स्वास्थ्य के बारे में आचार्यों के विचार

ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया
अभ्यास पहली आवश्यकता है ।
दूसरी बात है —–
 
रुक गए,तो कुछ नहीं-
 
दृढ़ निश्चय-पक्का इरादा ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त”
ने अपने संस्मरणों में लिखा है—
मैंने साहित्य रचना शुरू की ।
मेरा निश्चय,दृढ़ सकंल्प था कि
मैं साहित्यकार बनूंगा,पर
मेरी कविताएं कोई छापने को
राजी न हुआ । मैंने 10 वर्षों में केवल
₹700 रुपये कमाए ।
खेती-बाड़ी,मजदूरी से घर खर्च
चलाया।
लेकिन
रचनाएं लिखता रहा और एक दिन मेरा
नाम साहित्यकारों की सूची में आ गया ।
अभ्यास और दृढ़ निश्चय से मूर्च्छा टूटकर
जागरूकता बढ़ जाती है।
इसी से
 “जिओ और जीने”
का सूत्र उपलब्ध होता है।
जो वर्तमान में जीना प्रारम्भ कर देता है,
वह अतीत के पाप की चादर
धो देता है तथा
ज्यों की त्यों धर
दीन्ही चदरिया‘ !
कबीर की इस उक्ति को सार्थक
कर देता है ।


 
वर्तमान समय में
प्राणी में अपने प्रति,
अपने दोषों के प्रति
जागरूकता का कोई भाव नहीं है।
किसी के अन्दर स्वस्थ्य रहने की
भावना का, विचारों का 
इंतकाल हो चुका है 
व्यक्ति हमेशा मूर्च्छा में जीता है, 
इस लापरवाही
के कारण तन में त्रिदोष
 (वात,पित्त,कफ) विषम हो जाते हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ ने खोजा कि
 संसार में सभी प्राणी विकार रहित आते हैं
और विकार-बीमारियों से भरकर अपना 
विनाश कर लेते हैं ।
 
क्या है त्रिदोष
अमृतम ग्रंथ आयुर्वेद में कफ,पित्त,वायु की विषमता को त्रिदोष कहते हैं ।
 
वर्तमान में जीना-
 
त्रिदोष से मुक्त होने हेतु आचार्यों ने 
निर्देश दिया है कि 
“वर्तमान में जीने का अभ्यास” 
करना चाहिए ।
यह वही व्यक्ति जी सकता है,जो अपने 
रोगों, दोषों एवं त्रिदोष के प्रति जागरूक 
रहता है।
विज्ञान का विश्वास
वर्तमान विज्ञान मानता है कि
त्रिदोष शारीरिक दोषों से
रहित तन-मन में जागरूकता का
भाव उत्पन्न होता है ।
जागरूकता की सबसे बाधा है-मूर्च्छा।
 
उपाध्याय मेघविजय
 ने इसका
शरीरशास्त्रीय कारण बताते
हुए लिखा है ——–
रक्ताधिकयेन   पित्तेन
मोहप्राकृतयोsखिला:
दर्शनावर्णम रक्त कफ 
सांकरयसम्भवम ।।
अर्थात जब रक्त में दोष आता है, 
रक्त की अधिकता औऱ पित्त 
दोनों मिल जाते हैं,
तब मोह की सारी प्रकृतियाँ 
प्रकट होने लगती हैं।
ये मुर्च्छाएँ, तब सामने आती हैं,
 जब पित्त का प्रकोप औऱ रक्त की अधिकता होती है।
मोह की जितनी प्रकृतियां हैं,
उतनी ही मुर्च्छाएँ हैं ।
जितनी वृत्तियां हैं, उतनी ही
संज्ञाएँ और आवेग हैं।
 
शरीर मनोविज्ञान ने चौदह
मौलिक वृत्तियां मानी हैं।
 
मोह–कर्म की 28 प्रकृतियां हैं ।
पंतजलि ने 5  वृत्तियां बतलायी हैं ।
दस संज्ञाएँ हैं ।
उन सबमें नामों में भेद हो सकता है,पर
मूल प्रकृति सबकी एक है ।
अमृतम आयुर्वेद के वेदाचार्य
बताते हैं—
पित्त की वृद्धि से मूर्च्छित होता हैं—
वात-वृद्धि से विवेक लुप्त होता है —
कफ वृद्धि संज्ञा को सुप्त करता है ।
हमारी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि
हम जानते सब हैं,पर प्रयोग,अभ्यास
करते कुछ नहीं ।
स्वस्थ्य रहने का दूसरा उपाय यह है कि
मन की चंचलता को कम कर
स्थिरता को बढ़ाना ।
वात,पित्त,कफ के प्रकोप को कम करना।
अमृतम आयुर्वेद के आचार्यों ने बताया कि रोग
मन द्वारा मस्तिष्क में औऱ मस्तिष्क से तन में प्रवेश करते हैं। मन के दरवाजों को खुला रखना दुःख का कारण है औऱ उन्हें बन्द कर देना सुख का साधन है।
वेदान्त में भी कहा गया है कि स्वस्थ शरीर ही संसार का सुख औऱ मोक्ष का हेतु है।
आज के वैज्ञानिकों की माने,तो हमारी सारी
बीमारी-वृत्तियों का कारण बतलातें हैं—-
ग्रंथियों का स्राव। जैसी सोच-वैसी लोच।
कुंठित विचारों से रस-रक्त नाड़ियां कड़क होकर शरीर की अवयवों व कोशिकाओं को शिथिल कर देती है ।
अच्छी सोच का प्रभाव अनेकों दुष्प्रभाव मिटाकर अभाव दूर करने में सहायक है ।
भाव पूर्ण विचार तथा
हमारा शुद्ध चरित्र ही सबसे बड़ा मित्र है जो तन को  इत्र की तरह महकाता है।

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