम्र 110 वर्ष भी हुई औऱ 10 वर्ष की उम्र से जपना शुरू किया, तो भी एक साल में 24 हजार माला गायत्रीमंत्र का जप करना पड़ेगा। श्री श्री १००८ की उपाधि पाना है, तो इस जन्म में असम्भव है।
करवद्ध विनम्र निवेदन-
तेरा साईं तुझमें है, ज्यादा धर्म के चक्कर में अपने कर्म खराब न करें। खुद ही सिद्ध पुरुष बने। एक माला लेकर बैठ जाये और पूरी एकाग्रता से जाप करें। आज नहीं, तो कल यह मन अचल हो ही जायेगा। एक दिन मन इतना लग जायेगा कि- माला छूट जाएगी और अजपा जप शुरू हो जाएगा।
बिल्कुल परमहंस मलूकदास जी तरह आप भी कहने लगोगे-
मेरा भजन, अब शिव करे, मैं पाया विश्राम।।
अर्थात आप ईश्वर को भी अपना भजन करने का आदेश दे पाएंगे।
मत भटको, न अटको और ना हीं
किसी से लटको। बस,अपने आपको
भोलेनाथ के चरणों में पटको।
खुद ही खुदा बनने का अभ्यास आपको एक दिन निश्चित ही ईश्वर का एहसास कराकर बाबा विश्वनाथ से मिलवा देगा।
हिन्दू धर्म का दुर्भाग्य यही है कि- ज्यादातर धर्म धारण करने वाले शातिर संतों ने धर्म को धन्धा बनाकर इंसान को भटका दिया और भगवान या किसी लायक नहीं छोड़ा।
लोगों को भ्रमित कर पथ भ्रष्ट कर दिया। इससे ज्यादा कुछ लिखना अनावश्यक विवाद का कारण बन जायेगा। अभी और भी रहस्य शेष हैं जिसे आगे बताया जाएगा।
कृृष्ण का मतलब भी समझ लें…
कृष्ण नाम बहुत गूढ़ विज्ञान समेटे हुए है।कृष्ण शब्द अत्यन्त रहस्यमयी है इनका सीधा सम्बंध आकाश के ऊपर अवकाश से है। आकाश और अवकाश में बहुत फर्क है। नीलवर्ण गगन या आकाश हम सबको साफ तथा स्पष्ट दिखाई देता है। अवकाश उसके उस पार है- वह अनन्त है, असीम है, कृष्णवर्ण है, श्याम रंग है अर्थात जो कृष्ण है वही असीम-अनन्त है। वे स्वयं ही अनन्त नाग भी है।
चैतन्यमय प्रकाशरूप अवकाश पर अपना प्रभाव-प्रकाश डालता है।
अवकाश में ही श्यामविवर
स्थापित है, जिसे दुनिया का विज्ञान ब्लैकहोल कहता है। यह सर्वाधिक गुरुत्वाकर्षण शक्ति एवं गहन अंधकार युक्त क्षेत्र है।
महाकाली इस क्षेत्र की देखभाल कर रही है। शिंवलिंग स्वरूप हरेक मस्तिष्क में भी गहन अंधकार, अज्ञान भरा पड़ा है। कृष्ण की शक्ति काली इसकी रक्षक है।
जन्म अष्टमी का महत्व….
भादों के महीने में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जन्म होने के कारण जन्माष्टमी मनाई जाती है।
यह तिथि अक्सर अगस्त माह में ही पड़ती है, जो आठवां महीना है।
माह अगस्त का आशय पढ़ने के लिए “लेफ्ट हेंडर्स डे” वाला लेेेख एक बार अवश्य पढ़ें-
श्रीकृष्ण के जीवन में आठ अंक…
कृष्ण का जीवन आठ के अंक से बहुत जुड़ा हुआ है। उनकी पटरानियां भी आठ थी-
【१】रुक्मणि, 【२】सत्यभामा,
【३】भद्रा, 【४】सत्या,
【५】मित्रवृन्दा, 【६】लक्ष्मणा,
【७】कालिन्दी तथा 【८】जाम्बवती।
यह ऋक्षवान पर्वत के आदिवासी राजा जाम्बवान की पुत्री थी। इन्हीं से जगत के आदिवासी
उत्पन्न हुए मानते हैं। आदिवासियों के पूर्वज एवं कुलदेवता भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।
इन आठ जगह के भोजन को सदैव त्यागे…
कृष्ण के मुताबिक आठ लोगों के यहां का भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए –
【1】चिकित्सक
【२】मृगयु यानी शिकारी,
【3】पुंश्चली यानि व्यभिचारिणी स्त्री के यहां,
【4】दाण्डिक अर्थात मुजरिम के घर
【5】चोर,
【6】अभिशप्त यानि शापित या शापग्रस्त व्यक्ति के यहां
【7】षंड यानि नपुंसक तथा
【8】पतित-पापी, भ्रष्ट आदमी।
(वसिष्ठ स्मृति :२९७)
सिद्ध आठ नाग जो सभी रोग-राग पल में मिटा देते हैं….इनके
नाम से नकारात्मकता का नाश- तुरन्त होता है-
१-तक्षक, २- वासुकी, ३- अनन्त, ४- शंख, ५- कुलिक, ६- कर्कोटक, ७- पद्मक और ८- महापद्मक
श्रीकृष्ण के अनुसार इन अष्ट नागों का नित्य स्मरण करने से नकारात्मक विचारों का अंत होकर शिव की अटूट भक्ति और कृपा प्राप्त होती है।
श्रीकृष्ण का परिवार….
■ भगवान श्रीकृष्ण के सखा अनेक थे। संखिया-सहेलियां या मित्र दो थी- पहली राधा, दूसरी द्रोपदी।
■ गुरु दो – आचार्य सान्दीपनि
इन्होंने विद्याध्ययन कराया उज्जैन के सान्दीपनि आश्रम में कृष्ण द्वारा पूजित स्वयम्भू शिंवलिंग आज भी स्थापित है, जहां केवल दही चढ़ाने की प्राचीन परंपरा है।ऐसा बताते हैं कि एक बार कृष्ण की आंखों में कोई रोग हो गया, तब गुरु सान्दीपनि ने इस शिंवलिंग पर दही द्वारा रुद्राभिषेक कराया, तो नेत्ररोग शांत हो गया था। आज भी यह परम्परा चल रही है। बहुत से जानकर नेत्ररोग होने पर इस शिंवलिंग पर दही अर्पित करते हैं।
नेत्रों की रोशनी बढ़ाने वाली दवा-
आंखों की किसी भी समस्या से निदान पाने के लिए अमृतम आई कि माल्ट EYEKEY Malt का तीन महीने सेवन करें। यह माल्ट त्रिफला, यशद भस्म आदि 35 जड़ीबूटियों से निर्मित है
■ दूसरे दीक्षा गुरु-महर्षि घोर आंगिरस…
इनने भगवान भोलेनाथ का गुरुमन्त्र देकर श्रीकृष्ण को दीक्षित किया। कथा वाचकों और अन्य जानकारों ने इस बात को हमेशा गुप्त रखा गया कि -भगवान श्रीकृष्ण परम शिव उपासक थे।
■ भगवान कृष्ण के माता-पिता दो थे। जिन्हें सारा जगत जानता है!
■ चाचा या काका आठ थे-
(१)सुनन्द, (२)उपनन्द, (३)महानन्द, (४)नंदन, (५)कुलनन्द, (६)बंधुनन्द, (७)केलिनन्द और (८)प्राणनन्द। यह सभी आयुर्वेद, पशुओं की चिकित्सा, नाड़ी वैद्य आदि के गहन जानकार थे। ”
केलिनन्द” काका ने ही मल्लविद्या, कबड्डी, जल तरण का अविष्कार किया था।
■ कृष्ण के पूर्वज आभीर भानु परम शिव भक्त थे। इनका समाधि स्थल शिंवलिंग नेपाल के काठमांडू में 21 शिखरों वाले कृष्ण मंदिर के द्वितीय तल पर स्थित है।
■ क्रिशन-कृष्ण — जो कर्षण कर लेता है यानि जो अपनी और खींच लेता है। — आकर्षक मूर्ति या प्रतिमा या व्यक्ति
■ कृष्ण के कुल पुरोहित महर्षि गर्ग थे, जो आज भी यादव जाति के कुलगुरु हैं, इन्हें सदैव इनका स्मरण करना चाहिए।
■ कृष्ण की प्रिय वस्तुएं-
● पुष्पों में पारिजात,
● फलों में आम
● पक्षियों में मोर
● खाने में दधि यानि दही, मख्खन, मिश्री।
श्रीकृष्ण को ये 4 वस्तुएं अवश्य अर्पित करना चाहिए।
■ बहिने तीन- सुभद्रा तथा मनसा भगिनी द्रोपदी किन्तु तीसरी भी एक बहिन है, जिसे कथा वाचकों ने हमेशा गुमनामी के अंधेरे में रखा।
वह है नन्द-यशोदा की पुत्री एकांनगा यह कृष्ण की गोप भगिनी थी।
श्रीकृष्ण की पत्नियां ८, अस्सी पुत्र और
चार पुत्रियां थी। इन सबके नाम हरिवंशपुराण में लिखे हैं।
विशेष विद्या के जानकार…
कृष्ण जी एक विशेष योग मुद्रा के जानकार थे, वे अक्सर अपने दाएं पैर का अंगूंठा मुख में डालकर गुरुमन्त्र का जाप करते थे। इस योग से शरीर में स्थित जैविक ऊर्जा के चेतन्य का अनुभव होता है। यह अघोरी विद्या है।
भक्ति का बंधन:-
भक्ति में विश्वास हो, तो एक दिन बाबा विश्वनाथ मिल ही जाते हैं। विश्वास एक ऐसी शक्ति है, जिसका विश्व में वास है। रोग, हीनभावना, भय-भ्रम रूपी विष का विनाश करने में विश्वास अत्यंत सहायक है।
दृढ़ विश्वास और भक्ति के बंधन में भगवान स्वयं ही बंध जाते है। इसमें न जिद्द करनी पड़ती है और ना ही क्रोध। भक्ति के लिए पूर्ण आस्था और अभ्यास के प्रति दृढ़ता रखनी पड़ती है। धैर्य रखना पड़ता है, विश्वास में वृद्धि के लिए श्रीकृष्ण का निरंतर, चिंतन, ध्यान तथा अजपाजप का अभ्यास करते रहना चाहिए। जब तक निश्चित तथ्य तक न पहुंच जाय, तब तक इसे टूटने नहीं देना चाहिए। उसमें भी सावधानी रखनी चाहिए कि कहीं मन्त्र जाप की ये आदत, नियम तथा अभ्यास टूट न जाये।
जब भगवान को भी बंधना पड़ा…
गोपियों की शिकायत पर जब मैया यशोदा भगवान श्री कृष्ण को पकड़ने दौड़ी, तो कान्हा यहां से वहां, वहां से कहां दौड़ने लगे। मां यशोदा की पकड़ में कन्हैया… जब बहुत समय तक नहीं आये- तो मैया थक-हार कर और पसीने से लथपथ होकर बैठ गयी।
बड़े-बड़े सिध्द महर्षि, त्रिकालदर्शी ऋषि, मुनि, महामुनि और योगी जिसको अनुभव में नहीं ला सके और अनेकों जन्म बिता दिए। उसी परम परमेश्वर रूपी कान्हा को मैय्या पकड़ना चाहती हैं। थक-हार कर जब मां ने सोचा कि अब इसे नहीं पकड़ सकती, तो बैठ गयीं और चुपचाप शांत देखने लगी। बहुत परेशानी के पश्चात मैय्या का मन भगवान में एकाग्र हो गया, तो श्रीकृष्ण स्वयं ही मां के पास चले आये और अपना हाथ मैय्या के हाथों में थमा दिया, तो मां यशोदा ने सोचा कि मैंने कान्हा को पकड़ लिया, अब भगवान पकड़ में आ गए तो यशोदा ने विचार किया कि इसे बांध देती हूं।
कान्हा चोरी के समय ऊखल के ऊपर खड़े थे! मैय्या ने सोचा इसी से बांध दूं – तो रस्सी खोजने लगी लेकिन रस्सी दिखाई नहीं पड़ी।
जो सिर में बालों को गुथने की जो वेणी ‘डोरी’ थी उसी से नटखट कान्हा को बांधने लगी–
पर वह दो अंगूल छोटी पड़ गई। मैय्या ने गोपियों से कहा कि- और ‘जाओं रस्सी ले आओं’। गोपियां रस्सी ले आई, पर सब रस्सी जोड़ देने पर भी दो अंगूल छोटी पड़ गई, तब गोपियां बोली ‘यशोदा रानी’- कन्हैया को छोड़ दो इनके भाग में बंधन या कैद लिखा ही नहीं है। मैय्या भी जिद्द पर आ गई और बोली आज इसे मैं बांध के ही रहूंगी। यही भक्ति का बंधन है।
ऊखल का क्या अर्थ है…
ऊखल का एक मतलब संत, महात्मा भी मान सकते है जो एक दम खाली है और परोपकारी है। असंत जन अर्थात लोभी, लालची सांसारिक जन उन्हें मूसल बन कूटते रहते है, तब भी वे शांत ही रहते हैं। स्वयं को दुःख देकर भी दूसरों को सुख पहुंचाते रहते है।
मन के शांत होने पर ही ईश्वर की अनुभूति हो सकती है। “इह नाना किंचन नास्ति” उसमें भिन्नता नहीं है। जैसे हम इस जगत को देख रहे है। सभी ब्रम्हर्षि, महर्षि वेद-पुराण हमें बतला रहे हैं कि ये सब सारा संसार विभिन्न-विभिन्न रूपों में दिख रहा है पर वह विभिन्न है नहीं।
“हार-जीत सब में रहे, हारे नहीं दातार”
परमात्मा को छोड़कर सभी के साथ हार-जीत ,दुःख-सुख, पीड़ा-क्रीड़ा लगी है अर्थात सन्सार में आकर सभी दुःख भोगते है।
भ्रांति एवं मन की अशांति से हमको नाना प्रकार का दुःख दिख रहा है।
“स मृत्योः मृत्युं गच्छति”
