पित्त का प्रकोप | Pitta ka Prakop

पित्त का प्रकोप | Pitta ka Prakop

आयुर्वेद ही अमृत है

पित्त की पीड़ा से उभरने
तथा रग-रग में रोगों को
रीता करने हेतु अमृतम
आयुर्वेदिक शास्त्रों में
अनेकानेक व नेक
उपाय बताएं हैं।

इन्हें नेकनीयती से
अपनाकर अपना भविष्य
सवांर सकते है।

इस ब्लॉग में पित्त दोषों के बारे
में बताया जा रहा है। इसे निरन्तर
दिया जाएगा। यह लेख
10 से 20 हिस्सों में हो सकता है।

भोजन हेतु आयुर्वेद का नियम है

@ सुबह भर पेट
@ दिन में आधा पेट और
@ रात्रि में ज्यादा लेट होने पर
प्लेट त्याग,
खाने का गेट बन्द
करने से व्यक्ति का फेट
नहीं बढ़ता,वह ग्रेट होकर,
निरोग रहकर
100 वर्ष जीता है।

यह ज्ञान पुराने समय के स्कूलों
में स्लेट पर लिखकर दिया जाता था।

अब नेट के कारण इन पूर्व परम्पराओं

का कोई रेट या महत्व नहीं रह गया।

जैन मत “तन को तपाने” वाला धर्म है।
जैन धर्म के आचार्यों,मुनियों का
मानना है कि स्वस्थ्य व्यक्ति ही
अस्त (मोक्ष) का अधिकारी है।

ईश्वर ने जैसा हमें इस पृथ्वी पर
स्वस्थ्य भेजा है,वैसा ही हमें
वापस जाना चाहिए।

एक बार रोग-राग या
दाग लग गया,
तो बहुत मुश्किल होगी।

आचार्य जी कहते हैं

लागा चुनरी में दाग
मिटाऊं कैसे,
छिपाऊं कैसे ।

रोग भी एक बार लगा,
तो वह मिटता नहीं है।
छुपता नहीं है।

जैन धर्म में सूर्यास्त के बाद
खाने की मनाही है।
आचार्यश्री विद्यासागर जी
का कथन है-

“खाने और जमाने”

को जिसने भी पचा लिया वही
स्वस्थ्य रह सकता है।
आदमी को चार आने-आठाने
के अलावा
पार जाने पर भी विचार
करना चाहिए।

सिद्ध पुरुष मात्र खाने पर ही अंकुश रखने से
वे सिद्धियों के सम्राट बन जाते हैं।

तिरुपति बालाजी
से सटा दुनिया का सबसे प्राचीन मठ

श्री हथियाराम मठ के पीठाधीश्वर

श्रीश्री 1008 सद्गुरु श्री भवानी नन्दन यति

जी महाराज एक हठयोगी हैं।
अनेकों बार ये 5 से 7 दिन के लिए
अन्न-जल त्याग देते हैं।

वे कहते हैं, उदर खाली होने से ही
विकारों की नाली बन्द होती है।
थाली छोड़कर ही हम काली को
पा सकते हैं।

तन और तालाब

जैन आचार्यों ने तन और तालाब
के तारतम्य में समझाया है कि
“यदि तुम तालाब को साफ रखना चाहते
हो, उसमें जमे हुए कीचड़ को निकालना
चाहते हो,तो सबसे पहले उस तालाब
में गंदा पानी लाने वाले नालों को रोको,
बन्द करो ।

जब तक ये नाले बन्द नहीं करोगे,
तब,तक सफाई का कोई अर्थ नहीं होगा ।
इधर से सफाई करोगे और उधर से फिर
गन्दगी आ जाएगी ।

क्यों होता है पित्त का प्रकोप

तन को भी तरोताज़ा,
स्वस्थ्य-तंदरुस्त रखने के लिये
श्री जैन धर्म के आचार्यों ने निर्देश
दिया है कि मन को प्रसन्न रखने के लिये

विचारों में विकारों
का आगमन न होने दो।
नकारात्मक व निगेटिव सोच

तन को तबाह
कर देती है।
इसे हर हाल में रोकना चाहिए।

दुर्भाव — स्वभाव को खराब कर देता है।
द्वेषपूर्ण भाव से हमें ताव (क्रोध) आता

है फिर,
ताव से, तनाव- तन की नाव

डुबाकर हमारे अंदर अभाव
उत्पन्न होता है।

हर्बल चिकित्सा ग्रंथों में बताया
गया है कि
द्वेष-दुर्भावना से

पित्त के प्रकोप की
संभावना बढ़ जाती है।

यही शरीर को रोगग्रस्त करने वाली,
गन्दगी फैलाने वाली कीचड़ है।
पित्त की शान्ति हेतु एक बार
3 माह तक जिओ माल्ट
का उपयोग अवश्य करें।

पित्त के पढ़ना जारी रखें
शेष आगे और बाकी है

[best_selling_products]

आयुर्वेदिक विशेषज्ञ से बात करें!

अभी हमारे ऐप को डाउनलोड करें और परामर्श बुक करें!


Posted

in

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *