काहू सौ न बैर भाव। यही अघोरियो का मूल मंत्र है-

अघोरियों के बारे में प्रामाणिक और रहस्यमयी दुर्लभ जानकारी पहली बार
अघोरियों का सिद्धि सूत्र है – प्राणायाम
 
अघोरी साधु श्वांस-प्रश्वांस की प्रक्रिया
में दक्ष होते है। दरअसल यह साँस लेने
और छोड़ने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
इससे अघोरी शरीर के एक-एक तन्त्र
को वश में करके रसायनिक परिवर्तन
कर किसी भी वस्तु या पदार्थ के प्रति
अपना नजरिया सम कर लेते हैं।
कहने को तो श्वांस-प्रश्वांस की यह
क्रिया देखने-समझने में, तो बहुत सरल
लगती है, किंतु यह अत्यंत जटिल है।
कैसे बनते हैं अघोरी-
जो घोर या कट्टर न हो। किसी वस्तु को
ग्रहण करने में इन्हें कोई घृणा नहीं होती,
चाहें वो मल-मूत्र, गन्दगी हो। अघोरी लोग
शिव की कठोर साधना के फलस्वरूप
अपनी इंद्रियों में रसायनिक परिवर्तन कर लेते हैं।
श्वेताश्वतरोउपनिषद (३-५) 
में अघोरी को भगवान शिव का रूप माना गया है। अघोर का अर्थ मंगलमयी, सबका
कल्याण करने वाला कहा गया है।
पांच मुख वाले महादेव का एक मुहं
अघोर का भी है। इनका अघोर मन्त्र
      !!ॐ अघोरेभ्यो अघोरेभ्यो नमः!!
का जप करने से टोना-टोटका, जादू, करा-धरा
ज्वर, बार-बार होने वाली बीमारियों से राहत
मिलती है।
शिव के सिवाय कछु और न सुहात है-
 अघोरी मन की सीमा के पार है, तभी, तो वह
अघोरी है। मन एवं तन पर इनका पूर्ण
अंकुश हो जाता है। अघोरी का अर्थ है परम संतुलन। ये शिव की कठोर साधना के
लिए जाने जाते हैं।
जिद्दी होते हैं- अघोरी
अघोरी का कोई रूप नहीं होता, ये किसी
रूप में, किसी भी स्थान पर, घने वन, जंगल
में मिल सकते हैं। कभी-कभी अघोरी
सदगुरू के आदेशानुसार भिक्षाटन के
लिए भी निकलते हैं।
अघोरियों को उसकी वेशभूषा से नहीं टटोलना चाहिए। ये शिव के अघोर रूप की साधना से सिद्धियां प्राप्त करते हैं।
 
अघोरी ज्यादातर बहुत जिद्दी होते हैं।
अपने रहस्य किसी को भी नहीं बताते।
इन्हें शिव के सहस्त्र नाम यानि 1000 
नामों से शिंवलिंग पर कुछ भी वस्तु अर्पित करने में बहुत आननद आता है। यदि 
अघोरी के पास कुछ भी
चढ़ाने को नहीं होता, तो ये अघोरी
कंकड़-पत्थर ही 1000  अर्पित कर देते हैं।सरल होने पर शिव से मिलवा देते हैं।
अघोरियों को भगवान शिव के ध्यान और प्राणायाम में बहुत आनंद आता है।
जीवन का नित्य-नया आयाम-प्राणायाम
सिद्ध अघोरी बताते हैं –
प्राणायाम के परिणामों से व्यक्ति को
 दुःख,-दुर्भाव,अभाव,कष्ट,
 भय-भ्रम,चिन्ता,
 रोग-विकार, गरीबी आदि
का ध्यान नहीं रहता।
प्राणायाम की इस आदिकालीन इस परम्परा को प्राचीन ज्ञान, आधुनिक विज्ञान
और
मनोविज्ञान भी मानता है ।
प्राणायाम के प्रताप से
परमसत्ता परमात्मा को पाने वाले
परमहँस योगिराज भोले के भक्त
श्री श्री सुन्दरदास जी” ने
महादेव की भक्ति में मद-मस्त
होकर कहा है कि-
काहू सौ न रोष-तोष,
काहू सौ न राग द्वेष।
काहू सौ न बैर भाव,
काहू की न घात है।।
काहू सौ न बकबाद,
काहू सौ न विषाद।
काहू सौ न सँग न,
तो कोई पक्षपात है।।
काहू सौ न दुष्ट वैन,
काहू सौ न लेंन-देंन।
‘शिव’ को विचार कछु,
और न सुहात है”।।
अर्थात
हे भोलेनाथ,हे सदाशिव
नित्य प्राणायाम से मेरे
मन-मस्तिष्क में
दूसरे के प्रति कोई दुःख-संताप
राग-द्वेष,बैर-भाव और
विश्वाशघात करने की
भावना पूर्णतः नष्ट हो गई है।
अब किसी से ज्यादा बातचीत
अथवा वाद-विवाद
मुँह वाद करने का
मन नहीं होता।
मुझे एकांत व तेरा साथ ही
अच्छा लगता है। न किसी के संग
रहना, न किसी का पक्षपात करने की
इच्छा होती है।
मेरे लिए दुष्ट या भले लोग
सब बराबर हैं।
मुझे तेरे के अलावा कुछ भी,
किसी से लेना-देना नहीं है ।
हे महादेव, 
तुम्हीं मेरे लिए सब कुछ हो।
मुझे तुम्हारे अलावा कुछ भी
नहीं सुहाता। कोई और मेरे
मन को नहीं भाता।
अघोरियों की गुरु दीक्षा, गुरु मंत्र,
साधना स्थल अगले ब्लॉग में
मङ्गल दोष की स्थाई शान्ति
के लिए पिछले ब्लॉग पढ़े
 
अमृतम मासिक पत्रिका
अक्टूबर 2014 के 
“अघोर विशेषांक” से साभार

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