हे भगवान सूर्य!… इस धरा पर आपका स्वागत है।

शिवलिंग स्वरूप सूर्य हमारी तरह ही भीषण संघर्ष करते हुए, किरणों का नन्हा सा प्रकाश देकर जगत की सर्वात्माओं को ज्योतिर्मय करता है।

सम्पूर्ण सृष्टि आदित्य देवता की ऋणी है। सूर्य को ही हर जीव का आत्मा बताया है।
सदियों से सदाशिव भोलेनाथ से समस्त साधु संत, शिवयोगी सदियों से प्रार्थनारत हैं कि -भगवान शिव के प्रतिनिधि….हे सुर्यदेवता!
हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो।
संसार को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
सभी को मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो अर्थात मुक्ति, मोक्ष प्रदान करो।
यह अभयारोह पवमान मन्त्र बृहदारण्यकोपनिषद् १.३.२८ में उपलब्ध है। इसे मूलतः सोम यज्ञ की स्तुति में यजमान द्वारा गाया जाता है –
ॐ असतो मा सद्गमय!
तमसो मा ज्योतिर्गमय!
मृत्योर्मामृतं गमय!!
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः!!
रोज, हां हर रोज।
-रोज होता है यही कि सूर्य की पहली किरण निकलती है, निकलते ही हमें चेतावनी देती है और जब तक रहती है, संसार को चलायमान रखती है।
 -सूर्य की पहली किरण को हम अर्घ देते हैं उनके स्वागत के लिए? ……नहीं, अर्घ देते हैं इसलिए कि आये हो, हे प्रकाशपुंज!
 हमारे द्वारे, तो कुछ पल हमारी आत्मा को भी प्रकाशित करो।
 आओ ठहरो, हमारे भीतर समाहित हो जाओ, ऊर्जा के हे महास्त्रोत!
 समाहित होकर शक्ति दो और इतनी, कि जितनी हमारे शरीर को चाहिए। –
अर्थ हुआ हे सूर्य!….आओ, बैटरी की तरह इस जीव जगत को चार्ज कर दो और चले जाओ।
सदाबहार हम तुम्हें ठहरने नहीं देंगे। स्तम्भन तो दो, हे सूर्य स्तब्ध मत करो हमें! जाओ अपने घर तुम आये जहां से थे, जाओ!
-सूर्य आये और चला गये। – अपने घर से तब चंद्रमा प्रथ्वी पीआर उतरे!…
 -चांद ने दरवाजे खोले और श्वेत चादर बिछाकर सो गये। -हमने उसका भी स्वागत किया, आओ चांद तुम्हारा भी स्वागत है।
हे चंद्र! आओ सबके मन मस्तिष्क को शीतल कर दो, ऊष्मा ऊष्मा वह भर गया जो सूर्य,
….. सूर्य जो छोड़ गया थकान !
-हमने अभ्यर्थना की थकान देनेवाले सूर्य की। -अभ्यर्थना की हमने शीतलता भरनेवाले चंद्र की।
चांद को लेकर प्रेम के दीये जलाये और हजारों, लाखों प्रेम गाथाओं को हमने जन्म दिया।
-गाथाएं तो जनमती रहीं परंतु हम भी नयी-नयी गाथाएं, लिखने से बाज नहीं आये।
 खेलते रहे मन के कारक चंद्रमा से,  खेलते रहे चांद की चांदनी से। अंततः थकान से चूर हम अंधेरे में चले गये और द्वार पर खड़े चांद से परदा कर लिया। – फिर चांद अपने घर चला गया।
पुनः प्रातः-फिर सूर्य अपने द्वार खोलकर आंगन में बिछ गया। -यही कहानी है हमारी जिंदगी की।
लाओत्सु ने कहा था : मैं सम्राट नहीं हूं और न मेरे मन में जीतने की कोई आकांक्षा है।
-जीतने की आकांक्षा से परे व्यक्ति के लिए क्या चांद और क्या सूरज। द्वंद हीन व्यक्ति वह स्वयं चांद भी है और सूरज भी।
-संभवतः हमने इसीलिए कहा था कभी।
-‘आत्म देवो भव‘। करो नहीं भरोसा किसी पर।
-किसी पर यानी कल पर भी नहीं।
-कल है कहां? बताओ तो कल है कहां?
-कल कभी नहीं आता क्योंकि समय का हर स्पंदन कल का भक्षण है। -कल में जीने की इच्छा करते हैं जो और कुल के स्वागत के लिए अंबार बिछाते हैं जो, छलते हैं वे अपने को, अपने विवेक को।
सम्राट विक्रमाआदित्य के बारे में कहा जाता है कि वह अपार संपत्ति और वैभव का धनी था लेकिन वह हमेशा कहता रहा, ‘यह सब उतना सुंदर नहीं है जितना लिलि का फूल ।’
-कितने हैं जो सोचते हैं यह कि लिलि हो, या नरगिस, रातरानी हो, मोंगरा हो या कमल- ये सब आज के साथ हैं, हर क्षण जीते हैं, सोचते नहीं कल क्या है?
कल कब आएगा ? कल आता भी है या मात्र कल्पना का तेजो महाशिवालय है कि एक जानवर है, जो अंधेरे में मुंह फाड़ता है और आग उगलता है।
-हम सब भटकते हुए मार्ग के मृगचारी हिरण हैं, सब भटके हुए हैं और उस भटकन को ही सिद्धि- सफलता का रास्ता मानते हैं।
दुनिया का अधिकांश आदमी ध्यान जेसी महान चीज को छोड़कर धन जैसी तुच्छ वेजुबान वस्तुओं में उलझा हुआ है। धन ही आरंभ से अंत तक विवाद की वजह है।
– संसार की भटकनभरी पाठशाला का पहाड़ा बहुत उलझा हुआ है। जो भटकता है वही तो उलझता है।
-संसार उलझेगा तो हम उलझेंगे, हमारी जिंदगी उलझेगी। उलझन से बाहर आना है, तो कई मिथ्या भ्रमों को समझना होगा।
 -अत्यंत सहज भ्रम है कि रात चुप रहती है। सत्य तो यह है कि रात स्वयं एक संगीत है। संगीत के सभी रागों का जन्म रात में हुआ है।
 -एक रात और सैकड़ों संगीत। -एक रात और हजारों संगीत।
 – एक रात और उसका बस एक साथी ! -एक रात का एक साथी – दीया या दीपक। -दीपक ही तो, और कुछ नहीं।
– जिंदगी लंबी हो या सिकुड़ी, साथी मात्र एक दीपक होता है।- एक दीपक जलता है तो सैकड़ों को आत्मा की भीतरी दीवारों में वह सैकड़ों दीपक जला जाता है।
-जला जाता नहीं है, उनके साथ जलता भी है ।
-चांद चला गया।
-सूरज भागता फिरा।
– दीपक जो जला उसने कल के भ्रम को आज में बदल दिया। – तब रात सोयी नहीं। रात मुसकराती रही और संगीत के स्वर नानाविध अंगों में फूटते रहे।
“-अंधेरा गहरा है, बहुत गहरा, लेकिन हम प्रतीक्षा करते हैं: यह बहुत अंधेरा आये तो ?
-आ गया साल में एक बार।
-एक साल, एक रात और एक अंधेरे की हम प्रतीक्षा करते हैं। -प्रतीक्षा करते हैं हम, कई भ्रम पालकर।
यही दीपावली की घनघोर रात्रि है, जिसे अनगिनत दीप जलाकर सूर्य को प्रकाश दिखाने का हठ करते हैं। लेकिन आत्मा का अंधेरा जहां की तहां ही विद्यमान रहता है।
ही कोई धन समृद्धि की प्रतीक्षा करता है:
आदमी – पृथ्वी की सत्ता का स्वामी है -समझ, नाश-विनाश हो, या निर्माण हो, धर्म है आदमी।
 -आदमी है जो देखता है, तो कहता भी है। -आदमी है जो बनाता है तो बिगाड़ता भी है। -आदमी है जो धरती के जन्म-परख में खड़ा होकर ज्वालामुखी-सा फूटता है और झरने-सा झरता भी है।
-आदमी की परख का दिन है दीपावली -आदमी के हाथों की चिनगारियों, फटाके के सुलगने और स्वरों के प्रस्फुटन का की रात्रि है दीपो की अवली
आज यानी हमारे देश में जिसे दीवाली कहते हैं। – दीपों को जलाकर, दीपदान कर गहन अंधकारमय धरा का जो वरण करता है और आने-न-आने वाले सभी क्षणों को वहीं, ‘आज’ की सार्थकता में बदल देता है।
– तो आइए, आदमी होने की इस उपलब्धि पर हम एक दीपक जला दें इस घोर अंधकार में।
– दीपक जला दें और हर्ष-विमर्श और आनंद के अतिरेक में अपने को पागल बनाकर भोग के स्वामी बनें।
अंधकार के स्वामी न कि हमने उन्हें भी भोगा है। -भोग के स्वामी इसलिए कि भोगता है मात्र आदमी।
– दीपक जलाता है वही और दीपक जलता भी है उसी के लिए
-भीड़भरे आदमी की छंटनी होती है जब तब उसी में कोई निकलते हैं जो घटते बढ़ते हैं स्वयं दीपक बन जलते रहते हैं।
– इस विलक्षण दीप पर्व पर एक दीपक हमारा भी, हमारा भी एक दीपक, इस विश्वास के साथ कि वह सदा बाहर जलता रहेगा।
नये दीपक ‘आज’ के ‘अभी के’ इस दीपक के सहभागी बनने के लिए श्रमशील होंगे। -प्रणाम लो, अंधकार के बीच चलने वाले प्रकाश के हे पुंज – दीप! जलते रहें हम बिना सांस के मोहताज हम तुम्हारी तरह, हे दीपक! ‘आत्म दीपो भव ।’

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