मातृऋण, पितृऋण के अलावा मनुष्य ऋण भी चुकाना पड़ता है हर इंसान को..
जाने क्या होता है……मनुष्य ऋण–
हमारा पालन-पोषण करने वाले माता-पिता के अलावा अन्य मनुष्यों ने हमें प्यार दिया, दुलार दिया। समय-समय पर मित्र के रूप में हमारा मार्गदर्शन कर हमारी सहायता की। जिनके साथ हमने मस्ती मारी। वे लोग जिन्होंने ईमानदार कर्मचारी के रूप में हमारा सहयोग किया। सेवा की।
अनेक मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मदद की उनका ऋण हमारे ऊपर बना रहता है।
कुछ लोग देवरूप में मिलते हैं….
रिश्ते संवेदनाओं के साथ निभाने वाले लोग मनुष्य के रूप में देवतुल्य होते हैं। सन्सार में सारे सम्बन्ध देह के कारण ही होते हैं। मनुष्य योनि में सारी भूमिका शरीर की है।
देह के द्वारा हम दूसरे की मदद कर पाते हैं। यह सहायता ही मनुष्य ऋण कहलाती है।
रिश्तों से रिलेक्स….
शरीर से सम्बन्धों का निर्वहन करना हमारी जिम्मेदारी है। रिश्ते शरीर से बनकर शरीर से ही निभाये जाते हैं। यह देह हमें पितरों ने प्रदान की है। मतलब इस शरीर के दाता हमारे पितृ है। पितरों के जीवन में जिनका भी सहयोग रहा यह सब मनुष्य ऋण कहा गया है।
पूरे वर्ष में एक बार श्राध्द के सहारे अपने पितरों से मिला जाए क्यों कि अपनों से मिलने का आनंद ही अदभुत है। यह परमानंद असीम है।
तीन तरह के मनुष्य…..
शास्त्रों की माने, तो पितृगण तीन तरह के होते हैं। पहले वे, जो जीवन भर केवल अपने परिवार के लिए जीते हैं। ये देह, सम्पत्ति और अय्यासी, मस्ती को ही सब कुछ मानते हैं। जिनका जीवन शरीर से शुरू होकर शरीर पर ही मिट जाता है। ऐसे पितृ शरीर, धन-सम्पदा को ही सब कुछ मानते हैं इनकी एक छोटी सी दुनिया और सूक्ष्म सोच होती है।
एक तरह से अपना चप्पा, अपना नमकीन और थोड़ी सी बर्फ अर्थात मेरी बीबी, मेरे बच्चे और काम के रिश्तेदार।
अति सर्वत्र वर्जते…
दूसरे वे, जो देह को ही मिटाना चाहते हैं। नित्य न्ये प्रयोग से सिद्धियां पाकर खुद को ईश्वर के समकक्ष समझते हैं। यह लोग दिखाने के लिए देह को भी दुविधा में डालकर औरों को भी उकसाते हैं।
तीसरे वे हैं, जो ग्रहस्थ सन्सार में सबका कल्याण करके जाते हैं। ये लोग परमात्मा का अवतार होते हैं, क्योंकि ईश्वर को जन्म लेने के लिए मनुष्य का शरीर चाहिए।
ईश्वर ने मानव जीवन इसलिए दिया है कि कुछ जिम्मेदारी इंसान भी निभाये। जीवों को अन्न आदि ध्यान, प्रकृति की देखभाल हमारी ही जबाबदारी है।
मनुष्य योनि में अवतारों की उलझन….
कभी कभी सोच, चिन्ता से मुक्त करने वाले भी सोच में पड़ जाते हैं। शेषनाग अवतार
श्री लक्षमण को जब शक्ति लगी, तो बजरंग बली को ओषधि लाने में बिलंब हो गया, तब तुलसीदास ने लिखा है कि-
बहु विधि सोचत, सोच विमोचन।
स्रवत सलिल राजीव दल लोचन।।
अर्थात सोच से छुड़ाने वाले ही जब सोच में हैं, तो अब संसार का क्या होगा।
हालांकि कथावाचक समझने का प्रयास नहीं कर रहे कि भगवान राम परम शिवभक्त थे और प्रतिदिन पार्थिवाचन करते थे। शिव ही उनके लिए सब थे। यदि राम सूर्यवंशी थे, तो भविष्यपुराण के सूर्यशान्ति कल्प अनुसार सूर्य देव भी शिव के ही परम उपासक है।
कब किसका करें श्राध्द…
@ नवमीं को उन सुहागिन महिलाओं का श्राध्द करें, जिनकी मृत्यु पति के सामने हो गई हो।
परिवार की सभी पितृ-पूर्वज महिलाओं के लिए यह तिथि अत्यंत महत्वपूर्ण है।
@ एकादशी तिथि को उन लोगों का श्राध्द करें, जो घर-द्वार छोड़कर सन्यासी हो गए थे।
@ त्रयोदशी का श्राध्द कम उम्र में जो बच्चे मृत्यु को प्राप्त हो चुके हों।
@ कृष्ण चतुर्दशी को परिवार के उन लोगों का श्राध्द करना चाहिए, जिनकी मृत्यु किसी अस्त्र-शस्त्र के द्वारा हुई हो अथवा घर में किसी ने आत्महत्या या आत्मदाह किया हो, किसी दुर्घटना में हुई हो। इस तिथि में अकाल मृत्यु से मृत आत्माओं की शान्ति हेतु श्राध्द किया जाता है।
@ श्राध्द के अंतिम दिन या तिथि को सर्वमोक्ष अमावस्या कहते हैं। इस दिन सभी ज्ञात-अज्ञात पितरों, पितृमातृकाएँ, मातृमातृकाएँ या जिनका इन 15 दिनों में श्राध्द करना भूल गए हों अथवा जिनकी मरण तिथि अज्ञात हो उनका श्राध्द 27 नक्षत्रों के 27 दीपक राहुुु
की तेल के जलाकर करना चाहिए।
अगले लेख में जाने चौथा ऋषिऋण
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