शहतूत एक फल है, इसके पत्तो को रेशम के कीड़े बहुत खाते हैं। यह ज्वरनाशक एवं विरेचक होता है…

अथ तूतः ( सहतूत )। तस्य नामानि तत्पक्कापक्कफलगुणांचाह !!

  • तूतस्तूलश्च पूगश्च क्रमुको ब्रह्मदारु च।
  • तूत्तं पक्कं गुरु स्वादु हिमं पित्तानिलायहम्॥
  • तदेवाम गुरु सरमम्लोष्णं रक्तपित्तकृत् ॥ १० ॥
  • शहतूत या तूत के अन्य नाम ….हिंदी०-सहतूत, तूत। शाहतूत । बंगाली०-तूत । मराठी०-तूते। गुजगत०-शेतूर। तेलगु०-पुतिका । तामिल०कम्बली।
  • फारसी०-शाह तूत, तूनतुशं।
  • अरबी०-तूत, तूद हामोज।
  • अं०-Mulberry ( मलबेरी)।
  • ले.Morus indica Griff. (मोरस् इण्डिका)।
  • Fam. Moraceae ( मोरेसी)। तूत-भासाम, बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश आदि प्रान्तों में उत्पन्न होता है तथा बागों में लगाया भी जाता है।
  • शहतूत की दो-तीन जातियां होती हैं जिनके पत्ते आदि एक समान होते हैं। इसके पत्ते को रेशम के कीड़े बड़े चाव से खाते हैं। इसलिए रेशम के कीड़े पालने वाले प्रायः इसका वृक्ष रोपण कर रखते हैं।
  • (बिहार की बनस्पतियां, पृष्ठ १२३) ।
    • शहतूत के फायदे, गुण और प्रयोग-शहतुत का रस दाहशामक, पिपासाहर एवं कुछ कफन है। इसका ज्वर में प्रयोग करते हैं।
  • शहतूत की छाल कृमिघ्न तथा विरेचक होती है। इसके पत्तों के काथ से स्वर भंग में में गण्डूष कराते हैं । इसकी जड़ कृमिघ्न तश ग्राही होती है । फलस्वरस २ से ५ तोला मात्रा-श्वककाथ ५ से १० तोला;
  • शहतूत या सहतूत के संस्कृत नाम-तूत, तूल, पूग, क्रमुक तथा ब्रह्मदारु ये सब हैं।
  • सहतूत के पके फल-स्वादिष्ट, गुरु, शीतल एवम्-पित्त तथा वात के नाशक होते हैं।
  • यदि कच्चे फल हों तो वे-अम्ल रसयुक्त, उष्ण, पाक में गुरु एवम्-रक्तपित्त को उत्पन्न करने वाले होते हैं।
  • शहतूत का वृत्त-मध्यमाकार का होता है।
  • शहतूत के पत्ते-२ से ५ इन लम्बे, २-३ चौड़े, अंडाकार, अञ्जीर के पत्तों के समान कटे हुए होते हैं।
  • शहतूत के फूल-मंजरियों में आते हैं।
  • इनमें से एक के फल पीताम श्वेत एवं मीठे तथा दूसरे के मधुराम्ल एवं रक्ताम कृष्ण होते हैं । वन्य तथा ग्राम्य भेद से भी इसके भेद होते हैं।
  • इसकी एक जाति मो० लिविगेटा ( M. laevigata. Vall. ) सिक्किम की. तराई में वन्य अवस्था में मिलती है, जिसका नेपाली नाम किमू या किम्बू होता है।
  • शहतूत के पर्याय में क्रमुक आया है और क्रमुक से लोग पूग ( सुपाड़ी ) का ग्रहण करते हैं किन्तु चार कोक्त चार त्वगासव योनि वृक्षों में क्रमुक के स्थान पर पूग का ग्रहण उचित नहीं जान पड़ता। वहां तो क्रमुक से कोई ऐसी छाल अभिप्रेत है जिसमें अन्य द्रव्यों के समान रेचन गुण हो। इन आधारों पर श्री ठा० बलवन्तसिंहजी ने चरकोक्त त्वगासवयोनि वृक्षों में के क्रमुक को पूग न मानकर इस तुद के भेद को माना है ।

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