स्थिर बुद्धि क्यों जरूरी है और इसके जबरदस्त फायदे क्या हैँ?

अवसाद डिप्रेशन झेल रही नई पीढ़ी के लिए यह लेख बहुत काम है!
स्थिरबुद्धि न होने से जीवन सदैव असुख, अभाव, अशांति से बीतता है!
वर्तमान में कैंसर होने कि सबसे बड़ी वजह बुद्धि कि अस्थिरता ही है!
अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति परिवार, समाज और राष्ट्र भी दुःखित होकर अशान्ति और अनिश्चिन्तता के झूले में झूलता रहता है।
स्वामी विवेकानंद ने कहाँ था कि – ‘When passion is on the throne, reason is out of doors.” ‘जब आवेश सिंहासन पर बैठा होता है, तब सूझ-बूझ दरबाजों के बाहर निकल जाती है।’
श्रीमद भगवद्गीता में कहा है-
‘नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।’
अर्थात जो समत्व योग से युक्त नहीं है, उसके बुद्धि (स्थिर प्रज्ञा) नहीं होती और न ही उस अयुक्त में कोई सहृदयता, दया आदि की भावना होती है।
किसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती ?
स्थिरबुद्धि का इतना महत्व है, फिर भी लोग स्थिरबुद्धि नहीं पाते । अकसर लोगों की स्थिरबुद्धि समय पर पलायन कर जाती है।
वे इस मुगालते में रहते हैं कि हम समय पर अपनी बुद्धि से सही निर्णय ले लेंगे परन्तु समय पर प्रायः वही बुद्धि धोखा दे जाती है, उसकी निश्चय करने की शक्ति कुण्ठित हो जाती है!
 स्थिरबुद्धि एकाएक कुण्ठित और पलायित क्यों हो जाती है ? महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है
चएइ बुद्धि कुवियं मणुस्सं” यानी
जो मनुष्य बात-बात में कुपित हो जाता है, क्षणिक आवेश में आ जाता है, जरा-सी बात में, तनिक-सी देर में उत्तेजित हो उठता है, उस व्यक्ति से (स्थिर) बुद्धि दूर भाग जाती है, उसकी बुद्धि उससे रूठकर छोड़ जाती है।
स्थिर-बुद्धि भी पतिव्रता स्त्री की तरह उसी स्वामी के प्रति वफादार रहती है, जो कुपित, उत्तेजित और आवेशयुक्त नहीं होता, जो व्यक्ति समय पर अपने आप को वश में नहीं रख सकता, अपने आपे से बाहर हो जाता है, तब उसकी स्थिर-बुद्धि भी शीघ्र ही उसके मस्तिष्क से खिसक जाती है।
वास्तव में स्थिर-बुद्धि का कार्य है-स्वयं सही निर्णय करना । यथार्थ निर्णय के अधिकार का प्रयोग तभी हो सकता है, यदि उसके अधीन कार्य करने वाली प्रज्ञा (स्थिर-बुद्धि) उसके वश में हो और प्रज्ञा स्थिर होती है, आत्मसंयम से जब मनुष्य आत्मसंयम खो बैठता है, बात-बात में आवेशयुक्त होकर अपने पर काबू नहीं रखता, तब उसकी प्रज्ञा स्थिर न रहे यह स्वाभाविक है!
निष्कर्ष यह है कि आत्मसंयम के बिना मनुष्य अपनी प्रकृति और वृत्ति-प्रवृत्ति को अंकुश में नहीं रख सकता; और ऐसी स्थिति में मनुष्य अपनी निर्णय शक्ति से हाथ धो बैठता है!
अस्थिर बुद्धि से सिद्धि समृद्धि नष्ट हो जाती है –
 स्थिरबुद्धि के अभाव में मनुष्य के सारे साधन और सारे प्रयत्न बेकार हो जाते हैं। एक मनुष्य के पास पर्याप्त धन हो, शरीर में भी ताकत हो, उसका परिवार भी लम्बा-चौड़ा हो, कुल भी उच्च हो, आयुष्यबल भी हो, इन्द्रियाँ तथा अंगोपांग आदि भी ठीक हों, बाह्य साधन भी प्रचुर हों, और भाग्य भी अनुकूल हो, लेकिन बुद्धि स्थिर न हो तो वह न लौकिक कार्य में सफल हो सकता है, न आध्यात्मिक कार्य में।
अथर्ववेद के एक सूक्त में मानव मस्तिष्क की दिव्यता बताते हुए कहा है….
तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोषः समुब्जितः!
 
तत्प्राणो अभिरक्षति शिरो अन्नमयो मनः!!
अर्थात  मनुष्य का वह सिर मुंदा हुआ देवों का कोष है। प्राण, मन और अन्न इसकी रक्षा करते हैं।
केवल शिव ही ‘त्रिलोचन’ नहीं होते, प्रत्येक मनुष्य के पास एक तीसरा नेत्र होता है, जिसे हम दिव्यदृष्टि कह सकते हैं। वह मस्तिष्क में ही रहता है।
मनुष्य मस्तिष्क से दैवीबल प्रकट होता है। वस्तुतः इस तीसरे भीतरी नेत्र को हम सूक्ष्म एवं स्थिरबुद्धि कह सकते हैं।
स्वप्न में बाह्य आँखें बंद होते हुए भी मनुष्य स्वप्न के दृश्यों को प्रत्यक्ष-सा देखता है।
 बुद्धि निर्मल एवं स्थिर होने से मनुष्य अप्रत्यक्ष को भी देख सकता है, दूरदर्शी बन सकता है। इसी से हिताहित कार्याकार्य या शुभाशुभ का वह शीघ्र विवेक कर सकता है।
किसी कार्य के परिणाम को वह पहले के जान लेता है । इसी कारण स्थिरबुद्धि व्यक्ति का प्रत्येक सत्कार्य सफल होता है । प्रत्येक परिस्थिति में उसकी स्थिरबुद्धि कोई न कोई यथार्थ हल निकाल लेती है।
 आत्मा के प्रकाश को वही बुद्धि ग्रहण करती है। उसी से मिथ्याधारणाएँ, अन्धश्रद्धा, अज्ञानता आदि नष्ट होती हैं। उसी की सहायता से मनुष्य सत्कार्य में प्रवृत्त होता है । शुक्राचार्य ने इसी बुद्धि की उपयोगिता को लक्ष्य में करके कहा है
लोकप्रसिद्धमेवैतद् वारिवह्ननियामकम् । उपायोपगृहीतेन तेनैतत् परिशोष्यते ॥
अर्थात यह जगत्प्रसिद्ध है कि जल से अग्नि शान्त हो (काबू में आ) जाती है, किन्तु में यदि बुद्धिबल से उपाय किया जाए तो अग्नि जल को भी सोख भी लेती है।
सृष्टि में जो कुछ चमत्कार हम देखते हैं, वह सब मानवबुद्धि का ही है। मनुष्य बुद्धिबल से बड़े से बड़े कष्टसाध्य रचनात्मक कार्य कर सकता है, बड़े से बड़े संकटों को पार कर सकता है।
मुद्राराक्षस में महामात्य चाणक्य की प्रखर बुद्धि का वर्णन आता है। जिस समय लोगों ने चाणक्य को बताया कि सम्राट की सेना के बहुत से प्रभावशाली योद्धा उसका साथ छोड़कर चले गए हैं और विपक्षियों से मिल गए हैं, उस समय उस प्रखर बुद्धि के धनी ने बिना घबराये स्वाभिमानपूर्वक कहा
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेनाशतेभ्योऽधिका । नन्दोन्मूलनदृष्टिवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ॥
अर्थात -जो चले गये हैं, वे तो चले ही गये हैं। जो शेष हैं, वे भी जाना चाहें तो चले जाएँ, नन्दवंश का विनाश करने में अपने पराक्रम की महिमा दिखाने वाली और कार्य सिद्ध करने में सैकड़ों सेनाओं से अधिक बलवती केवल एक मेरी बुद्धि न जाए; वह मेरे साथ रहे, इतना ही बस है।
वास्तव में सूक्ष्म और स्थिरबुद्धि का मानव-जीवन के श्रेय और में अभ्युदस बहुत बड़ा हाथ है । इसमें कोई सन्देह नहीं।
स्थिरबुद्धि के अभाव में संकटों मनुष्य के समय किंकर्तव्यविमूढ़, भयभ्रान्त, एवं हक्का-बक्का होकर रह जाता है।
जिस की बुद्धि स्थिर नहीं होती, वह सभी कार्य उलटे ही उलटे करता चला जाता है, वह में विवेकभ्रष्ट होकर अपना शतमुखी पतन कर लेता है।

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