अष्टवर्ग युक्त च्यवनप्राश में कितनी जड़ी बूटी होती हैं!

  • अष्टवर्ग क्या होता है?..आयुर्वेद में शक्ति, आज और वीर्यवर्धक आठ तरह की जड़ीबूटियों को अष्टवर्ग बताया है। यह बुढापा आने से रोकती है। नपुंसकता मिटाने में भी अत्यन्त कामयाब है…
  • अष्टवर्गान्तर्गत जीवक तथा ऋषभक के उत्पत्ति स्थान, लक्षण, नाम तथा गुण जाने
  • इस में निम्न आठ औषधियां शामिल है :

    १. जीवक (Malaxis acuminata)

    २. ऋषभक (Malaxis muscifrea)

    ३. मेदा (Polygonatum verticillatum)

    ४. महामेदा (Polygonatum cirrhifolium)

    ५. काकोली (Roscoea purpurea)

    ६. क्षीर काकोली (Lilium polyphyllum)

    ७.ऋद्धि (Habenaria intermedia)

    ८. वृद्धि (Habenaria edgeworthii)

यह च्यवनप्राश की 8 मुख्य ओषधियाँ हैं। जिसे च्यवनप्राश बनाने वाली कम्पनियाँ अब नहीं मिलाती नहीं हैं। amrutam च्यवनप्राश अष्टवर्ग युक्त होने से बहुत महंगा है। 400 ग्राम 1899/-

  • जीवक और ऋषभक ये दोनों औषधियाँ हिमालय पर्वत के शिखर के ऊपर उत्पन्न होती है। इन दोनों के कन्द ठीक लहसुन के कन्द के समान होते हैं और ये निःसार होते हैं तथा पत्ते सूक्ष्म होते हैं।
  • उसमें जीवक का आकार कुंची के समान होता है और शुषभक बैल के सीग की भांति होता है।
  • जीवक, मधुर, नून, हस्वाल और कुर्बशीर्षक ये नाम जीवक के है तथा ऋषभ, वृषभ, धीर, विषाणी और द्राक्ष से नाम ऋषभक के हैं। ये दोनों बलकारक, शीतवीर्य, शुक्र तथा कफ के वर्धक, मधुर रसयुक्त, पित्त, दाह, रक्तदोष, कृशता, घात तथा क्षयरोग के दूर करने वाले होते हैं। [१२४-१२५]

अथ मेदामहामेदयोरुत्पत्तिलक्षणनामगुणानाह महामेदाऽभिधः कन्दो मोरङ्गादौ प्रजायते ॥१२६॥

महामेदा वनीमेदा स्यादित्युक्तं मुनीश्वरः ॥१२७॥ शुक्लाइंकनिभः कन्दो लताजातः सुपाडुरः

महामेदाभिधो ज्ञेयो मेदालक्षणमुच्यते ॥१२८॥ शुक्लकन्दो नखच्छेद्यो मेदोधातुमिव वयेत्।

यः स मेदेति विज्ञेयो जिज्ञासातत्परैजनैः ॥१२९ ॥ शल्यपर्णी मणिच्छिद्रा मेदा मेदाभवाध्यरा।

महामेदा वसुच्छिद्रा त्रिदन्ती देवतामणिः ॥१३० ॥ मेदायुर्ग गुरु स्वादु वृष्यं स्तन्यकफावहम्

बृंहणं शीतल पित्तरक्तवातज्वरप्रणुत् ॥१३१॥

  • मेदा और महामेदा के उत्पत्तिस्थान, लक्षण, नाम तथा गुण उसमें महामेदा नामक केन्द मोरह (नेपाल का दक्षिणपूर्वभाग) आदि प्रदेशों में उत्पन्न होता है।
  • महामेदा, बनीमेदा है ऐसा मुनीश्वरो ने कहा है। महामेदा लता से उत्पन्न होती है तथा इसका कन्द पारसुवर्ण का सफेद अदरख के समान होता है। ये महामेदा के लक्षण हुए।
  • अब मेदा के भी लक्षण कहते है जिसके सफेद हो तथा जिसमें नख से काटने पर मैदधात के समान एक प्रकार का रस निकलता हो उसे मेदा समझना चाहिये।

शल्यपण, मणिच्छिद्रा, मेदा, मेदोभवा और अध्वरा ये नाम मेदा के महामेदा वसुच्छिद्रा विदन्ती और देवतामणि ये नाम महामेदा के हैं।

  • दोनों प्रकार के मैदा—ये दोनों परिपाक में गुरु, स्वादिष्ट, वीर्यवर्धक, दुग्ध तथा कफ को बढ़ाने वाले, धातुवर्धक, शीतल, पित्त, रक्तसम्बन्धी दोष, वायु तथा ज्वर को दूर करने वाले होते हैं। [१२६-१३१] अथकाकोलीक्षीरकाकोल्योरुत्पत्तिलक्षण नामगुणानाह

जायते क्षीरकाकोली महामेदोद्भवस्थले ॥१३२॥

यत्र स्यात्क्षीरकाकोली काकोली त जायते।

पौवरीदृशः कन्दः सीरः प्रियगन्धवान् ||१३३।।

साप्रोक्ताक्षरीरकाकोली काकोलीलिङ्गमुच्यते । यथास्यात्क्षीरकाकोली काकोल्यपि तथा भवेत्॥१३४॥

एषा किञ्चिद्धतेत्कृष्णा भेदोऽयमुभयोरपि

काकोली वापसोली च वीरा कायस्थिका तथा ॥१३५॥

सा शुक्ला क्षीरकाकोली वयस्या क्षीरवलिका

कविता क्षीरिणी धीरा’ शीरशुक्ला पथस्थिनी॥१३६॥

काकोलीयुगलं शीत शुकलं मधुरं गुरु बृंहणं यातदाहास्त्रपित्तशोषज्वरापहम् ||१३७॥

  • अर्थात काकोली तथा क्षीरकाकोली के उत्पत्तिस्थान, लक्षण नाम तथा गुण-महामेदा के उत्पन्न होने का जहाँ स्थान है, यहाँ पर क्षीरकाकोली भी उत्पन्न होती है और जहाँ पर क्षीरकाकोली उत्पन्न होती है, यहाँ पर काकोली भी होती है। क्षौरकाकोली का कन्द पीवरी (सतावर) के समान होता है और काटने पर उसमें से दूध निकलता है तथा यह प्रिय गन्ध से युक्त होता है।
  • अब काकोली के लक्षण कहते है—जिस प्रकार की क्षीरकाकोली होती है उसी प्रकार की काकोली भी होती है। किन्तु दोनों में भेद यह है कि काकोली, क्षीरकाकोली की अपेक्षा कुछ कृष्णवर्ण की होती है।
  • काकोली, वायसोली, वीरा और कायस्थिका ये नाम काकोली के है और शुक्ला, क्षीरकाकोली, वयस्था, क्षौरवल्लिका, क्षीरिणी, धीरा, क्षीरशुक्ला और पयस्विनी ये नाम क्षीरकाकोली के हैं।
  • उक्त दोनों प्रकार की काकोली- शीतल, शुक्रवर्धक, मधुर, गुरु, बृंहण (धातुवर्धक), वात, दाह, रक्तपित्त (या रक्तदोष तथा पित्त) शोष और ज्वर की नाशक होती है। [१३२-१३७]

अथ ऋद्धिवृद्ध्योरुत्पत्तिलक्षणनामगुणानाह

ऋद्धिर्वृद्धिश कन्दौ द्वी भवतः कोशलेऽचले’। श्वेतलोमान्वितः कन्दोलताजातः सरन्ध्रकः ॥१३८॥

स एव आद्धिर्वृद्धिच भेदमप्येतयोढुंचे

तूलग्रन्धिसमा ऋद्धिर्वामावर्त्तफला चसा ॥१३९॥

वृद्धिस्तु दक्षिणावर्त्तफला प्रोक्ता महर्षिभिः।

ऋद्धिर्योग्य सिद्धिलक्ष्म्यौ वृद्धेरप्याडया इमे ॥१४०॥ ऋद्धिल्या त्रिदोषघ्नी शुक्ला मधुरा गुरुः

प्राणैश्चर्यकरी मूर्च्छारक्तपित्तविनाशिनी ॥ १४ ॥ वृद्धिगंभंप्रदा शौता बृहणी मधुरा स्मृता वृष्या पित्तास्त्रशमनी क्षतकासक्षयापहा ॥१४२॥

