सदगुरू क्यों जरूरी है। बिना गुरु के मानव जीवन अधूरा या व्यर्थ क्यों है। इस लेख का 1-1 शब्द गुरु के गुप्त रहस्यों से भरा है

                 ★★★’ॐ’★★★
 
             !!गुरु पूर्णिमा पर विशेष!!
 
सुमिरन मेरा गुरु करे, मैं पाया विश्राम….
परम गुरु भक्त
परमहँस सन्त मलूकदास” के मुताबिक
“प्रकटे आपे आप”…….
यह सब सदगुरू के प्रति गहरी निष्ठा, श्रद्धा और गुरुमन्त्र के जाप से ही सम्भव है। इसलिए सदगुरु से दीक्षित होना जरूरी है।
 गुरु शिवो गुरुर्देवो गुरुबंधु शरीरिणाम!
गुरुरात्मा गुरूजीर्वो गुरोरनयन्न विद्यते!!
 
सम्पूर्ण सृष्टि में सदगुरू ही शिव-सूर्य-चन्द्र हैं, वही ब्रह्मा-विष्णु महेश हैं। महाकाल और कालीरूप में घट-घट में बसने वाली ज्ञान की मूर्ति है। गुरु लक्ष्य पर पहुंचाता है, इसलिए ये लक्ष्मीरूप हैं। सदगुरु का महालक्ष्य शिष्य को महामुक्ति दिलाना होता है। गुरु की कृपा से ही आदिनाद द्वारा ब्रह्मज्ञान भीतर से प्रकट होता है। जो साधक गुरुमन्त्र का जाप करते हुए गुरुध्यान में रमा रहता है…..
अध्यात्म में इसे चिर-विश्राम कहा है।
बस, जिसके आगे कुछ नहीं…..
गुरुकृपा से गुदा और गुर्दे में स्पंदन होने लगता है। मस्तक में मन्त्र गूंजता है- “शिवोsम..शिवोsम”
और फिर यह एहसास होने लगेगा,
अनुभव कर कह सकोगे….
सुमिरन मेरा गुरु करे, मैं पाया विश्राम….
गुरु की गरिमा...
गुरु और समुद्र दोंनो ही गहरे हैं – –
पर दोनों की गहराई में एक फर्क है ..
समुद्र की गहराई में इंसान डूब जाता है..
और – – –
गुरु की गहराई में इंसान तर जाता है ..!
गुरु खरा हो और समुद्र खारा हो,
तभी गहरे होते हैं।
दूसरी बात यह है कि…..गुरू और शिष्य दोनों का स्वस्थ रहना जरूरी है।
तीसरा पहलू भी जरूरी है..शिष्य में जिज्ञासा और गुरू में समाधान शक्ति बनी रहे।
 गुरू-शिष्य में झगड़ा, वैमनस्य दुराव न हो। शिष्य में निरंतर त्याग की भावना बनी रहे।
 गुरू में लोभ न हो। शिष्य में विराग श्रध्दा हो और गुरू में परम स्नेह हो।
अंधकार का हथियार गुरु..
अज्ञान, अविद्या बहुत ताकतवर होता है,
किन्तु ब्रम्हाविद्या उससे कई गुना शक्तिशाली है। गुरूकृपा से हमें भी ऐसी ब्रम्हविद्या सुलभ हो, जो हमारी अज्ञानता को नष्ट कर दें। ऐसा प्रकाश हो जाये कि सारा अंधकार दूर हो जाय।
वेदों में इसलिए उल्लेख है-
असतो मा सदगमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्युर्मा अमृतमगमय
है सदगुरू, हमें अंधकार यानि असत्य से प्रकाश अर्थात सत्य की ओर ले चलो! हमें  मृत्यु झंझट, कष्ट-क्लेश से मुक्ति दिलाकर ईश्वर की तरफ ले चलो!
अमृतम पत्रिका का भी उदघोष यही है।
गुरु हमें यथार्थ में जीना सिखाता है…
गुरुगीता में कहा है कि….

गुरु वह अज्ञान तिमिर यानि अंधकार का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है।

“अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजनशलाकया,

चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः “

‘गु’ अक्षर के अंतर्गत अंधेरे का भास तथा
भाव प्रतीत होता है। ‘गु’ यानि
जिनकी बुद्धि विकार-अंधकार युक्त है।
गुरु ‘रु’ अर्थात आत्मा
में प्रकाश का आभास कराता है।
तन स्थित अरबों अन्धकार से भरी नाड़ियाँ, ग्रंथियां गुरुदृष्टि से प्रकाशित होकर, जन्म-जन्म की गन्दगी, विकार एवं अन्धकार
नष्ट हो जाते हैं।
माता-पिता और सदगुरू ये तीनों जगत के जीते-जागते देवता हैं। जिनका विश्वरूपी
शरीर हमारे लिए बाबा विश्वनाथ की तरह पूज्यनीय है। इनकी शरण में आकर सारी
आपदाएं, तकलीफ, दुष्टता, द्वेष-दुर्भावना दूर हो जाती हैं।
जीवन की नैया पार, कार से नहीं
सदगुरू के ‘ॐकार’ से होगी…
 
झूठा आनंद आदमी को कठोर और अहंकारी बना देता है और वह आनंद दूसरों को नहीं दिया जा सकता। सच्चा आनंद आदमी को दयालु और समझदार बनाता है।
सच्चे वाहेगुरू की पहचान..
सदगुरु कभी बचाता नहीं, मिटाता है,
तुम्हारे अंदर स्थित अज्ञान, राग, लोभ,
मोह, चिंता सप्त विकारों को मिटाता है।
जो बचाने वाले गुरू हैं…..
वर्तमान में उनके पीछे लाखों की भीड़ है, कोई गुरू ताबीज बांट रहा है, कोई राख,
तो कोई भभूत दे रहा है। हमें लगता है
कि इन सब टोटकों से लाभ हो रहा है।
गुरू की बड़ी कृपा है। गुरू बचा
रहा है, वे हमारी रक्षा कर रहे है।
इन अनसिखे, अज्ञानियों चेलों को यह पता नहीं है कि सच्चा गुरू तुम्हे मिटाएगा, बचाएगा कैसे? तुम्हें ताबीज से तम यानि अंधकार के बीच रखकर तुम्हे नहीं बचाएगा।
सदगुरु जानता है कि… यदि ये अब इस जन्म में बच गए, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं होगा। सदगुरु चमत्कार नहीं दिखाता वरन जन्म-मरण का चक्कर मिटाता है।
गुरू चक्कर और चमत्कार से मुक्ति
दिलाता है। अतः गुरू में पूर्णतः समर्पण ही
शिष्य का चित्र, चरित्र बदलकर जीवन को इत्र से महकता है। गुरु चरण में अर्पण से व्यक्ति स्वयं को दर्पण में देखने योग्य बना लेता है।
सब धरती कारज करूँ, 
लेखनी सब वनराय!
७ समुद्र की मसी करूँ,
गुरुगुण लिखा न जाये!!
कबीरदास जी ने गुरु की अरदास में कहा है कि.. सारी धरती को कागज, सभी वृक्षों की कलम और सात समुद्रों की स्याही
बनाकर भी लिखें, तो भी गुरु का गुणगान नहीं किया जा सकता।
गुरु द्वारा दिया गया गुरु मन्त्र स्वतः सिद्ध
होता है, क्योंकि गुरु-शिष्य परम्परा के
अनुसार वही गुरुमन्त्र हमारे पूर्वज गुरुओं द्वारा हजारों वर्षों से जपा-अजपा होता है।
गुरु हमारे गुरुर यानी अहंकार का नाशकर
भाग्य के कपाट खोल देता है।
गुरुमन्त्र से आती है सिद्धियां…
महानिर्वाणतंत्र: उल्लास-६, पद-६७/१६८ और अंक प्रतीक कोष-७९ आदि ग्रंथों
में उल्लेख है-
मंत्राणा देवता प्रोक्ता देवता गुरुरुपिणी।
अभेदेन भजेद्यस्तु तस्यसिद्धिरनुत्तमा।
गुरु शिरसि सन्चिंत्य देवता हॄदयाम्बुजे।
रसनायां मूलविद्या विद्या तेजोरुपा ..आदि
कैसे करें मन्त्र का जाप
इस श्लोक में सदगुरू से प्राप्त दीक्षा मन्त्र
के जाप का विधान बताया है। लिखा है कि.
सदगुरू और सदाशिव का शरीर के विभिन्न
अंगों पर अधिष्ठान है यानि स्थित है,
इसलिए गुरु का ध्यान हमेशा मस्तक में,
शिव का ध्यान ह्रदय में तथा गुरुमन्त्र या
अन्य मन्त्र का ध्यान जिव्हा पर होना चाहिए।
इन तीनो का एकीकरण होने पर सिद्धि
और सम्पत्ति शीघ्र मिलती है।
¶ एक रहस्यमयी गुरु ज्ञान यह भी है कि…
मन्त्र का जाप अपनी नाभि में एकत्रित
यानि स्टोर करने चाहिए। मतलब सीधा सा
यह है कि..मन्त्र जपते समय ऐसा एहसास करें कि मन्त्र हमारी नाभि में इकट्ठा हो रहा है।
बाबा हरिदास कहते थे… गुरु की शरण
और चरण में चारों धाम, आठों याम, राम-श्याम तथा सभी काम-दाम है। बिना गुरु कृपा के जीना हराम हो जाता है। अतः
किसी ताम-झाम में पड़कर सदगुरू के
प्रति, शिव से भी ज्यादा श्रद्धा बनाये रखें।
¶ गुरु में अश्रद्धा महापाप है।
¶ गुरु विश्वास और एहसास है,
¶ इन्हें केवल श्रद्धा से साधा जा सकता है।
¶ गुरु में विश्वास होने से हमारे तन-मन के
विष-विकार, अहंकार मिटकर…
सब सपने साकार होने लगते हैं।
¶ गुरु के सानिध्य में व्यक्ति विषहीन होकर
जन्म-जन्म की विषय वासना के बंधन
से छूट जाता है।
ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था 
मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:!
जघन्यगुणवृत्तिस्था 
अधोगच्छन्ति तामसा!! 
(१४-२८ श्रीमद्भागवत गीता)
भावार्थ- गुरु कृपा से स्वस्थ्य व्यक्ति
ऊर्ध्वगति यानी मुक्ति पाते हैं।
गुरुकर्णधारणम अर्थात
म तन रूपी नाव का सदगुरू ही
कर्णधार बताया है।
श्वेतश्वतर उपनिषद में लिखा है कि…
परमात्मा में प्रेम है और गुरु में ज्ञान।
अतः सदगुरू का ध्यान कर ईश्वर से
जुड़कर प्रेम प्राप्ति का मार्ग सुलभ
हो जाता है।
¶ गुरु ज्ञान से हमारी अंतरात्मा का
आराम मिलता है।
¶ ज्ञानदाता गुरु हमारे हृदय, आत्मा
और मन-मस्तिष्क को सींचकर बुद्धि
पर पड़ा अज्ञान आवरण हटा देते हैं।
¶ अंतरंग की पावनता से बहिरंग जीवन
सत्य और शांति से भर जाता है।.
¶ गुरु देते हैं-मन को अमन
मन ” ऊर्जा का मुख्य संवाहक है, जो भावनाओं के अनुरूप काम, क्रोध, मोह,
लोभ एवं अहंकार के रूप में प्रकट होता है। वासना और इच्छाओं का मुख्य कर्ता-धर्ता है मन। मन पर विजय पाना असम्भव कार्य है, पर….. गुरु मंत्र के जाप से एवं गुरुकृपा द्वारा इसकी दिशा बदली जा सकती है।
जब लग नाता जगत का,
तब लग भगति न होय।….
प्रार्थना से दूर व्यक्ति को परमात्मा दरिद्र-
दुखी बना देता है। गुरु के बिना सब
प्रार्थनाएं अनसुनी हो जाती हैं। सारे
प्रपंच पूजा-पाठ, कर्मकांड, अभिषेक,
छप्पन भोग एवं फूलबंगला आदि अर्पित
करने का फल पूर्णतः प्राप्त नहीं होता।
गुरुरेकोजगत्सर्वं ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मकम!
गुरो परतरं नास्ति तस्मात् सम्पुज्येत गुरूम!!
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तीनो गुरु में
समाहित हैं। ब्रम्हा… माता-पिता है
इसलिए ये जगत की रचना करते हैं।
जैसे….माता-पिता हमारी रचना करते है
अतः ब्रम्हा को संसार (सांसारिक) कहा है इसलिए ब्रह्मा की पूजा निषेध है।
विष्णु – भंडारी है जिन्हें भंडार भरने में आनंद आता है। सभी कहते है लक्ष्मी जी
का भंडार भरपूर रहे विष्णुजी का नहीं
है ये संसार पालक है। पालने के कारण पूज्यनीय है।
विश्व के हर अणु के मालिक हैं, इसलिए
विश्व+अणु= विष्णु कहा जाता है। ये कण-कण के रक्षक-पालक हैं। मोह माया लोभ-लालच में ललचाना इनका काम है।
 महेश अर्थात शिव। शिव का अर्थ है कल्याण जो कल्याण, परोपकार की भावना रखते हैं, वे ही शिव उपासक हो सकते है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः 
गुरुदेवो महेश्वरा!
गुरु साक्षात परब्रह्म 
तस्मै श्रीगुरवे नमः!!
गुरु को समर्पित यह बहुत प्रसिद्ध श्लोक है..
इसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं-
पहली बात तो यह है कि गुरु मूर्ति में
जगत के तीनों पालनहारों का वास है।
सदगुरू के ध्यान, और गुरुमन्त्र के जाप
से जीवन में १०० फीसदी परिवर्तन होता है।
गुरुवाणी के द्वारा जीव के अंदर ज्ञान की
गति का भाव उत्पन्न होता है। ज्ञान का
अंकुर फूटने से ही गुरु ब्रह्मा का स्वरूप है।
जब शनै-शनै गुरु के उपदेशानुसार जीव,
जब निवृत्ति मार्ग की और जाने लगता है,
तब अंकुरित स्वरूप उस वृक्ष से ज्ञान रूपी
चार स्कन्द एवं चार गोदे चार वेद कहलाते
हैं। जब उसी गोदों से शाखाएं फूटती हैं,
वह १८ पुराण कहे जाते हैं। ऐसे अनंत
ज्ञान की अनुभूति होने पर सदगुरू शिष्य
के लिये विष्णु स्वरूप हो जाता है।
सदगुरु की पूजा किये, सबकी पूजा होय…
गुरुभक्ति से शिष्य के सम्पूर्ण दोषों का
नाश, प्रारब्ध के पापों तथा जन्म-मरण
की प्रक्रिया का संहार हो जाता है। फिर,
गुरु में शिव और शिव में गुरु के दर्शन
का सौभाग्य मिलता है, इसीलिये
गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश पारब्रह्म,
परमपिता और परमात्मा स्वरूप
बताया गया है।
गुरु की ओर निहारिये, औरन से क्या काम..
¶ शिव तत्व एवं गुरु के अभाव में सारा संसार, जीव-जगत शव समान हो जाता है।
¶ परमेश्वर रूप गुरु की प्रार्थना- उपासना से तन-मन, प्राण, वाणी, हृदय पवित्र
पावन हो जाता है।
¶ गुरुज्ञान एवं कृपा से प्राणी अभय पद
पाकर परमहंस हो जाता है।
¶ ज्ञानी, ग्रन्थ एवं गुप्त साधक कहते हैं..
“गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई”
गुरु के बिना इस भवसागर से कोई
भी पार नहीं लगा सकता।
¶ ध्यान-समाधि, योगाभ्यास से सदगुरू
में शिव की अनुभूति होने लगती है।
¶ गुरु के स्थूल रूप में कुछ नहीं धरा।
¶ गुरुमूर्ति का ध्यान करके वैभव, ऐश्वर्य और उनका चमत्कार देखा जा सकता है।
¶ सदगुरू में ही शिव का वास होता है।
बड़े-बड़े परम योगियों ने, महायोगियों-
अवधूतों ने अंतर्मुखी होकर, अंतरात्मा
की साधना करके गुरु को नाद रूप में,
ज्योतिर्लिंग एवं ज्योतिर्रूप में मूलाधार
चक्र से ऊपर उर्धगामी यात्रा में अपने गुरु
का व्यापक रूप का, उनके चमत्कार
का अनुभव किया है। गुरु में ही शिव
या अपने इष्ट के दर्शन पाए हैं।
¶ अपनी आत्मारुपी ज्योति को जलाए
रखने हेतु गुरु से भावविभोर होकर
प्रार्थना करें कि…गुणों के गणित में
वृद्धि करने वाले गुणातीत, भय-भ्रम
भगाकर, भाग्योदय करने वाले हे सदगुरू!
आप कालातीत हैं। महेश्वर से कहकर
मुझे महाएश्वर्य दिलवा दो।
मुझ पर दया करो।
¶ मेरे मन में सदैव शुभ-शिव संकल्प, शुभकामना का उदय हो।
¶ मेरा जीवन मंगलमय हो।
शिव और शव में अन्तर…..
जीवित शरीर में अग्नि यानि शिव का
वास होता है। शिव शब्द में से छोटी
“इ” की मात्रा हटाते ही व्यक्ति शिव से
“शव” हो जाता है। प्राणी के शिव से शव
होते ही उसे अधिकतम
24 घण्टे के अन्दर उसे मुक्तिधाम ले
जाकर उसका दाह संस्कार कर देते हैं।
~ “छोटी इ की मात्रा” …हमारी अग्नि रूपी इकार शक्ति है। जब यह इकार शक्ति
विकारयुक्त होकर दूषित हो जाती है,
तब यह आशा, तृष्णा, इच्छा, वासना,
कामना, मनोविकार, भय-भ्रम, लोभ-मोह
अहंकार, दुःख-दारिद्र, गरीबी, रोग-बीमारी,
ग्रह दोष, गृह क्लेश, राग, द्वेष-दुर्भावना, बेईमानी, अशांति आदि तकलीफ,
परेशानी उत्पन्न होने लगती हैं।
गुरु गीता ग्रन्थ में उल्लेख है कि…
व्यक्ति जैसे-जैसे सदगुरू और सदाशिव
से दूर होता चला जाता है, उसके जीवन में कष्टों का अंबार लगने लगता है।
गुरुमन्त्र के लगातार जाप से इन सब ताप-तकलीफ से मुक्ति मिल सकती है।
¶ धर्म-दर्शन शास्त्रों में बताया है कि…
जीवन का दर्शन, गुरुअर्चन में है।
चार युगों में कैसे बदला मानव
इसे बहुत आराम से पढ़ें….
क्या है-ब्रह्म, धर्म, कर्म और भ्रम…
【1】सतयुग में केवल ब्रह्म यानि शिव का दौर था। लोग उस समय केवल शिव को ही गुरुु या सब कुछ मानते थे।
~ सतयुग में शिव ही ब्रह्म था। शिव ही सबका सदगुरु था। शिव गुरु कृपा से हर कोई ब्रह्मज्ञानी था। शिवपुराण में आया है कि शिंवलिंग गुरु का प्रतीक स्वरूप है।
~ भक्तों-साधकों के विशेष आग्रह पर भगवान शिव ने गुरु के प्रतीक रूप में शिंवलिंग की स्थापना की थी।
~ शिंवलिंग गुरु का ही एक रूप है।
आपने देखा होगा कि साधु-सन्यासी
की समाधि, देहत्याग या मृत्यु के बाद
उस स्थान पर शिंवलिंग
की प्राण-प्रतिष्ठा करा दी जाती है।
यो गुरु:स शिवः प्रोक्तो य:शिव:स गुरुस्मृत:!
अर्थात… जो गुरु हैं, वही शिव हैं और जो
शिव हैं, वे ही सदगुरू हैं। दोनों में अंतर
मानने वाला घोर गरीबी में जीता है।
शिवपुराण आदि उपनिषदों में शिंवलिंग
को सदगुरू का स्वरूप बताया है।
दुनिया में जहाँ भी सुप्रसिद्ध शिंवलिंग या स्वयम्भू ज्योतिर्लिंग हैं, वे सब कठोर शिवभक्त साधकों के समाधि स्थल है
भोलेनाथ ने उस जगह दर्शन देकर
ज्योतिर्रूप में शिंवलिंग में समाहित हो गए।
स्कंध पुराण में ऐसे चौरासी हजार शिवलिंगों का उल्लेख चौथे खण्ड में है।
【2】फिर आया त्रेतायुग..
इस युग में धर्म का बोलबाला बढ़ा।
हर कोई प्राणी धार्मिक था। चारो तरफ
केवल धर्म की चर्चा होती थी। गुरूवाक्य सर्वोच्च था। अधिकांश उपनिषदों की
रचना त्रेतायुग में हुई।
परम शिवभक्त महर्षि अष्टावक्र
जो कि राजा दशरथ के गुरु थे,
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ “अष्टावक्र गीता” इसी युग में लिखा गया था।
त्रेतायुग में सदगुरू और शिंवलिंग पूजा
का ही विधान था।
महादेव की महानता….
महादेव एक ऐसे देवता हैं, जिन्हें कभी
किसी से कोई मतलब नहीं है। यह निष्काम,
निस्वार्थ भाव से अपने में तल्लीन हैं। ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण नकारात्मक 
ऊर्जा, दुःख-दारिद्र के मालिक हैं
सृष्टि की सारी निगेटिव ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करने का अधिकार इनके पास है।
इसीलिए कहा गया…
भावन्ही मेट सकें त्रिपुरारी
सदाशिव बड़े से बड़े दुःख तकलीफ को
पलभर में मिटा सकते हैं।
हानि-लाभ, जीवन-मरण, 
सुख-दुख विधि हाथ !
इन ६ चीजों में बदलाव का अधिकार
विधि यानि शिव जी के पास है। ये सुपर
महा कम्प्यूटर तथा सॉफ्टवेयर के आविष्कारक एव रचनाकार हैं।
महादेव का भी मोबाइल नम्बर,
वेबसाइट, ईमेल एड्रेस भी है 
इसकी जानकारी
आगे के लेखों में दी जावेगी।
“शिव” सबसे बड़ा हत्यारा….
यह बात कुछ अटपटी लगेगी, लेकिन
शिव की तरह सत्य है। सन्सार में शिव
को ही सत्य और सुंदर माना गया है।
इसलिए ही इन्हें सत्यं-शिवं-सुंदरम
कहा गया।
जो व्यक्ति एक या दो लोगों को मारता है,
उसे लोग हत्यारा कहते हैं। 100-50
लोगों को मारने वाले को वीर सिपाही
कहकर, सेना में सम्मान दिया जाता है
और जो सम्पूर्ण जीव-जगत का संहार
करता है, उसका नाम महाकाल शिव है।
फिर आया द्वापर युग-
【3】द्वापर युग..में कर्मयोग सब कुछ था…इस युग में कर्म पर जोर दिया गया।
गीतासार के माध्यम से
कर्मयोगी भगवान कृष्ण ने प्रेरित
किया कि केवल कर्म करो- फल की इच्छा मत करो। कर्म के द्वारा सारे मर्म, दुःख-दर्द दूर किये जा सकते हैं।
कर्मों के द्वारा नये-नये अविष्कार का चलन इसी युग में अधिक हुआ। हम कर्म के रहस्य को जानने का प्रयास नहीं करते। जीवन की रक्षा, समाज, देश, विश्व और इस जीव-जगत
भला करने के लिए कर्म करना अति आवश्यक था।
दुःख की वजह भी कर्म है….
 यह भी सत्य है कि दुखों की उत्पत्ति का कारण भी कर्म ही है। कर्म करतेकरते व्यक्ति से कुकर्म और पाप भी हो जाते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में
शुभ कर्म को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
कर्म के द्वारा ही शिव, गुरु और
ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
कर्मयोग का वैदिक सिद्धान्त…
कर्मयोग सिखाता है कि कुछ भी अच्छा
पाने के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म
करो। कर्मयोगी को कर्म करना अच्छा
लगता है, इसलिए वह कर्म करता है।
वह कभी भी कर्म का त्याग नहीं करता। कर्मयोगी केवल कर्मफल का त्याग करता है। वह कुछ पाने की चाह नहीं रखता।
कर्मयोगी दाता के समान होता है, वो किसी से कुछ मांगता नहीं है। कुछ पाने की चेष्टा नहीं करता। सदगुरु ऐसा होना चाहिए।
!ॐ शिव कल्यानेश्वराय नमः! ……
कर्म सबके कल्याण के लिए
हमेशा करते रहना चाहिए।
वेद के अनुसार गुरु और शिव का एक अर्थ कल्याण भी है, जो लोग कल्याण या भला करने का भाव नहीं रखते, उन्हें
गुरु के चरण में तथा शिव की शरण
में स्थान नहीं मिलता
【4】भ्रम का दौर…कलयुग में फैलना शुरू हुआ… भ्रम
यह कलयुग है। चारो तरफ केवल भ्रम ही भ्रम फैला हुआ है। चित्रकूट के अवधूत
सन्त शंकरानन्द जी कहते थे कि..
कलयुग में ज्यों-ज्यों व्यक्ति ईश्वर से दूर होता जाएगा, अश्रद्धा, तन्त्र-टोटके, बिना मेहनत, जुगाड़ की कमाई तथा कम कर्म और फल की अधिक इच्छा की वजह से हर प्राणी में
भ्रम की भरमार होती चली जायेगी।
किसी को भी मानसिक शांति नहीं मिलेगी।
लोगों के चित्र-चरित्र बिगड़ जाएंगे।
अतः वर्तमान में भ्रम को दूर करने का
एक मात्र उपाय है…
भगवान शिव की शरण में जाना।
¶ अन्य पंथ एवं धर्म व्यवसाय का
रूप ले लेंगे।
¶ कथा वाचक धर्म की कम,
मृत्यु की चर्चा ज्यादा करेंगे।
¶ दुनिया में रोगों का रायता
फैलता चला जायेगा।
¶ शहरी साधु-सन्त ममता आसक्ति, राग,
द्वेष-दुर्भावना, दुष्टता को फैलाने में माहिर हो जाएंगे। दुखों को बटोरने वाले नहीं मिलेंगे।
गुरु पूर्णिमा का महत्व क्या है…
 सनातन धर्म पंचांग के अनुसार पूर्णिमा प्रत्येक माह आती है। लेकिन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष को गुरु पूर्णिमा इसलिए विशेष है क्योंकि इस दिन कलयुग के आदिगुरु श्री वेदव्यास जी का जन्म हुआ था।
शिव भक्त ऋषि पराशर के पुत्र महर्षि वेदव्यासजी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे।
उप्र का कालप्रिय तीर्थ इनकी जन्म भूमि है, जो आज का कालपी है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव जी
द्वारा रचित आदिकालीन
श्रुति वेदों को चार भागों में
【१】ऋग्वेद, 
【२】यजुर्वेद, 
【३】सामवेद और 
【४】अथर्ववेद
विभाजन, सम्पादन लेखन करके
व्यासजी ने गुरु पूर्णिमा के दिन विश्व के वैदिक धर्माचार्यों को समर्पित किया था।
वेदों को श्रुति क्यों कहते हैं-
ऐसी मान्यता है कि इसके पहले वेद लिखित में नहीं थे। वेदों को श्रुति कहा गया है,
क्योंकि यह करोड़ों वर्ष पुरानी परम्परा के हिसाब से सदगुरु अपने शिष्यों को कण्ठस्थ कराते थे। केवल याद करने और सुनने के कारण वेद श्रुति ग्रन्थ कहे गए।
यह भ्रम या झूठी बात है कि ऋषि व्यास
ने वेदों की रचना की थी
क्या है वेदों में…
सन्सार या ब्रह्माण्ड का हर रहस्य एवं ज्ञान,
वेदों में समाया हुआ है। इसकी अकाट्य
वैज्ञानिकता के कारण करोड़ों वर्षों से
इसका महत्व कम नहीं हुआ।
वेद एक प्रकार से भगवान शिव और
सदगुरुओं की वाणी है।
 ■ आयुर्वेद ऋग्वेद का ही अंश है।
 ■ यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है, इसमें
 युद्ध सम्बंधित सभी कला-कौशल,
 अणु-परमाणु, आदि की जानकारियां
 और शक्ति समाहित है।
 ■ सामवेद पूरा संगीत से भरा है। सन्सार का सम्पूर्ण गीत-संगीत, वाद्य यन्त्र तथा साज के राज्य छुपे हुए हैं। सामवेद का उपवेद
 गन्धर्ववेद है।
 ■ अथर्ववेद में धर्म-,अर्थ, काम-मोक्ष के
 रहस्य भरे पड़े हैं।
दक्षता पाने के लिए गए दक्षिण…
एक बहुत ही दुर्लभ और रहस्यमयी जानकारी यह भी है कि…महर्षि व्यासजी
ने इन वेद-पुराणों का लेखन कर
“श्लोकेश्वर शिंवलिंग” पर रुद्राभिषेक
करते हुए 54 दिन तक भोलेनाथ एवं
राहुदेव को सुनाया था।
कहाँ पर है श्लोकेश्वर शिंवलिंग
यह शिंवलिंग दक्षिण भारत के तिरुपति
मंदिर से 35 किलोमीटर दूर श्रीकालाहस्ती
वायुतत्व शिवालय में स्थित है। मन्दिर में प्रवेश करते समय बाहें हाथ की तरफ यानी लेफ्ट हैंड पर एक छोटा सा शिंवलिंग है।
कालसर्प-पितृदोष से पीड़ित थे-व्यास…
 
महर्षि व्यास जैसे गुरु भी राहु ग्रह
द्वारा निर्मित कालसर्प-पितृदोष से
पीड़ित थे, इसी कारण राहु की शांति के लिए उन्होंने 54 दिन लगातार राहु की उपासना की थी। शेष जानकारी
कभी अलग लेख में दी जावेगी।
क्यों बनाया राहुकी तेल…..
जिंदगीभर बहुत भटकने के बाद
एक दिन काशी के शमशानेश्वर शिंवलिंग
के नीचे, नदी किनारे शिवधुन में तल्लीन था। तभी काले वस्त्र धारण किये हुए एक
अवधूत सन्त मेरे बगल में आकर
बैठ गए, कुछ समय शांत रहने के पश्चात
उन्होंने मुझे झकझोरा। दरअसल मैं उस
समय ध्यान मग्न था।
बाबा ने पूछा ?… किधर से आया है बेटा!
थोड़ा चेतन्य होते हुए मैंने अपना परिचय
दिया, वे बहुत समय तक मुझसे बतराते रहे।
करीब एक घण्टे पश्चात वहाँ से चलने लगे,
तो मैने उन सन्त को चरण स्पर्श किया।
कुछ देर मौन रहकर बाबा ने पेन-कागज
निकालकर कुछ लिखने का बोला।
सब कुछ लिखने के पश्चात बाबा ने
बताया कि यह एक चमत्कारी तेल का फार्मूला है।
इस तेल के बनाने की विधि, जलाने का समय, विधि-विधान से करने पर जीवन में चमत्कार होने लगेंगे।
अमृतम ने नाम दिया राहुकी तेल:-
राहुकी तेल बनाने का विधान…
अवधूत बाबा के बताए मुताबिक हम
प्रत्येक महीने की पंचमी, या मास शिवरात्रि
को राहु की शांति के लिए उपयोगी जड़ीबूटियों जैसे-जटामांसी, देवदारु, नागवल्ली, नागकेशर, नागदमन आदि को जौकुट करके 16 गुने पानी में उबालते हैं।  फिर इसके काढ़े से शिंवलिंग का रुद्राभिषेक कराकर, उस काढ़े को
तिल के तेल में मिलाकर 7 दिनों तक
पकाते हैं। ठंडा होने के बाद इसमें
राहु-केतु एवं शनि की धातु वंग भस्म,
नाग भस्म, यशद भस्म तथा राहु के
पसंदीदा इतर गुलाब, चन्दन, आदि 7 तरह की खुशबू मिलाकर पैक करते हैं।
इसके अलावा भविष्य-पुराण एवं
स्कन्द पुराण के अंतर्गत राहु के रहस्य
और दोष निवारण उपाय के अनुसार
राहुकी तेल का निर्माण कर पिछले
17 सालों से दीपदान भी कर रहे है।
राहुकी तेल के दीपक जलाने से लाभ-
घोर परेशानियों के पश्चात सन 2002 में
मुझे जब राहुकी तेल का घटक-योग बाबा
जी ने दिया, तो मैंने इसे तैयार कर नियम से
54 दिन तक नियम से 5 दीपक राहुकी तेल
के जलाना शुरू किया। करीब 2 महीने बाद
मुझे कुछ चमत्कारी फायदे दिखने लगे।
जबसे आज तक यह नियम बरकरार है।
होली, दीपावली, मास शिवरात्रि और
महाशिवरात्रि, हनुमान जयंती, गणेश चतुर्थी
जैसे उत्सवों के समय एक बार में करीब
100 से अधिक राहुकी तेल के दीपक
जलाए जाते हैं। इस पूजा प्रक्रिया से
जीवन में परिवर्तन भी हुआ।
इसके अलावा राहु से पीड़ित अनेकों
जातकों ने राहुकी तेल के दीपक जलाये,
तो उनका भी भाग्योदय हुआ।
राहुकी तेल के 54 दिन लगातार 
राहुकाल में दीपक जलाने से निश्चित 
रूप से राहु की कृपा होने लगती है। ये बहुत से लोगों का अनुभव है। राहु ही कालसर्प दोष के कारक ग्रह हैं।
अतः राहुकी तेल के दीपक
प्रज्जलित करने से निश्चित ही कालसर्प-पितृदोष दूर होता है।
इस प्रयोग से अनेको कालसर्प दोष तथा
राहु पीड़ितों को आश्चर्यजनक लाभ हुआ है।
राहुकी तेल के बारे में उपरोक्त जानकारी देना जरूरी थी, क्योंकि 90 फीसदी लोगों की
मानसिक अशांति का कारण राहु ही है।
राहु हमेशा गुरु मंत्र के जाप से, गुरु की सेवा से या फिर राहुकाल में राहुकी तेल के दीपक जलाने से प्रसन्न होता है।
किस युग में कोंन गुरु-
स्कन्ध पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण,
अग्नि पुराण में व्यासजी से पहले
१– सतयुग में महादेव को आदिगुरु
बताया गया है। लेकिन
२– कलयुग के आदिगुरु वेदव्यास
कहे जाते हैं।
३-द्वापर युग के गुरु भगवान श्रीकृष्ण थे।
४–  त्रेतायुग में परशुराम जी, शुक्राचार्य, ऋषि अगस्त, वशिष्ठ आदि बहुत से गुरु थे।
 हरिवंशपुराण में लिखा है कि...
जिनके गुरु नहीं हैं, वे लोग भगवान शिव या महर्षि वेदव्यास को अपना गुरु मानकर
 !!नमःशिवाय च शिवाय नमः!!
इस शिवशक्ति मन्त्र को अपना गुरुमन्त्र मानकर जप सकते हैं।
जय-जय-जय हनुमान गुसाईं!
कृपा करो गुरुदेव की नाईं !!
यह भी कलयुग में सृष्टि का सबसे
शक्तिशाली तारण गुरुमंत्र है।
गुरु से गति….
वैदिक हिंदी शब्दकोश में ग अक्षर का
अत्यंत महत्व बताया है। ग से गाय, गुरु,
ज्ञान, गाँव, गणेश, गौरी शक्ति, गन्धर्व,
गण आदि शब्द ग से बनते हैं।
गुरु शरणागति छाड़ि कै,
करें भरोसा और।
सुख-सम्पत्ति की कहा चली,
नहीं नरक में ठौर।।
गुरु गुणोत्कर्ष से भरा होता है।
गुरु में गुणों की प्रधानता होने से
ज्ञान की वैज्ञानिक व्याख्या गुरुमुख
से ही अच्छी लगती है।
मन-मस्तिष्क और अन्तर्मन की
गुत्थम-गुत्था… गुरु शरण में जाकर
ही समाप्त होती है।
गुरु के प्रति बुरा भाव रखने वाले सदैव
अभाव में जीवन व्यतीत करते हैं।
गुरु के प्रति दुर्भाव का एक दुष्प्रभाव
यह भी होता है कि…ऐसे शिष्य गुदारोग, बवासीर, ठंडी तासीर तथा अनेकों
आधि-व्याधि से पीड़ित रहकर अपना
प्रभाव खत्म कर लेते हैं।
गुरुज्ञान– यह भी है कि गूदेदार
पदार्थ के सेवन एवं
अमृतम पाइल्स की गोल्ड माल्ट
खाने से गुदा के रोग या बवासीर
आदि विकार नहीं होते।
गुरु से दूर व्यक्ति में सदा गुरुर रहता है।
गुरु बिन भजन हराम है..
● गुरु में ज्ञान का गूदा भर होता है।
● गुरु के गीत..गुनगुनाने से जीवन
गुदगुदा, हल्का हो जाता है।
● गुरुमन्त्र का जाप, ध्यान-साधना गुपचुप
तरीके से करने का विधान है।
● अपने गुरु मंत्र को अन्य किसी ओर
को न बताने का भी यही कारण है।
● बताने से शरीर की ऊर्जा क्षीण हो
जाती है।
● तप नष्ट हो जाता है।
शिवपुराण में लिखा है कि..
गुरु दीक्षा के पश्चात ही आप किसी
भी मन्त्र में ॐ लगाने के अधिकारी
हो सकते हैं।
निगुरा मोको न मिले,
पापी मिले हजार!
इक निगुरे के शीश पे,
लख पापी का भार!!
शिव रहस्योउपनिषद में कहा है कि..
जो लोग निरगुरे हैं, जिन्होंने गुरु
नही बनाये है तथा गुरु से दीक्षित नहीं हैं, जिनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, उन्हें तथा
स्त्रियों को ॐ की जगह मन्त्र में श्री
का प्रयोग करना चाहिए। बिना गुरु दीक्षा के
ॐ नमः शिवाय
के स्थान पर 
! नमःशिवाय च शिवाय नमः!
का जाप करना ज्यादा हितकारी होता है।
ॐकार का अधिकार केवल गुरु के पास
शिवपुराण प्रथम अध्याय में आया है कि..
सम्पूर्ण सृष्टि में ॐ अर्थात प्रणव ही मूलमन्त्र है। प्रणव मन्त्र के जप का अधिकार सबको नहीं है। केवल गुरु मुख से मिलने पर ही सर्वफलदायक, सिद्धिकारक होता है।
जब तक किसी के गुरु नहीं हैं, तब तक
!!ॐ नमःशिवाय!! को छोड़कर किसी भी मन्त्र में ॐ न लगावें।
गुरुपूजां बिना नाथ, 
कोटिपुण्यं वृथा भवेत।…..
¶ सदगुरू की विशेषता यह है कि वह कैसा
भी हो, कभी किसी को गुमराह नहीं करता।
¶ अघोरी गुरु तो गुमसा यानि सड़े-गले को भी गले लगाकर उसका भक्षण कर लेते हैं।
¶ गुरु के प्रति गुमान करने से शिष्य गुमनामी के गहन अंधेरे में गुप्त हो जाता है।
¶ गुरु के ज्ञान का अनुमान करना मतलब खुद को गुम करना है।
कवि रसाल के शब्दों में...
गुरुर व गुमान गयो, गुरु शरण पाएं के।
गुरु के ज्ञान को कभो गुमान या गवांना
नहीं चाहिए। गुरु अज्ञानी को, तो
आसानी से मिल सकते हैं….लेकिन अभिमानी को मिलना मुश्किल है।
अहंकार से साकार व्यक्ति को निराकार
के दर्शन असम्भव हैं।
कभी कालिदासतुलसीदास,
वरदराज आदि ये कभी अज्ञानी लोग थे
लेकिन गुरू कृपा से परम ज्ञानियों के
रूप में जगतविख्यात हुए।
आयुर्वेद के ग्रन्थ भेषजयरत्नाकर
के हिसाब से अहंकार, सप्त-विकार बढ़ाकर
सात धतुओं का नाश कर देता है।
जहाँ आपा तहां आपदा, जहाँ संशय तहां रोग
यानि जब मनुष्य में घमण्ड हो जाता है, उस
पर आपत्तियों का पहाड़ टूटने लगता है और
रोगों की उत्पत्ति संशय, संदेह, शंका होती है वहीं रोग पैदा हो जाते हैं।
सोता साधु जगाइए, करें नाम का जाप!
यह तीनों सोते भले, साकित-सिंह और सांप!
अर्थात-
साधु भटक जाए, सोता मिले, तो उसे
जागृत करना जरूरी है, लेकिन सुप्त
अधर्मी, शेर एवं नाग को कभी न जगाए।
¶ गुरगा यानी शिष्य और गुप्तचर चेतन्य
होने पर ही कुछ पाते हैं अन्यथा गर्त में
चले जाते हैं।
¶ गुरु की सेवा और आदेश का पालन करने के लिए बड़ा गुर्दा चाहिए। गुरु द्रोणाचार्य ने
एकलव्य से अंगूंठा मांग लिया था। यह किस्सा हर कोई घिस्सा खाते हुए पहले
समय में लोग सुनाया करते थे।
गुणकारी गुरु…..
आयुर्वेदिक औषधियों की तरह गुरु भी
गुणकारी होते हैं। शब्दकोश में गुरु का
अर्थ है- हर क्षेत्र में बहुत वजनदार प्राणी।
दूसरा है- लंबे-चौड़े आकार वाला, 
भारी वजनी, कठिनाई से पकने या पचने वाला खाद्य पदार्थ।
कलयुग में कौन किसका गुरु….
वैसे तो आजकल सब गुरु हैं। कोई चेला
नहीं हैं। जिस पर टका यानि पैसा है,
वही सबकी नजर में पका है, पूर्ण है। 
बिना टका सब थका-थका है। 
कलयुग में यदि मजाकिया लहजे में
गुरु की व्याख्या करें, तो गुरु का अर्थ कुछ
अटपटा सा है, वह गलत भी हो सकता है।
 
अन्धा-अंधे ठेलिया, दोनो कूप पड़न्त!
मुण्डकोउपनिषद १/२/८
अविद्या, अहंकार से भरे लोगों की स्थिति अंधे को अंधा रास्ता दिखाने वाली होती है।
 
गुरु का संधि-विच्छेद करने पर गु+रु अर्थात
गुरु दो शब्दों से मिलकर बनता है। 
ग्रामीण भाषा में ‘गु’ का अर्थ गन्दगी, गू आदि भी है। ‘रु’ का अर्थ अरबी भाषा में शरीर बताया है। मतलब यही हुआ कि कलयुग में जिसके तन में जितनी ज्यादा गन्दगी भरी है, वह उतना बड़ा गुरु है। यह केवल एक व्यंग्य प्रतीक है।
इसलिए कबीरदास जी वर्षों पहले 
लिख गए थे की….
फूटी आंख विवेक की,
लखे न सन्त-असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं,
ताको नाम महन्त।।
बाबा बनना अब फैशन बन गया है।
गुरु गण एक बार में हजारों लोगों को एक साथ दीक्षा दी रहे हैं। रामनाम के सहारे
दुनिया भर का ताम-झाम फैलाकर सीधे-सादे
सच्चे लोगों के साथ छल किया जा रहा है।
सुमरित सूरत जगाय कर,
मुख से कछु न बोल।
बाहर का पेट बन्द कर,
अंदर का पेट खोल।।
कबीरदास जी कहते हैं, जो चुप है वही सच्चा सन्त है, जो बोल रहा है, वो भटका रहा है।
सन्त सच्चा है, तो कहीं अन्त मिलेगा।
जरूरी नहीं कि वो दाढ़ी-मूछों में हो घुटमुण्डा हो। लेकिन सत्य की राह पर टिका मिलेगा। कहा गया है कि…
 
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय।
चाहें बोले केस रख, चाहे घोंट मुड़ाय।।
परमात्मा सत्य के साथ ही। तुम चाहो जटा बढ़ाकर बोलो या मुड़ाकर। वेश-भूषा बदलने से इंसान नहीं बदलता।
¶ गुरुता अर्थात चालाकी से भरे व्यक्ति को
भी गुरु कहते हैं।
¶ अध्यापक, उस्ताद, चालक, धूर्त, घण्टाल,
 नाई, बहुत भारी इन्हें भी गुरु कहा गया है।
¶ सिख धर्म के जिस ग्रन्थ में गुरुओं के
उपदेश हैं, उसे गरूग्रंथ साहिब और
¶ गुरु के स्थान को गुरुद्वारा कहते हैं।
¶ एक ही गुरु के शिष्य गुरुभाई कहलाते हैं।
¶ गुरुमुख से प्राप्त मन्त्र गुरुदीक्षा होती है।
¶ सात वारों में एकदिन गुरुवार का होता है।
¶ गुरुकुल में शिष्यों को शिक्षा, अनुभव
प्रयोग सिखाये जाते हैं। यह पुरानी परम्परा थी, जब आचार्यों द्वारा वेद-पुराणों का
ज्ञान कराया जाता था।
¶ गुरु के गुर्राने से, चिल्लाने से, क्रोध करने
और समझाने से दुःखी नहीं होना,
अच्छे चेले की पहचान है।
¶ सच्चा गुरु कभी….गुलदस्ता, गुलाब फूल, गुल, गुलशन आदि अर्पित करने अथवा
गुलछर्रे उड़ाने, से कृपा नहीं करता।
¶ गुरु से जुड़ने के लिए गुरुमन्त्र का
अधिक से अधिक जाप जरूरी है।
¶ गुरु की गुलामी से बड़े-बड़े गुल्म रोग तथा तन-मन आत्मा की गन्दगी मिट जाती है।
सदगुरुओं द्वारा लिखित उपनिषद-ग्रंथों
में गुरुओं की महिमा का विस्तार से
व्याख्या की गई है।
गुरु कीजै दण्डवत, 
कोटि-कोटि परनाम….
■ महेश के गुरु शेषनाग
■ विष्णुजी के गुरु महादेव
■ काल यानि समय के गुरु महाकाल
■ देवताओं के गुरु बृहस्पति,
■ दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य
■ मां पार्वती के गुरु नारद जी
■ ब्राह्मणों के गुरु सन्यासी या महादेव
■ वैश्यों के गुरु शिव-भोलेनाथ
■ गुर्जर, कमरिया जाति के गुरु श्रीकृष्ण
■ क्षत्रियों के गुरु श्रीराम
■ शूद्रों के गुरु शिव-शंकर
गुरुओं की बहुत लंबी श्रंखला है।
बस इतना ध्यान रखें कि…..
[[]] वैश्य व क्षत्रिय जाति के लोगों को कभी कर्मकांडी विद्वान गायत्री उपासक ब्राह्मण
का अपमान नहीं करना चाहिए।
[[]] गायत्री को जपने वाला ब्राह्मण भी
गुरु समान होता है।
[[]] स्त्रियों को अपने पति के अलावा अन्य किसी को गुरु नहीं मानना चाहिए।
इससे धन की हानि होती है और कभी भी
[[]] स्त्रियों को किसी के भी समक्ष साष्टांग प्रणाम नही करना चाहिए,
इससे बच्चे कष्ट में रहते हैं।
[[]] महिलाओं को कभी भी हवन में आहुति नहीं डालना चाहिए, क्यों कि इससे धन की हानि होती है और वंश नहीं चलता।
यह सब रहस्यमयी जानकारी ईश्वरीयुपनिषद में बताई गई है।
जब तक किसी प्राणी को कोई ज्ञान नहीं है, तब तक कोई भी कर्म दोषपूर्ण नहीं माना गया है, किन्तु जानने के बाद पुनः गलती करना बहुत बड़ा पाप बताया है।
 
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार!
मानुष से देवत किया, करत न लागी बार!!
अर्थात- गुरु साधारण मनुष्य को भी अपने ज्ञान से देवता, ज्ञानी बना देता है।
 
कबीरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और!
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर!!
अर्थात- वे लोग अंधे हैं, जो गुरु को ईश्वर
से छोटा मानते हैं क्योंकि भगवान के रूठने
पर, तो गुरु सहारा हैं लेकिन गुरु के नाराज होने के बाद जगत में कोई ठिकाना नहीं है।
राम रहे वन भीतरे, गुरु की पूंजी ना आस!
कहें कबीर पाखंड सब, झूठे सदा निराश!!
बिना गुरु की सेवा किये और बिना गुरुदीक्षा के जिन झूठे लोगों ने यह जान लिया कि…
राम तन में नहीं, वन में रहता है। यह सब पाखंड है। झूठे लोग परमात्मा को न खुद
ढूढ़ते हैं, न दूसरों को खोजने देते हैं।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय!
सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय!!
अर्थात– साधु और शिष्य को ईश्वर का भजन के अलावा सब मोह-माया छोड़ देना चाहिये।
गुरु घासीराम जी, जो कबीरदास के मुख्य शिष्यों में से एक हैं, इनका भी जन्म गुरुपूर्णिमा को ही हुआ था।
ये भक्तिकाल के सन्त थे।
क्या है चतुर्मास का महत्व
गुरुपूर्णिमा वर्षाऋतु के आरम्भ में आती है।
ये समय साधु-सन्यासियों, परिव्राजक के लिए चतुर्मास का समय होता है। चतुर्मास का मतलब है कि 4 पखवाड़े अर्थात 2 महीने अथवा 4 महीने तक वे एक ही स्थान पर रहकर जप-तप, अनुष्ठान करते हैं। शिष्यों के लिए यह काल गुरुचरणों में भक्ति, सेवा और ज्ञान एकत्रित करने का होता है।
मंत्रों का विज्ञान या मन्त्र का साइंस….

मन्त्र का सम्बंध मानस शास्त्र से है। मन को एकाग्र करने और चंचलता मिटाने की शब्दरूपी औषधि का नाम मन्त्र है।

मननात त्रायते यस्मात्त स्मानममंत्र: प्रकीर्त्तत:

अर्थात- ‘म’कार से मनन और ‘त्र’कार से से रक्षण यानि जिस मन्त्र के शब्द या विचारों से दुर्लभ कार्य सम्भव हों। मन से वर्ण उच्चारण का घर्षण होने से एक दिव्य ज्योति प्रकट होती है। उन्ही वर्ण अक्षर के समुदाय का नाम मन्त्र है। मन्त्र ज्ञाता गुरु या व्यक्ति सन्सार की सभी सिद्धियां पा सकता है।मन्त्र जप तल्लीन होकर ध्यान पूर्वक निश्चित संख्या करने मन्त्र अतिशीघ्र सिद्ध होता है।

जैसे !!ॐ नमःशिवाय!!  मन्त्र का ९ करोड़ जाप उत्तरायण सूर्य में जपने से शिव की एक सिद्धि प्राप्त हो जाती है यह  महाविद्वान हेमचन्द्राचार्य ने बताया है।

उत्तरायण क्या है….

भास्कर सूर्य का मकर रेखा या राशि से कर्क रेखा या राशि की तरफ गति करना। ६ महीने का समय जब सूर्यदेव मकर संक्रांति यानी मकर रेखा से चलकर बराबर उत्तर की ओर बढ़ना। उत्तरायण में देवगण जागृत अवस्था में रहते हैं। इसीलिए भीष्मपितामह ने उत्तरायण में ही प्राण त्यागे थे।उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, कृतिका नक्षत्र एवं हस्त नक्षत्र के अधिपति भी भगवान सूर्य हैं।

कुबेर का खजाना

मां इलबीडा के पुत्र कुबड़े होने के कारण कुबेर कहे जाते हैं। रावण के सौतेले भाई कुबेर अष्ट दिग्पालों में पूज्यनीय हैं। कुबेर का खजाने का स्थान उत्तर दिशा की तरफ है। गुरु जब दयादृष्टि करते हैं, तो कुबेर जैसा खजाना मिलता है। गुरु चाणक्य की कृपा से चंद्रगुप्त मौर्य महाराज बना। कुबुद्धि, कुसंगति वालों पर कभी कुबेर, कल्याणेश्वर शिव एवं गुरु की कृपा नहीं होती।

सदगुरु और शिंवलिंग में कोई अंतर नहीं….

सदगुरू में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की कायनात समाई हुई है। गुरु में सभी-देवी-देवताओं का वास माना गया है। गुरु के मस्तिष्क में मानसरोवर, नयनों में नटराज का नृत्य, नासिका में श्वांसों का नाटक, कानों में करुणा, मुख में मूलमन्त्र यानी प्रणव, कंठ में नीलकंठ, छाती में क्षेत्रपाल भैरों, ह्रदय में हजार हाथ वाला हरि और उदर में उदक यानि अमृत कुंड होता है।

केदारनाथ में उदक कुंड की प्राचीनता….

सन्सार में उदककुण्ड केवल केदारनाथ मंदिर से 200 कदम की दूरी पर स्थित है। यहां शिवालय का जल एकत्रित होता है। इसका जल घर पर रखने से वास्तु दोष, तन्त्र-मन्त्र का दुष्प्रभाव दूर होता है।

आदि गुरुओं से प्रार्थना….

भृगुर्वसिष्ठ:क्रतुरंगिराश्च, मनु पुलस्त्य:पुलहश्च गौतम:! रैभ्योमरीचिश्चयवनश्य दक्ष:, कुर्वन्तु सर्वेममसुप्रभातम !! वामन पुराण!!

अर्थात- महर्षि भृगु, वसिष्ठ, क्रतु, अङ्गिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य मरीचि, च्यवन और दक्ष आदि समस्त मुनिगण मेरे प्रातःकाल को मंगलमय करे।

गुरु ग्रह शिवालय…

गुरु ग्रह दोष निवारण के लिए दुनिया में एक मात्र सतयुगी गुरुमूर्ति दक्षिण भारत के एलनगुड़ी नामक स्थान पर हैै। यह स्थान कुम्भकोणम से 20 किलोमीटर की दूरी पर है। इस गुरूमन्दिर की १०८ परिक्रमा लगाने से जन्म-जन्म का गुरुग्रह  दोष मिट जाता है। दक्षिण भारत के प्रत्येक शिवालय में दक्षिणा मूर्ति गुरु को साष्टांग प्रणाम करके ही शिंवलिंग के दर्शन करते हैं।

गुड़गांव के प्राचीन नाम गुरुगांव था। यह गुरु द्रोणाचार्य की तप-कर्म स्थली थी।

‘उज्जनक’ गुरु आज्ञा शिंवलिंग…

नैनीताल जिले में काशीपुर के निकट है। यहां भीमाशंकर नामक ज्योतिर्लिंग है। यह शिंवलिंग नित्य-प्रतिदिन ऊपर उठता चला जा रहा है। बहुत मोटे होने के कारण इसे मोटेश्वरनाथ भी कहते हैं।

भीमा और शंकर दो ज्योतिर्लिंग हैदराबाद से विशाखापटन्नम मार्ग में दातावरम एवं कुमारावरम नामक स्थान पर भी है। एक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में भी है।

जामै ध्वनि रहे गूंज….

गूंगा भी गुरुकृपा से गीत गाने लगता है। गुरु गुप्त रूप से आत्मा में आनंद ध्वनि गुंजायमान कर देते हैं। गुरु बिन सन्सार में गुजर करना मुश्किल है।

गुरु का गुणगान…

गुरु की दयादृष्टि के लिए थोड़ी गुंजाइश और धैर्य की जरूरत है। बड़े-बड़े गुनाहगार गुरु की शरण में आकर पापमुक्त हो जाते हैं।  बाल्मीक जैसे गुंडे, डाकू होने के बाद भी गुरु की कृपा से महान सन्त हुए और रामायण जैसे महाकाव्य की रचना हो सकी।

गुरु अंधकार की गुठली निकालकर बिखरे हुए जीवन को गुथ (जोड़) सकते हैं। गुंफन यानि उलझा भरा जीवन सुलझा सकते हैं।

गुरु ही गिरे हुए को गुम्बद यानि शिखर पर पहुंचाकर गद-गद कर सकते हैं। गुरु गुइयाँ यानि मित्र भी हैं और मार्गदर्शक भी हैं। गुरु ज्ञान का गुच्छा होता है। 

गुणागार संसार पारंनतोsहम ……

गुरु गुजराती हो या गुप्त साधक। बंगाली हो या तांत्रिक इन्हें ईश्वर से बड़ा माना गया है। गुरु आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाले प्रतिनिधि हैं। गोपाला के दर्शन गुरु के सानिध्य में संभव और सहज-सरल हैं। गुरु को ज्ञान की खदान कहा जाता है।  गुरु को समझना गुड्डा-गुड़ियों का खेल नहीं है। 

गरूग्रंथ साहिब की गुरुवाणी….

गरूग्रंथ साहिब की गुरुवाणी से तन-मन के सभी अवयव, नाड़ियों को पवित्र बनाती है। गुरुवाणी को सबसे गुणकारी बताया है।

गुरुमुख से प्राप्त गुरुमन्त्र के जाप से गुणा दर गुणा वृद्धि होती है। गुरुमन्त्र भाग्य जगाने, अंधकार मिटाने, जीवन की नैया पार लगाने के लिए जरूरी है। गुरु में गुरुत्वाकर्षण शक्ति भरी होती है। गुरुगीता ग्रन्थ में गुरु को गुणालय, गुणनिधि, गुणों का भण्डार कहा गया है। गुरु ज्ञान का गंगासग होते हैं। गुस्सा शांत करने की क्षमता और मां जैसी ममता गुरु में होती है। गुरु ज्ञान से धनी होता है।

विश्व का सबसे सिद्ध और प्राचीन शिवमठ

सिद्धपीठ हथियाराम के बारे में कभी अलग से एक लेख दिया जाएगा। फिलहाल इतना समझ लें कि यहां की गुरु परम्परा लगभग 2500 वर्ष पुरानी है। वर्तमान में जो सदगुरु पीठाधीश्वर हैं वे इस गुरु परम्परा के 78 वे सिद्ध हठयोगी हैं।

देश-दुनिया में इनके सैकड़ों मठ हैं, जिसमें सबसे प्राचीन हथियाराम कैलाश मठ है। दूसरा प्राचीन मठ तिरुपति बालाजी मंदिर तिरुमलय दक्षिण भारत में है। बनारस में ही करीब 20 से अधिक पुराने सिद्ध मठ स्थित हैं।  यह बहुत ही दुर्लभ रहस्यमयी जानकारी पढ़ने के लिए–

अमृतम पत्रिका ऑनलाइन पढ़ते रहें।

आगे मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र के रहस्य भी पढ़ें

सदगुरू के प्रति समर्पण और श्रद्धा से सिद्धि-संवृद्धि का डंका बजने लगता है। गुरु के प्रति शंका रखने से सोने की लंका भी पलों में खाक होकर दरिद्रता का पंखा चल जाता है।। 

 यन्त्र क्या है-

वर्ण-अक्षर, शब्द, अंक आदि को एकाग्रता पूर्वक लिखना ही यन्त्र साधना है। यन्त्र की विस्तृत जानकारी अलग से कभी जावेगी।

तन्त्र विज्ञान का रहस्य-

इसमें ओषधियों का ज्ञान जरूरी है। जड़ीबूटियों के द्वारा कार्य सिद्ध करना तन्त्र साधना है।

अमृतम “राहुकी तेल” यन्त्र विज्ञान के अनुसार ही निर्मित है, जो राहु तथा कालसर्प-पितृदोष के प्रकोप को मिटाता है।

स्तम्भन् मोहउच्चाटम…….कर्मघाता…..(मन्त्रद्वात्रिंशिका शास्त्र)

के अनुसार मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र के द्वारा ९ प्रकार के प्रयोग किये जाते हैं।

1- स्तम्भन्, 2- मोहन, 3- उच्चाटन, 

4- वश्याकर्षण, 5- ज्रमभण, 6- विद्वेषण, 

7- मारण, 8- शांतिक और 9- पौष्टिक

श्रीमद्भागवत गीता में बताया है…

गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। गुरु मंत्र के लगातार जाप से तन-मन, मस्तिष्क का सारा गू, मल-मैला साफ हो जाता है।

बिना गुरु कृपा के गुह्मकेशर अर्थात कुबेर भी दया नहीं करता।

गुरु दत्तात्रेय का रहस्य….

गुरु दत्तात्रेय ने गूलर वृक्ष के नीचे तपस्या करके अनेकों सिद्धियां प्राप्त की थी। ज्ञात हो कि…इन्हें भगवान ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों का संयुक्त अवतार माना जाता है।

गूलर वृक्ष शुक्र ग्रह की शांति हेतु विशेष उपयोगी होता है। जिनका शुक्र ग्रह कमजोर हो या नीच राशि में हो, उन्हें गूलर वृक्ष की समिधा से हवन करने का उल्लेख जातक-परिजातएवं ग्रह-नक्षत्र शांति ग्रन्थ में बताया है। आर्थिक स्थिति मजबूत बनाने के लिए प्रत्येक शुक्रवार को 5 दीपक गूलर वृक्ष के नीचे राहुकी तेल के 12 शुक्रवार तक जलाने का विधान है।

अघोरियों का विधि-विधान.

गुप्त साधक अघोरी-अवधूत ज्येष्ठ मास में जब कभी शुक्रवार को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र पड़ता है, तो गूलर फल की माला बनाकर शिंवलिंग पर अर्पित कर धन सिद्धि पाते हैं। गढ़ा धन देखने के लिए भी गूलर फल एव पञ्चाङ्ग का विशेष उपयोग है। सम्पूर्ण जानकारी प्रथक से दी जावेगी।

वास्तु में गुरु…..

वास्तु के मुताबिक गुरु का स्थान उत्तर दिशा की तरफ बुध और केतु के बीच होता है। कुंडली में  गुरु के साथ केतु होने से गुरुचाण्डाल योग बनाता है,

ज्योतिष के आदि ग्रन्थ भृगु सहिंता के अनुसार…ऐसे लोग बहुत कलाकार और स्वार्थी होते हैं। पीठ पर करने एवं धोखा देने में यह माहिर होते हैं। जिनका अंत बहुत खराब होता है। दन्ध-फंद से इकट्ठा किया गया धन अंत में नष्ट हो जाता है। कभी-कभी इनके जीते-जी पुत्रहानि योग भी बनता है।

शिवलिंग की जलहरी या अरघा का रहस्य...

दुनिया की सम्पूर्ण आध्यत्मिक शक्तियों का वास उत्तर दिशा की तरफ है। हिमालय हो या उत्तराँचल अथवा शिंवलिंग की जलहरी उत्तर दिशा में होती है। प्राचीन काल में दिशा ज्ञान के लिए लोग शिंवलिंग का सहारा लेते थे। प्राकृतिक सौंदर्य और तीर्थों का भंडार उत्तर में ही ज्यादा हैं। धर्म से जुड़ा हरेक प्रसन्न का जबाब उत्तर दिशा में है।

कालिदास की कलाकारी.

वास्तु के विशेष वैज्ञानिक और जानकार श्री कालीदास द्वारा रचित ग्रन्थ ‘पूर्व कालामृत‘ और ‘उत्तरकालामृत‘ में लिखा है कि- अपनेे सदगुरु का चित्र हमेशा दक्षिण दिशा की दीवार पर लगाना चाहिए। गुरुमन्त्र का जप उत्तर मुखी होकर करने से जल्दी सिद्ध होता है।

गुरु ध्यान बिना नहीं मिलता

चाहें..कर लो लाख उपाय….

गुरु ध्यान में स्थिर होना, सिद्धि को पा लेना है । “सिद्धि” अर्थात सुख-सम्पन्नता, यश-कीर्ति, आकांक्षा,इच्छा अभिलाषा की पूर्णता पूर्ति गुरु के ध्यान-योग के द्वारा की जा सकती है।

गुरु ध्यान में बहुत क्षमता है… क्योंकि  वह एकाक्षी है। गुरु ध्यान से ही रामायण जैसे महाकाव्य की रचना हो सकी। गुरु का ध्यान ही काव्य को जन्म देता है  और कबीर जैसे अक्खड़, अनपढ़ को ध्यान….ज्ञान की स्वर्ण कसौटी दे जाता है। गुरु ध्यान के कारण ही मीरा प्रेम दीवानी हुई ,तो राधा…. कृष्ण की दीवानी हो गई। दोनों की भक्ति में मात्र इतना फर्क है कि… एक कृष्ण दीवानी थी, तो दूसरी प्रेम दीवानी। गुरु का ध्यान उस अमरवृक्ष के नीचे खड़ा कर देता है, जहां कुछ मांगना नहीं होता। गुरु के ध्यान से अपने आप जिज्ञासाओं के द्वार खुलकर सार्थक हो जाते हैं।  रैदास जूते सीते थे, जूते सीना गुरु ध्यान के बिना सम्भव नहीं हैं। यही गुरु ध्यान है जिससे अदना सा आदमी स्वामी,सन्यासी, सूफी, चिंतक, गुरुतेगबहादुर जी, गुरुगोविन्द सिंह एवं गुरुनानकदेव और भगवान महावीर बन जाता है।गुरु ध्यान की वजह से श्रीरामकृष्ण परमहंस स्वामी विवेकानन्द के गुरु बने। बस इतना जरूर है कि….ध्यान हो या ज्ञान- वाहेगुरुजी के बिना नहीं मिलता, चाहे लाख उपाय…कर लो

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