जो जगत के नाना रूप देखता है, वह फिर मृत्यु से मृत्यु को ही प्राप्त होता है। जो मृत्यु के बाद फिर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता वही अमर है, अमर्त्य है।
भगवान श्री कृष्ण ने जब माता को बहुत ही थकी हुई देखा, तो कान्हा ने सोचा …अब भक्ति के बंधन में बंध जाना चाहिए। माँ ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। अतः कान्हा ने सोचा कि माँ यशोदा कई जन्मों से मेरी भक्ति में लीन है, पुरानी भक्त हैं अतः इनमें बंध ही जाओ। हालांकि परमेश्वर कभी किसी से बंधता नहीं है और यदि विशेष भक्तिवश किसी भक्त के हाथों बंध भी जाते हैं, तो किसी न किसी का उपकार ही करते है।
जिस स्थान पर कान्हा को बांधा गया वहीं यमुलार्जुन वृक्ष थे, उनके रूप में कुबेर के पुत्रों का उद्धार होना था। बालक कृष्ण ने सोचा कि – इस ऊखल के साथ क्यों न इसका भी उद्धार कर दूं।
कुबेर के दोनों पुत्रों कूबर और मणिग्रीव को देवर्षि नारद ने इसी स्थान पर कान्हा द्वारा शापोद्धार का वरदान दिया
था कि द्वापर में श्रीकृष्ण तुम्हे शाप मुक्त करेंगे। तब तक तुम दोनों वृक्ष बनकर उस समय तक इनकी प्रतीक्षा करो। उन दोनों कुबेर पुत्रों के उद्धार हेतु भगवान ऊखल के साथ ही दोनों वृक्षों के बीच से निकले, तो ऊखल फंस गया और यमुलार्जुन के दोनों वृक्ष तड़-तड़ाकर गिर पड़े।
कृष्ण को पाओ – कष्ट मिटाओं…..
मीरा कहती है:-
‘पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।’
पग में घुंघरू तभी बंधते है जब श्री कृष्ण मिल जाएं। जब जीवन का परम सत्य मिल जाये। श्री कृष्ण के मिलते ही सब कष्ट मिट जाते है। तब आनन्दित होकर कोई भी पग घुंघरू बांध नाच उठता है।
घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं…
श्रीकृष्ण से दूर होकर जीवन “घुंघरू” हो जाता है। फिर लोग कहते है कि
“घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं,
कभी इस पग में- कभी उस पग में
सजता ही रहा हूं मैं।”
ज्ञान से गिरा अज्ञानी जीवन सर्वाधिक कष्ट कारक होता है। जो ईश्वर से छूटा उससे सारा जग रूठा। स्थिति यह हो जाती है कि –
अपनों में रहे या गैरों में,
घुंघरू की जगह, तो है पैरों में।
परमात्मा से पीड़ित व्यक्ति कभी सिरमौर नहीं बनता बल्कि उसका स्थान सभी के पैरों मे ही रहता है। न कोई मान-सम्मान, न कोई इज्जत सभी और से ठोकरे खाता रहता है।
अतः कष्टों से मुक्ति के लिए कर्म करना आवश्यक है।
श्रीकृष्ण के शब्दों में कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। कर्म के मर्म को समझने वाला ही धर्म से जुड़ पाता है,
फिर पग में घुंघरू बांधना शर्म नहीं बल्कि परम आनंद का विषय होता है।
चैतन्य महाप्रभु जब कृष्ण भक्ति में लीन हुए, तो उड़ीसा के जगन्नाथपुरी मन्दिर में घुंघरू बांधकर सड़क पर नाचने लगते थे। भक्ति भोले की हो या बांसुरी वाले की। व्यक्ति इसमें बोरा जाता है।
पंजीरी या पँचजीरी क्या है…
बहुत कम लोगों को पता होगा कि
पंजीरी (पँचजीरी) के प्रसाद की
परम्परा–जन्माष्टमी से जन्मी थी।
“पंजीरी की उपयोगिता-
दरअसल ये 5 पदार्थो से बनी पँचजीरी पदार्थ भी है और प्रसाद भी। यह पेट को दुरुस्त रखने वाली हर्बल दवा है।
वर्षाकाल के समय व्यक्ति में वात का प्रकोप अधिक होता है। इस अवसर पर घर-घर में निर्मित प्राकृतिक आयुर्वेदिक औषधि पँचजीरी जो वर्तमान में अब अपभ्रंश होकर पंजीरी हो गई। पंजीरी के विलक्षण गुणों से ग्रामीण, गांव के निवासी भलीभांति परिचित हैं।
एक अदभुत अमृतम योग है-पंजीरी
ऋग्वेद में संस्कृत की वेदवाणी है-
“न मृतम इति अमृतम”
अर्थात….अमृतम ओषधियों के अनुपान, सेवन या ग्रहण करने से व्यक्ति जल्दी मृत नहीं होता, रोगों से बचा रहता है।
थायराइड नाशक पंजीरी…
पंजीरी-वातरोगों का शमन, नाश करने वाली घरेलू ओषधि है।
एक महीने पंजीरी का सुबह खाली पेट सेवन करने से पुराने से पुराण थायराइड रोग, सूजन जड़ से मिट जाता है। साथ में
ऑर्थोकी गोल्ड माल्ट
और
ऑर्थोकी गोल्ड कैप्सूल का भी सेवन करें।
कैसे बनाते हैं पंजीरी-
पंजीरी या पँचजीरी में 5 प्रकार के खाद्य पदार्थों का समान मात्रा में समावेश किया जाता है-
{1}- धनिया
{2}- अजवाइन
{3}- सौंफ
{4}- जीरा
{5}-सोया
इनको बराबर मात्रा में पीसकर, इसमें शक्कर का बूरा एवं शुद्ध घी मिलाते हैं, जो वात-विकार को दूर करने वाली प्राचीनकाल की
“भयँकर दर्द नाशक”
आयुर्वेदिक ओषधि है। इसे श्रीकृष्ण जन्म पश्चात पूजा कर पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, बूरा) के साथ सेवन करते हैं।
यह अमृतम योग अत्यंत स्वास्थ्य वर्द्धक,पौष्टिक तथा वातशामक होता है।
आयुष मंत्रालय की खोज…
राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान”,जयपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “आयुर्वेद मत से पर्व एवं स्वास्थ्य”
प्रकाशक : — आयुष विभाग,
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय,
भारत सरकार द्वारा संस्थापित,
लेखक- वैद्य श्री कमलेश कुमार शर्मा
एसोसियेट प्रोफेसर
“स्वस्थवृत एवं योग विभाग”
राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान,जयपुर के अध्ययन, अनुसंधान, अनुभव तथा आयुर्वेद के अनुसार दुनिया के सभी धर्मों के
तीज-त्योहार,व्रत-उपवास, ईद आदि के समय बनने वाला नैवेद्य का सेवन तन-मन में उत्सव, उत्साह में वृद्धि करते हैं।
साथ ही यह स्वास्थ्यवर्द्धक योग भी हैं।
सत्यनारायण की कथा में पंजीरी-
देश की बुजुर्ग महिलाओं को
पता होगा कि पहले समय में
घर-घर में हर महीने की पूर्णिमा या अमावस्या को
“सत्यनारायण की कथा”
में यह “पँचजीरी” (पंजीरी) परिवार के
सभी सदस्य खाकर स्वस्थ्य रहते थे ।
अमृतम शास्त्रों का सत्य-
आयुर्वेद के एक बहुत ही प्राचीन ग्रन्थ
“व्रतराज” में पंजीरी को असाध्य रोग नाशक ओषधि कहा गया है।
पँचजीरी या पंजीरी के हर माह में
दो बार एवं बरसात के दिनों में
15 दिन तक 20 ग्राम की मात्रा में
दूध, दही, घी, शहद और बूरा
(पंचामृत) में मिलाकर अथवा
★ शुद्ध शहद,
★ ब्राह्मी रस,
★ मधुयष्टि सत्व,
★ पान का रस,
★ तुलसी का रस
इन पञ्च महा पदार्थों से निर्मित
“अमृतम-मधु पंचामृत” के साथ सेवन करने से अवसाद, हीनभावना, बीमारियों का विसर्जन हो जाता है तथा पीड़ित तन, रोग रहित होकर मन शांत हो जाता है।
केन्सर, मधुमेह, पथरी, हृदय रोग, यकृत रोग,उत्पन्न नहीं होते। पाचन तन्त्र मजबूत होता है।
उत्सव से उत्साहवर्द्धन-
“भैषज्य रत्नाकर”
नामक ग्रन्थ में लिखा है कि-
चिंता,शोक,भय-भ्रम,तनाव
से रोगों की वृद्धि होती है।
◆ उत्सव हमें उत्साहित करते हैं,
◆ उत्साह बढ़ाते हैं।
◆ उन्नति में सहायक हैं।
◆ उत्सव के समय उधम के
उपाय ढूढे जाते हैं, जो स्वास्थ्य वर्धक हैं।
◆ उत्सव हमें ऊंचाइया देता है।
◆ ऊंट-पटाँग विचारों को सकारात्मक व भावुक बनाकर विभिन्न विकारों का नाश करते हैं। जिससे हर्ष,उल्लास, अपार आनंद,प्रसन्नता प्राप्त होती है।
स्वास्थ्य को साधने वाला-
श्रीकृष्ण सार…
■ प्रकृति में सब कुछ परिवर्तन शील है।
■ परिवर्तन संसार का नियम है। कभी इससे डरें नहीं।
■ कर्म करो, पर फल की इच्छा न करो।
■ झूठ आनन्द आदमी को अहंकारी और कठोर बना देता है।
■ जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु जीवन के ये चार दुःख हैं।
■ कड़ी मेहनत से कष्ट को काटने वाला, कल, काल की चिंता से रहित व्यक्ति ही जीवन में परिवर्तन कर सकता है।
■ स्वस्थ्य रहना ही सबसे बड़ा साधन और साधना है।
■ इस सृष्टि में दुःख-सुख, लाभ-हानि,जीवन-मरण सब अस्थाई है।
■ मन को स्थिर करो, कैसे भी करो, शांत मन अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है।
■ कान्हा, काला होकर भी जगत का रखवाला बना, मन का कालापन जीवन को क्लेश-कारक और कंगाल बना देता है।
■ दुःख के अंदर सुख छुपा है,
दुःख ही सुख का ज्ञान है,सार है।
हरिवंश पुराण-
इसमें भगवान श्री कृष्ण के कुटुंब का वृतांत है। इसमें उनकी सभी लीलाओं का विस्तार से वर्णन है।
यह 18 पुराणों में से एक है।
अमृतम परिवार
की और से जन्माष्टमी की हृदय के अंतर्मन से सभी पाठकों और परिवार के सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं।
भगवान श्रीकृष्ण सबका जीवन स्वस्थ्य, सरल, सफल करें।
भादों की भावनाएं-
भाद्रपद मास (भादों का महीना)
कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जन्म होने के कारण इसे कृष्णाष्टमी (कृष्ण+अष्टमी) भी कहते हैं।
कान्हा के जन्मदिन पर दिन इस मंत्र का जाप अजपा रूप से नियमित करते रहें।
!!”श्री कृष्ण गोविंद,हरे मुरारि
हे नाथ,नारायण हे वासुदेवाय”!!
अर्जुन के मित्र व मार्गदर्शक कान्हा की काबिलियत को “अमृतम परिवार” कोटि-कोटि नमन करता है।
उनकी परमशक्ति श्री राधे जगत को सही राह-दे! इस निवेदन के साथ कृष्ण को चरण वन्दन है।
राधा कृष्ण काआधा
भाग है,
वे उनके बिना अपूर्ण है, राधा हमारे तन में
विपरीत धारा के रूप में विद्यमान है,प्रवाहित है। शक्ति माँ (शक्ति-अम्मा) की कृपा से इस जीव-जगत में
“प्रेम की धारा” नियमित बहती रहे ऐसी करवद्ध प्रार्थना है।
अंत में……….
हर दर्द की दवा है-गोविंद की गली में….
बात बालों की हो या लाडले लालों की, दर्द की हो या सर्द की मर्द की हो या नामर्द की कोई भी बीमारी की हो या नारी के माहवारी की
अमृतम के पास हर दर्द की दवा है।
आयुर्वेद हमें स्वस्थ्य रखने का उपाय बताता है। प्राचीन परम्पराएं परम् शांति प्रदाता हैं।
उपरोक्त ये दुर्लभ ज्ञान कभी आपके काम आए। आयुर्वेद की स्वास्थ्यवर्द्धक पध्दति कभी लुप्त न हो। ऐसा अमृतम प्रयास है,ताकि सबको स्वस्थ्य-मस्त होने का एहसास हो सके।
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हर पल आपके साथ हैं हम
हमारा उदघोष है-
रोगों का काम खत्म करने के लिए हैं प्रत्यन शील हैं।
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नेपाल में है श्रीकृष्ण के कुलदेवता मन्दिर-
सन 1637 में राजा नरसिंह मल्ल द्वारा निर्मित 21 शिखरों वाला कृष्ण मन्दिर काठमांडू के ललितपुर स्थित पाटन दरवार के पास है। मन्दिर का शिखर दक्षिण भारतीय शैली में है। मंदिरों की दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं को पत्थर पर उकेरा गया है।
पहली मंजिल में कृष्ण-राधा-रुक्मणि की मूर्तियां है और दूसरी मंजिल पर कृष्ण के परम आराध्य तथा परिवार के पूर्वज श्री आभीरभानु के कुलदेवता के रूप में शिंवलिंग स्थापित है। इस मन्दिर की ऐसी ही हूबहू एक छोटी आकृति राजा के महल में भी बनी है, जो दर्शनीय है।
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अंत में कुछ खास जानकारी-
श्रीकृष्ण के अनुसार आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और धनवान कैसे बने-
∆~ बस सच्चाई के साथ सही मार्ग पर चलते रहो। धो-खा-खाकर धुलकर साफ हो जाओगे। सफलता के पहले धोखा खाना जरूरी है। ठोकर खाकर ही व्यक्ति ठाकुरजी बनता है। श्रीकृष्ण ने भी बहुत ठोकर खाई, तब ठाकुरजी कहलाये। ∆~ श्रीमद्भागवत के अनुसार-
प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि-
दुद्योगमन्विच्दति चाप्रमत्त:।
दु:खं च काले सहते महात्मा
धुरन्धरस्तस्य जिता: सपत्ना:।।
अर्थात- बुरे हालात या मुसीबतों के समय जो इंसान दु:खी होने की जगह पर संयम और सावधानी के साथ पुरुषार्थ, मेहनत या परिश्रम को अपनाए और सहनशीलता के साथ कष्टों का सामना और निवारण करे, तो उससे शत्रु या विरोधी भी हार जाते हैं।
∆~ मान लो, तो हार है, ठान लो, तो जीत है।
∆~ द्वेष-दुर्भावना, जलन-कुढ़न से बचो-
द्वेष रखने से मस्तिष्क में कुछ भी शेष नहीं बचता। दुर्भावना से सफलता की संभावना खत्म हो जाती हैं। जलन से देह में जल तत्व कम होता है, जिससे मधुमेह/डाइबिटीज की वृद्धि होती है।
कुढ़न से नाड़ियां कड़क होती हैं, जो वातरोगों का कारण है।
∆~ आज करें-सो अब करें- कोई भी आज का काम कल पर ना छोड़ो। आज का काम तुरन्त निपटाने से गरीबी, दारिद्र का मुख नहीं देखना पड़ता।
∆~ समय की कीमत समझों। काम करते समय पसन्द-नापसन्द न देखें। अप्रिय कार्य से बुद्धि तेज होती है।
∆~ जीवन योजनाओं से भरा हो…
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन और समय का बेहतर प्रबंधन करना जरूरी है। सफलता के लिए बेहतर रणनीति जरूरी है।
∆~ संगत और पंगत में पवित्रता-
जीवन में अच्छा साथ दुखों से निजात दिलाता है।
पवित्र भोजन रोगों का भय मिटाता है।
∆~ बात में वजनदारी से रात में नींद गहरी आती है। जन्मपत्रिका में वाणी और धन स्थान दूसरा होता है। अच्छी वाणी से धन-संपदा बढ़ती है।
∆~ ये तो है नश्वर संसारा-भजन तू कर ले शिव का प्यारा। ब्रह्मानन्द कहें सुन चेला रे, सब चला-चली का मेला है।
∆~ कोई भी संपत्ति स्थाई एवं किसी की भी नहीं है। अतः कोई भी मोह मत पालो। जो आज जाएगा, कल वापस लौट कर आएगा ही।
∆~ परिवर्तन संसार का नियम है-
वक्त से साथ खुद को नहीं बदलोगे, तो समाज तुम्हें बदल देगा। चलते रहोदे, तो बदलते रहोगे।
अहंकार, अंधकार एवं अज्ञानता आदमी को बर्बाद कर देती हैं। जिनसे बचो।
∆~ शिक्षा, शक्ति और योग्यता-
शिक्षा और योग्यता के लिए जुनूनी बनो : व्यक्ति के जीवन में उसके द्वारा हासिल शिक्षा और उसकी कार्य योग्यता ही काम आती है। दोनों के प्रति एकलव्य जैसा जुनून होना चाहिए तभी वह हासिल होती है।
श्रीकृष्ण-लड्डूगोपाल नाम कैसे पड़ा….
ब्रजभूमि में एक भक्त की बात है-
कुंम्भनदास नामक परम् कृष्ण भक्त थे, उनके पास बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण जी का एक विग्रह था।
कुंम्भनदास के 7-8 वर्षीय पुत्र थे-रघुनंदन।
कृष्ण भक्ति में सदा लीन रहने वाले
एक बार वे भागवत कथा करने गए, तो जाते समय अपने पुत्र को समझाया कि तुम ठाकुर जी को समय पर नैवेद्य लगा देना।
दूसरे दिन रघुनंदन ने भोजन की थाली ठाकुर जी के सामने रखी और सरल मन से आग्रह किया कि ठाकुर जी आओ…. नैवेद्य ग्रहण करो!
रघुनंदन सोच रहे थे कि कृष्ण जी आकर अपने हाथों से भोजन करेगें जैसे हम खाते हैं। उसने बार-बार निवेदन किया, लेकिन भोजन, तो वैसे ही रखा था..
रघुनन्दन ने भी भोजन नहीं किया। यह प्रक्रिया 4 से 5 दिनों तक निरन्तर चली। अब बालक उदास हो गया और भावुक होकर रोते हुए पुकारा कि ठाकुरजी आओ भोग लगाओ। में भी 5 दिवस से भूखा हूँ।
ठाकुरजी ने बालक का रूप धारण किया और भोजन करने बैठ गए और रघुनंदन भी प्रसन्न हो गया।
रात को कुंम्भनदास जी ने लौट कर पूछा कि गोपालजी को नैवेद्य अर्पित किया था- बेटा!
तब रघुनंदन ने कहा हाँ बाबा। उन्होंने प्रसाद मांगा तो पुत्र ने कहा कि ठाकुरजी ने सारा भोजन खा लिया। उन्होंने सोचा बच्चे को भूख लगी होगी, तो उसने ही खुद खा लिया होगा। अब तो ये रोज का नियम हो गया कि कुंम्भनदास जी भोजन की थाली लगाकर जाते और रघुनंदन ठाकुरजी को भोग लगाते। जब प्रसाद मांगते तो एक ही जवाब मिलता कि सारा भोजन उन्होंने खा लिया।
कुंम्भनदास जी को अब लगने लगा कि पुत्र झूठ बोलने लगा है, लेकिन क्यों..?? उन्होंने उस दिन लड्डू बनाकर थाली में सजा दिये और छुप कर देखने लगे कि बच्चा क्या करता है। रघुनंदन ने रोज की तरह ही ठाकुरजी को पुकारा तो ठाकुरजी बालक के रूप में प्रकट हो कर लड्डू खाने लगे। यह देख कर कुंम्भनदास जी दौड़ते हुए आये और प्रभु के चरणों में गिरकर विनती करने लगे। उस समय ठाकुरजी के एक हाथ मे लड्डू और दूसरे हाथ का लड्डू मुख में जाने को ही था कि वे जड़ हो गये । उसके बाद से उनकी लड्डू गोपाल के इसी रूप में पूजा की जाती है और वे ‘लड्डू गोपाल’ कहलाये जाने लगे..!!
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