  • ऋद्धि तथ वृद्धि के उत्पत्तिस्थान, लक्षण नाम तथा गुण-ऋद्धि और वृद्धि ये दोनों कन्द कोशल पर्वत में उत्पन्न होते हैं। ऋद्धि का कन्द सफेद रोयें से युक्त, लता से उत्पन्न होने वाला तथा छिद्रों से युक्त होता है और वृद्धि भी इसी प्रकार की होती है, किन्तु इन दोनों का जो परस्पर भेद है।
  • ऋद्धि कपास की गाँठ के समान आकार वाली तथा बायें तरफ से आवर्त्तशील फल वाली होती है और वृद्धि-दाहिने तरफ से आवर्त्तशील फलवाली होती है ऐसा महर्षि लोग कहते हैं। उक्त दोनों प्रकार की ऋद्धि (ऋद्धि-वृद्धि) के योग्य सिद्धि और लक्ष्मी ये तीन नाम है। ऋद्धि बलकारक, त्रिदोष को दूर करने वाली होती है।
  • शुक्रवर्धक, मधुर रसयुक्त, पाक में गुरु और प्राणप्रद, ऐश्वर्यजनक एवं मूर्च्छा और रक्तपित्त का नाश करने वाली होती है। वृद्धि – गर्भप्रद, शीतल, बृंहण (धातुवर्धक), मधुर रसयुक्त, वृष्य (वीर्यवर्धक), रक्तपित्त का शमन करने वाली क्षत (उरःक्षतादिक), कास तथा क्षय को दूर करने वाली होती है। [१३८-१४२]

राज्ञामप्यष्टवर्गस्तु यतोऽयमतिदुर्लभः

तस्मादस्य प्रतिनिधि गृह्णीयात्तद्गुणं भिषक् ॥१४३॥

  • साधारण लोगों को कौन कहे अष्टवर्ग की उक्त औषधियाँ राजाओं को भी दुर्लभ है। अतः वैद्य को चाहिये कि वे इसके समान गुण वाली प्रतिनिधि औषधियों को काम में लायें (१४३)

मुख्यसदृशः = प्रतिनिधिः ॥ १४३॥

यहाँ पर ‘प्रतिनिधि’ पद का मुख्य के सदृश’ यह अर्थ समझना चाहिये [१४३]

अथाष्टवर्गस्य प्रतिनिधिमाह

मेदाजीयककाकोलीऋद्धिद्वन्द्वेऽपि चासति वरीविदार्यश्वगन्धावाराहींश्चक्रमात् क्षिपेत् ॥१४४॥

  • अष्टवर्ग की प्रतिनिधि औषधियाँ-दोनों प्रकार की मेदा, दोनों प्रकार के जीवक, दोनों प्रकार की काकोली तथा दोनों प्रकार की ऋद्धि के स्थान में क्रम से शतावर, विदारीकन्द, असगन्ध और वाराहीकन्द इन औषधियों को डालना चाहिये।

मेदामहामेदास्थाने शतावरीमूलम् ।

जीवकर्षभकस्थाने विदारीमूलम्

काकोली क्षीरकाकोलीस्थाने अश्वगन्यमूलम् ।

ऋद्धिवृद्धिस्थाने वाराहीकन्दं गुणैस्तत्तुल्यं क्षिपेत् [१४४]

  • यहाँ पर ‘मेदा और महामेदा के स्थान में सतावर का मूल, जीवक तथा ऋषभक स्थान में विदारीकन्द का मूल, काकोली तथा कीरकाकोली के स्थान में असगन्ध का मूल एवं ऋद्धि तथा वृद्धि के स्थान में वाराही कन्द को गुणों में पूर्वोक्त औषधियों के समान समझकर डालें, ऐसा समझना चाहिये।

आयुर्वेदिक विशेषज्ञ से बात करें!

अभी हमारे ऐप को डाउनलोड करें और परामर्श बुक करें!

Comments

One response to “अष्टवर्ग युक्त च्यवनप्राश में कितनी जड़ी बूटी होती हैं!”

  1. जितेन्द्र सिंह सेंगर avatar

    क्या ये शुगर फ्री है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *